श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 1420 बाबीहा तूं सचु चउ सचे सउ लिव लाइ ॥ बोलिआ तेरा थाइ पवै गुरमुखि होइ अलाइ ॥ सबदु चीनि तिख उतरै मंनि लै रजाइ ॥ चारे कुंडा झोकि वरसदा बूंद पवै सहजि सुभाइ ॥ जल ही ते सभ ऊपजै बिनु जल पिआस न जाइ ॥ नानक हरि जलु जिनि पीआ तिसु भूख न लागै आइ ॥५५॥ पद्अर्थ: बाबीहा = हे पपीहे! (हे आत्मिक बूँद देने वाली नाम बूँद के रसिए!)। सचु = सदा कायम रहने वाला हरि नाम। चउ = उचार, उचारा कर। सचे कउ = सदा स्थिर हरि नाम से। लिव लाइ = तवज्जो जोड़ी रख। थाइ = जगह में। थाइ पवै = स्वीकार होगा। अलाइ = अलापा कर। गुरमुखि सोइ = गुरु की शरण पड़ कर। चीनि = पहचान के, सांझ डाल के। तिख = प्यास (माया की तृष्णा)। रजाइ = रजा, भाणा, हुक्म। चारे कुंडां = हर तरफ। झोकि = झुक के। सहजि = आत्मिक अडोलता में। सुभाइ = प्रेम में। ते = से। सभ = सारी लुकाई। जिनि = जिस (मनुष्य) ने। तिसु = उस (मनुष्य) को।55। नोट: ‘थाइ’ है शब्द ‘थाउ’ का अधिकरण कारक एकवचन। अर्थ: हे पपीहे! (हे आत्मिक जीवन देने वाली नाम-बूँद के रसिए!) तू सदा कायम रहने वाले परमात्मा का नाम स्मरण किया कर, सदा-स्थिर प्रभु से तवज्जो जोड़ के रखा कर। गुरु की शरण पड़ कर (हरि-नाम) उचारा कर, (तब ही) तेरा स्मरण करने का उद्यम (प्रभु की हजूरी में) स्वीकार पड़ सकता है। हे भाई! गुरु के शब्द के साथ सांझ डाल के (परमात्मा के) हुक्म को भला समझ के माना कर (इस तरह माया की) तृष्णा दूर हो जाती है। (हे पपीहे! यह नाम-जल) सारी सृष्टि में बरसता रहता है (पर, इसकी) बूँद (उस मनुष्य के मुँह में ही) पड़ती है (जो) आत्मिक अडोलता में है (जो परमात्मा के) प्रेम में (लीन) है। हे भाई! (प्रभु से ही, हरि नाम) जल से ही सारी सृष्टि पैदा होती है (तभी हरि-नाम) जल के बिना (किसी भी जीव की माया की) प्यास दूर नहीं होती। हे नानक! जिस (मनुष्य) ने हरि-नाम-जल पी लिया, उसको (कभी माया की) भूख नहीं व्यापती।55। बाबीहा तूं सहजि बोलि सचै सबदि सुभाइ ॥ सभु किछु तेरै नालि है सतिगुरि दीआ दिखाइ ॥ आपु पछाणहि प्रीतमु मिलै वुठा छहबर लाइ ॥ झिमि झिमि अम्रितु वरसदा तिसना भुख सभ जाइ ॥ कूक पुकार न होवई जोती जोति मिलाइ ॥ नानक सुखि सवन्हि सोहागणी सचै नामि समाइ ॥५६॥ पद्अर्थ: बाबीहा = हे पपीहे! (हे आत्मिक जीवन देने वाली नाम बूँद के रसिए!)। सहजि = आत्मिक अडोलता में (टिका के)। बोलि = (हरि नाम) जपा कर। सचै सबदि = सदा स्थिर प्रभु की महिमा के शब्द में (जुड़ के)। सुभाइ = (प्रभु के) प्यार में (टिक के)। सभ किछु = (हरि नाम बूँद से पैदा होने वाला) हरेक आनंद। सतिगुरि = गुरु ने। आपु = अपना आप, अपना आत्मिक जीवन। पछाणहि = (जो जीव) पड़तालते रहते हैं। वुठा = आ बसता है। छहबर लाइ = झड़ी लगा के। झिमि झिमि = धीरे-धीरे, अडोल। कूक पुकार = माया के मोह का शोर। न होवई = नहीं होता। सुखि = आत्मिक आनंद में। सवन्हि = लीन रहती हैं। सोहागणी = भाग्यों वाली जीव स्त्रीयां। समाइ = टिक के। सचै नामि = सदा स्थिर हरि नाम में।56। अर्थ: हे पपीहे! (हे आत्मिक जीवन देने वाली नाम बूँद के रसिए!) आत्मिक अडोलता में (टिक के) सदा-स्थिर प्रभु की महिमा के शब्द में (जुड़ के), (प्रभु के) प्यार में (टिक के), तू (हरि का नाम) जपा कर। हे पपीहे! (हरि-नाम-बूँद से पैदा होने वाला) हरेक आनंद मौजूद है (पर ये आनंद उसी जीव को प्राप्त होता है, जिसको) गुरु ने (ये) दिखा दिया है। हे भाई! जो मनुष्य अपने आत्मिक जीवन को पड़तालते रहते हैं, उनको प्रीतम-प्रभु मिल जाता है, उनके अंदर (महिमा के बादल) झड़ी लगा के आ बसता है। उनके अंदर धीरे-धीरे अडोल आत्मिक जीवन वाले नाम-जल की बरखा होती रहती है (उनके अंदर से) माया की सारी तृष्णा माया की सारी भूख दूर हो जाती है। माया के मोह का सारा शोर उनके अंदर से समाप्त हो जाता है, उनकी जिंद प्रभु की ज्योति में मिली रहती है। हे नानक! सदा-स्थिर हरि-नाम में लीन हो के भाग्यशाली जीव-स्त्रीयां आत्मिक आनंद में टिकी रहती हैं।56। धुरहु खसमि भेजिआ सचै हुकमि पठाइ ॥ इंदु वरसै दइआ करि गूड़्ही छहबर लाइ ॥ बाबीहे तनि मनि सुखु होइ जां ततु बूंद मुहि पाइ ॥ अनु धनु बहुता उपजै धरती सोभा पाइ ॥ अनदिनु लोकु भगति करे गुर कै सबदि समाइ ॥ आपे सचा बखसि लए करि किरपा करै रजाइ ॥ हरि गुण गावहु कामणी सचै सबदि समाइ ॥ भै का सहजु सीगारु करिहु सचि रहहु लिव लाइ ॥ नानक नामो मनि वसै हरि दरगह लए छडाइ ॥५७॥ पद्अर्थ: धुरहु = (अपनी) धुर दरगाह से। खसमि = मालिक प्रभु ने। सचै = सदा कायम रहने वाले। पठाइ = भेज के (प्रस्थाप्य)। इंदु = इन्द्र देवता, बादल। छहबर लाइ = झड़ी लगा के। तनि = तन में। मनि = मन में। जां = जब। ततु = (जीवन तत्व) हरि नाम। मुहि = मुँह में। अनु = अन्न। उपजै = पैदा होता है। पाइ = हासिल करती है। अनदिनु = हर रोज, हर वक्त। कै सबदि = के शब्द में। समाइ = लीन हो के। आपे = आप ही। सचा = सदा स्थिर प्रभु। करै रजाइ = अपना हुक्म चलाता है।, हुक्म लागू करता है। कामणी = हे जीव-स्त्री! भै का सहजु = (परमात्मा के) डर अदब से पैदा हुई आत्मिक अडोलता। सीगारु = श्रृंगार, गहना। सचि = सदा स्थिर प्रभु में। लिव लाइ = तवज्जो/ध्यान जोड़ के। नामौ = नाम ही। मनि = मन में। लए छडाइ = लेखे से बचा लेता है।57। अर्थ: हे भाई! सदा कायम रहने वाले मालिक प्रभु ने धुर दरगाह से (अपने) हुक्म अनुसार (ही) प्रेरित कर के (इन्द्र देवते को, गुरु को सदा) भेजा है। (उसके हुक्म में ही) मेहर कर के बादल (गुरु) खूब झड़ी लगा के बरखा करता है। जब पपीहा (आत्मिक जीवन देने वाली नाम-बूँद का रसिया) नाम-बूँद (अपने) मुँह में डालता है, तब उसके तन में आनंद पैदा होता है। (जैसे वर्षा से) धरती हरी-भरी हो जाती है, (उसमें) बहुत अन्न पैदा होता है (जैसे) गुरु के शब्द में लीन हो के जगत हर वक्त परमात्मा की भक्ति करने लग जाता है। सदा कायम रहने वाला प्रभु खुद ही (गुरु की शरण पड़ी हुई दुनिया पर) बख्शिश करता है, मेहर करके अपना हुक्म बरताता है, (हुक्म लागू करता है)। हे जीव-स्त्री! सदा-स्थिर प्रभु की महिमा की वाणी में लीन हो के परमात्मा के गुण गाया कर, (प्रभु के) डर-अदब से पैदा हुई आत्मिक अडोलता को (अपने जीवन का) श्रंृगार बनाए रख, सदा-स्थिर हरि में तवज्जो जोड़ के टिके रहा कर। हे नानक! जिसके मन में हरि नाम ही टिका रहता है, परमात्मा उसको दरगाह में लेखे से बचा लेता है।57। बाबीहा सगली धरती जे फिरहि ऊडि चड़हि आकासि ॥ सतिगुरि मिलिऐ जलु पाईऐ चूकै भूख पिआस ॥ जीउ पिंडु सभु तिस का सभु किछु तिस कै पासि ॥ विणु बोलिआ सभु किछु जाणदा किसु आगै कीचै अरदासि ॥ नानक घटि घटि एको वरतदा सबदि करे परगास ॥५८॥ पद्अर्थ: बाबीहा = हे पपीहे! (हे आत्मिक जीवन देने वाली नाम बूँद के रसिए!)। फिरहि = तू फिरता रहे। ऊडि = उड़ के। आकासि = आकाश में। सतिगुरि मिलिऐ = अगर सतिगुरु मिल जाए, गुरु के मिलने से ही। पाईऐ = मिलता है। चूकै = समाप्त हो जाती है। जीउ = जिंद। पिंडु = शरीर। विणु बोलिआ = बिना बोले। कीचै = की जाए। घटि घटि = हरेक शरीर में। एको = एक प्रभु ही। सबदि = गुरु के शब्द से। परगास = (आत्मिक जीवन की) रौशनी।58। नोट: ‘तिस का’ में से ‘तिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘का’ के कारण हटा दी गई है। नोट: ‘तिस कै’ में से ‘तिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘कै’ के कारण हटा दी गई है। अर्थ: हे आत्मिक जीवन देने वाली नाम बूँद के रसिए! (गुरु को छोड़ के) तू (तीर्थ-यात्रा आदि की खातिर) सारी धरती पर रटन करता फिरे, अगर तू (मानसिक शक्तियों की मदद से) उड़ के आकाश में भी जा पहुँचे (तो भी इस तरह माया की तृष्णा की भूख नहीं मिटती। सिर्फ नाम-जल से ही माया की) भूख-प्यास मिटती है (और वह नाम-) जल गुरु के मिलने पर (ही) प्राप्त होता है। हे भाई! ये जिंद ये शरीर सब कुछ उस (परमात्मा) का ही दिया हुआ है, हरेक दाति उस के ही वश में है। (जीवों के) बोले बिना ही (हरेक जीव की) हरेक जरूरत वह जानता है, (उसको छोड़ के) और किस के आगे अरदास की जा सकती है? हे नानक! हरेक शरीर में वह परमात्मा स्वयं ही मौजूद है, (गुरु के) शब्द द्वारा (हरेक जीव के अंदर आत्मिक जीवन की) रौशनी (वह खुद ही) करता है।58। नानक तिसै बसंतु है जि सतिगुरु सेवि समाइ ॥ हरि वुठा मनु तनु सभु परफड़ै सभु जगु हरीआवलु होइ ॥५९॥ पद्अर्थ: तिसै = उस (मनुष्य) को ही। बसंतु = खिलने की ऋतु। जि = जो (मनुष्य)। सेव = शरण पड़ कर। समाइ = (हरि नाम में) लीन रहता है। वुठा = आ बसता है। परफड़े = खिल उठता है। हरीआवलु = हरा भरा।59। अर्थ: (जैसे बसंत ऋतु आने पर) सारा जगत हरा-भरा हो जाता है, (वैसे ही) हे नानक! जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ कर (हरि नाम में) लीन रहता है उसके अंदर आत्मिक खिलाव की ऋतु बनी रहती है (जब मनुष्य के अंदर) परमात्मा आ बसता है, उसका तन उसका मन (आत्मिक आनंद से) खिल उठता है।59। सबदे सदा बसंतु है जितु तनु मनु हरिआ होइ ॥ नानक नामु न वीसरै जिनि सिरिआ सभु कोइ ॥६०॥ पद्अर्थ: सबदे = गुरु के शब्द से। जितु = जिस (बसंत) से। जिनि = जिस (प्रभु) ने। सिरिआ = पैदा किया है। सभु कोइ = हरेक जीव।60। अर्थ: हे नानक! जिस (परमात्मा) ने हरेक जीव पैदा किया है (जिस मनुष्य को उसका) नाम (गुरु के) शब्द से (कभी) नहीं भूलता, उसके अंदर सदा के लिए (ऐसी) खिलने की ऋतु बन जाती है जिसकी इनायत से उसका मन आनंद-भरपूर हो जाता है।60। नानक तिना बसंतु है जिना गुरमुखि वसिआ मनि सोइ ॥ हरि वुठै मनु तनु परफड़ै सभु जगु हरिआ होइ ॥६१॥ पद्अर्थ: गुरमुखि = गुरु से। मनि = मन में। सोइ = वह परमात्मा। हरि वुठै = जब परमात्मा आ बसता है। परफड़ै = खिल उठता है।61। अर्थ: हे नानक! गुरु की शरण पड़ कर जिस मनुष्यों के मन में वह (परमात्मा) आ बसता है, उनके अंदर आत्मिक खिलाव का समय बना रहता है। हे भाई! (जैसे बसंत ऋतु में) सारा जगत हरा-भरा हो जाता है (वैसे ही, जिस मनुष्य के अंदर) परमात्मा आ बसता है (उसका) मन (उसका) तन खिल उठता है।61। वडड़ै झालि झलु्मभलै नावड़ा लईऐ किसु ॥ नाउ लईऐ परमेसरै भंनण घड़ण समरथु ॥६२॥ पद्अर्थ: झालि = झालांघे, प्रभात के समय। वडड़ै झालि = बहुत सवेरे। झलुंभलै = घुसमुसे, भोर के वक्त। नावड़ा = सुंदर नाम। किसु नावड़ा = किसका सुंदर नाम? परमेसरै नाउ = परमेश्वर का नाम। समरथु = ताकत वाला।62। अर्थ: हे भाई सुबह प्रभात के वक्त (उठ के) किस का सुंदर नाम लेना चाहिए? उस परमेश्वर का नाम लेना चाहिए है जो (जीवों को) पैदा करने व नाश करने की समर्थता वाला है।62। हरहट भी तूं तूं करहि बोलहि भली बाणि ॥ साहिबु सदा हदूरि है किआ उची करहि पुकार ॥ जिनि जगतु उपाइ हरि रंगु कीआ तिसै विटहु कुरबाणु ॥ आपु छोडहि तां सहु मिलै सचा एहु वीचारु ॥ हउमै फिका बोलणा बुझि न सका कार ॥ वणु त्रिणु त्रिभवणु तुझै धिआइदा अनदिनु सदा विहाण ॥ बिनु सतिगुर किनै न पाइआ करि करि थके वीचार ॥ नदरि करहि जे आपणी तां आपे लैहि सवारि ॥ नानक गुरमुखि जिन्ही धिआइआ आए से परवाणु ॥६३॥ पद्अर्थ: हरहट = रहट (बहुवचन)। करहि = करते हैं (बहुवचन)। बोलहि = बोलते हैं। भली बाणि = मीठी बोली। हदूरि = हाजर नाजर, हर जगह हाजिर। करहि = तू करता है। किआ = किस लिए?। जिनि = जिस (परमात्मा) ने। जिनि हरि = जिस हरि ने। रंगु = तमाशा। विटहु = से। आपु = स्वै भाव। छोडहि = अगर तू छोड़ दे। सहु = शहु, पति प्रभु। सचा = अटल, सदा कायम रहने वाला। फिका = फीका, बेस्वादा। बुझि न सका = समझ नहीं सकूँ। कार = (परमात्मा को मिल सकने वाला) करतब। वणु = जंगल। त्रिणु = तीला, घास। त्रिभवणु = सारा जगत। अनदिनु = हर रोज, हरेक दिन। विहाण = बीतता है। करि = कर के। करि करि वीचार = (और-और) विचारें कर कर के। नदरि = मेहर की निगाह। करहि = (हे प्रभु!) तू करे। आपे = स्वयं ही। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ कर। से = वह (बहुवचन)। परवाणु = मंजूर, स्वीकार।63। अर्थ: हे भाई! मालिक-प्रभु तो सदा तेरे साथ बसता है (उस अंदर बसते प्रभु को भुला के बाहर लोक-दिखावे के लिए) तू क्यों ऊँची-ऊँची पुकारता (फिरता) है? (इस तरह तो) रहट भी (चलते कूँए की आवाज निकालते इस तरह लगते हैं कि) ‘तूं तूं’ कर रहे हैं, और मीठी सुर में आवाज़ निकालते हैं (पर, वह भक्ति तो नहीं कर रहे)। हे भाई! जिस हरि ने यह जगत पैदा करके यह खेल तमाशा बनाया है, उससे सदके हुआ कर। सदा कायम रहने वाला विचार यह है कि अगर तू (अपने अंदर से) स्वै भाव छोड़ देगा, तो तुझे परमात्मा मिल जाएगा। हे भाई! अहम्-अहंकार के आसरे (तूं तूं) बोलता (भी) फीका रहता है (आत्मिक जीवन के हिलौरे पैदा नहीं कर सकता)। (अगर मैं हमेशा अहंकार के आसरे ही, अहम् में रह कर ही ‘तूं तूं’ बोलता रहा, तो) मैं (परमात्मा के साथ मिल सकने वाला) करतब नहीं समझ सकता। हे प्रभु! जंगल, (जंगल के) घास (से लेकर), सारा जगत तुझे ही स्मरण कर रहा है। हरेक दिन सदा सारा समय (तेरी ही याद में) बीत रहा है। पर (अनेक ही पंडित लोग) सोचें-विचारें करके थकते चले आ रहे हैं, गुरु की शरण पड़े बिना किसी ने तेरा मिलाप प्राप्त नहीं किया। अगर तू मेहर की निगाह करे, तो तू स्वयं ही (जीवों के आत्मिक जीवन) सुंदर बना लेता है। हे नानक! गुरु की शरण पड़ कर जिस मनुष्यों ने प्रभु का नाम स्मरण किया है, जगत में उन्हीं का पैदा होना (प्रभु की हजूरी में) स्वीकार हुआ है।63। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |