श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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गुरमुखि हुकमु मंने सह केरा हुकमे ही सुखु पाए ॥ हुकमो सेवे हुकमु अराधे हुकमे समै समाए ॥ हुकमु वरतु नेमु सुच संजमु मन चिंदिआ फलु पाए ॥ सदा सुहागणि जि हुकमै बुझै सतिगुरु सेवै लिव लाए ॥ नानक क्रिपा करे जिन ऊपरि तिना हुकमे लए मिलाए ॥१८॥

पद्अर्थ: गुरमुखि = गुरु के सन्मुख रहने वाला मनुष्य। केरा = का। सह केरा = पति प्रभु का। हुकमे = हुक्म में (चल के)। हुकमो = हुक्म को ही। अराधे = चेते रखता है। समै समाए = हर वक्त लीन रहता है। सुच = शरीरिक पवित्रता। संजमु = इन्द्रियों को विकारों से हटाने का प्रयत्न। मन चिंदिआ = मन माँगा। सुहागणि = सोहागनि, भाग्यशाली। जि = जो (जीव-स्त्री)। लिव लाए = तवज्जो/ध्यान जोड़ के।18।

अर्थ: जो मनुष्य गुरु के सन्मुख रह के पति-प्रभु का हुक्म मानता है, वह हुक्म में टिक के ही आत्मिक आनंद भोगता है। वह मनुष्य प्रभु के हुक्म को हर वक्त याद रखता है, हुक्म की भक्ति करता है, हर वक्त हुक्म में लीन रहता है। व्रत (आदि रखने का) नियम, शारीरिक पवित्रता, इन्द्रियों को रोकने का प्रयत्न- यह सब कुछ उस मनुष्य के लिए प्रभु का हुक्म मानना ही है। (हुक्म मान के) वह मनुष्य मन-माँगी मुराद प्राप्त करता है।

हे भाई! जो जीव-स्त्री परमात्मा की रजा को समझती है, जो तवज्जो जोड़ के गुरु की शरण पड़ी रहती है, वह जीव-स्त्री सदा भाग्यशाली है। हे नानक! जिस जीवों पर (परमात्मा) मेहर करता है, उनको (अपने) हुक्म में लीन कर लेता है।18।

मनमुखि हुकमु न बुझे बपुड़ी नित हउमै करम कमाइ ॥ वरत नेमु सुच संजमु पूजा पाखंडि भरमु न जाइ ॥ अंतरहु कुसुधु माइआ मोहि बेधे जिउ हसती छारु उडाए ॥ जिनि उपाए तिसै न चेतहि बिनु चेते किउ सुखु पाए ॥ नानक परपंचु कीआ धुरि करतै पूरबि लिखिआ कमाए ॥१९॥

पद्अर्थ: मनमुखि = अपने मन के पीछे चलने वाली जीव-स्त्री। बपुड़ी = बेचारी। कमाइ = कमाता है। पाखंडि = पाखंड से, दिखावे से। भरमु = भटकना। अंतरहु = अंदर से। कुसुधु = खोटा, मैला। मोहि = मोह में। बेधे = भेदे हुए। हसती = हाथी। छारु = राख, मिट्टी। जिनि = जिस (परमात्मा) ने। न चेतहि = चेते नहीं करते (बहुवचन)। बिनु चेते = स्मरण किए बिना। परपंच = जगत रचना। धुरि = धुर दरगाह से। करतै = कर्तार ने। पूरबि = पूर्बले जनम में।19।

अर्थ: हे भाई! अपने मन के पीछे चलने वाली बद्-नसीब जीव-स्त्री (परमात्मा की) रज़ा को नहीं समझती, सदा अहंकार के आसरे (अपने द्वारा निहित हुए धार्मिक) काम करती रहती है। वह व्रत-नेम, सुच-संजम-देव पूजा (आदि कर्म करती है, पर ये हैं निरे दिखावे, और) दिखावे से मन की भटकना दूर नहीं होती।

हे भाई! (जिस मनुष्यों का मन) अंदर से खोटा रहता है, जो माया के मोह में भेदे रहते हैं (उनके किए हुए धार्मिक कर्म ऐसे ही हैं) जैसे हाथी (नहा कर अपने ऊपर) मिट्टी उड़ा के डाल लेता है। वे मनुष्य उस परमात्मा को याद नहीं करते, जिसने (उनको) पैदा किया। (हरि-नाम का) स्मरण किए बिना कोई मनुष्य कभी सुख नहीं पा सकता।

हे नानक! कर्तार ने ही धुर-दरगाह से (अपने हुक्म से) जगत-रचना की हुई है, हरेक जीव अपने पिछले किए कर्मों के संस्कारों के अनुसार ही (अब भी) कर्म किए जाता है।19।

गुरमुखि परतीति भई मनु मानिआ अनदिनु सेवा करत समाइ ॥ अंतरि सतिगुरु गुरू सभ पूजे सतिगुर का दरसु देखै सभ आइ ॥ मंनीऐ सतिगुर परम बीचारी जितु मिलिऐ तिसना भुख सभ जाइ ॥ हउ सदा सदा बलिहारी गुर अपुने जो प्रभु सचा देइ मिलाइ ॥ नानक करमु पाइआ तिन सचा जो गुर चरणी लगे आइ ॥२०॥

पद्अर्थ: गुरमुखि = गुरु के सन्मुख रहने वाला मनुष्य। परतीति = श्रद्धा। मानिआ = पतीजा रहता है। अनदिनु = हर वक्त। करत = करते हुए। समाइ = लीन रहता है। अंतरि = (जिसके) अंदर। सभ = सारी दुनिया। पूजे = आदर सत्कार करता है। सभ = सारी लुकाई में। मंनीऐ = श्रद्धा बनानी चाहिए। परम बीचारी = सबसे ऊँची आत्मिक विचार के मालिक। जितु मिलिऐ = जिसको मिलने से। हउ = मैं। देइ मिलाइ = मिला देता है। सचा = सदा कायम रहने वाला। करमु = बख्शिश, मेहर। सचा करमु = सदा स्थिर मेहर। आइ = आ के।20।

अर्थ: हे भाई! गुरु के सन्मुख रहने वाले मनुष्य के अंदर (गुरु के प्रति) श्रद्धा बनी रहती है, (उसका) मन (गुरु में) पतीजा रहता है, वह हर वक्त सेवा करते हुए (सेवा में) मस्त रहता है। (जिस मनुष्य के) दिल में (सदा) गुरु बसता है सबका आदर-सत्कार करता है, वह सारी लुकाई में गुरु के दर्शन करता है।

हे भाई! सबसे ऊँची आत्मिक विचार के मालिक गुरु में श्रद्धा बनानी चाहिए, जिस (गुरु) के मिलने से (माया की) सारी भूख सारी प्यास दूर हो जाती है।

हे भाई! मैं सदा ही अपने गुरु से सदके जाता हूँ क्योंकि वह गुरु सदा कायम रहने वाला परमात्मा मिल जाता है।

हे नानक! जो मनुष्य गुरु के चरणों में आ के टिक गए, उन्होंने सदा कायम रहने वाली (रूहानी) मेहर प्राप्त कर ली।20।

जिन पिरीआ सउ नेहु से सजण मै नालि ॥ अंतरि बाहरि हउ फिरां भी हिरदै रखा समालि ॥२१॥

पद्अर्थ: सउ = से। पिरीआ सउ = प्यारे (प्रभु) से। नेहु = प्यार। से = वह (बहुवचन)। मै नालि = मेरे साथ। हउ फेरां = मैं फिरता हूं। भी = फिर भी। हिरदै = हृदय में। रखा = रखूँ, मैं रखता हूँ। समालि = संभाल के।21।

अर्थ: हे भाई! जिस (सत्संगियों का) प्यारे प्रभु के साथ साथ बना हुआ है, वह सत्संगी सज्जन मेरे (सहयोगी) हैं। (उनके सत्संग की इनायत से) मैं अंदर बाहर (दुनिया के कार-व्यवहार में भी) चलता-फिरता हूँ, (फिर) भी (परमात्मा को अपने) हृदय में संभाल के रखता हूँ।21।

जिना इक मनि इक चिति धिआइआ सतिगुर सउ चितु लाइ ॥ तिन की दुख भुख हउमै वडा रोगु गइआ निरदोख भए लिव लाइ ॥ गुण गावहि गुण उचरहि गुण महि सवै समाइ ॥ नानक गुर पूरे ते पाइआ सहजि मिलिआ प्रभु आइ ॥२२॥

पद्अर्थ: इक मनि = एकाग्र मन से। इक चिति = एकाग्र चिक्त से। सउ = से। लाइ = जोड़ के। निरदोख = विकार रहित। गावहि = गाते हैं। उचरहि = उचारते हैं। सवै = लीन रहता है (एकवचन)। समाइ = समाया रहता है। ते = से। सहजि = आत्मिक अडोलता में।22।

अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्यों ने गुरु-चरणों में चिक्त जोड़ के एकाग्र मन से एकाग्र चिक्त से (परमात्मा का नाम) स्मरण किया है, उनके सारे दुख दूर हो जाते हैं, उनकी माया की भूख दूर हो जाती है, उनके अंदर से अहंकार का बड़ा रोग दूर हो जाता है, (प्रभु-चरणों में) तवज्जो जोड़ के वे पवित्र जीवन वाले बन जाते हैं। वह मनुष्य सदा प्रभु के गुण गाते हैं, गुण उचारते हैं।

हे भाई! (गुरु चरणों में तवज्जो जोड़ के) मनुष्य परमात्मा के गुणों में सदा लीन रहता है टिका रहता है। हे नानक! परमात्मा पूरे गुरु के माध्यम से ही मिलता है, आत्मिक अडोलता में आ मिलता है।22।

मनमुखि माइआ मोहु है नामि न लगै पिआरु ॥ कूड़ु कमावै कूड़ु संघरै कूड़ि करै आहारु ॥ बिखु माइआ धनु संचि मरहि अंति होइ सभु छारु ॥ करम धरम सुचि संजमु करहि अंतरि लोभु विकार ॥ नानक मनमुखि जि कमावै सु थाइ न पवै दरगह होइ खुआरु ॥२३॥

पद्अर्थ: मनमुखि = अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य के अंदर। नामि = नाम में। कूड़ु = (कुट = fraud, deceipt) धोखा, फरेब, ठगी। संघरै = संग्रह करता है। कूड़ि = फरेब से। आहारु = आजीविका, खुराक। बिखु = जहर, आत्मिक मौत लाने वाली। संचि = सारा (धन)। सुचि = शारीरिक पवित्रता। संजमु = इन्द्रियों को रोकने का प्रयत्न। करहि = करते हैं (बहुवचन)। जि = जो कुछ। थाइ न पवै = स्वीकार नहीं होता। थाइ = जगह में, सही जगह पर। खुआरु = दुखी, मुसीबत में।23।

अर्थ: हे भाई! अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य के अंदर माया का मोह (बना रहता) है, (इसलिए उसका परमात्मा से) नाम में प्यार नहीं बनता। वह मनुष्य ठगी-फरेब करता रहता है, ठगी-फरेब (के संस्कार अपने अंदर) इकट्ठे करता जाता है, ठगी-फरेब से ही अपनी आजीविका बनाए रखता है।

हे भाई! आत्मिक मौत लाने वाली माया का धन (मनुष्य के) अंत समय (उसके लिए तो) सारा राख हो जाता है, (पर, इसी) धन को जोड़-जोड़ के (जीव) आत्मिक मौत सहेड़ते रहते हैं, (अपनी तरफ से तीर्थ-यात्रा आदि निहित हुए) धार्मिक कर्म करते रहते हैं, शारीरिक पवित्रता रखते हैं, (एक समान हरेक) संयम करते हैं, (पर, उनके) अंदर लोभ टिका रहता है विकार टिके रहते हैं।

हे नानक! अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य (सारी उम्र) जो कुछ करता रहता है वह परमात्मा की हजूरी में स्वीकार नहीं होता, वहाँ पर वह मुसीबत में ही रहता है।23।

सभना रागां विचि सो भला भाई जितु वसिआ मनि आइ ॥ रागु नादु सभु सचु है कीमति कही न जाइ ॥ रागै नादै बाहरा इनी हुकमु न बूझिआ जाइ ॥ नानक हुकमै बूझै तिना रासि होइ सतिगुर ते सोझी पाइ ॥ सभु किछु तिस ते होइआ जिउ तिसै दी रजाइ ॥२४॥

पद्अर्थ: भाई = हे भाई! सो = वह (‘सचु’ ही, ‘स्मरण’ ही)। भला = अच्छा (उद्यम)। जितु = जिस (उद्यम) से, जिस (स्मरण) से। मनि = मन में। सचु = सदा स्थिर हरि-नाम (का स्मरण)। रागै बाहरा = राग (की कैद) से परे। नादै बाहरा = नाद (की कैद) से परे। इनी = इन (रागों और नादों) से। नादु = आवाज, सिंगी आदि का बजाना। बूझै = समझता है (एकवचन)। तिना = उनके लिए। रासि होइ = (राग भी) रास हुए, (राग भी) सफल हो जाता है, (राग भी) सहायक बन जाता है। ते = से। सोझी = रजा की सूझ। तिस ते = उस परमात्मा से। जिउ = जैसे।24।

नोट: ‘तिस ते’ में से ‘तिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘ते’ के कारण हटा दी गई है।

अर्थ: हे भाई! सदा-स्थिर हरि-नाम (का नाम-जपना ही मनुष्य के लिए) सब कुछ है, सदा-स्थिर हरि-नाम ही (मनुष्य के लिए) राग है नाद है, (हरि-नाम के स्मरण का) मूल्य बयान नहीं किया जा सकता। हे भाई! सारे रागों में वह (हरि-नाम-स्मरण ही) अच्छा (उद्यम) है, क्योंकि उस (स्मरण) से (ही परमात्मा मनुष्य के) मन में आ बसता है। परमात्मा (का मिलाप) राग (की कैद) से परे है, नाद (की कैद) से परे है। इन (रागों-नादों) से (परमात्मा की) रज़ा को समझा नहीं जा सकता।

हे नानक! (जो जो मनुष्य परमात्मा की) रज़ा को समझ लेता है उनके लिए (राग भी) सहायक हो सकता है (वैसे सिर्फ राग ही आत्मिक जीवन के रास्ते में सहायक नहीं हैं)।

हे भाई! गुरु के माध्यम से ये (बात) समझ आ जाती है कि सब कुछ उस परमात्मा से ही हो रहा है, जैसे उसकी रजा है, (वैसे ही सब कुछ हो रहा है)।24।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh