श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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मनमुख नामु न चेतनी बिनु नावै दुख रोइ ॥ आतमा रामु न पूजनी दूजै किउ सुखु होइ ॥ हउमै अंतरि मैलु है सबदि न काढहि धोइ ॥ नानक बिनु नावै मैलिआ मुए जनमु पदारथु खोइ ॥२०॥

पद्अर्थ: मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य। चेतनी = चेतन (बहुवचन)। रोइ = रोता है। आतमा रामु = सर्व व्यापक प्रभु। पूजनी = पूजनि (बहुवचन)। दूजै = माया के मोह में। सबदि = शब्द से। धोइ = धो के। मुए = आत्मिक मौत मरे। खोइ = गवा के।20

अर्थ: हे भाई! परमात्मा के नाम से टूटा हुआ मनुष्य (सदा अपने) दुख फरोलता रहता है। अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य परमात्मा का नाम नहीं स्मरण करते, सर्व-व्यापक प्रभु की भक्ति नहीं करते। (भला) माया के मोह में (फसे रह के उनको) सुख कैसे मिल सकता है? उनके अंदर अहंकार की मैल टिकी रहती है जिसको वे गुरु के शब्द द्वारा (अपने अंदर से) धो के नहीं निकालते। हे नानक! नाम से वंचित हुए मनुष्य कीमती मानव जनम गवा के विकारों की मैल से भरे रहते हैं, और आत्मिक मौत सहेड़े रखते हैं।20।

मनमुख बोले अंधुले तिसु महि अगनी का वासु ॥ बाणी सुरति न बुझनी सबदि न करहि प्रगासु ॥ ओना आपणी अंदरि सुधि नही गुर बचनि न करहि विसासु ॥ गिआनीआ अंदरि गुर सबदु है नित हरि लिव सदा विगासु ॥ हरि गिआनीआ की रखदा हउ सद बलिहारी तासु ॥ गुरमुखि जो हरि सेवदे जन नानकु ता का दासु ॥२१॥

पद्अर्थ: तिसु महि = (मनमुखों की) उस (सोच) में। बुझनी = बूझनि (बहुवचन)। प्रगास = प्रकाश। सुधि = सूझ। बचनि = वचन में। बिसासु = विश्वास, यकीन। गिआनी = आत्मिक जीवन की सूझ वाला मनुष्य। विगासु = खिड़ाव। हउ = मैं। सद = सदा। तासु = उनसे। ता का = उनका।21।

अर्थ: हे भाई! अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य गुरु की वाणी में तवज्जो जोड़नी नहीं समझते, गुरु के शब्द से (अपनी तवज्जो में आत्मिक जीवन की सूझ का) प्रकाश नहीं करते, (उनकी) उस (सोच) में तृष्णा-अग्नि का निवास हुआ रहता है (इस वास्ते आत्मिक जीवन के उपदेश से वह) अंधे और बहरे हुए रहते है। अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्यों के अंदर अपने आपे की समझ नहीं होती, वे गुरु के वचन में श्रद्धा नहीं लाते।

पर, हे भाई! आत्मिक जीवन की सूझ वाले बंदों के अंदर (सदा) गुरु का शब्द बसता है, उनकी लगन सदा हरि में रहती है (इस वास्ते उनके अंदर) सदा (आत्मिक) खिड़ाव बना रहता है। परमात्मा आत्मिक जीवन वाले मनुष्यों की सदा (इज्जत) रखता है, मैं उन पर से सदा कुर्बान जाता हूँ। हे भाई! गुरु की शरण पड़ कर जो मनुष्य परमात्मा की सेवा-भक्ति करते रहते हैं, दास नानक उनका सेवक है।21।

माइआ भुइअंगमु सरपु है जगु घेरिआ बिखु माइ ॥ बिखु का मारणु हरि नामु है गुर गरुड़ सबदु मुखि पाइ ॥ जिन कउ पूरबि लिखिआ तिन सतिगुरु मिलिआ आइ ॥ मिलि सतिगुर निरमलु होइआ बिखु हउमै गइआ बिलाइ ॥ गुरमुखा के मुख उजले हरि दरगह सोभा पाइ ॥ जन नानकु सदा कुरबाणु तिन जो चालहि सतिगुर भाइ ॥२२॥

पद्अर्थ: भुइअंगमु = साँप। सरपु = साँप। बिखु = आत्मिक मौत लाने वाला जहर। माइ = माया। मारणु = (असर) खत्म करने वाला। गरुड़ = (साँप डसने का जहर दूर करने वाला) गारुड़ी मंत्र। मुखि = मुँह में। पाइ = डाले रख। पूरबि = पहले से ही, धुर दरगाह से। आइ = आ के। मिलि = मिल के। बिखु = जहर। गइआ बिलाइ = बिल्कुल दूर हो जाता है। उजले = रौशन। पाइ = पा के, हासिल करके। सतिगुर भाइ = गुरु की रजा में।22।

अर्थ: हे भाई! माया साँप है बड़ा साँप। आत्मिक मौत लाने वाली जहर का भरा हुआ यह माया-सर्प जगत को घेरे बैठा है। परमात्मा का नाम (ही इस) जहर का असर खत्म कर सकने वाला है। गुरु का शब्द (ही) गारुड़ मंत्र है (इसको सदा अपने) मुँह में डाले रख।

हे भाई! जिनके माथे पर धुर दरगाह से ही लेख लिखा होता है, उनको गुरु आ के मिल जाता है, गुरु को मिल के उनका जीवन पवित्र हो जाता है उनके अंदर से अहंकार का जहर सदा के लिए दूर हो जाता है। परमात्मा की हजूरी में शोभा कमा के गुरु के सन्मुख रहने वाले मनुष्यों के मुँह रौशन हो जाते हैं। दास नानक उन मनुष्यों से सदा सदके जाता है जो गुरु की रजा में चलते हैं।22।

सतिगुर पुरखु निरवैरु है नित हिरदै हरि लिव लाइ ॥ निरवैरै नालि वैरु रचाइदा अपणै घरि लूकी लाइ ॥ अंतरि क्रोधु अहंकारु है अनदिनु जलै सदा दुखु पाइ ॥ कूड़ु बोलि बोलि नित भउकदे बिखु खाधे दूजै भाइ ॥ बिखु माइआ कारणि भरमदे फिरि घरि घरि पति गवाइ ॥ बेसुआ केरे पूत जिउ पिता नामु तिसु जाइ ॥ हरि हरि नामु न चेतनी करतै आपि खुआइ ॥ हरि गुरमुखि किरपा धारीअनु जन विछुड़े आपि मिलाइ ॥ जन नानकु तिसु बलिहारणै जो सतिगुर लागे पाइ ॥२३॥

पद्अर्थ: निरवैरु = किसी के साथ वैर ना करने वाला। हिरदै = हृदय में। लिव लाइ = तवज्जो/ध्यान जोड़ के रखता है। रचाइदा = बनाए रखता है। घरि = (हृदय-) घर में। लूकी = (ईष्या की) लूती। अंतरि = अंदर। अनदिनु = हर रोज, हर वक्त। बोलि = बोल के। कूड़ु = झूठ। भउकदे = बेमतलब बोलते हैं। बिखु = जहर। दूजै भाइ = हरेक घर (के दरवाजे) पर। पति = इज्जत। गवाइ = गवा के। बेसुआ = वेश्वा। केरे = के। जिउ = की तरह। करतै = कर्तार ने। खुआइ = गलत रास्ते पर पड़े होते हैं। धारीअनु = उस (प्रभु) ने धारी है। पाइ = पैरों पर।23।

अर्थ: हे भाई! गुरु (एक ऐसा महा-) पुरष है जिसका किसी के साथ भी वैर नहीं है, गुरु हर वक्त अपने हृदय में परमात्मा के साथ लगन लगाए रखता है। जो मनुष्य (ऐसे) निर्वैर (गुरु) के साथ वैर बनाए रखता है, वह अपने (हृदय-) घर में (ईष्या की) चिंगारी जलाए रखता है। उसके अंदर क्रोध (की ज्वाला) है, उसके अंदर अहंकार (के शोले भड़कते रहते) हैं (जिसमें) वह हर वक्त जलता रहता है, और, सदा दुख पाता रहता है।

हे भाई! (जो मनुष्य गुरु के विरुद्ध) झूठ बोल-बोल के अनाब-शनाब बोलते रहते हैं, माया के मोह में (वे इस तरह आत्मिक मौत मरे रहते हैं, जैसे) उन्होंने जहर खाया होता है। आत्मिक मौत लाने वाली माया-जहर की खातिर वह घर-घर (के दरवाजे) और इज्जत गवा के (हल्के पड़ के) भटकते फिरते हैं। (ऐसे मनुष्य) वेश्वा के पुत्र की तरह (नाक-काटे होते हैं) जिसके पिता का नाम गुम हो जाता है। वह मनुष्य परमात्मा का नाम नहीं स्मरण करते (पर उनके भी क्या वश?) कर्तार ने खुद (उनको) गलत रास्ते पर डाला होता है।

हे भाई! गुरु के सन्मुख रहने वाले मनुष्यों पर हरि ने स्वयं कृपा की होती है। गुरु के माध्यम से उन विछुड़े हुओं को भी हरि खुद (अपने साथ) मिला लेता है। हे भाई! दास नानक उस मनुष्य से सदके जाता है, जो गुरु के चरणों में पड़े रहते हैं।23।

नामि लगे से ऊबरे बिनु नावै जम पुरि जांहि ॥ नानक बिनु नावै सुखु नही आइ गए पछुताहि ॥२४॥

पद्अर्थ: नामि = नाम में। से = वे (बहुवचन)। ऊबरे = (संसार समुंदर में डूबने से) बच गए। जमपुरि = जमराज के शहर में। जांहि = जाते हैं (बहुवचन)। आइ = पैदा हो के। गए = (दुनिया से) चले गए।24।

अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य परमात्मा के नाम में जुड़े रहे, वे (संसार-समुंदर में डूबने से) बच गए। नाम से खाली रहने वाले मनुष्य जमराज में बस जाते हैं। हे नानक! परमात्मा के नाम के बिना (उनको) आत्मिक आनंद नहीं मिलता। (जगत में) जनम ले के (नाम से वंचित ही) जाते हैं और पछताते रहते हैं।

चिंता धावत रहि गए तां मनि भइआ अनंदु ॥ गुर प्रसादी बुझीऐ सा धन सुती निचिंद ॥ जिन कउ पूरबि लिखिआ तिन्हा भेटिआ गुर गोविंदु ॥ नानक सहजे मिलि रहे हरि पाइआ परमानंदु ॥२५॥

पद्अर्थ: धावत = भटक रहे। रहि गए = (भटकने से) हट गए। तां मनि = उनके मन में। मनि = मन में। प्रसादी = कृपा से। बुझीऐ = समझ सकते हैं। साधन = जीव-स्त्री। सुती = सोई रहती है, लीन रहती है। निचिंद = चिन्ता रहित अवस्था में। पूरबि = धुर से, पहले से। भेटिआ = मिला। सहजे = आत्मिक अडोलता में। परमानंदु = सबसे ऊँचे आनंद का मालिक प्रभु।25।

अर्थ: हे भाई! माया की चिन्ता में भटक रहे जो मनुष्य (इस भटकना से) हट जाते हैं, उनके मन में आनंद पैदा हो जाता है, (पर, यह भेद) गुरु की कृपा से ही समझा जा सकता है। (जो) जीव-स्त्री (इस भेद को समझ लेती है, वह) चिन्ता-रहित अवस्था में लीन रहती है।

हे नानक! जिस मनुष्यों के माथे पर धुर दरगाह से लेख लिखा होता है उनको गुरु परमात्मा मिल जाता है, वह आत्मिक अडोलता में टिके रहते हैं। सबसे ऊँचे आत्मिक आनंद के मालिक-प्रभु (का मिलाप) वे मनुष्य प्राप्त कर लेते हैं।25।

सतिगुरु सेवनि आपणा गुर सबदी वीचारि ॥ सतिगुर का भाणा मंनि लैनि हरि नामु रखहि उर धारि ॥ ऐथै ओथै मंनीअनि हरि नामि लगे वापारि ॥ गुरमुखि सबदि सिञापदे तितु साचै दरबारि ॥ सचा सउदा खरचु सचु अंतरि पिरमु पिआरु ॥ जमकालु नेड़ि न आवई आपि बखसे करतारि ॥ नानक नाम रते से धनवंत हैनि निरधनु होरु संसारु ॥२६॥

पद्अर्थ: सेवनि = सेवते हैं (बहुवचन)। वीचारि = विचार के, तवज्जो/ध्यान जोड़ के। मंनि लैनि = मान लेते हैं। रखहि = रखते हैं। उर = हृदय। उर धारि रखहि = हृदय में बसाए रखते हैं। ऐथै = इस लोक में। ओथै = परलोक में। मंनीअनि = माने जाते हैं, सत्कारे जाते हैं (बहुवचन)। हरि नामि = हरि नाम में। वापारि = व्यापार में। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ने वाले मनुष्य। सबदि = गुरु के शब्द से। सिञापदे = जाने जाते हैं। तितु = उस में। तितु दरबारि = उस दरबार में। तितु साचै दरबारि = उस सदा स्थिर दरबार में। सचा = सदा कायम रहने वाला। सचु = सदा स्थिर हरि नाम। पिरमु = प्रेम। आवई = आता, आए। करतारि = कर्तार ने। नाम रते = (समासी) नाम रंग में रंगे हुए मनुष्य। से = वे (बहुवचन)। धनवंत = धन वाले। निरधनु = कंगाल, धन हीन।26।

अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य गुरु के शब्द में तवज्जो जोड़ के प्यारे गुरु की शरण पड़े रहते हैं, गुरु की रजा को (सिर माथे) मानते हैं, परमात्मा का नाम (अपने) हृदय में बसाए रखते हैं, परमात्मा के नाम में व्यस्त रहते हैं, वे मनुष्य इस लोक में और परलोक में सत्कारे जाते हैं।

हे भाई! गुरु के सन्मुख रहने वाले मनुष्य उस सदा-स्थिर दरबार में गुरु के शब्द से पहचाने जाते हैं। वे मनुष्य सदा-स्थिर हरि-नाम का वणज (करते रहते हैं), सदा-स्थिर हरि नाम ही आत्मिक खुराक के तौर पर बरतते रहते हैं, उनके अंदर परमात्मा का प्रेम-प्यार (सदा टिका रहता है)। उन पर कर्तार ने आप मेहर की होती है, मौत (का डर उनके) नजदीक नहीं फटकता (आत्मिक मौत उनके नजदीक नहीं आती)।

हे नानक! जो मनुष्य परमात्मा के नाम-रंगमें रंगे रहते हैं, वे धनवान हैं, बाकी सारा संसार कंगाल है।26।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh