श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

Page 1417

माइआ मोहु दुखु सागरु है बिखु दुतरु तरिआ न जाइ ॥ मेरा मेरा करदे पचि मुए हउमै करत विहाइ ॥ मनमुखा उरवारु न पारु है अध विचि रहे लपटाइ ॥ जो धुरि लिखिआ सु कमावणा करणा कछू न जाइ ॥ गुरमती गिआनु रतनु मनि वसै सभु देखिआ ब्रहमु सुभाइ ॥ नानक सतिगुरि बोहिथै वडभागी चड़ै ते भउजलि पारि लंघाइ ॥३४॥

पद्अर्थ: सागरु = समुंदर। बिखु = जहर, आत्मिक मौत लाने वाली जहर। दुतरु = (दुष्तर) जिससे पार लांघना बहुत मुश्किल है। पचि = (तृष्णा की आग में) जल के। मुए = आत्मिक मौत मर गए। विहाइ = (उम्र) बीतती है। मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य। विहाइ = (उम्र) बीतती है। मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य। उरवारु = (समुंदर का) इस पार का किनारा। पारु = परला किनारा। रहे लपटाइ = (मोह के साथ) चिपके रहे। धुरि = धुर दरगाह से। सु = वह (लेख)। गिआनु = आत्मिक जीवन की सूझ। मनि = मन में। सभु = हर जगह, सारी सृष्टि में। सुभाइ = प्रेम से। सतिगुरि = सतिगुरु में। बोहिथै = जहाज में। सतिगुरि बोहिथै = गुरु जहाज में। ते = उनको। भउजलि = संसार समुंदर में (डूबतों को)।34।

अर्थ: हे भाई! माया का मोह (मनुष्य की जिंद के लिए) दुख (का मूल) है, (मानो, दुखों का) समुंदर है, आत्मिक मौत लाने वाला जहर (-भरा समुंदर) है, इसमें से पार लांघना बहुत मुश्किल है, पार नहीं लांघा जा सकता। ‘मेरा (धन), मेरा (धन)’ कहते (जीव तृष्णा की आग में) जल-जल के आत्मिक मौत सहेड़ी रखते हैं, ‘हउ हउ’ करते (जीवों की उम्र) गुजरती है। अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्यों को (मोह के समुंदर का) ना इस पार का किनारा मिलता है ना उस पार का। (इस समुंदर के) आधे में ही (गोते खाते मोह से) चिपके रहते हैं। पर जीव भी क्या करें? (पिछले किए कर्मों के संस्कारों के अनुसार) धुर दरगाह से जो लेख (जीव के माथे पर) लिखा जाता है, वह लेख कमाना ही पड़ता है (अपनी अकल के आसरे उस लेख से बचने के लिए) कोई उद्यम नहीं किया जा सकता।

गुरु की मति पर चल कर (जिस मनुष्य के) मन में परमात्मा की बड़ी गहरी सांझ (का) रतन आ बसता है, प्रभु-प्रेम से वह मनुष्य सारी लुकाई में प्रभु को ही देखता है। हे नानक! बड़े भाग्यों से ही (कोई मनुष्य) गुरु-जहाज़ में सवार होता है (और, जो मनुष्य गुरु-जहाज में चढ़ते हैं, गुरु के बताए राह पर चलते हैं) उनको संसार-समुंदर में (डूबतों को गुरु) पार लंघा लेता है।34।

बिनु सतिगुर दाता को नही जो हरि नामु देइ आधारु ॥ गुर किरपा ते नाउ मनि वसै सदा रहै उरि धारि ॥ तिसना बुझै तिपति होइ हरि कै नाइ पिआरि ॥ नानक गुरमुखि पाईऐ हरि अपनी किरपा धारि ॥३५॥

पद्अर्थ: दाता = (नाम की) दात देने वाला। को = कोई (सर्वनाम)। देइ = देता है। आधारु = आसरा। ते = से। मनि = मन में। वसै = आ बसता है। उरि = हृदय में। धारि = धार के, टिका के। बुझै = (आग) बुझ जाती है। तिपति = तृप्ति, शांति। कै नाइ = के नाम में। कै पिआर = के प्यार में। गुरमुखि = गुरु से।35।

अर्थ: हे भाई! गुरु के बिना (परमात्मा के नाम की) दाति देने वाला और कोई नहीं है, वह गुरु ही परमात्मा का नाम (जिंद के लिए) आसरा देता है। गुरु की कृपा से परमात्मा का नाम (मनुष्य के) मन में आ बसता है, (मनुष्य हरि-नाम को अपने) हृदय में बसाए रखता है। हरि-नाम से, हरि के प्यार से (मनुष्य के अंदर से) तृष्णा (की आग) बुझ जाती है, (मनुष्य के अंदर माया के प्रति) तृप्ति हो जाती है।

हे नानक! गुरु की शरण पड़ने से (परमात्मा का नाम) प्रप्त हो जाता है। (गुरु की शरण पड़ने से) परमात्मा (सेवक पर) अपनी मेहर करता है।35।

बिनु सबदै जगतु बरलिआ कहणा कछू न जाइ ॥ हरि रखे से उबरे सबदि रहे लिव लाइ ॥ नानक करता सभ किछु जाणदा जिनि रखी बणत बणाइ ॥३६॥

पद्अर्थ: बरलिआ = झल्ला हो रहा है। कहणा कछू न जाइ = कुछ कहा नहीं जा सकता, कोई पेश नहीं जाती। रखे = रखा जाता है। से = वे (बहुवचन)। उबरे = बच गए। सबद = गुरु के शब्द में। लिव = लगन। लिव लाइ रहे = तवज्जो जोड़े रखते हैं। नानक = हे नानक! सभ किछु = हरेक बात। जिनि = जिस (कर्तार) ने। बणत = मर्यादा।36।

अर्थ: हे भाई! गुरु के शब्द से वंचित रह के जगत (माया के पीछे) झल्ला हुआ फिरता है, किसी की कोई पेश नहीं जाती। जिस की रक्षा परमात्मा ने खुद की, वह (माया के असर से) बच गए, वह मनुष्य गुरु के शब्द में तवज्जो जोड़ी रखते हैं।

हे नानक! जिस (कर्तार) ने यह सारी मर्यादा कायम कर रखी है, वह ही इस सारे भेद को जानता है।36।

होम जग सभि तीरथा पड़्हि पंडित थके पुराण ॥ बिखु माइआ मोहु न मिटई विचि हउमै आवणु जाणु ॥ सतिगुर मिलिऐ मलु उतरी हरि जपिआ पुरखु सुजाणु ॥ जिना हरि हरि प्रभु सेविआ जन नानकु सद कुरबाणु ॥३७॥

पद्अर्थ: होम = हवन। सभि = सारे। तीरथा = तीर्थ (-स्नान)। पढ़ि = पढ़ के। बिखु माइआ = आत्मिक मौत लाने वाली माया का जहर। मिटई = मिटता। आवण जाणु = पैदा होने मरने (का चक्कर)। सतिगुर मिलिऐ = अगर सतिगुरु मिल जाए। सुजाणु = समझदार। सेविआ = सेवा भक्ति की। सद = सदा।37।

अर्थ: हे भाई! पंडित लोग हवन कर के, यज्ञ करके, सारे तीर्थ स्नान कर के, पुराण (आदि धर्म-पुस्तकें) पढ़ के थक जाते हैं, (पर, फिर भी) आत्मिक मौत लाने वाली माया-जहर का मोह (उनके अंदर से) नहीं मिटता, अहंकार में (फसे रहने के कारण उनका) जनम-मरण (का चक्कर बना रहता है)।

पर, हे भाई! अगर गुरु मिल जाए (तो गुरु की शरण पड़ कर जिस मनुष्य ने) अंतरजामी अकाल-पुरख का नाम जपा (उसके अंदर से विकारों की) मैल उतर गई। दास नानक उन मनुष्यों से सदा सदके जाता है, जिन्होंने सदा परमात्मा की सेवा-भक्ति की।37।

माइआ मोहु बहु चितवदे बहु आसा लोभु विकार ॥ मनमुखि असथिरु ना थीऐ मरि बिनसि जाइ खिन वार ॥ वड भागु होवै सतिगुरु मिलै हउमै तजै विकार ॥ हरि नामा जपि सुखु पाइआ जन नानक सबदु वीचार ॥३८॥

पद्अर्थ: चितवदे = चेते करते रहते हैं (बहुवचन)। मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य (एकवचन)। असथिरु = अडोल चित्त। ना थीऐ = नहीं होता (एकवचन)। मरि = मर के। मरि बिनसि जाइ = मर के मरता है, बार बार मरता है, बार बार आत्मिक मौत मरता रहता है। खिन वार = छिन छिन बार बार, हर वक्त। भागु = भाग्य। तजै = त्यागता है। जपि = जप के। वीचारु = सोच का केन्द्र।38।

अर्थ: हे भाई! (अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य) सदा माया का मोह ही चेते करते रहते हैं, अनेक आशाएं बनाए रहते हैं, लोभ चितवते हैं, विकार चितवते रहते हैं। (इसीलिए) अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य (कभी) अडोल-चित्त नहीं होता,वह हर वक्त आत्मिक मौत मरता रहता है। जिस मनुष्य के भाग्य जाग उठें, उसको गुरु मिल जाता है, वह मनुष्य अहंकार त्याग देता है, विकार छोड़ देता है।

हे नानक! जो मनुष्य ने गुरु के शब्द को (अपनी) सोच का केन्द्र (धुरा) बना लिया, वह परमात्मा का नाम जप के आत्मिक आनंद भोगने लग पड़ा।38।

बिनु सतिगुर भगति न होवई नामि न लगै पिआरु ॥ जन नानक नामु अराधिआ गुर कै हेति पिआरि ॥३९॥

पद्अर्थ: न होवई = ना हो, नहीं हो सकती। नामि = नाम में। कै हेति = के प्यार में। कै पिआरि = के प्यार में।39।

अर्थ: हे भाई! गुरु (की शरण पड़े) बिना (परमात्मा की) भक्ति नहीं हो सकती, (परमात्मा के) नाम में प्यार नहीं बन सकता। हे दास नानक! (कह: हे भाई!) गुरु के प्रेम-प्यार में (रह के ही परमात्मा का नाम) स्मरण किया जा सकता है।39।

लोभी का वेसाहु न कीजै जे का पारि वसाइ ॥ अंति कालि तिथै धुहै जिथै हथु न पाइ ॥ मनमुख सेती संगु करे मुहि कालख दागु लगाइ ॥ मुह काले तिन्ह लोभीआं जासनि जनमु गवाइ ॥ सतसंगति हरि मेलि प्रभ हरि नामु वसै मनि आइ ॥ जनम मरन की मलु उतरै जन नानक हरि गुन गाइ ॥४०॥

पद्अर्थ: न कीजै = नहीं करना चाहिए। वेसाहु = ऐतबार। जेका पारि = जहाँ तक। वसाइ = बस (चल सके)। अंति कालि = आखिरी वक्त। धुहै = धोखा दे जाता है। हथु न पाइ = (कोई और) हाथ नहीं डाल सकता, मदद नहीं कर सकता। मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य। सेती = साथ। संगु = साथ, मेल। मुहि = मुँह पर। जासनि = जाएंगे, जाते हैं। गवाइ = व्यर्थ गवा के। प्रभ = हे प्रभु! मनि = मन में। गाइ = गा के।40।

अर्थ: हे भाई! जहाँ तक हो सके, किसी लालची मनुष्य का ऐतबार नहीं करना चाहिए, (लालची मनुष्य) आखिर उस जगह पर धोखा दे जाता है, जहाँ कोई मदद ना कर सके। अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य के साथ (जो मनुष्य) साथ बनाए रखता है, (वह भी) (अपने) मुँह पर (बदनामी की) कालिख लगाता है (बदनामी का) दाग़ लगाता है। उन लालची मनुष्यों के मुँह (बदनामी की कालिख से) काले हुए रहते हैं, वे मनुष्य-जनम व्यर्थ गवा के (जगत से) जाते हैं।

हे प्रभु! (अपनी) साधु-संगत में मिलाए रख (साधु-संगत में रहने से ही) हरि-नाम-धन मन में बस सकता है, और, हे नानक! परमात्मा के गुण गा-गा के जनम-मरण के विकारों की मैल (मन में से) उतर जाती है।40।

धुरि हरि प्रभि करतै लिखिआ सु मेटणा न जाइ ॥ जीउ पिंडु सभु तिस दा प्रतिपालि करे हरि राइ ॥ चुगल निंदक भुखे रुलि मुए एना हथु न किथाऊ पाइ ॥ बाहरि पाखंड सभ करम करहि मनि हिरदै कपटु कमाइ ॥ खेति सरीरि जो बीजीऐ सो अंति खलोआ आइ ॥ नानक की प्रभ बेनती हरि भावै बखसि मिलाइ ॥४१॥

पद्अर्थ: धुरि = धुर दरगाह से। करतै = कर्तार ने। सु = वह (लेख)। जीउ = जिंद। पिंडु = शरीर। हरि राइ = प्रभु पातशाह। भुखे = तृष्णा के अधीन। किथाऊ = कहीं भी। न पाइ = नहीं पड़ता। पाखंड करम = दिखावे के कर्म। करहि = करते हैं। मनि = मन में। हिरदै = दिल में। खेति = खेत में। सरीरि = शरीर में। कपटु = खोट, धोखा। कमाइ = कमा के। बीजीऐ = बीजा जाता है। अंति = आखिर। खलोआ आइ = प्रकट हो जाता है। प्रभ = हे प्रभु! हरि = हे हरि! भावै = (जैसे तुझे) अच्छा लगे। बखसि = मेहर कर के।41।

नोट: ‘तिस का’ में से संबंधक ‘का’ के कारण शब्द ‘तिसु’ की ‘ु’ मात्रा हट गई है।

अर्थ: हे भाई! (जीव के पिछले किए कर्मों के संस्कारों के अनुसार) कर्तार हरि प्रभु ने धुर-दरगाह से (जीव के माथे पर) जो लेख लिख दिए, वह लेख (किसी जीव से अपने उद्यम से) मिटाया नहीं जा सकता (क्योंकि हरेक जीव की यह) जिंद यह शरीर उस (परमात्मा) का दिया हुआ है जो प्रभु-पातशाह (सबकी) पालना भी करता है (उस दातार प्रभु को भुला के) चुगली-निंदा करने वाले मनुष्य माया की तृष्णा में फसे रह के दुखी रह के आत्मिक मौत सहेड़ लेते हैं (इस बुरी दशा में से निकलने के लिए) कहीं भी उनका हाथ नहीं पड़ सकता (उसकी कोई पेश नहीं चल सकती)। (ऐसे मनुष्य अपने मन में) दिल में खोट कमा के बाहर (लोगों को दिखाने के लिए) दिखावे के धार्मिक कर्म करते रहते हैं। (ये कुदरती नियम है कि) इस शरीर-खेत में जो भी (अच्छा-बुरा) करम बीजा जाता है, वह जरूर प्रकट हो जाता है।

हे प्रभु! हे हरि! (तेरे दास) नानक की (तेरे दर पर) विनती है कि जैसे हो सके मेहर कर के (जीवों को अपने चरणों में) जोड़।41।

TOP OF PAGE

Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh