श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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तार्यउ संसारु माया मद मोहित अम्रित नामु दीअउ समरथु ॥ फुनि कीरतिवंत सदा सुख स्मपति रिधि अरु सिधि न छोडइ सथु ॥

पद्अर्थ: मद = अहंकार। सथु = साथ। कीरति = शोभा। संपति = सम्पक्ति, धन। अंम्रित = अमृत, आत्मिक जीवन देने वाला।

अर्थ: (गुरु रामदास जी ने) माया के मद में मोहे हुए सेसार का उद्धार किया है, (आप ने जीवों को) सामर्थ्य वाला अमृत नाम बख्शा है, आप सदा सुख, धन और शोभा के मालिक हैं, रिद्धी और सिद्धी आपका साथ नहीं छोड़ती।

दानि बडौ अतिवंतु महाबलि सेवकि दासि कहिओ इहु तथु ॥ ताहि कहा परवाह काहू की जा कै बसीसि धरिओ गुरि हथु ॥७॥४९॥

पद्अर्थ: दानि = दानी। अतिवंतु = अत्यंत। सेवक दासि = सेवक दास (मथुरा) ने। कहिओ = कहा है। तथु = सच। ताहि = उस (मनुष्य) को। कहा = कहाँ? बसीसि = सिर पर। गुरि = गुरु ने।

अर्थ: (गुरु रामदास) बड़ा दानी है और अत्यंत महाबली है, सेवक दास (मथुरा) ने यह सच कहा है। जिसके सिर पर गुरु (रामदास जी) ने हाथ रखा है, उसको किसी की क्या परवाह है?।7।49।

भाट मथुरा के 7 सवईऐ।

तीनि भवन भरपूरि रहिओ सोई ॥ अपन सरसु कीअउ न जगत कोई ॥ आपुन आपु आप ही उपायउ ॥ सुरि नर असुर अंतु नही पायउ ॥

पद्अर्थ: भरपूरि रहिओ = व्यापक है। सोई = वह अकाल पुरख। सहसु = सदृष्य, जैसा। आपुन आप = अपना आप। उपायउ = पैदा किया। सुरि = देवते। नर = मनुष्य। असुर = दैत्य। आप ही = खुद ही।

अर्थ: (जो) अकाल-पुरख स्वयं ही तीनों भवनों में व्यापक है, जगत का कोई दूसरा जीव (जिसने) अपने जैसा पैदा नहीं किया, अपना आप (जिसने) आप ही पैदा किया है, देवते, मनुष्य, दैत्य, किसी ने (जिसका) अंत नहीं पाया।

पायउ नही अंतु सुरे असुरह नर गण गंध्रब खोजंत फिरे ॥ अबिनासी अचलु अजोनी स्मभउ पुरखोतमु अपार परे ॥

पद्अर्थ: संभउ = (स्वयंभुं) अपने आप से प्रकट होने वाला।

अर्थ: देवते, दैत्य, मनुष्य, गण, गंधर्व- सब जिसको खोजते फिरते हैं, (किसी ने जिसका) अंत नहीं पाया, जो अकाल-पुरख अविनाशी है, अडोल है, जूनियों से रहित है, अपने आप से प्रकट हुआ है, उत्तम पुरख है और बहुत बेअंत है।

करण कारण समरथु सदा सोई सरब जीअ मनि ध्याइयउ ॥ स्री गुर रामदास जयो जय जग महि तै हरि परम पदु पाइयउ ॥१॥

पद्अर्थ: करण = जगत। करण कारण = सृष्टि का मूल। सरब जीअ = सारे जीवों ने। मनि = मन में। जयो जय = जै जैकार हो रही है। महि = जगत में। हरि परम पदु = (उपरोक्त) हरि की ऊँची पदवी।

अर्थ: (जो) हरि सृष्टि का मूल है, (जो) स्वयं ही सदा समर्थ है, सारे जीवों ने (जिसको) मन में स्मरण किया है, हे गुरु रामदास जी! (आपकी) जगत में जै-जैकार हो रही है कि आप ने ऊँची पदवी पा ली है।1।

सतिगुरि नानकि भगति करी इक मनि तनु मनु धनु गोबिंद दीअउ ॥ अंगदि अनंत मूरति निज धारी अगम ग्यानि रसि रस्यउ हीअउ ॥

पद्अर्थ: सतिगुरि नानकि = सतिगुरु नानक ने। इक मनि = एकाग्र मन हो के। दीअउ = अर्पण कर दिया। अंगदि = अंगद ने। अनंत मूरति = बेअंत आकारों वाला, सरगुण हरि। निज धारी = अपने अंदर धारण की। अगम ग्यानि = अगम हरि के ज्ञान से। रसि = प्रेम में। रस्यउ = रस गया, भीग गया। हीअउ = (गुरु अंगद जी का) हृदय। अगम = अगम्य (पहुँच से परे)।

अर्थ: गुरु नानक देव जी ने एक-मन हो के भक्ति की, और (अपना) तन-मन-धन गोबिंद को अर्पित कर दिया। (गुरु) अंगद (साहिब जी) ने ‘अनंत मूरति’ हरि को अपने अंदर टिकाया, अगम्य (पहुँच से परे) हरि के ज्ञान की इनायत से आपका हृदय प्रेम में भीग गया।

गुरि अमरदासि करतारु कीअउ वसि वाहु वाहु करि ध्याइयउ ॥ स्री गुर रामदास जयो जय जग महि तै हरि परम पदु पाइयउ ॥२॥

पद्अर्थ: गुरि अमरदासि = गुरु अमरदास (जी) ने। वसि = वश में। वाहु वाहु करि = ‘तू धन्य है, तू धन्य है’ कह के। परम = सबसे ऊँचा। पदु = दर्जा। हरि परम पदु = प्रभु (के मिलाप) का सबसे ऊँचा दर्जा।

अर्थ: गुरु अमरदास जी ने कर्तार को अपने वश में किया। ‘तू धन्य है, तू धन्य है’ - ये कह के आप ने कर्तार को स्मरण किया। हे गुरु रामदास जी! आप की भी जगत में जय-जयकार हो रही है, आप ने अकाल-पुरख के मिलाप का सबसे ऊँचा दर्जा हासिल कर लिया है।2।

नारदु ध्रू प्रहलादु सुदामा पुब भगत हरि के जु गणं ॥ अ्मबरीकु जयदेव त्रिलोचनु नामा अवरु कबीरु भणं ॥ तिन कौ अवतारु भयउ कलि भिंतरि जसु जगत्र परि छाइयउ ॥ स्री गुर रामदास जयो जय जग महि तै हरि परम पदु पाइयउ ॥३॥

पद्अर्थ: पुब = पूर्बले (जुगों के)। गणं = गिने जाते हैं। अवरु = और अन्य। भणं = कहे जाते हैं। अवतारु = जनम। कलि भिंतरि = कलिजुग में। छाइयउ = बिखरा है।

अर्थ: नारद, धु्रव, प्रहलाद, सुदामा और अंबरीक- जो हरि के पूर्बले जुगों के भक्त गिने जाते हैं; जैदेव, त्रिलोचन, नामा और कबीर, जिनका जनम कलियुग में हुआ है; इन सभी का यश जगत में (हरि का भक्त होने के कारण ही) पसरा हुआ है। हे गुरु रामदास जी! आप जी की भी जय-जयकार जगत में हो रही है, कि आप ने हरि (के मिलाप) की परम पदवी पाई है।3।

मनसा करि सिमरंत तुझै नर कामु क्रोधु मिटिअउ जु तिणं ॥ बाचा करि सिमरंत तुझै तिन्ह दुखु दरिद्रु मिटयउ जु खिणं ॥

पद्अर्थ: मनसा = मन की रुचि। तिणं = उनका। बाचा = वचन। खिंणं = छिन में।

अर्थ: जो मनुष्य (हे सतिगुरु!) तुझे मन जोड़ के स्मरण करते हैं, उनका काम और क्रोध मिट जाता है। जो जीव आप को वचनों द्वारा (भाव, जीभ से) स्मरण करते हैं, उनका दुख और दरिद्र छिन में दूर हो जाता है।

करम करि तुअ दरस परस पारस सर बल्य भट जसु गाइयउ ॥ स्री गुर रामदास जयो जय जग महि तै हरि परम पदु पाइयउ ॥४॥

पद्अर्थ: करम करि = कर्मों द्वारा (भाव, शरीर की इंद्रिय बरत के)। पारस सर = (वह) पारस समान (हो जाते हैं)। सर = बराबर, जैसे। तुअ = तव, तेरा।

अर्थ: हे गुरु रामदास जी! बल्य भाट (आप का) यश गाता है (और कहता है कि) जो मनुष्य आप के दर्शन शारीरिक इन्द्रियों से परसते हैं, वे पारस समान हो जाते हैं। हे गुरु रामदास जी! आप की जय-जयकार जगत में हो रही है कि आपने हरि की उच्च पदवी पा ली है।4।

जिह सतिगुर सिमरंत नयन के तिमर मिटहि खिनु ॥ जिह सतिगुर सिमरंथि रिदै हरि नामु दिनो दिनु ॥

पद्अर्थ: नयन = नेत्र, आँखें। तिमर = अंधेरा। रिदै = हृदय में।

अर्थ: जिस गुरु का स्मरण करने से, आँखों का अंधेरा छिन में मिट जाता है, जिस गुरु का स्मरण करने से हृदय में हरि का नाम दिनो-दिन (ज्यादा पैदा होता है);

जिह सतिगुर सिमरंथि जीअ की तपति मिटावै ॥ जिह सतिगुर सिमरंथि रिधि सिधि नव निधि पावै ॥

अर्थ: जिस गुरु को स्मरण करने से (जीव) हृदय की तपश को मिटाता है, जिस गुरु को याद करके (जीव) रिद्धियां-सिद्धियां और नौ-निधियां पा लेता है;

सोई रामदासु गुरु बल्य भणि मिलि संगति धंनि धंनि करहु ॥ जिह सतिगुर लगि प्रभु पाईऐ सो सतिगुरु सिमरहु नरहु ॥५॥५४॥

पद्अर्थ: भणि = कह। लगि = (चरणों में) लग के। नरहु = हे मनुष्यो!

अर्थ: हे बल्य (कवि!) कह: हे जनो! जिस गुरु रामदास के चरणों में लग के प्रभु को मिलते हैं, उस गुरु को स्मरण करो और संगति में मिल के उसको कहो- ‘तू धन्य है, तू धन्य है’।5।54।

जिनि सबदु कमाइ परम पदु पाइओ सेवा करत न छोडिओ पासु ॥ ता ते गउहरु ग्यान प्रगटु उजीआरउ दुख दरिद्र अंध्यार को नासु ॥

पद्अर्थ: जिनि = जिस (गुरु रामदास जी) ने। पासु = पासा, साथ। ता ते = उस (गुरु रामदास जी) से। गउहरु = मोती (के जैसा उज्जवल)। ग्यान उजीआरउ = ज्ञान की रौशनी। अंध्यार = अंधेरा। को = का।

अर्थ: जिस (गुरु रामदास जी) ने शब्द को कमा के ऊँची पदवी पाई, और (गुरु अमरदास जी की) सेवा करते हुए साथ नहीं छोड़ा, उस (गुरु) से मोती-वत् उज्जवल ज्ञान का प्रकाश प्रकट हुआ, और दरिद्रता व अंधकार का नाश हो गया।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh