श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 1422 हउ खड़ी निहाली पंधु मतु मूं सजणु आवए ॥ को आणि मिलावै अजु मै पिरु मेलि मिलावए ॥ हउ जीउ करी तिस विटउ चउ खंनीऐ जो मै पिरी दिखावए ॥ नानक हरि होइ दइआलु तां गुरु पूरा मेलावए ॥५॥ पद्अर्थ: हउ = मैं। खड़ी = खड़ी हुई, तमन्ना से। निहाली = मैं देख रही हूँ। पंधु = रास्ता। मतु = शायद। मूं सजणु = मेरा सज्जन। आवए = आ रहा है। अर्थ: हे भाई! मैं चाह से राह ताक रही हूँ कि शायद मेरा सज्जन आ रहा है, जो मुझे (मेरा प्रभु-) पति आज (इसी जीवन में) ला के मिला देता हो। जो मुझे मेरे प्यारे का दर्शन करा दे, मैं उस पर से (अपनी) जिंद चार टुकड़े कर दूँ (सदके करने को तैयार हूँ)। हे नानक! जब हरि प्रभु (स्वयं) दयावान होते हैं, तब वह पूरे गुरु से मिलाते हैं (और, पूरा गुरु प्रभु-पति के चरणों में जोड़ देता है)।5। अंतरि जोरु हउमै तनि माइआ कूड़ी आवै जाइ ॥ सतिगुर का फुरमाइआ मंनि न सकी दुतरु तरिआ न जाइ ॥ नदरि करे जिसु आपणी सो चलै सतिगुर भाइ ॥ सतिगुर का दरसनु सफलु है जो इछै सो फलु पाइ ॥ जिनी सतिगुरु मंनिआं हउ तिन के लागउ पाइ ॥ नानकु ता का दासु है जि अनदिनु रहै लिव लाइ ॥६॥ पद्अर्थ: जोरु हउमै = अहंकार का जोर। तनि = शरीर। कूड़ी = झूठ मूठ, दिखावे के लिए ही। आवै = (गुरु के दर से) आता है। जाइ = जाए, जाता है। दुतरु = दुष्तर, जिससे पार लंघाना मुश्किल होता है। नदरि = मेहर की निगाह। सतिगुर भाइ = गुरु की रजा में। सफलु = फल देने वाला। जो फलु = जो फल। इछै = मन में धारण करता है। सतिगुरु मंनिआ = गुरु पर श्रद्धा लाती है। हउ = मैं। लागउ = मैं लगता हूँ। तिन के पाइ = उनके पैरों पर। ता का = उस (मनुष्य) ने। जि = जो (मनुष्य)। अनदिनु = हर रोज, हर वक्त। लिव लाइ रहै = तवज्जो जोड़ी रखता है।6। अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य के अंदर अहंकार भारी हुआ रहता है जिसके शरीर में माया का प्रभाव बना रहता है, वह मनुष्य (गुरु के दर पर) सिर्फ दिखावे की खातिर ही आता रहता है। वह मनुष्य गुरु के बताए हुए हुक्म में श्रद्धा नहीं बना सकता, (इस वास्ते वह मनुष्य इस संसार-समुंदर से) पार नहीं लांघ सकता जिससे पार लांघना बहुत मुश्किल है। (पर, हे भाई!) वह मनुष्य (ही) गुरु की रजा में (जीवन-चाल) चलता है, जिस पर परमात्मा अपनी मेहर की निगाह करता है। हे भाई! गुरु का दीदार जरूर फल देता है, (गुरु के दर्शन करने वाला मनुष्य) जो मांग अपने मन में धारण करता है, वही माँग प्राप्त कर लेता है। हे भाई! जिस मनुष्यों ने गुरु पर श्रद्धा बनाई, मैं उनके चरणों में लगता हूँ। जो मनुष्य हर वक्त (गुरु-चरणों में) तवज्जो जोड़े रखता है, नानक उस मनुष्य का (सदा के लिए) दास है।6। जिना पिरी पिआरु बिनु दरसन किउ त्रिपतीऐ ॥ नानक मिले सुभाइ गुरमुखि इहु मनु रहसीऐ ॥७॥ पद्अर्थ: पिरी पिआरु = प्यारे (प्रभु) का प्यार। किउ त्रिपतीऐ = कैसे तृप्ति हो सकती है। सुभाइ = प्यार में। गुरमुखि मनु = गुरु के सन्मुख रहने वाले का मन। रहसीऐ = प्रसन्न रहता है।7। अर्थ: हे भाई! जिस (मनुष्यों) के अंदर प्यारे का प्रेम होता है, (अपने प्यारे के) दर्शन के बिना उनके मन में शांति नहीं होती। हे नानक! वह मनुष्य (प्यारे के) प्रेम में लीन रहते हैं। (इसी कारण) गुरु के सन्मुख रहने वाले मनुष्य का यह मन सदा खिला रहता है।7। जिना पिरी पिआरु किउ जीवनि पिर बाहरे ॥ जां सहु देखनि आपणा नानक थीवनि भी हरे ॥८॥ पद्अर्थ: किउ जीवनि = कैसे जी सकते हैं? सुखी जीवन नहीं जी सकते। बाहरे = बगैर। जा = जब। देखनि = देखते हैं (बहुवचन)। थीवनि = हो जाते हैं। भी = फिर। हरे = आत्मिक जीवन वाले।8। अर्थ: हे भाई! जिस (मनुष्यों) के अंदर प्यारे का प्रेम होता है, वे अपने प्यारे के मिलाप के बिना सुखी नहीं जी सकते। हे नानक! जब वे अपने पति-प्रभु का दर्शन करते हैं, तब वे दोबारा आत्मिक जीवन वाले बन जाते हैं।8। जिना गुरमुखि अंदरि नेहु तै प्रीतम सचै लाइआ ॥ राती अतै डेहु नानक प्रेमि समाइआ ॥९॥ पद्अर्थ: गुरमुखि = गुरु की शरण रख के। प्रीतम = हे प्रीतम प्रभु! तै सचै = तू सदा कायम रहने वाले ने। अतै = और। डेहु = दिन। प्रेमि = प्रेम में।9। अर्थ: हे नानक! (कह:) हे प्रीतम प्रभु! तू सदा कायम रहने वाले ने गुरु के माध्यम से जिस मनुष्यों के अंदर (अपना) प्यार पैदा किया है, वे मनुष्य तेरे प्यार में दिन-रात लीन रहते हैं।9। गुरमुखि सची आसकी जितु प्रीतमु सचा पाईऐ ॥ अनदिनु रहहि अनंदि नानक सहजि समाईऐ ॥१०॥ पद्अर्थ: सची आसकी = सच्ची आशिकी, सदा कायम रहने वाला प्रेम। जितु = जिस (आशिकी) से। पाईऐ = मिल जाता है। अनदिनु = हर रोज, हर वक्त। अनंदि = आनंद में। सहजि = आत्मिक अडोलता में। समाईऐ = लीन रहा जाता है।10। अर्थ: हे भाई! गुरु के सन्मुख रहने वाले मनुष्यों के अंदर (परमात्मा के लिए) सदा कायम रहने वाला प्यार (पैदा हो जाता है), उस प्यार की इनायत से वह सदा-स्थिर प्रीतम-प्रभु उनको मिल जाता है, और वे हर वक्त आनंद में टिके रहते हैं। हे नानक! (प्यार की इनायत से) आत्मिक अडोलता में लीन रहा जाता है।10। सचा प्रेम पिआरु गुर पूरे ते पाईऐ ॥ कबहू न होवै भंगु नानक हरि गुण गाईऐ ॥११॥ पद्अर्थ: ते = से। न होवै भंगु = टूटता नहीं। गाईऐ = गाते रहना चाहिए।11। अर्थ: हे भाई! (परमात्मा के साथ) सदा कायम रहने वाला प्रेम-प्यार पूरे गुरु से ही मिलता है, (और वह प्यार) कभी नहीं टूटता। हे नानक! (इस प्यार को कायम रखने के लिए) परमात्मा की महिमा करते रहना चाहिए।11। जिन्हा अंदरि सचा नेहु किउ जीवन्हि पिरी विहूणिआ ॥ गुरमुखि मेले आपि नानक चिरी विछुंनिआ ॥१२॥ पद्अर्थ: नेहु = प्यार। किउ = सुखी जीवन नहीं जी सकते। गुरमुखि = गुरु से।12। अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्यों के दिल में (परमात्मा के साथ) सदा कायम रहने वाला प्यार बन जाता है, वह मनुष्य परमात्मा की याद के बिना सुखी जीवन नहीं जी सकते (पर, ये उसकी अपनी ही मेहर है)। हे नानक! चिरों से विछुड़े जीवों को प्रभु स्वयं ही गुरु के द्वारा अपने साथ मिलाता है।12। जिन कउ प्रेम पिआरु तउ आपे लाइआ करमु करि ॥ नानक लेहु मिलाइ मै जाचिक दीजै नामु हरि ॥१३॥ पद्अर्थ: तउ आपे = तू खुद ही। करमु = मेहर, बख्शिश। करि = कर के। मै जाचक = मुझे भिखारी को। दीजै = दे।13। अर्थ: हे नानक! (कह:) हे हरि! तूने खुद ही मेहर करके जिनके अंदर अपना प्रेम-प्यार पैदा किया है, उनको तू (अपने चरणों में) जोड़े रखता है। हे हरि! मुझे मँगते को (भी) अपना नाम बख्श।13। गुरमुखि हसै गुरमुखि रोवै ॥ जि गुरमुखि करे साई भगति होवै ॥ गुरमुखि होवै सु करे वीचारु ॥ गुरमुखि नानक पावै पारु ॥१४॥ पद्अर्थ: गुरमुखि = गुरु के सन्मुख रहनें वाला मनुष्य। हसै = (भक्ति के आत्मिक आनंद में कभी) खिल उठता है। रोवै = (भक्ति के बिरह रस में कभी) वैराग में आ जाता है। जि = जो (भक्ति)। साई = वही। सु = वह मनुष्य। करे वीचारु = (परमात्मा की महिमा को) मन में बसाए रखता है। पारु = (संसार समुंदर का) परला किनारा। पावै = पा लेता है।14। अर्थ: हे भाई! गुरु के सन्मुख रहने वाला मनुष्य (भक्ति के आत्मिक आनंद में कभी) खिल उठता है (कभी भक्ति के बिरह रस के कारण) वैराग में आ जाता है। हे भाई! असल भक्ति वही होती है जो मनुष्य गुरु के सन्मुख रह कर करता है। जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ा रहता है, वह (परमात्मा की महिमा को) अपने मन में बसाए रखता है। हे नानक! गुरु के सन्मुख रहने वाला मनुष्य (इस संसार-समुंदर का) परला छोर तलाश लेता है।14। जिना अंदरि नामु निधानु है गुरबाणी वीचारि ॥ तिन के मुख सद उजले तितु सचै दरबारि ॥ तिन बहदिआ उठदिआ कदे न विसरै जि आपि बखसे करतारि ॥ नानक गुरमुखि मिले न विछुड़हि जि मेले सिरजणहारि ॥१५॥ पद्अर्थ: निधानु = (सारे सुखों का) खजाना। वीचारि = विचार के, मन में बसा के। सद = सदा। उजले = रौशन। तितु = उस में। तितु दरबारि = उस दरबार में। तितु सचै दरबारि = उस सदा स्थिर रहने वाले दरबार में। जि = जिनको। करतारि = कर्तार ने। गुरमुखि = गुरु के सन्मुख रहने वाले मनुष्य। सिरजणहारि = विधाता ने।15। अर्थ: हे भाई! सतिगुरु की वाणी को मन में बसा कर जिस मनुष्यों के हृदय में परमात्मा का नाम-खजाना आ बसता है, उनके मुँह उस सदा कायम रहने वाले (ईश्वरीय) दरबार में सदा रौशन रहते हैं। हे भाई! कर्तार ने स्वयं जिस मनुष्यों पर मेहर की होती है, उनको बैठते-उठते किसी भी वक्त (परमात्मा का नाम) नहीं भूलता। हे नानक! जिस मनुष्यों को विधाता प्रभु ने (स्वयं अपने चरणों में) जोड़ा होता है, वे मनुष्य गुरु के द्वारा (प्रभु चरणों में) मिले हुए फिर कभी नहीं बिछुड़ते।15। गुर पीरां की चाकरी महां करड़ी सुख सारु ॥ नदरि करे जिसु आपणी तिसु लाए हेत पिआरु ॥ सतिगुर की सेवै लगिआ भउजलु तरै संसारु ॥ मन चिंदिआ फलु पाइसी अंतरि बिबेक बीचारु ॥ नानक सतिगुरि मिलिऐ प्रभु पाईऐ सभु दूख निवारणहारु ॥१६॥ पद्अर्थ: की चाकरी = की (बताई हुई) सेवा। करड़ी = मुश्किल। सारु = श्रेष्ठ। नदरि = मेहर की निगाह। हेत = हित, प्रेम। सेवै = सेवा में। भउजलु = संसार समुंदर। संसारु = जगत। तरै = पार लांघ जाता है। मन चिंदिआ = मन इच्छित। पाइसी = हासिल कर लेगा। बिबेक बीचारु = बिबेक की सूझ, अच्छे बुरे काम के परख की सूझ। सतिगुर मिलिऐ = अगर गुरु मिल जाए। निवारणहारु = दूर कर सकने वाला।16। अर्थ: हे भाई! महा पुरुषों की (बताई हुई) कार बहुत मुश्किल होती है (क्योंकि उसमें स्वै मारना पड़ता है, पर उसमें से) श्रेष्ठ आत्मिक आनंद प्राप्त होता है। (इस सेवा को करने के लिए) उस मनुष्य के अंदर (परमात्मा) प्रीत-प्यार पैदा करता है, जिस पर अपनी मेहर की निगाह करता है। मनमुख सेवा जो करे दूजै भाइ चितु लाइ ॥ पुतु कलतु कुट्मबु है माइआ मोहु वधाइ ॥ दरगहि लेखा मंगीऐ कोई अंति न सकी छडाइ ॥ बिनु नावै सभु दुखु है दुखदाई मोह माइ ॥ नानक गुरमुखि नदरी आइआ मोह माइआ विछुड़ि सभ जाइ ॥१७॥ पद्अर्थ: मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य। सेवा जो = जो भी सेवा। दूजै भाइ = (परमात्मा के बिना) किसी और के प्यार में। लाइ = लगाए रखता है। कलतु = स्त्री। वधाइ = बढ़ाए जाता है। दरगहि = प्रभु की हजूरी में। मंगीऐ = मांगा जाता है। अंति = अंत के समय। मोह माइ = माया का मोह। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ने से। नदरी आइआ = दिखाई दे जाता है।17। अर्थ: हे भाई! गुरु की (बताई हुई) सेवा में लग के जगत संसार-समुंदर से पार लांघ जाता है। (जो भी मनुष्य गुरु की बताई हुई सेवा करेगा वह) मन-माँगी मुरादें प्राप्त कर लेगा, उसके अंदर अच्छे-बुरे काम की परख की सूझ (पैदा हो जाएगी)। हे नानक! अगर गुरु मिल जाए, तो वह परमात्मा मिल जाता है, जो हरेक दुख दूर करने वाला है।16। हे भाई! अपने मन के पीछे चलने वाल मनुष्य जो भी सेवा करता है, (उसके साथ-साथ वह अपना) चिक्त (परमात्मा के बिना) और के प्यार में जोड़े रखता है। (यह मेरा) पुत्र (है, यह मेरी) स्त्री (है, यह मेरा) परिवार है (-यह कह कह के ही वह मनुष्य अपने अंदर) माया का मोह बढ़ाए जाता है। परमात्मा की दरगाह में (किए हुए कर्मों का) हिसाब (तो) माँगा (ही) जाता है, (माया के मोह के फंदे से) अंत में कोई छुड़ा नहीं सकता। माया का मोह दुखदाई साबित होता है, परमात्मा के नाम के बिना और सारा (उद्यम) दुख (का ही मूल) है। हे नानक! गुरु की शरण पड़ कर (जिस मनुष्य को यह भेद) दिखाई दे जाता है, (उसके अंदर से) माया का सारा मोह दूर हो जाता है।17। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |