श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 1421 जोगु न भगवी कपड़ी जोगु न मैले वेसि ॥ नानक घरि बैठिआ जोगु पाईऐ सतिगुर कै उपदेसि ॥६४॥ पद्अर्थ: जोगु = (परमात्मा से) मिलाप। भगवी कपड़ी = भगवे कपड़ों से, गेरुए रंग के वस्त्रों से। वेसि = भेस से, पहरावे से। घरि = घर में, गृहस्थ में। पाईऐ = प्राप्त कर लेता है। कै उपदेसि = के उपदेश से।64। अर्थ: हे भाई! (गृहस्थ त्याग के) गेरुए रंग के कपड़ों से अथवा मैले पहरावे से (परमात्मा का) मिलाप नहीं हो जाता। पर, हाँ, हे नानक! गुरु के उपदेश से गृहस्थ में रहते हुए ही (परमात्मा से) मिलाप हो सकता है।64। चारे कुंडा जे भवहि बेद पड़हि जुग चारि ॥ नानक साचा भेटै हरि मनि वसै पावहि मोख दुआर ॥६५॥ पद्अर्थ: चारे कुंडा = चारों तरफ। भवहि = तू भटकता फिरे। पढ़हि = तू पढ़ता रहे, पढ़े। साचा = सदा कायम रहने वाला प्रभु। भेटै = मिल जाता है। मनि = मन में। वसै = आ बसता है। पावहि = तू प्राप्त कर लेगा। मोख दुआर = विकारों से खलासी का रास्ता।65। अर्थ: हे भाई! (गृहस्थ त्याग के) अगर तू (धरती पर) चारों तरफ भागता फिरे, और, अगर तू सदा ही वेद (आदि धर्म-पुस्तकें) पढ़ता रहे (तो भी विकारों से खलासी का रास्ता नहीं पा सकता)। हे नानक! (कह: हे भाई!) तू विकारों से निजात का दरवाजा (तब) ढूँढ लेगा, जब सदा कायम रहने वाला परमात्मा तुझे मिल जाएगा, जब हरि (तेरे) मन में आ बसेगा।65। नानक हुकमु वरतै खसम का मति भवी फिरहि चल चित ॥ मनमुख सउ करि दोसती सुख कि पुछहि मित ॥ गुरमुख सउ करि दोसती सतिगुर सउ लाइ चितु ॥ जमण मरण का मूलु कटीऐ तां सुखु होवी मित ॥६६॥ पद्अर्थ: नानक = हे नानक! वरतै = बरत रहा है, चल रहा है। भवी = उल्टी हुई है, उल्टे रास्ते पड़ी हुई है। फिरहि = तू फिरता है। चलचित = चंचल चिक्त हो के। मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य। सउ = से। करि = कर के, बना के। कि = कौन से? मित = हे मित्र! करि दोसती = दोस्ती पैदा कर। लाइ चितु = चिक्त जोड़ी रख। मूलु = जड़। कटीऐ = काटा जाता है। मित = हे मित्र!।66। अर्थ: हे नानक! (कह: हे भाई! तेरे भी कया वश? सारे संसार में) मालिक-प्रभु का हुक्म चल रहा है (उस हुक्म में ही) तेरी मति उल्टे रास्ते पर पड़ी हुई है, और तू चंचल-चिक्त हो के (धरती पर) विचर रहा है। पर, हे मित्र! (यह तो बता कि) अपने मन के पीछे चलने वालों के साथ दोस्ती पा के तू आत्मिक आनंद की आस कैसे कर सकता है? हे भाई गुरु के सन्मुख रहने वालों के साथ मित्रता बना, गुरु (के चरणों) से चिक्त जोड़े रख। (इस तरह जब) जनम-मरण के चक्करों की जड़ काटी जाती है, तब आत्मिक आनंद प्राप्त होता है।66। भुलिआं आपि समझाइसी जा कउ नदरि करे ॥ नानक नदरी बाहरी करण पलाह करे ॥६७॥ पद्अर्थ: समझाइसी = सूझ बख्शेगा। जा कउ = जिस (मनुष्य) पर। नदरि = मेहर की निगाह। नदरी बाहरी = मेहर की निगाह से बाहर रह के। करण पलाह = (करुणा प्रलाप; करुणा = तरस; प्रलाप = विरलाप भरे बोल) तरस भरे बोल, दुहाई।67। अर्थ: हे भाई! जिन्दगी के गलत रास्ते पर पड़े हुए भी जिस मनुष्य पर (परमात्मा) मेहर की निगाह करता है, उसको खुद (ही आत्मिक जीवन की) समझ बख्श देता है। हे नानक! परमात्मा की मेहर की निगाह से वंचित हुआ मनुष्य (सदा) विरलाप ही करता रहता है।67। सलोक महला ४ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ वडभागीआ सोहागणी जिन्हा गुरमुखि मिलिआ हरि राइ ॥ अंतरि जोति परगासीआ नानक नामि समाइ ॥१॥ पद्अर्थ: सोहागणी = सोहाग वाली। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ कर। हरि राइ = प्रभु पातशाह। अंतरि = (उनके) अंदर। परगासीआ = चमक पड़ती है। नामि = नाम में। समाइ = लीन रह के।1। अर्थ: हे नानक! गुरु की शरण पड़ कर जिस जीव-स्त्रीयों को प्रभु-पातशाह मिल जाता है, वे अति भाग्यशाली बन जाती है, वे सोहगनें कहलाती है। प्रभु के नाम में लीन रह के उनके अंदर परमात्मा की ज्योति चमक उठती है।1। वाहु वाहु सतिगुरु पुरखु है जिनि सचु जाता सोइ ॥ जितु मिलिऐ तिख उतरै तनु मनु सीतलु होइ ॥ वाहु वाहु सतिगुरु सति पुरखु है जिस नो समतु सभ कोइ ॥ वाहु वाहु सतिगुरु निरवैरु है जिसु निंदा उसतति तुलि होइ ॥ वाहु वाहु सतिगुरु सुजाणु है जिसु अंतरि ब्रहमु वीचारु ॥ वाहु वाहु सतिगुरु निरंकारु है जिसु अंतु न पारावारु ॥ वाहु वाहु सतिगुरू है जि सचु द्रिड़ाए सोइ ॥ नानक सतिगुर वाहु वाहु जिस ते नामु परापति होइ ॥२॥ पद्अर्थ: वाहु = धन्य, सराहनीय। वाहु वाहु = धन्य धन्य। जिनि = जिस (गुरु) ने। सचु = सदा कायम रहने वाला प्रभु। जाता = सांझ डाली। जितु मिलिऐ = जिसको मिलने से। तिख = त्रेह। सीतल = ठंडा ठार। समतु = एक जैसा। सभ कोइ = हरेक जीव। तुलि = बराबर। सुजाणु = समझदार। जिसु अंतरि = जिस (गुरु) के अंदर। जिसु अंतु न = जिस (परमात्मा के गुणों) का अंत नहीं (पड़ सकता)। जि = जो। द्रिढ़ाए = हृदय में पक्का करता है। सतिगुर वाहु वाहु = गुरु को धन्य धन्य (कहो)। जिस ते = जिस (गुरु) से। नोट: ‘जिस नो’ में से ‘जिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘नो’ के कारण हटा दी गई है। नोट: ‘जिस ते’ में से ‘जिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘ते’ के कारण हटा दी गई है। अर्थ: हे भाई! महापुरुष गुरु धन्य है धन्य है, जिस (गुरु) ने सदा कायम रहने वाले प्रभु के साथ गहरी सांझ डाली हुई है, जिस (गुरु) को मिलने से (माया की) तष्णा दूर हो जाती है, (मनुष्य का) तन और मन ठंडा शांत हो जाता है। हे भाई! गुरु सत्पुरख सराहनीय है धन्य है, क्योंकि उसको हरेक जीव एक जैसा (दिखता) है। गुरु धन्य है, गुरु धन्य है, गुरु को किसी से वैर नहीं (कोई मनुष्य गुरु की निंदा करे) गुरु को (वह) निंदा अथवा बड़ाई एक जैसी ही प्रतीत होती है। हे भाई! गुरु धन्य है गुरु धन्य है, गुरु (आत्मिक जीवन की सूझ में) समझदार है, गुरु के अंदर परमात्मा सदा बस रहा है। गुरु सराहने-योग्य है, गुरु (उस) निरंकार (का रूप) है जिसके गुणों का अंत इस पार का-उस पार का अंत नहीं पाया जा सकता। गुरु धन्य है गुरु धन्य है, क्योंकि वह (मनुष्य के हृदय में) सदा-स्थिर प्रभु (का नाम) पक्का कर देता है। हे नानक! जिस (गुरु) से परमात्मा का नाम हासिल होता है, उसको (सदा) धन्य-धन्य कहा करो।2। हरि प्रभ सचा सोहिला गुरमुखि नामु गोविंदु ॥ अनदिनु नामु सलाहणा हरि जपिआ मनि आनंदु ॥ वडभागी हरि पाइआ पूरन परमानंदु ॥ जन नानक नामु सलाहिआ बहुड़ि न मनि तनि भंगु ॥३॥ पद्अर्थ: हरि प्रभू गोबिंदु नामु = हरि प्रभु का गोबिंद नाम। सचा = सदा कायम रहने वाला। सोहिला = खुशी के गीत। अनदिनु = हर रोज, हर वक्त। मनि = मन में। वडभागी = बड़े भाग्यों वालों ने। परमानंदु = परम आनंद, सबसे ऊँचे आनंद का मालिक प्रभु। बहुड़ि = दोबारा। मनि = मन में। भंगु = तोट, आत्मिक आनंद की ओर से कमी।3। अर्थ: हे भाई! गुरु के सन्मुख रहने वाले मनुष्यों के लिए हरि प्रभु का नाम (ही) सदा कायम रहने वाला खुशी का गीत है। जिस मनुष्यों ने हरि-नाम की महिमा की, हरि-नाम ही जपा, उनके मन में आनंद बना रहता है। हे भाई! बड़े भाग्यों वाले मनुष्यों ने सबसे ऊँचे आत्मिक आनंद के मालिक प्रभु का मिलाप हासिल कर लिया। हे दास नानक! (जिन्होंने हर वक्त) हरि-नाम की बड़ाई की, उनके मन में उनके तन में (आत्मिक आनंद की) दोबारा कभी कमी नहीं आती।3। मूं पिरीआ सउ नेहु किउ सजण मिलहि पिआरिआ ॥ हउ ढूढेदी तिन सजण सचि सवारिआ ॥ सतिगुरु मैडा मितु है जे मिलै त इहु मनु वारिआ ॥ देंदा मूं पिरु दसि हरि सजणु सिरजणहारिआ ॥ नानक हउ पिरु भाली आपणा सतिगुर नालि दिखालिआ ॥४॥ पद्अर्थ: सउ = से। पिरीआ सउ = प्यारे से। मूं नेहु = मेरा प्यार। किउ = कैसे। मिलहि = मिल जाएं (बहुवचन)। हउ = मैं। तिन सजण = उन सज्जनों को। सचि = सदा स्थिर हरि नाम ने। सवारिआ = सोहाने जीवन वाले बना दिया है। मैडा = मेरा। त = तो। वारिआ = सदके किया। मूं = मुझे। देंदा दसि = बता देता है। सिरजणहारिआ = (सृष्टि) पैदा करने वाला। नानक = हे नानक! (कह-)। भाली = मैं तलाशती हूँ। सतिगुर = हे सतिगुरु! नालि = (मेरे) साथ (बसता)।4। अर्थ: हे भाई! (अपने) प्यारे (प्रभु) के साथ मेरा प्यार है (मेरी हर वक्त तमन्ना है कि मुझे) कैसे (वह) प्यारे सज्जन मिल जाएं (जो मुझे प्रभु-पति से मिला दें)। मैं उन सज्जनों को ढूँढती फिरती हूँ, सदा-स्थिर हरि-नाम ने जिनको सुंदर जीवन वाले बना दिया है। हे भाई! गुरु (ही) मेरा (असल) मित्र है। अगर (मुझे गुरु) मिल जाए, तो (मैं अपना) यह मन (उस पर से) सदके कर दूँ। (गुरु ही) मुझे बता सकता है कि विधाता हरि (ही असल) सज्जन है। हे नानक! (कह:) हे सतिगुरु! मैं अपना पति-प्रभु ढूँढ रही थी, तूने (मुझे मेरे) साथ (बसता) दिखा दिया है।4। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |