श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 1404 मानहि ब्रहमादिक रुद्रादिक काल का कालु निरंजन जचना ॥ गुर प्रसादि पाईऐ परमारथु सतसंगति सेती मनु खचना ॥ कीआ खेलु बड मेलु तमासा वाहगुरू तेरी सभ रचना ॥३॥१३॥४२॥ पद्अर्थ: मानहि = सेवा करते हैं, मानते हैं। जचना = माँगते हैं, याचना (करते हैं)। गुर प्रसादि = हे गुरु! तेरी कृपा से, तू गुरु की कृपा से। परमारथु = ऊँची पदवी। सेती = साथ। खचना = जुड़ जाता है। अर्थ: हे गुरु! ब्रहमा और रुद्र (शिव) आदि (तुझे) मानते हैं (तुझे सेवते हैं), तू काल का भी काल है, (तू) माया से रहित (हरि) है, (सब लोक तुझसे) माँगते हैं। हे गुरु! तेरी ही कृपा से ऊँची पदवी मिलती है, और सत्संग में मन जुड़ जाता है। हे गुरु! तू धन्य है, यह रचना तेरी ही है, (तत्वों का) मेल (कर के) तूने ये तमाशा और खेल रचा दिया है।3।13।42। इन उपरोक्त 42 सवईयों का वेरवा इस प्रकार है; पहले 13 सवईए भाट कलसहार के। अगले 16 सवईए भाट नल्य के। आखिरी 13 सवईए गयंद के। जोड़– 42.
अगमु अनंतु अनादि आदि जिसु कोइ न जाणै ॥ सिव बिरंचि धरि ध्यानु नितहि जिसु बेदु बखाणै ॥ पद्अर्थ: अगमु = अगम्य (पहुँच से परे)। अनंतु = बेअंत। अनादि = (अन+आदि) जिसका आदि मिल नहीं सकता। आदि = शुरुवात। बिरंचि = ब्रहमा। नितहि = नित्य, सदा। बखाणै = बयान करता है। अर्थ: जो अकाल पुरख अगम्य (पहुँच से परे) है, अनंत है, अनादि है, जिसका आरम्भ कोई नहीं जानता, जिसका ध्यान सदा शिव और ब्रहमा धर रहे हैं और जिसके (गुणों) को वेद वर्णन कर रहा है। निरंकारु निरवैरु अवरु नही दूसर कोई ॥ भंजन गड़्हण समथु तरण तारण प्रभु सोई ॥ पद्अर्थ: भंजन गढ़ण समथु = जीवों को नाश और पैदा करने के समर्थ। तरण तारण = तैरने के लिए जहाज। तरण = जहाज। अर्थ: वह अकाल पुरख आकार-रहित है, वैर-रहित है, कोई और उसके समान नहीं है, वह जीवों को पैदा करने और मारने की ताकत रखने वाला है, वह प्रभु (जीवों को संसार-सागर से) तैराने के लिए जहाज है। नाना प्रकार जिनि जगु कीओ जनु मथुरा रसना रसै ॥ स्री सति नामु करता पुरखु गुर रामदास चितह बसै ॥१॥ पद्अर्थ: नाना प्रकार = कई तरह का। जिनि = जिस (अकाल पुरख) ने। रसना रसै = जीभ से (उसको) जपता है। गुर रामदास चितह = गुरु रामदास के हृदय में। अर्थ: जिस अकाल-पुरख ने कई तरह के जगत को रचा है, उसको दास मथुरा जीभ से जपता है। वही सतिनामु करता पुरख गुरु रामदास जी के हृदय में बसता है।1। गुरू समरथु गहि करीआ ध्रुव बुधि सुमति सम्हारन कउ ॥ फुनि ध्रम धुजा फहरंति सदा अघ पुंज तरंग निवारन कउ ॥ पद्अर्थ: गहि करीआ = पकड़ लिया है (भाव, शरण ली है)। ध्रुव = अडोल। सुमति = अच्छी मति, सद् बद्धि। समारन कउ = संभालने के लिए, प्राप्त करने के लिए। ध्रंम धुजा = धर्म का झण्डा। फहरंति = झूल रहा है। अघ = पाप। पुंज = समूह, ढेर। तरंग = लहरें। अर्थ: जिस समर्थ गुरु का धर्म का झण्डा सदा झूल रहा है, मैंने उसकी शरण ली है; (क्यों?) अडोल बुद्धि और ऊँची मति पाने के लिए, और पापों के पुँज और तरंग (अपने अंदर से) दूर करने के लिए। मथुरा जन जानि कही जीअ साचु सु अउर कछू न बिचारन कउ ॥ हरि नामु बोहिथु बडौ कलि मै भव सागर पारि उतारन कउ ॥२॥ पद्अर्थ: जानि कही जीअ = हृदय में सोच के कही है। बिचारन कउ = विचारने योग्य बात। अउर कछू = और कोई बात। बोहिथु = जहाज। कलि मै = कलिजुग में। अर्थ: दास मथुरा ने हृदय में सोच-समझ के ये सच कहा है, इसके बिना कोई और विचारने-योग्य बात नहीं है, कि संसार-सागर से पार उतारने के लिए हरि का नाम ही कलजुग में बड़ा जहाज है (और वह नाम समर्थ गुरु से मिलता है)।2। संतत ही सतसंगति संग सुरंग रते जसु गावत है ॥ ध्रम पंथु धरिओ धरनीधर आपि रहे लिव धारि न धावत है ॥ पद्अर्थ: संतत ही = सदा ही, एक रस (संतत = always)। सतसंगति संग = सत्संग में। धरिओ = स्थापित है। धरनीधर = धरती का आसरा, अकाल-पुरख। लिव धारि = तवज्जो टिका के। न धावत है = भटकते नहीं। अर्थ: (यह सतिगुरु वाला) धर्म का राह धरती के आसरे हरि ने स्वयं चलाया है। (जिस मनुष्यों ने इसमें) तवज्जो जोड़ी है और (जो) सदा एक-रस सत्संग में (जुड़ के) सुंदर रंग में रंगे जा के हरि का यश गाते हैं, (वे किसी और तरफ) भटकते नहीं फिरते। मथुरा भनि भाग भले उन्ह के मन इछत ही फल पावत है ॥ रवि के सुत को तिन्ह त्रासु कहा जु चरंन गुरू चितु लावत है ॥३॥ पद्अर्थ: भनि = कह। उन्ह के = उन मनुष्यों के। मन इछत फल = मन भावित फल। रवि के सुत को = धर्म राज का। त्रासु = डर। कहा = कहाँ? रवि = सूरज। सुत = पुत्र। जु = जो लोग। रविसुत = धर्मराज। अर्थ: हे मथुरा! कह: ‘जो मनुष्य गुरु (रामदास जी) के चरणों में मन जोड़ते हैं, उनके भाग्य अच्छे हैं, वे मन-भाते फल पाते हैं, उनको धर्म-राज का डर कहाँ रहता है? (बिल्कुल नहीं रहता)।3। निरमल नामु सुधा परपूरन सबद तरंग प्रगटित दिन आगरु ॥ गहिर ग्मभीरु अथाह अति बड सुभरु सदा सभ बिधि रतनागरु ॥ पद्अर्थ: सुधा = अमृत। परपूरन = भरा हुआ (सरोवर)। तरंग = लहरें। दिन आगरु = अमृत वेला। गहिर = गहरा। सुभरु = नाको नाक भरा हुआ। रतनागर = रत्नों का खजाना (रतन आकार = रत्नों की खान)। अर्थ: (गुरु रामदास एक ऐसा सरोवर है जिस में परमात्मा का) पवित्र नाम-अमृत भरा हुआ है (उसमें) अमृत वेला में शब्द की लहरें उठती हैं, (यह सरोवर) बड़ा गहरा गंभीर और अथाह है, सदा नाको-नाक भरा रहता है और सब तरह के रत्नों का खजाना है। संत मराल करहि कंतूहल तिन जम त्रास मिटिओ दुख कागरु ॥ कलजुग दुरत दूरि करबे कउ दरसनु गुरू सगल सुख सागरु ॥४॥ पद्अर्थ: मराल = हंस। कंतूहल = कलोल। दुख कागरु = दुखों का कागज़ (भाव, लेखा)। जम त्रास = जमों का डर। दुरत = पाप। करबे कउ = करने के लिए। सगल सुख सागरु = सारे सुखों का समुंदर। अर्थ: (उस सरोवर में) संत-हंस कलोल करते हैं, उनका जमों का डर और दुखों का लेखा मिट गया है। कलिजुग के पाप दूर करने के लिए सतिगुरु का दर्शन सारे सुखों का समुंदर है।4। जा कउ मुनि ध्यानु धरै फिरत सगल जुग कबहु क कोऊ पावै आतम प्रगास कउ ॥ बेद बाणी सहित बिरंचि जसु गावै जा को सिव मुनि गहि न तजात कबिलास कंउ ॥ पद्अर्थ: जा कउ = जिस (के दर्शन) की खातिर। धरै = धरता है। फिरत सगल जुग = सारे जुगों में भटकता। कबहु क = कभी, किसी विरले समय में। आतम प्रगास = अंदर का प्रकाश। बिरंचि = (विरंचि) ब्रहमा। गहि = पकड़ के। न तजात = नहीं छोड़ता। कबिलास = कैलाश पर्वत। अर्थ: सारे जुगों में भटकता हुआ कोई मुनि जिस (हरि) की खातिर ध्यान धरता है, और कभी ही उसको अंदर का प्रकाश मिलता है, जिस हरि का यश ब्रहमा वेदों की वाणी समेत गाता है, और जिस में समाधि लगा के शिव कैलाश पर्वत नहीं छोड़ता। जा कौ जोगी जती सिध साधिक अनेक तप जटा जूट भेख कीए फिरत उदास कउ ॥ सु तिनि सतिगुरि सुख भाइ क्रिपा धारी जीअ नाम की बडाई दई गुर रामदास कउ ॥५॥ पद्अर्थ: जा कौ = जा कउ, जिसकी खातिर। उदास कउ = उदास को (धारण करके)। सु तिनि सतिगुरि = उस हरि रूप गुरु (अमरदास जी) ने। सुख भाइ = सुभाय। जीअ = जीवों पर। तिनि = उसने। सतिगुरि = सतिगुरु ने। अर्थ: जिस (का दर्शन करने) के लिए अनेक जोगी, जती, सिद्ध और साधिक तप करते हैं और जटा-जूट रह के उदास-भेस धार के फिरते हैं, उस (हरि-रूप) गुरु (अमरदास जी) ने सहज स्वभाव जीवों पर कृपा की और गुरु रामदास जी को हरि-नाम की बडिआई बख्शी।5। नामु निधानु धिआन अंतरगति तेज पुंज तिहु लोग प्रगासे ॥ देखत दरसु भटकि भ्रमु भजत दुख परहरि सुख सहज बिगासे ॥ पद्अर्थ: धिआन = ध्यान। अंतरगति = अंदर की ओर, अंतरमुख। तिहु लोग = तीनों लोगों में। प्रगासे = चमका। भटकि = भटक के। भजत = भाग जाता है, दूर हो जाता है। परहरि = दूर हो के। सहज = आत्मिक अडोलता। बिगसे = प्रकट होते हैं। अर्थ: (गुरु रामदास जी के पास) नाम-रूप खजाना है, (आप की) अंतरमुखी रुचि है, (आप के) तेज का पुँज तीनों लोकों में चमक रहा है, (आप के) दर्शन करके (दर्शन करने वालों का) भ्रम भटक के भाग जाता है, और (उनके) दुख दूर हो के (उनके अंदर) आत्मिक अडोलता के सुख प्रकट हो जाते हैं। सेवक सिख सदा अति लुभित अलि समूह जिउ कुसम सुबासे ॥ बिद्यमान गुरि आपि थप्यउ थिरु साचउ तखतु गुरू रामदासै ॥६॥ पद्अर्थ: लुभित = चाहवान, लोभी। अलि समूह = शहद की मक्खियों का समूह। कुसम = फूल। बिद्यमान = प्रत्यक्ष। गुरि = गुरु (अमरदास जी ने)। गुरू रामदासै = गुरु रामदास जी का। अर्थ: सेवक और सिख सदा (गुरु रामदास जी के चरणों के) आशिक हैं, जैसे भौरे फूलों की वासना के। प्रत्यक्ष गुरु (अमरदास जी) ने स्वयं ही गुरु रामदास जी का सच्चा तख़्त निष्चल टिका दिया है। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |