श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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मनमुख दह दिसि फिरि रहे अति तिसना लोभ विकार ॥ माइआ मोहु न चुकई मरि जमहि वारो वार ॥ सतिगुरु सेवि सुखु पाइआ अति तिसना तजि विकार ॥ जनम मरन का दुखु गइआ जन नानक सबदु बीचारि ॥४९॥

पद्अर्थ: मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य। दह = दस। दिसि = दिशा। दह दिसि = दसों तरफ (चार तरफें, चार कोने, ऊपर, नीचे)। न चुकई = खत्म नहीं होता। मरि जंमहि = मर के पैदा होते हैं। वारो वार = बार बार। सेवि = सेवा कर के, शरण पड़ कर। सुखु = आत्मिक आनंद। तजि = त्याग के। सबदु बीचारि = गुरु के शब्द को मन में बसा के।49।

अर्थ: हे भाई! माया की भारी तृष्णा, माया का लालच और अनेक विकारों में फंस के अपने मन के मुरीद मनुष्य दसों दिशाओं में भटकते फिरते हैं। (जब तक उनके अंदर से) माया का मोह खत्म नहीं होता, वह बार-बार पैदा होते रहते हैं।

हे दास नानक! गुरु की शरण पड़ कर (अपने अंदर से) तृष्णा आदि विकार त्याग के जिन्होंने आत्मिक आनंद हासिल कर लिया, गुरु के शब्द को मन में बसा के उनका जनम-मरण (के चक्कर) का दुख दूर हे गया।49।

हरि हरि नामु धिआइ मन हरि दरगह पावहि मानु ॥ किलविख पाप सभि कटीअहि हउमै चुकै गुमानु ॥ गुरमुखि कमलु विगसिआ सभु आतम ब्रहमु पछानु ॥ हरि हरि किरपा धारि प्रभ जन नानक जपि हरि नामु ॥५०॥

पद्अर्थ: मन = हेमन! धिआइ = स्मरण किया कर। पावहि = तू हासिल कर लेगा। मानु = आदर, इज्जत। किलविख = पाप। सभि = सारे। कटीअहि = काटे जाते हैं। चुकै = खत्म हो जाता है। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ कर। कमलु = हृदय कमल फूल। विगसिआ = खिल उठता है। सभु = हर जगह। आतम ब्रहम = सर्व व्यापक हरि। पछानु = पहचान का, साथी। हरि हरि = हे हरि! प्रभ = हे प्रभु! जपि = मैं जपता रहूँ।50।

अर्थ: हे (मेरे) मन! परमात्मा का नाम स्मरण किया कर (नाम-जपने की इनायत से) तू परमात्मा की हजूरी में आदर प्राप्त करेगा। (स्मरण करने से मनुष्य के) सारे पाप ऐब काटे जाते हैं, (मन में से) अहम्-अहंकार दूर हो जाता है। गुरु की शरण पड़ कर (स्मरण करने से) हृदय-कमल-फूल खिल उठता है, हर जगह सर्व-व्यापक प्रभु ही साथी दिखता है।

हे दास नानक! (कह:) हे हरि! हे प्रभु (मेरे पर) मेहर कर, मैं (सदा तेरा) नाम जपता रहूँ।50।

धनासरी धनवंती जाणीऐ भाई जां सतिगुर की कार कमाइ ॥ तनु मनु सउपे जीअ सउ भाई लए हुकमि फिराउ ॥ जह बैसावहि बैसह भाई जह भेजहि तह जाउ ॥ एवडु धनु होरु को नही भाई जेवडु सचा नाउ ॥ सदा सचे के गुण गावां भाई सदा सचे कै संगिरहाउ ॥

पद्अर्थ: धनासरी = एक रागनी। धनवंती = धन वाली, भाग्यशाली। जाणीऐ = समझी जानी चाहिए। भाई = हे भाई! जां = जब। कमाइ = कमाती है। सउपे = सौंपती है, भेटा रती है, हवाले करती है। जीअ सउ = जिंद समेत। हुकमि = हुक्म में। लए फिराउ = फेरा लेती है, चलती फिरती है, जीवन चाल चलती है। जह = जहाँ। बैसावहि = (प्रभु जी) बैठाते हैं। बैसह = हम जीव बैठते हैं। भेजहि = (प्रभु जी) भेजते हैं। तह = वहाँ। जाउ = मैं जाता हूँ।

एवडु = इतना बड़ा, इतना कीमती। को = कोई। जेवडु = जितना कीमती। सचा नाउ = सदा हरि नाम धन। गावां = मैंगाता हूँ। भाई = हे भाई! कै संगि = के साथ। सचे कै संगि = सदा स्थिर प्रभूके साथ। रहाउ = रहूँ, मैं रहता हूँ।

अर्थ: हे भाई! जब कोई जीव-स्त्री गुरु के (बताए हुए) कार्य करने लग जाती है, जब वह अपना तन अपना मन अपनी जिंद समेत (अपने गुरु के) हवाले करती है, जब वह (अपने गुरु के) हुक्म में जीवन-चाल चलने लग जाती है, तब उस जीव-स्त्री को नाम-धन वाली भाग्यशाली समझना चाहिए। (हे भाई! जीव प्रभु के हुक्म से आकी हो ही नहीं सकते) जहाँ प्रभु जी हम जीवों को बैठाते हैं, वहीं हम बैठते हैं, जहाँ प्रभु जी मुझे भेजते हैं, वहीं मैं जाता हूँ।

हे भाई! सदा कायम रहने वाले परमात्मा का नाम (-धन) जितना कीमती है, इतना कीमती और कोईधन नहीं है। हे भाई! मैं तो सदा-स्थिर रहने वाले प्रभु के गुण ही सदा गाता हूँ, सदा-स्थिर प्रभु के चरणों में ही सदा टिका रहता हूँ।

पैनणु गुण चंगिआईआ भाई आपणी पति के साद आपे खाइ ॥ तिस का किआ सालाहीऐ भाई दरसन कउ बलि जाइ ॥ सतिगुर विचि वडीआ वडिआईआ भाई करमि मिलै तां पाइ ॥ इकि हुकमु मंनि न जाणनी भाई दूजै भाइ फिराइ ॥ संगति ढोई ना मिलै भाई बैसणि मिलै न थाउ ॥ नानक हुकमु तिना मनाइसी भाई जिना धुरे कमाइआ नाउ ॥ तिन्ह विटहु हउ वारिआ भाई तिन कउ सद बलिहारै जाउ ॥५१॥

पद्अर्थ: पैनणु = पोशाक, सिरोपा, (लोक परलोक में) इज्जत। पति = इज्जत। पति के साद = (मिली) इज्जत के आनंद। आपे = आप ही। खाइ = खाता है, भोगता है। तिस का उस (मनुष्य) का। किआ सालाहीऐ = क्या महिमा की जाए? महिमा हो ही नहीं सकती। बलि जाइ = सदके जाता रहता है। दरसन कउ = (परमात्मा के) दर्शन से।

नोट: ‘तिस का’ में से संबंधक ‘का’ के कारण शब्द ‘तिसु’ का ‘ु’ हट गया है।

वडिआईआ = गुण। भाई = हे भाई! करमि = मेहर से, प्रभु की बख्शिश से। मिलै = (गुरु) मिल जाता है। तां = तब। पाइ = (जब मनुष्य को गुरु मिल जाता है तब) हासिल रता है। इकि = कई। मंनि न जाणनी = मानना नहीं जानते। दूजै भाइ = माया के प्यार में। फिराइ = भटक भटक के। ढोई = आसरा, सहारा। बैसणि = बैठने के लिए।

नोट: ‘इकि’ है ‘इक/एक’ का बहुवचन।

नानक = हे नानक! धुरे = धुर दरगाह से लिए अनुसार। कमाइआ नाउ = नाम मिशन की कमाई की। विटहु = से। हउ = मैं। वारिआ = कुरबान। सद = सदा। जाउ = मैं जाता हूँ।51।

अर्थ: हे भाई! (जिस मनुष्य के हृदय में ईश्वरीय) गुणों (ईश्वरीय) अच्छाईयों का निवास हो जाता है (वे मनुष्य लोक-परलोक में) आदर-सत्कार हासिल करते हैं। (वे मनुष्य) अपनी (इस मिली) इज्जत का आनंद खुद ही भोगते रहते हैं (वे आनंद बयान नहीं किए जा सकते)। हे भाई! उस मनुष्य की महिमा (पूरे तौर पर) नहीं की जा सकती, वह मनुष्य परमात्मा के दर्शन से (हमेशा) सदका होता रहता है।

हे भाई! गुरु में बड़े गुण हैं, (जब किसी मनुष्य को परमात्मा की) मेहर से (गुरु) मिल जाता है, तब वह (ये गुण) हासिल कर लेता है। पर कई लोग (ऐसे हैं जो) माया के मोह में भटक-भटक के (गुरु का) हुक्म मानना नहीं जानते। हे भाई! (ऐसे मनुष्यों को) साधु-संगत में आसरा नहीं मिलता, साधु-संगतमें बैठने के लिए जगह नहीं मिलती (क्योंकि वह तो संगति की ओर जाता ही नहीं)।

हे नानक! (कह: हे भाई!) धुर दरगाह से (पिछले किए कर्मों के संस्कारोंके अनुसार) जिस मनुष्यों ने हरि-नाम जपने की कमाई करनी शुरू की, उन मनुष्यों से ही (परमात्मा अपनी) रज़ा (मीठी कर के) मनाता है। हे भाई! मैं ऐसे मनुष्यों पर से कुर्बान जाता हूँ, सदके जाता हूँ।51।

से दाड़ीआं सचीआ जि गुर चरनी लगंन्हि ॥ अनदिनु सेवनि गुरु आपणा अनदिनु अनदि रहंन्हि ॥ नानक से मुह सोहणे सचै दरि दिसंन्हि ॥५२॥

नोट: किसी मनुष्य की दाढ़ी इस बात का लक्षण माना गया है कि वह अब ऐतबार योग्य हो गया है, आदर–सत्कार का हकदार हो गया है।

पद्अर्थ: से = वे (बहुवचन)। सचीआ = सच्ची, सचमुच आदर सत्कार की हकदार। जि = जो मनुष्य। अनदिनु = हर रोज, हर वक्त। सेवनि = शरण पड़े रहते हैं। अनदि = आनंद में। रहंन्हि = टिके रहते हैं। सचै दरि = सदा स्थिर हरि के दर पर।52।

अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य गुरु के चरणों में टिके रहते हैं, जो मनुष्य हर वक्त अपने गुरु की शरण पड़े रहते हैं, और हर वक्त आत्मिक आनंद में लीन रहते हैं, उन मनुष्यों की दाढ़ियां सचमुच आदर-सत्कार की हकदार हो जाती हैं। हे नानक! (उन ही मनुष्यों के) ये मुँह सदा-स्थिर प्रभु के दर पर सुंदर दिखाई देते हैं।52।

मुख सचे सचु दाड़ीआ सचु बोलहि सचु कमाहि ॥ सचा सबदु मनि वसिआ सतिगुर मांहि समांहि ॥ सची रासी सचु धनु उतम पदवी पांहि ॥ सचु सुणहि सचु मंनि लैनि सची कार कमाहि ॥ सची दरगह बैसणा सचे माहि समाहि ॥ नानक विणु सतिगुर सचु न पाईऐ मनमुख भूले जांहि ॥५३॥

पद्अर्थ: मुख = मुँह (बहुवचन)। सचे = आदर-सत्कार के हकदार। सचु = सदा स्थिर हरि नाम। सचु कमाहि = सदा स्थिर हरि नाम जपने की कमाई करते हैं। मनि = मन में। मांहि = में। समांहि = लीन हुए रहते हैं। रासी = राशि, पूंजी, संपत्ति, धन-दौलत। पदवी = आत्मिक दर्जा। पांहि = पाते हैं, हासिल कर लेते हैं। मंनि लैनि = मान लेतेहैं। बैसणा = आदर की जगह। मनमुखि = अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य। भूले जांहि = गलत राह पर पड़े रहते हैं।53।

अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य सदा-स्थिर हरि-नाम स्मरण करते हैं, सदा-स्थिर हरि-नाम जपने की कमाई करते रहते हैं, जिनके मन में सदा-स्थिर प्रभु की महिमा का शब्द हर वक्त टिका रहता है, जो हर वक्त गुरु में लीन रहते हैं, उनके मुँह सचमुच सत्कार के हकदार हो जाते हैं, उनकी दाढ़ियां सम्मान की हकदार हो जाती हैं। उन मनुष्यों के पास सदा-स्थिर हरि-नाम की संपत्ति धन (एकत्र हो जाता) है, वह मनुष्य (लोक-परलोक में) उच्च आत्मिक दर्जा हासिल कर लेते हैं।

हे भाई! जो मनुष्य (हर वक्त) सदा-स्थिर हरि-नाम सुनते हैं, सदा-स्थिर हरि-नाम को सिदक-श्रद्धा से अपने अंदर बसा लेते हैं। सदा-स्थिर हरि-नाम जपने की कार करते हैं उन मनुष्यों को सदा-स्थिर प्रभु की हजूरी में मान-सम्मान की जगह मिलती है, वह सदा-स्थिर प्रभु (की याद) में हर वक्त लीन रहते हैं।

पर, हे नानक! गुरु की शरण के बिना सदा-स्थिर हरि-नाम नहीं मिलता। अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य (अवश्य जिन्दगी के) ग़लत रास्ते पर पड़े रहते हैं।53।

बाबीहा प्रिउ प्रिउ करे जलनिधि प्रेम पिआरि ॥ गुर मिले सीतल जलु पाइआ सभि दूख निवारणहारु ॥ तिस चुकै सहजु ऊपजै चुकै कूक पुकार ॥ नानक गुरमुखि सांति होइ नामु रखहु उरि धारि ॥५४॥

पद्अर्थ: बाबीहा = पपीहा। प्रिउ प्रिउ करे = ‘प्रिउ प्रिउ’ पुकारता है। जल निधि = पानी का खजाना, बादल, आत्मिक जीवन देने वाला नाम जल का खजाना, परमात्मा। पिआरि = प्यार में। सीतल जलु = आत्मिक ठंड देने वाला नाम जल। सभि = सारे। निवारणहारु = दूर करने की समर्थता वाला। तिस = तिखा, प्यास, तृष्णा। चुकै = खत्म हो जाती है। सहजु = आत्मिक अडोलता। कूक पुकार = (माया की खातिर) दौड़ भाग। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ने पर। उरि = हृदय में।54।

अर्थ: हे भाई! (जैसे) पपीहा बादल के प्रेम में (वर्षा की बूँद की खातिर) ‘प्रिउ प्रिउ’ पुकारता रहता है (जब वह बूँद उसको मिलती है, तो वह प्यास खत्म हो जाती है, उसकी ‘कूक पुकार’ खत्म हो जाती है। वैसे ही गुरु के सन्मुख रहने वाला मनुष्य परमात्मा के प्रेम-प्यार में परमात्मा का नाम उचारता रहता है), गुरु को मिल के वह आत्मिक ठंड देने वाला नाम-जल प्राप्त कर लेता है, (वह नाम-जल) सारे दुख दूर करने की समर्थता वाला है। (इस नाम-जल की इनायत से, उसकी) तृष्णा खत्म हो जाती है (उसके अंदर) आत्मिक अडोलता पैदा हो जाती है, (माया की खातिर उसकी) घबराहट खत्म हो जाती है।

हे नानक! गुरु की शरण पड़ने से (नाम की इनायत से) आत्मिक ठंड मिल जाती है। इसलिए, हे भाई! परमात्मा का नाम हृदय में बसाए रखो।54।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh