श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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मन आवण जाणु न सुझई ना सुझै दरबारु ॥ माइआ मोहि पलेटिआ अंतरि अगिआनु गुबारु ॥ तब नरु सुता जागिआ सिरि डंडु लगा बहु भारु ॥ गुरमुखां करां उपरि हरि चेतिआ से पाइनि मोख दुआरु ॥ नानक आपि ओहि उधरे सभ कुट्मब तरे परवार ॥४२॥

पद्अर्थ: मन = हे मन! आवण जाणु = जनम मरण (के चक्कर)। न सुझई = नहीं सूझता, ख्याल नहीं आता। दरबारु = परमात्मा की हजूरी। मोहि = मोहमें। पलेटिआ = लिबड़ा हुआ, फसा हुआ। अंतरि = (तेरे) अंदर। अगिआनु = आत्मिक जीवन के प्रति बेसमझी। गुबारु = (आत्मिक जीवन के प्रति) घोर अंधकार। सिरि = सिर पर। डंडु = डंडा। भारु = भारा, करारा। कर = हाथ। करां उपरि = हाथों पर, हाथों की उंगलियों पर, हर वक्त। से = वे (बहुवचन)। पाइनि = तलाश लेते हैं। मोख = मोक्ष, विकारों से खलासी। मोख दुआरु = विकारों से मुक्ति पाने का दरवाजा। ओहि = वे। उधरे = बच गए।42।

नोट: ‘ओइ’ है ‘ओह/वो’ का बहुवचन।

अर्थ: हे मन! (तुझे) जनम मरण का चक्कर नहीं सूझता (तुझे ये ख्याल ही नहीं आता कि जनम-मरण के चक्कर में पड़ना पड़ेगा), (तुझे) प्रभु की हजूरी याद नहीं आती। तु (सदा) माया के मोह में फसा रहता है, तेरे अंदर आत्मिक जीवन के प्रति बेसमझी है, आत्मिक जीवन के प्रति घोर अंधकार है।

हे भाई! (माया के मोह की) नींद में पड़ा हुआ मनुष्य तब (ही) होश करता है जब (इसके) सिर पर (धर्मराज का) तगड़ा करारा डंडा पड़ता है (मौत आ दबोचती है)।

हे नानक! गुरु के सन्मुख रहने वाले मनुष्य हर वक्त परमात्मा को स्मरण करते रहते हैं, उस माया के मोह से खलासी का रास्ता तलाश लेते हैं। वे खुद (भी विकारों में गलने से) बच जाते हैं, उनके परिवार-कुटंब के सारे साथी भी (संसार-समुंदर से) पार लांघ जाते हैं।42।

सबदि मरै सो मुआ जापै ॥ गुर परसादी हरि रसि ध्रापै ॥ हरि दरगहि गुर सबदि सिञापै ॥ बिनु सबदै मुआ है सभु कोइ ॥ मनमुखु मुआ अपुना जनमु खोइ ॥ हरि नामु न चेतहि अंति दुखु रोइ ॥ नानक करता करे सु होइ ॥४३॥

पद्अर्थ: सबदि = गुरु शब्द से। मरै = (विकारों से) मरता है। सो मुआ = विकारों के प्रति मरा है वह मनुष्य। जापै = प्रसिद्ध हो जाता है, शोभा कमाता है। परसादी = कृपा से। रसि = रस से। ध्रापै = तृप्त हो जाता है, अघा जाता है। सिञापै = पहचाना जाता है, सत्कार प्राप्त करता है। मुआ = आत्मिक मौत मरा हुआ। सभु कोइ = हरेक जीव। मनमुखु = अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य। खोइ = गवा के। न चेतहि = नहीं चेतते (बहुवचन)। अंति = आखिर तक, जीवन के अंत तक। रोइ = रोवहि, रोते रहते हैं।43।

नोट: शब्द ‘रोइ’ एक वचन से बहुवचन आम तौर पर ‘रोवहि’ है, ‘रोहि’ नहीं।

अर्थ: हे भाई! गुरु के शब्द से (मनुष्य विकारों के प्रति) मर जाता है (उस पर विकार अपना असर नहीं कर पाते) (और विकारों के प्रति) मरा हुआ मनुष्य (जगत में) शोभा कमाता है। गुरु की किरपा से हरि-नाम-रस से (मनुष्य माया की तृष्णा के प्रति) तृप्त रहता है। गुरु के शब्द की इनायत से (मनुष्य) परमात्मा की हजूरी में (भी) सम्मान प्राप्त करता है।

हे भाई! गुरु के शब्द के बिना हरेक जीव आत्मिक मौत मरा रहता है। अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य अपना मानव-जीवन व्यर्थ गवा के आत्मिक मौत सहेड़ी रखता है। जो मनुष्य परमात्मा का नाम नहीं स्मरण करते, वे (जिंदगी के) आखिर तक (अपना कोई ना कोई) दुख (ही) रोते रहते हैं।

(पर, जीवों के भी क्या वश?) हे नानक! (जीवों के पिछले किए कर्मों के संस्कारों के अनुसार जीव के लिए) परमात्मा जो कुछ करता है, वही होता है।43।

गुरमुखि बुढे कदे नाही जिन्हा अंतरि सुरति गिआनु ॥ सदा सदा हरि गुण रवहि अंतरि सहज धिआनु ॥ ओइ सदा अनंदि बिबेक रहहि दुखि सुखि एक समानि ॥ तिना नदरी इको आइआ सभु आतम रामु पछानु ॥४४॥

पद्अर्थ: गुरमुखि = गुरु के सन्मुख रहने वाले मनुष्य। बुढे = (आत्मिक जीवन के प्रति) कमजोर। सुरति = प्रभु चरणों की लगन। गिआनु = आत्मिक जीवन की सूझ। रवहि = याद करते हैं। सहज = आत्मिक अडोलता। सहज धिआनु = आत्मिक अडोलता की समाधि। ओइ = वे। अनंदि = आनंद में। बिबेक = (अच्छे बुरे काम की) परख। रहहि = रहते हैं (बहुवचन)। दुखि = दुख में। सुखि = सुख में। एक समानि = एक जैसा, एक जैसी आत्मिक हालत में, अडोल चित्त। इको = एक (परमात्मा) ही। सभु = हर जगह। आतमरामु = सर्व व्यापक प्रभु। पछानु = पछाणू, मित्र, साथी।44।

नोट: ‘ओइ’ है ‘ओह/वो’ का बहुवचन।

अर्थ: हे भाई! गुरु के सन्मुख रहने वाले जिस मनुष्यों के अंदर प्रभु-चरणों की लगन टिकी रहती है, आत्मिक जीवन की सूझ टिकी रहती है, वह मनुष्य (आत्मिक जीवन में) कभी कमजोर नहीं होते। वे सदा ही परमात्मा केगुण याद करते रहते हैं, उनके अंदर आत्मिक अडोलता की समाधि बनी रहती है। वे मनुष्य (अच्छे बुरे काम की) परख के आनंद में सदा मगन रहते हैं, (हरेक) दुख में (हर एक) सुख में वे सदा अडोल चित्त रहते हैं। उनको हर जगह सिर्फ सर्व-व्यापक परमात्मा साथी ही बसता दिखता है।44।

मनमुखु बालकु बिरधि समानि है जिन्हा अंतरि हरि सुरति नाही ॥ विचि हउमै करम कमावदे सभ धरम राइ कै जांही ॥ गुरमुखि हछे निरमले गुर कै सबदि सुभाइ ॥ ओना मैलु पतंगु न लगई जि चलनि सतिगुर भाइ ॥ मनमुख जूठि न उतरै जे सउ धोवण पाइ ॥ नानक गुरमुखि मेलिअनु गुर कै अंकि समाइ ॥४५॥

पद्अर्थ: मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य। बालकु = (भाव, नरोए शारीरिक अंगों वाले) जवान। बिरधि समानि = बुढे मनुष्य जैसा कमजोर (आत्मिक जीवन में कमजोर)। सुरति = लगन। धरमराइ कै = धर्मराज के वश में। गुरमुखि = गुरु के सन्मुख रहने वाले। कै सबदि = के शब्द से। सुभाइ = (प्रभु के) प्यार में। पतंगु मैलु = रत्ती भर भी (विकारों की) मैल। जि = जो। चलनि = चलते हैं। भाइ = प्रेम में। मनमुखि जूठि = अपनेमन के पीछे चलने वाले मनुष्य की (विकारों की) झूठ। सउ = सौ बार। धोवण पाइ = धोने का प्रयत्न करे। मेलिअनु = मिला लिए हैं उस (परमात्मा) ने। कै अंकि = की गोद में। समाइ = लीन कर के।45।

अर्थ: हे भाई! अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य नरोए शारीरिक अंगों (जवान) वाला होता हुआ भी (आत्मिक जीवन में) बुढ़े मनुष्य जैसा कमजोर होता है। हे भाई! जिस मनुष्यों के अंदर परमात्मा की लगन नहीं होती, वह मनुष्य (धार्मिक) कर्म (भी) अहंकार में (रह के ही) करते हैं, वे सारे धर्मराज के वश पड़ते हैं।

हे भाई! गुरु के सन्मुख रहने वाले मनुष्य गुरु के शब्द द्वारा (प्रभु के) प्यार में टिक के सच्चे पवित्र जीवन वाले होते हैं। जो मनुष्य गुरु के अनुसार रह के जीवन चाल चलते हैं, उनको (विकारों की) रत्ती भर भी मैल नहीं लगती। पर, अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य की (विकारों की) झूठ (उसके मन से) कभी नहीं उतरती, चाहे वह सौ बार (उसको) धोने का प्रयत्न करता रहे।

हे नानक! गुरु के सन्मुख रहने वाले मनुष्यों को गुरु की गोद में लीन कर के परमात्मा ने (स्वयं अपने चरणों में) मिलाया होता है।45।

बुरा करे सु केहा सिझै ॥ आपणै रोहि आपे ही दझै ॥ मनमुखि कमला रगड़ै लुझै ॥ गुरमुखि होइ तिसु सभ किछु सुझै ॥ नानक गुरमुखि मन सिउ लुझै ॥४६॥

पद्अर्थ: बुरा = बुराई। सु = वह मनुष्य। केहा = कैसा? सिझै = कामयाब होता है। रोहि = क्रोध में। दझै = जलता रहता है। मनमुखि = अपने मन का मुरीद मनुष्य। कमला = झल्ला। रगड़ै = दुनिया के झगड़े झमेले में। लुझै = (औरों के साथ) उलझता रहता है। गुरमुखि = गुरु के सन्मुख रहने वाला मनुष्य। सभ किछु = (जीवन का) हरेक भेद। सुझै = समझ में आ जाता है। सिउ = साथ। लुझै = मुकाबला करता है।46।

अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य (माया आदि की खातिर किसी और के साथ) कोई बुराई कमाता है, वह जिंदगी में कामयाब नहीं समझा जा सकता। (उलझने के कारण) वह मनुष्य अपने ही गुस्से (की आग) में (माया की खातिर) पागल हुआ फिरता है, (दुनिया के) झगड़े-झमेले में (औरों के साथ) उलझता रहता है। (पर) गुरु के सन्मुख रहने वाला मनुष्य (आत्मिक जीवन के) हरेक भेद को समझता है। हे नानक! गुरु की शरण पड़े रहने वाला मनुष्य (अपने) मन से मुकाबला करता रहता है।46।

जिना सतिगुरु पुरखु न सेविओ सबदि न कीतो वीचारु ॥ ओइ माणस जूनि न आखीअनि पसू ढोर गावार ॥ ओना अंतरि गिआनु न धिआनु है हरि सउ प्रीति न पिआरु ॥ मनमुख मुए विकार महि मरि जमहि वारो वार ॥ जीवदिआ नो मिलै सु जीवदे हरि जगजीवन उर धारि ॥ नानक गुरमुखि सोहणे तितु सचै दरबारि ॥४७॥

पद्अर्थ: सबदि = गुरु के शब्द में। न कीतो वीचारु = मन नहीं जोड़ा। ओइ = (शब्द ‘ओह’ का बहुवचन)। न आखीअनि = नहीं कहे जाते। ढोर = मरे प्शू। गावार = महां मूरख। अंतरि = अंदर। गिआन = आत्मिक जीवन की सूझ। धिआन = प्रभु चरणों की तवज्जो, ध्यान। सउ = से। मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाले। मुए = आत्मिक मौत मरे हुए। वारो वार = बार बार। नो = को। जीवदिआ = आत्मिक जीवन जीने वालों को। मिलै = मिलता है (एकवचन)। जीवदे = आत्मिक जीवन वाले। उर धारि = हृदय में बसा के। तितु दरबारि = उस दरबार में। तितु सचै दरबारि = उस सदा स्थिर दरबार में।47।

नोट: ‘ओइ’ है ‘ओह/वो’ का बहुवचन।

अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्यों ने गुरु महापुरुख की शरण नहीं पकड़ी, जिन्होंने शब्द में अपना मन नहीं जोड़ा, वे लोग मानव जून में आए हुए नहीं कहे जा सकते, वे तो पशु हैं, वे तो मरे हुए जानवर हैं, वे महा-मूर्ख हैं। उन मनुष्यों के अंदर आत्मिक जीवन की सूझ नहीं है, उनके अंदर प्रभु-चरणों की लगन नहीं है, प्रभु से उनका प्रेम-प्यार नहीं है। अपने मन के पीछे चलने वाले वे मनुष्य विकारों में ही आत्मिक मौत सहेड़ी रखते हैं वे बार-बार जनम-मरण के चक्कर में पड़े रहते हैं।

हे भाई! जो जो मनुष्य आत्मिक जीवन वाले मनुष्यों को मिलते हैं वे सारे ही जगत के जीवन हरि को हृदय में बसा के आत्मिक जीवन वाले बन जाते हैं। हे नानक! गुरु के सन्मुख रहने वाले मनुष्य उस सदा स्थिर (ईश्वरीय) दरबार में शोभा कमाते हैं।47।

हरि मंदरु हरि साजिआ हरि वसै जिसु नालि ॥ गुरमती हरि पाइआ माइआ मोह परजालि ॥ हरि मंदरि वसतु अनेक है नव निधि नामु समालि ॥ धनु भगवंती नानका जिना गुरमुखि लधा हरि भालि ॥ वडभागी गड़ मंदरु खोजिआ हरि हिरदै पाइआ नालि ॥४८॥

पद्अर्थ: साजिआ = बनाया है। जिसु नालि = क्योंकि इस (शरीर) के साथ, इस शरीर में। परजालि = अच्छी तरह जला के। मंदरि = मंदर में। नवनिधि नामु = परमात्मा का नाम जो, मानो, धरती के सारे ही नौ खजाने हैं। समालि = संभाल के रख। धनु = धन्य। भगवंती = भाग्यों वाले। गुरमुखि = गुरु से। लधा = मिल गया। गढ़ = किला। हिरदै = दिल में।

अर्थ: हे भाई! (मनुष्य का ये शरीर-) हरि-मन्दिर परमात्मा ने (खुद) बनाया है, इस शरीर-हरि मंदिर में परमात्मा स्वयं बसता है। (पर) गुरु की मति पर चल कर (अंदर से) माया का मोह अच्छी तरह जला के (ही, किसी भाग्यशाली के अंदर बसता) परमात्मा मिला है।

हे भाई! परमात्मा का नाम, मानो, नौ खजाने हैं (इसको हृदय में) संभाल के रख (अगर हरि-नाम संभाला जाए, तो) इस शरीर हरि मन्दिर में अनेक ही उत्तम कीमती गुण (मिल जाते) हैं।

हे नानक! साबाश है उन भाग्यशालियों को, जिन्होंने गुरु की शरण पड़ कर (इस शरीर हरिमन्दिर में बसता) परमात्मा खोज के पा लिया है। जिस बड़े भाग्यशालियों ने इस शरीर किले को शरीर मन्दिर को खोजा, दिल में ही अपने साथ बसता परमात्मा पा लिया।48।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh