श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 1410 ੴ सति नामु करता पुरखु निरभउ निरवैरु सलोक वारां ते वधीक ॥ महला १ ॥ उतंगी पैओहरी गहिरी ग्मभीरी ॥ ससुड़ि सुहीआ किव करी निवणु न जाइ थणी ॥ गचु जि लगा गिड़वड़ी सखीए धउलहरी ॥ से भी ढहदे डिठु मै मुंध न गरबु थणी ॥१॥ नोट: सलोक वारां ते वधीक–‘वारों’ (में दर्ज होने) से बढ़े हुए सलोक। नोट: श्री गुरु ग्रंथ साहिब में कुल 22 वारें हैं। गुरु नानक देव जी गुरु अमरदास जी और गुरु रामदास साहिब जी की रची हुई ‘वारें’ पहले सिर्फ ‘पउड़ियों’ का संग्रह थीं। जब गुरु अरजुन साहिब ने सारी वाणी को रागों के अनुसार अब वाली तरतीब दी, तो उन्होंने ‘वार’ की हरेक पउड़ी के साथ कम से कम दो-दो मिलते-जुलते भाव वाले सलोक दर्ज कर दिए। जो सलोक बढ़ गए, वह सतिगुरु जी ने श्री गुरु ग्रंथ साहिब के आखिर में ‘सलोक वारां ते वधीक’ के शीर्षक तहत दर्ज कर दिए। पद्अर्थ: ते = से। उतंगी = (उत्तुंग = Lofty, high, tall) लंबी, लंबे कद वाली। पैओहरी = (पयस् = दूध। पयोधर = थन) थनों वाली, भरी जवानी में पहुँची हुई। गहीरी = गहरी, मगन। गंभीरी = गंभीर स्वभाव वाली। गहिरी गंभीरी = माण में मती हुई, मस्त चाल वाली। ससुड़ी = ससुड़ी को, सास को। सुहीआ = नमस्कार। किव = कैसे? करी = करीं, मैं करूँ। थणी = थनों के कारण, भरी हुई छाती के कारण। गचु = चूने का पलस्तर। जि धउलहरी = जिस धौलरों को, जिस पक्के महलों को। गिड़वड़ी धउलहरी = पहाड़ों जैसे पक्के महलों को! सखीए = हे सखी! से = वह (बहुवचन)। डिठु = देखे हैं। मुंध = हे मुंध! (मुगधा = A young girl attractive by her youthful simplicity) हे भोली जवान कन्या! न गरबु = अहंकार ना कर। थणी = थनों के कारण, जवानी के कारण।1। अर्थ: ऊँचे लंबे कद वाली, भरी जवानी में पहुँची हुई, माण में मस्त हुई मस्त चाल वाली (अपनी सहेली को कहती है: हे सहेलिए!) भरी हुई छाती के कारण मुझसे झुका नहीं जाता। (बता,) मैं (अपनी) सास को नमस्कार कैसे करूँ? (कैसे माथा टेकूँ?)। (आगे से सहेली उक्तर देती है:) हे सहेलिए! (इस) भरी हुई जवानी के कारण अहंकार ना कर (इस जवानी को जाते देर नहीं लगनी। देख,) जो पहाड़ों जैसे पक्के महलों को चूने का पलस्तर लगा होता था, वह (पक्के महल) भी गिरते मैंने देख लिए हैं (तेरी जवानी की तो कोई बिसात ही नहीं है)।1। सुणि मुंधे हरणाखीए गूड़ा वैणु अपारु ॥ पहिला वसतु सिञाणि कै तां कीचै वापारु ॥ दोही दिचै दुरजना मित्रां कूं जैकारु ॥ जितु दोही सजण मिलनि लहु मुंधे वीचारु ॥ तनु मनु दीजै सजणा ऐसा हसणु सारु ॥ तिस सउ नेहु न कीचई जि दिसै चलणहारु ॥ नानक जिन्ही इव करि बुझिआ तिन्हा विटहु कुरबाणु ॥२॥ पद्अर्थ: हरणाखीए = (हिरण+अखीए) हिरन सी आँखों वालीए! हे मृगनयनी! हे सुंदर नेत्रों वाली! मुंधे = हे भोली जवान कन्या! गूढ़ा = गहरा, भेद भरा। अपारु = बहुत। वैणु = वचन, बोल। कीचै = करना चाहिए। दोही = दुहाई, रब की दोहाई, प्रभु की महिमा की दुहाई। दिचै = देनी चाहिए। दुरजना = (कामादिक) दुष्टों (को निकालने के लिए)। कूँ = की खातिर। जैकारु = प्रभु की जैकार, प्रभु की महिमा। मित्रां कूं = भले गुणों की खातिर। जितु दोही = जिस दोहाई से, जिस रूहानी महिमा से। मिलनि = मिलते हैं। लहु वीचारु = (उस दोहाई को) मन में बसाए रख। दीजै = देना चाहिए। हसणु = खुशी, आनंद। सारु = श्रेष्ठ। सउ = साथ। न कीचई = नहीं करना चाहिए। नेहु = प्यार, मोह। जि = जो। चलणहारु = नाशवान। इव करि = इस तरह, इस तरीके से। विटहु = से।2। अर्थ: हे सुंदर नेत्रों वाली भोली जवान कन्या! (हे जगत-रचना में से सोहणी जीव-सि्त्रऐ!) मेरी एक बहुत गहरी भेद की बात सुन। (जब कोई चीज़ खरीदने लगें, तो) पहले (उस) चीज़ को परख के तब उसका व्च्यापार करना चाहिए (तभी वह खरीदनी चाहिए)। हे भोली जवान कन्या! (कामादिक विकार आत्मिक जीवन के वैरी हैं, इन) दुष्टों को (अंदर से निकाल भगाने के लिए प्रभु की महिमा की) दुहाई देते रहना चाहिए (भले गुण आत्मिक जीवन के असल मित्र हैं, इन) मित्रों के साथ की खातिर (परमात्मा की) महिमा करते रहना चाहिए। हे भोलीऐ! जिस दोहाई की इनायत से ये सज्जन मिले रहें, (उस दोहाई की) विचार को (अपने अंदर) संभाल के रख। (इन) सज्जनों (के मिलाप) की खातिर अपना तन अपना मन भेट कर देना चाहिए (अपने मन और अपनी इन्द्रियों की नीच प्रेरणा से बचे रहना चाहिए) (इस तरह एक) ऐसा (आत्मिक) आनंद पैदा होता है (जो अन्य सारी खुशियों से श्रेष्ठ होता है)। हे भोलिऐ! (ये जगत-पसारा) नाशवान दिख रहा है; इससे मोह नहीं करना चाहिए। हे नानक! (कह:) जिस (भाग्यशालियों ने) (आत्मिक जीवन के भेद को) इस तरह समझा है मैं उन पर से सदके (जाता हूँ)।2। जे तूं तारू पाणि ताहू पुछु तिड़ंन्ह कल ॥ ताहू खरे सुजाण वंञा एन्ही कपरी ॥३॥ पद्अर्थ: पाणि = पानी। तारू पाणि = पानी का तैराक (बनना चाहे)। ताहू = उनको। कल = कला, हुनर, तरीका। तिड़ंन्ह कल = तैरने की कला। ताहू = वह (मनुष्य) ही। खरे सुजाण = असल सयाने। एनी कपरी = एनी कपरीं, इन लहरों में से। वंञा = मैं लांघ सकता हूँ, मैं गुजरता हूँ।3। अर्थ: हे भाई! अगर तू (संसार-समुंदर के) पानियों का तैराक (बनना चाहता है), (तो तैरने की विधि) उनसे पूछ (जिनको इस संसार-समुंदर में से) पार लांघ जाने का सलीका है। हे भाई! वह मनुष्य असल समझदार (तैराक हैं, जो संसार-समुंदर की इन विकारों की लहरों में से पार लांघते हैं)। मैं (भी उनकी संगति में ही) इन लहरों से पार लांघ सकता हूँ।3। झड़ झखड़ ओहाड़ लहरी वहनि लखेसरी ॥ सतिगुर सिउ आलाइ बेड़े डुबणि नाहि भउ ॥४॥ पद्अर्थ: ओहाड़ = बाढ़। लहरी लखेसरी = (विकारों की) लाखों ही लहरें। वहनि = बहती हैं, चल रही हैं। सिउ = साथ, पास। आलाइ = पुकार कर। डुबणि = डूबने में। भउ = डर, खतरा। अर्थ: हे भाई! (इस संसार-समुंदर में विकारों की) झड़ियां (लगीं हुई हैं, विकारों के) झक्खड़ (झूल रहे हैं, विकारों की) बाढ़ (आ रही हैं, विकारों की) लाखों लहरें उठ रही हैं। (अगर तू अपनी जिंदगी की बेड़ी को बचाना चाहता है, तो) गुरु के पास पुकार कर (इस तरह तेरी जीवन-) नईया का (इस संसार-समुंदर में) डूब जाने का कोई खतरा नहीं रह जाएगा।4। नानक दुनीआ कैसी होई ॥ सालकु मितु न रहिओ कोई ॥ भाई बंधी हेतु चुकाइआ ॥ दुनीआ कारणि दीनु गवाइआ ॥५॥ पद्अर्थ: सालकु = सच्चा संत जो खुद जपे और-और लोगों को जपाए, सही जीवन-राह बताने वाला। मितु = मित्र। भाई बंधी = भाईयों सम्बन्धियों (के मोह में फस के)। हेतु = (परमात्मा का) प्यार। चुकाइआ = चुकाया, समाप्त कर दिया है। कारणि = की खातिर, वास्ते। दीनु = धरम, आत्मिक जीवन की संपत्ति।5। अर्थ: हे नानक! दुनिया (की लुकाई) अजब नीचली तरफ जा रही है। सही जीवन-रास्ता बताने वाले मित्र कहीं कोई मिलते नहीं। भाईयों-सम्बन्धियों के मोह में फंस के (मनुष्य परमात्मा का) प्यार (अपने अंदर से खत्म किए बैठा है) दुनिया (की माया) की खातिर आत्मिक जीवन की संपत्ति गवाए जा रहा है।5। है है करि कै ओहि करेनि ॥ गल्हा पिटनि सिरु खोहेनि ॥ नाउ लैनि अरु करनि समाइ ॥ नानक तिन बलिहारै जाइ ॥६॥ पद्अर्थ: है है = हाय हाय। करि कै = कह कह के। ओहि करेनि = ‘ओए ओए’ करती हैं। पिटनि = पीटती हैं, रोती हैं। खोहेनि = (पागलों की तरह सिर के बालों को) खींचती हैं। नाउ = (परमात्मा का) नाम। लैनि = लेते हैं, लेती हैं। अरु = और। समाइ = समाई, शांति। करनि समाइ = समाई करते हैं, शांति करते हैं, भाणा मानते हैं। जाइ = जाता है। नानक जाइ = नानक जाता है।6। अर्थ: हे भाई! (किसी प्यारे सम्बन्धि के मरने पर औरतें) ‘हाय-हाय’ कह: कह के ‘ओय ओय’ करती हैं (मुँह से कहती हैं। अपनी) गालों को पीटती हैं (अपने) सिर (के बाल) खींचती हैं (यह बहुत ही बुरा काम है)। हे भाई! जो प्राणी (ऐसे सदमे के समय भी परमात्मा का) नाम जपते हैं, और (परमात्मा की) रज़ा को मानते हैं, नानक उनके सदके जाता है।6। रे मन डीगि न डोलीऐ सीधै मारगि धाउ ॥ पाछै बाघु डरावणो आगै अगनि तलाउ ॥ सहसै जीअरा परि रहिओ मा कउ अवरु न ढंगु ॥ नानक गुरमुखि छुटीऐ हरि प्रीतम सिउ संगु ॥७॥ पद्अर्थ: डीगि = टेढ़े (रास्ते) पर। न डोलीऐ = डोलना नहीं चाहिए, भटकना नहीं चाहिए। सीधै मारगि = सीधे रास्ते पर। धाउ = दौड़। पाछै = इस जगत में। बाघु = बघियाड़, (आत्मिक जीवन को खा जाने वाला) बाघ, आत्मिक मौत। डरावणो = भयानक। आगै = अगले आ रहे समय में, परलोक में। अगनि तलाउ = आग का तालाब, पानी की आग/दावानल। सहसै = सहम में। जीअरा = जिंद। परि रहिओ = पड़ा रहता है। मा कउ = मुझे। अवरु = कोई (और)। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ के। छुटीऐ = बचा जा सकता है। सिउ = साथ। संगु = साथ, प्यार।7। अर्थ: हे मन! (विकारों-भरे) टेढ़े (जीवन-) राह पर नहीं भटकते फिरना चाहिए। हे मन! सीधे (जीवन-) राह पर दौड़। (टेढ़े रास्ते पर चलने से) इस लोक में भयानक आत्मिक मौत (आत्मिक जीवन को खाए जाती है, और) आगे परलोक में जठराग्नि के बवंडर में (डुबो लेती है भाव, जनम-मरण का चक्र ग्रस लेता है)। (टेढ़े रास्ते पर चलने से हर वक्त यह) जिंद सहम में पड़ी रहती है। हे मन! (इस टेढ़े रास्ते से बचने के लिए गुरु की शरण के बिना) मुझे कोई और तरीका नहीं सूझता। हे नानक! गुरु की शरण पड़ कर (ही इस टेढ़े रास्ते से) बचा जा सकता है, और प्रीतम प्रभु का साथ बन सकता है।7। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |