श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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सतिगुरू न सेविओ सबदु न रखिओ उर धारि ॥ धिगु तिना का जीविआ कितु आए संसारि ॥ गुरमती भउ मनि पवै तां हरि रसि लगै पिआरि ॥ नाउ मिलै धुरि लिखिआ जन नानक पारि उतारि ॥१३॥

पद्अर्थ: न सेविओ = आसरा ना लिया। उर = हृदय। धारि = टिका के। धिगु = धिक्कार योग्य। कितु = किस काम के लिए? संसारि = संसार में। मनि = मन में। हरि रसि = हरि के रस में। हरि पिआरि = हरि के प्यार में। धुरि = धुर दरगाह से। लिखिआ = किए कर्मों के लेखों अनुसार। पारि उतारि = पार उतारे, पार लंघा लेता है।13।

अर्थ: हे भाई! (जिस मनुष्यों ने कभी) गुरु का आसरा नहीं लिया, जिन्होंने गुरु का शब्द (कभी अपने) हृदय में टिका के नहीं रखा, वे किस लिए जगत में आए? उनका जीवन-समय धिक्कार-योग्य ही रहता है (वह सारी उम्र वैसे ही काम करते रहते हैं, जिनसे जगत में उनको धिक्कारें ही पड़ती रहती हैं)।

हे भाई! जब गुरु की मति पर चल के (मनुष्य के) मन में (परमात्मा का) डर-अदब टिकता है, तब वह परमात्मा के प्यार में परमात्मा के मेल-आनंद में जुड़ता है। पर, हे नानक! हरि-नाम धुर दरगाह से किए कर्मों के संस्कारों के लेख अनुसार ही मिलता है, और, यह नाम (मनुष्य को संसार-समुंदर से) पार लंघा लेता है।13।

माइआ मोहि जगु भरमिआ घरु मुसै खबरि न होइ ॥ काम क्रोधि मनु हिरि लइआ मनमुख अंधा लोइ ॥ गिआन खड़ग पंच दूत संघारे गुरमति जागै सोइ ॥ नाम रतनु परगासिआ मनु तनु निरमलु होइ ॥ नामहीन नकटे फिरहि बिनु नावै बहि रोइ ॥ नानक जो धुरि करतै लिखिआ सु मेटि न सकै कोइ ॥१४॥

पद्अर्थ: मोहि = मोह में (फस के), मोह के कारण। भरमिआ = भटकता फिरता है। घरु = (हृदय-) घर। मुसै = लूटा जाता है। खबरि = सूझ। क्रोधि = क्रोध ने। हिरि लइआ = चुरा लिया होता है। मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य। लोइ = जगत में। गिआन = आत्मिक जीवन की सुझ। खड़ग = तलवार। पंच दूत = (कामादिक) पाँच वैरी। संघारे = मार लिए। जागै = सचेत रहता है। परगासिआ = चमक पड़ता है। नकटे = नाक कटे। बहि रोइ = बैठ के रोता है। धुरि = धुर दरगाह से। करतै = कर्तार ने।14।

अर्थ: हे भाई! माया के मोह के कारण जगत भटकता फिरता है, (जीव का हृदय-) घर (आत्मिक संपत्ति) लूटी जाती है (पर जीव को) यह पता ही नहीं लगता। अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य जगत में (आत्मिक जीवन की सूझ के प्रति) अंधा हुआ रहता है, काम ने क्रोध ने (उसके) मन को चुरा लिया होता है।

हे भाई! (जो मनुष्य) आत्मिक जीवन की सूझ की तलवार (पकड़ के कामादिक) पाँच वैरियों को मार लेता है, वह ही गुरु की मति की इनायत से (माया के हमलों से) सचेत रहता है। (उसके अंदर) परमात्मा के नाम का रतन चमक पड़ता है, उसका मन उसका तन पवित्र हो जाता है।

पर, हे भाई! नाम से वंचित मनुष्य बे-शर्मों की तरह चले-फिरते हैं। नाम से टूटा हुआ मनुष्य बैठ के रोता रहता है (सदा दुखी रहता है)। हे नानक! (कर्तार की रज़ा यूँ ही होती है कि नाम-हीन प्राणी दुखी रहे, सो) कर्तार ने जो कुछ धुर दरगाह से यह लेख लिख दिया है, इसको कोई मिटा नहीं सकता (उल्टा नहीं सकता)।14।

गुरमुखा हरि धनु खटिआ गुर कै सबदि वीचारि ॥ नामु पदारथु पाइआ अतुट भरे भंडार ॥ हरि गुण बाणी उचरहि अंतु न पारावारु ॥ नानक सभ कारण करता करै वेखै सिरजनहारु ॥१५॥

पद्अर्थ: गुरमुखा = गुरु के सन्मुख रहने वाले मनुष्यों ने। कै सबदि = के शब्द से। वीचारि = विचार के, हरि नाम को मन में बसा के। अतुट = ना खत्म होने वाले। भंडार = खजाने। बाणी = (गुरु की) वाणी से। उचरहि = उचारते हैं। नानक = हे नानक!।15।

अर्थ: हे भाई! गुरु के सन्मुख रहने वाले मनुष्यों ने गुरु के शब्द से (हरि-नाम को) अपने मन में बसा के परमात्मा का नाम-धन कमा लिया है। गुरमुखों ने कीमती नाम-धन ढूँढ लिया है (उनके अंदर हरि-नाम-धन के) ना-खत्म होने वाले खजाने भरे रहते हैं। जिस परमात्मा (के गुणों) का अंत नहीं पड़ सकता, जिस परमात्मा (की हस्ती) का उरला-परला किनारा नहीं मिल सकता, उस परमात्मा के गुणों को (गुरु के सन्मुख रहने वाले मनुष्य गुरु की) वाणी के द्वारा उचारते रहते हैं।

गुरमुखि अंतरि सहजु है मनु चड़िआ दसवै आकासि ॥ तिथै ऊंघ न भुख है हरि अम्रित नामु सुख वासु ॥ नानक दुखु सुखु विआपत नही जिथै आतम राम प्रगासु ॥१६॥

पद्अर्थ: सहजु = आत्मिक अडोलता। दसवै आकासि = दसवें आकाश में, उस दसवें ऊँचे ठिकाने पर जहाँ शारीरिक नौ गोलकों का प्रभाव नहीं पड़ता। तिथै = उस अवस्था में। ऊँघ = नींद। अंम्रित = आत्मिक जीवन देने वाला। सुख = आत्मिक आनंद। विआपत नही = अपना जोर नहीं डाल सकता। आतम राम = सर्व व्यापक प्रभु का।16।

अर्थ: पर हे नानक! ये सारे सबब कर्तार (खुद ही) बनाता है, (इस खेल को) विधाता (स्वयं) देख रहा है।

हे भाई! गुरु के सन्मुख रहने वाले मनुष्य के अंदर आत्मिक अडोलता बनी रहती है, उसका मन (उस) दसवें द्वार में टिका रहता है (जिस शरीर पर नौ-गौलकों का प्रभाव नहीं पड़ सकता)। उस अवस्था में (गुरु के सन्मुख रहने वाले मनुष्य को माया के मोह की नींद नहीं आती, माया की भूख नहीं सताती)। (उस अवस्था में गुरु के अंदर) आत्मिक जीवन देने वाला हरि-नाम टिका रहता है। आत्मिक आनंद बना रहता है। हे नानक! जिस हृदय में सर्व-व्यापक परमात्मा का प्रकाश हो जाता है, वहाँ ना दुख ना सुख (कोई भी अपना) जोर नहीं डाल सकता।16।

काम क्रोध का चोलड़ा सभ गलि आए पाइ ॥ इकि उपजहि इकि बिनसि जांहि हुकमे आवै जाइ ॥ जमणु मरणु न चुकई रंगु लगा दूजै भाइ ॥ बंधनि बंधि भवाईअनु करणा कछू न जाइ ॥१७॥

पद्अर्थ: चोलड़ा = शरीर चोला। काम क्रोध का चोलड़ा = काम क्रोध के रंग में रंगा हुआ वस्त्र। सभ = सब जीव। गलि = गले में। पाइ = पा के। इकि = कई। उपजहि = पैदा होते हैं। बिनसि जांहि = मर जाते हैं। आवै जाइ = (हरेक जीव) पैदा होता मरता है। न चुकई = नहीं खत्म होता। रंगु = प्यार। दूजै भाइ = (प्रभु को भुला के) माया के मोह में। बंधनि = (मोह की) रस्सी से। बंधि = बाँध के। भवाईअनु = भटकाई है (सारी दुनिया) उसने, पैदा होने मरने में डाली है उसने।17।

नोट: ‘इकि’ है ‘इक/एक’ का बहुवचन।

अर्थ: हे भाई! सारे जीव काम-क्रोध (आदि विकारों) के रंगे जा सकने वाला शरीर-चोला पहने के (जगत में) आते हैं; कई पैदा होते हैं कई मरते हैं, (सारी दुनिया परमात्मा के) हुक्म में ही जनम-मरण के चक्कर में पड़ी हुई है। (जब तक जीव की) माया के मोह में प्रीत लगी हुई है (तब तक उसका) जनम-मरण का चक्कर खत्म नहीं होता। हे भाई! परमात्मा ने (खुद ही मोह की) रस्सी बाँध के (सारी लोकाई जनम-मरण के चक्कर में) डाली हुई है। (इसमें से निकलने के लिए उसकी मेहर के बिना और) कोई उपाय किया नहीं जा सकता।17।

जिन कउ किरपा धारीअनु तिना सतिगुरु मिलिआ आइ ॥ सतिगुरि मिले उलटी भई मरि जीविआ सहजि सुभाइ ॥ नानक भगती रतिआ हरि हरि नामि समाइ ॥१८॥

पद्अर्थ: धारीअनु = धारी है उस (परमात्मा) ने। आइ = आ के। सतिगुरि मिले = सतिगुरु मिलने से, गुरु मिलने से। उलटी भई = (काम क्रोध आदि विकारों से) पलट गई। मरि = (विकारों से) मर के। जीविआ = जी उठा, आत्मिक जीवन वाला हो गया। सहजि = आत्मिक अडोलता में। सुभाइ = प्रभु प्यार में। रतिआ = रंगीज के। नामि = नाम में। समाइ = लीन हो जाता है।18।

अर्थ: हे भाई! जिस (मनुष्यों) पर उस (परमात्मा) ने मेहर कर दी, उनको गुरु मिल गया। हे भाई! गुरु के मिलने से (जिस मनुष्य की तवज्जो काम-क्रोध आदि विकारों से) पलट गई, वह मनुष्य (विकारों से) मर के आत्मिक अडोलता में प्रभु-प्रेम में जी उठा (आत्मिक जीवन जीने लग गया)। हे नानक! (परमात्मा की) भक्ति के रंग में रंगा हुआ मनुष्य सदा परमात्मा के नाम में लीन रहता है।18।

मनमुख चंचल मति है अंतरि बहुतु चतुराई ॥ कीता करतिआ बिरथा गइआ इकु तिलु थाइ न पाई ॥ पुंन दानु जो बीजदे सभ धरम राइ कै जाई ॥ बिनु सतिगुरू जमकालु न छोडई दूजै भाइ खुआई ॥ जोबनु जांदा नदरि न आवई जरु पहुचै मरि जाई ॥ पुतु कलतु मोहु हेतु है अंति बेली को न सखाई ॥ सतिगुरु सेवे सो सुखु पाए नाउ वसै मनि आई ॥ नानक से वडे वडभागी जि गुरमुखि नामि समाई ॥१९॥

पद्अर्थ: मनमुख मति = अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्यों की अकल। चंचल = हर वक्त भटकती। कीता कराइआ = (उनका) सारा ही किया हुआ उद्यम। थाइ न पाइ = (परमात्मा की दरगाह में) स्वीकार नहीं होता। इकु तिलु = रत्ती भर भी। जो = जो भी (कर्म बीज)। धरमराइ कै = धर्मराज के पास। सभ = सारी (मेहनत)। जमकालु = मौत, मौत का चक्कर। दूजै भाइ = माया के प्यार में। खुआई = ख्वार होता है। नदरि न आवई = दिखता ही नहीं, पता ही नहीं लगता कि कब चला गया। जोबनु = जवानी। जरु = बुढ़ापा। कलतु = स्त्री। मोहु = माया का मोह। हेतु = माया का प्यार। अंति = आखिर में। को = कोई भी। बेली = साथी। सखाई = मित्र। सेवे = शरण पड़ता है। मनि = मन में। आई = आ के। जि = जो। गुरमुखि = गुरु के द्वारा। नामि = नाम में। समाई = लीन होता है।

अर्थ: हे भाई! अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्यों की मति हर वक्त भटकती रहती है, उनके अंदर (अपनी मति की) चतुराई (का) बहुत (घमण्ड) होता है। (अपनी अकल के आसरे पुण्य-दान आदि का) किया हुआ (उनका) सारा उद्यम व्यर्थ जाता है (उनका ये सारा उद्यम परमात्मा की हजूरी में) स्वीकार नहीं होता। पुण्य-दान (आदि) जो भी (कर्म-बीज वे अपनी शरीर-धरती में) बीजते हैं, (उनकी यह) सारी मेहनत धर्मराज के हवाले हो जाती है (भाव, इस सारी मेहनत से तो मनुष्य धर्मराज के ही अधीन रहता है)।

हे भाई! गुरु की शरण पड़े बिना (जनम) मरण का चक्कर (मनुष्य को) नहीं छोड़ता। माया के मोह के कारण (मनुष्य) दुखी ही होता है। (मनुष्य की) जवानी के गुजरते देर नहीं लगती, बुढ़ापा आ पहुँचता है, (और आखिर प्राणी) मर जाता है। पुत्र, स्त्री, माया का मोह-प्यार- (इनमें से) अंत में कोई यार नहीं बनता, कोई साथ नहीं बनता।

हे भाई! जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ता है, वह आत्मिक आनंद पाता है, परमात्मा का नाम (उसके) मन में बसता है। हे नानक! जो जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ के परमात्मा के नाम में लीन रहता है, वह सारे ऊँचे जीवन वाले होते है, बड़े भाग्यों वाले होते हैं।19।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh