श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 2 गावै को जापै दिसै दूरि ॥ उच्चारण: गावै को, जापै दिसै दूर॥ पद्अर्थ: जापै = प्रतीत होता है, जापता है। हादरा हदूरि = सब जगह हाजिर, हाज़र नाज़र। अर्थ: कोई मनुष्य कहता है, ‘अकाल पुरख दूर प्रतीत होता है’; पर कोई कहता है, (नहीं नजदीक है), हर जगह हाजिर है, सभी को देख रहा है’। कथना कथी न आवै तोटि ॥ उच्चारण: कथना कथी न आवै तोट॥ कथ कथ कथी कोटी कोटि कोटि॥ पद्अर्थ: कथना = कहना, बयान करना। कथना तोटि = कहने का अंत, गुण वर्णन करने का अंत। कथि = कह के। कथ कथ कथी = कह कह के कही है, बेअंत बार प्रभू के हुकमों का वर्णन किया है। कोटि = करोड़ो जीवों ने। लफ्ज कोटि, कोटु व कोट का निर्णय– कोटि– करोड़ (विशेषण) स्रमु पावै सगले बिरथारे।3।12। (सुखमनी) कोटु– किला (संज्ञा एकवचन) अर्थ: करोड़ों जीवों ने बेअंत बार (अकाल पुरख के हुकम का) वर्णन किया है। पर हुकम के वर्णन करने में कमीं नहीं आ सकी। (भाव, वर्णन कर कर के हुकम का अंत नहीं पाया जा सका, हुकम का सही स्वरूप नहीं ढूंढा जा सका) देदा दे लैदे थकि पाहि ॥ उच्चारण: देंदा दे लैंदे थक पाहि॥ जुगा जुगंतर खाही खाहि॥ पद्अर्थ: देदा = देंदा, देने वाला, दातार ईश्वर। दे = (सदा) देता है, दे रहा है। लैदे = लैंदे, लेने वाले जीव। थक पाहि = थक जाते हैं। जुगा जुगंतरि = जुग जुग अंतर, सारे युगों से, सदा से ही। खाही खाहि = खाते ही खाते हैं, इस्तेमाल करते आ रहे हैं। अर्थ: दातार अकाल पुरख (सभी जीवों को रिज़क) दे रहा है, पर जीव लै लै के थक जाते हैं। (सभ जीव) सदा से ही (ईश्वर के दिए पदार्थ) खाते चले आ रहे हैं। हुकमी हुकमु चलाए राहु ॥ उच्चारण: हुकमी हुकम चलाए राह॥ नानक, विगसै वेपरवाह॥३॥ पद्अर्थ: हुकमी = हुकम का मालिक अकाल-पुरख। हुकमी हुकमु = हुकम वाले ईश्वर का हरी का हुकम। राहु = रास्ता, संसार की कार। नानक = हे नानक। विगसै = खिल रहा है, प्रसंन्न है। वेपरवाहु = बेफिक्र, चिंता से रहित।3। अर्थ: हुकम वाले रॅब का हुकम ही (संसार की कार वाला) रास्ता चला रहा है। हे नानक! वह निरंकार सदा बेपरवाह है, प्रसंन्न है। (भाव, हलांकि, ईश्वर हर वक्त संसार के बेअंत जीवों को अतॅुट पदार्थ व रिज़क दे रहा है, पर इतने बड़े कार्य में उसे कोई घबराहट/परेशानी नहीं हो रही। वह सदा ही प्रसंन्न अवस्था में है। उसे इतने बड़े पसारे में खचित नहीं होना पड़ता। उसकी एक हुकम रूप सक्ता ही सारे व्यवहार को निबाह रही है।) 3। भाव: प्रभू के अलग अलग काम देख के मनुष्य अपनी अपनी समझ अनुसार प्रभू की हुकम रूप ताकत का अंदाजा लगाए चले आ रहे हैं, पर किसी भी तरफ से मुकम्मल अंदाजा नहीं लग सका। साचा साहिबु साचु नाइ भाखिआ भाउ अपारु ॥ उच्चारण: साचा साहिब, साच नाय, भाखिआ भाउ अपार॥ पद्अर्थ: साचा = अस्तित्व वाला, सदा स्थिर रहने वाला। साचु = सदा स्थिर रहने वाला। नाइ = न्याय, इंसाफ, संसार के कार्य को चलाने का नियम। साचु नाइ– व्याकरण का नियम है कि किसी भी संज्ञा के विशेषण का वही ‘लिंग’ होता है, जो उस ‘संज्ञा’ का है। ‘साचु नाइ’ वाली तुक में ‘साहिबु’ पुलिंग है, इसलिए ‘साचा’ भी पुलिंग है। ‘साचु’ पुलिंग है, सो, जिस संज्ञा का यह विशेषण है, वह भी पुल्रिंग ही चाहिए। जैसे कि ‘साहिबु’ है। शब्द ‘नाउ’ जब तक ‘कर्ताकारक’ या ‘कर्मकारक’ के साथ इस्त्रमाल होता है, तब तक इसका स्वरूप यही रहता है, जैसेकि, ∙ अंम्रित वेला सचु नाउ वडिआई विचारु।4। यही ‘शब्द ‘नाउ’ जपु जी में एक बार और आया है, पर वह ‘क्रिया’ है और उसका अर्थ है ‘स्नान करो’। जैसे कि; अंतरगति तीरथ मलि नाउ। (पउड़ी 21) शब्द ‘नाउ’ का बहुवचन जपु जी में दो बार आया है, उसका रूप ‘नांव’ है, जैसे; ∙ असंख नाव असंख थाव। (पउड़ी 19) जब शब्द ‘नाउ’ कर्ताकारक या कर्मकारक के बिना और किसी कारक में इस्तेमाल हो, तो ‘नाउ’ की जगह ‘नाइ’ हो जाता है, जैसे; नाइ तेरै तरणा नाइ पति पूज। नाउ तेरा गहणा मति मकसूद। (परभाती बिभास महला १) नाइ– नाम के द्वारा। पर ‘साचि नाइ’ वाला ‘नाइ’ कर्ताकारक ही हो सकता है, क्योंकि इसका विशेषण ‘साचु’ भी कर्ताकारक है। ये ‘नाइ’ उपरोक्त प्रमाण वाले ‘नाइ’ से अलग है। जपुजी की पउड़ी ६ की पहिली तुकमें भी ‘नाइ’ शब्द मिलता है, पर यहाँ ‘क्रिया’ है, इसका अर्थ है ‘नहा के’। यो, ये ‘नाइ’ भी ‘साचु नाइ’ वाला नहीं है। शब्द ‘नाई’ भी जपुजी में निम्नलिखित तुकों में इस्तेमाल किया गया है; ∙ वडा साहिब, वडी नाई, कीता जा का होवै। (पउड़ी 21) यहां, शब्द ‘नाई’ स्त्रीलिंग है। इसलिए ये शब्द भी ‘साचु नाइ’ से अलग है। हमने इस शब्द ‘नाइ’ का अर्थ ‘निआइ’ किया है। इसी तरह नीचे दी गयीं तुकों में भी ‘नाई’ से ‘निआई’ पाठ वाला अर्थ करना है। ‘बुत पूज पूज हिंदू मुए तुरक मूए सिरु नाई। (सोरठि कबीर जी) ‘नाई’ व ‘निआई’ का अर्थ है ‘नियाइ’ (झुकना?) आजकल की पंजाबी में भी ‘निआइ’, ‘नीची जगह’ को कहा जाता है। सो, जैसे इस प्रमाण में ‘नाई’ को ‘निआई’ समझ के अर्थ किया जाता है, उसी प्रकार इस लफ्ज ‘नाइ’ को ‘निआइ’ (नियम) ही समझना है। भाखिआ– बोली। भाउ–प्रेम। अपार– पार से रहित, बेअंत। आखहि– हम कहते हैं। मंगहि– हम मांगते हैं। देहि देहि– (हे हरि !) हमें दे, हम पे बख्शिश कर। अर्थ: अकाल पुरख सदा स्थिर रहने वाला ही है, असका नियम भी सदा अटल है। उसकी बोली प्रेम है और वह अकाल-पुरख बेअंत है। हम जीव उससे दातें मांगते हैं और कहते हैं, ‘(हे हरि ! हमें दातें) दे’। वह दातार बख्शिशें करता है। नोट: उसकी बोली प्रेम है। प्रेम ही एक तरीका है जिसके द्वारा वह हमसे बातें करता है, हम उससे बातें कर सकते हैं। फेरि कि अगै रखीऐ जितु दिसै दरबारु ॥ उच्चारण: फेर कि अगै रखीअै जित दिसै दरबार॥ पद्अर्थ: फेरि = (अगर सारी दातें वह स्वयं ही कर रहा है) फिर। कि = कौन सी भेंट। अगै = रॅब के आगे। रखीअै = रखी जाए, हम रखें। जितु = जिस भेटा के सदके। दिसै = दिख जाए। मुहौ = मुँह से। कि बोलणु = कौन सा वचन? जितु सुणि = जिस द्वारा सुनके। धरे = टिका दे, करे। जितु = जिस बोल द्वारा। अर्थ: (अगर सारी दातें वह बख्श रहा है तो) हम कौन सी भेटा उस अकाल-पुरख के आगे रखें, जिस सदके हमें उसका दरबार दिख जाए? हम मुँह से कौन से वचन कहें कि (भाव, कैसी अरदास करें कि) जिसे सुन के वह हरि (हमें) प्यार करे। अम्रित वेला सचु नाउ वडिआई वीचारु ॥ उच्चारण: अमृत वेला सच नाउ वडिआई वीचार॥ पद्अर्थ: अंम्रित = कैवल्य, निर्वाण, मोक्ष, पूर्ण खिलाव। अंम्रित वेला = अमृत की बेला, पूर्ण खिड़ाव का समय, वह समय जिस वक्त मानव मन आम तौर पे संसार के झमेलों से मुक्त होता है, सुबह, प्रभात। सचु = सदा स्थिर रहने वाला। नाउ = ईश्वर का नाम। वडिआई विचारु = ईश्वर के बड़प्पन की विचार। करमी = प्रभू की मेहर/ करम से। करम = बख्शिश, मेहर। जैसे; ∙ जेती सिरठि उपाई वेखा, विणु करमा कि मिले लई। (पउड़ी 9) ∙ नानक नदरी करमी दाति । (पउड़ी 14) कपड़ा–पटोला, प्रेम पटोला, अपार भाउ–रूप पटोला, प्यार–रूप पटोला, सिफति–सालाह की कपड़ा। जैसे– “सिफति सरम का कपड़ा मागउ”।4।7। प्रभाती म:१। नदरी– रॅब की मेहर से। मोक्ष–मुक्ति, ‘झूठ’ से खलासी। दुआरु– दरवाजा, रॅब का दर। एवै– इस तरह (इन कोशिशों व अकाल-पुरख की कृपादृष्टि होने से)। नोट: लफ्ज ‘एवै’ प्रगट करता है कि इस पउड़ी की तीसरी और चौथी तुक मेंकिए गए प्रश्न का उत्तर अगली तीन तुकों में है– अगर अमृत वेले ईश्वर के बड़प्पन का विचार करें तो उसकी मेहर से सदा सिफत–रूप कपड़ा मिलता हैऔर वह प्रभू हर जगह दिखने लगता है। जाणीअै = जान लेते हैं, अनुभव कर लेते हैं। सभु = सब जगह। सचिआरु = अस्तित्व का घर, हस्ती की मालिक।4। अर्थ: पूर्ण खिड़ाव का समय हो (भाव, प्रभात का समय हो), नाम (सिमरें) तथा उसके बड़प्पन का विचार करें। (इस तरह) प्रभू की मेहर से ‘सिफति’ रूप् पटोला मिलता है, उसकी कृपा दृष्टि से ‘झूठ की दीवार’ से मुक्ति मिलती है तथा ईश्वर का दर प्राप्त हो जाता है। हे नानक! इस तरह ये समझ आ जाता है कि वह अस्तित्व का मालिक अकाल पुरख सर्व-व्यापक है।4। भाव: दान-पुन्न करने या कोई धन-संपदा भेट करने से जीव की प्रभू से दूरी मिट नहीं सकती; क्योंकि ये दातें तो उस प्रभू की ही दी हुईं हैं। उस प्रभू से बातें उसकी अपनी बोली में ही हो सकती हैं, और वह बोली है ‘प्रेम’। जो मनुष्य प्रभात के समय उठ के उसकी याद में जुड़ता है, उसको ‘प्रेम पटोला’ मिलता है, जिसकी बरकत से उसे हर जगह प्रमात्मा ही दिखाई देने लगता है।4। थापिआ न जाइ कीता न होइ ॥ उच्चारण: थापिआ ना जाय कीता न होय॥ पद्अर्थ: थापिआ ना जाइ = बनाया नहीं जा सकता, स्थापित नहीं किया जा सकता। संस्कृत धातु स्था का अर्थ है ‘खड़े होना’। इससे प्रेणार्थक धातु है ‘स्थापय’, जिसका अर्थ है खड़ा करना, नींव रखनी। इस प्रेणार्थक धातु से ‘संज्ञा’ बनी है स्थापन, जिसका अर्थ है ‘पुंसवन संस्कार’। स्त्री के गर्भवती होने की जब पहिली निशानियां प्रगट होतीं हैं, तो हिंदू घरों में ये संस्कार किया जाता है ता कि पुत्र का जन्म हो। स्थाप्य से पहले उद् लगाने से ये बन जाता है, उत्थाप्य, जिसका अर्थ उसके उलट है– उखाड़ना, नाश करना। जैसे कि– आपे देखि दिखावै आपे। आपे थापि उथापे आपे। (म:१) कीता न होइ = (हमारे) बनाए नहीं बनता। न होइ = अस्तित्व में नहीं आता। आपे आपि = स्वयं ही, भाव, ना उसे कोई पैदा करने वाला और ना ही कोई बनाने वाला है। सोइ निरंजनु = अंजन से रहित वो हरि। निरंजन = अंजन से रहित, माया से रहित, जो माया से नहीं बना, जिस में माया का अंश नहीं (निर+अंजन, निर = बिना। अंजन = सुर्मा, कालिख, विकारों की अंश, माया का प्रभाव नहीं है, वह जिस पर माया का प्रभाव नहीं है।) अर्थ: वह अकाल पुरख माया के प्रभाव से परे है (क्योंकि) वह पूर्णत: स्वयं ही स्वयं है, ना वह पैदा किया जा सकता है, ना ही हमारे बनाए बनता है। जिनि सेविआ तिनि पाइआ मानु ॥ उच्चारण: जिन सेविया, तिन पाइआ मान॥ पद्अर्थ: जिनि = जिस मनुष्य ने। तिनि = उस मनुष्य ने। मानु = आदर, सत्कार। गुणी निधानु = गुणों के खजाने को। गावीअै = सिफत सलाह करिए। अर्थ: जिस मनुष्य ने उस अकाल पुरख का सिमरन किया है, उसने ही आदर सत्कार पा लिया है। हे नानक! (आओ) हम भी उस गुणों के खजाने हरि की सिफत-सलाह करें। गावीऐ सुणीऐ मनि रखीऐ भाउ ॥ उच्चारण: गावीअै सुणीअै, मन रखीअै भाउ॥ पद्अर्थ: मनि = मन में। रखीअै = टिकाएं। दुखु परहरि = दुख को दूर करके। घरि = हृदय में। लै जाइ = ले के जाता है, कमाई कर लेता है। अर्थ: (आओ! अकाल पुरख के गुण) गाएं और सुनें और अपने मन में उसका प्रेम टिकाएं। (जो मनुष्य उसका आहर करता है, प्रयत्न करता है, वह) अपना दुख दूर करके सुख को हृदय में बसा लेता है। गुरमुखि नादं गुरमुखि वेदं गुरमुखि रहिआ समाई ॥ उच्चारण: गुरमुख नादं, गुरमुख वेदं, गुरमुख रहिआ समाई॥ पद्अर्थ: गुरमुखि = गुरू की ओर मुंह करने से, जिस मनुष्य का मुंह गुरू की ओर है, गुरू के द्वारा। नादं = आवाज, शब्द्, नाम, जिंदगी की रुमक। वेदं = ज्ञान। रहिआ समाई = समाया हुआ है, सर्व व्यापक है। ईसरु = शिव। बरमा = ब्रह्मा, पारबती माई = माँ पार्वती। अर्थ: (पर उस ईश्वर का) नाम और ज्ञान गुरू के द्वारा (प्राप्त होता है)। गुरू के द्वारा ही (ये प्रतीति आती है कि) वह हरि सर्व-व्यापक है। गुरू ही (हमारे लिए) शिव है, गुरू ही (हमारे लिए) गोरख व ब्रह्मा हैऔर गुरू ही (हमारे लिए) पार्वती माँ है। जे हउ जाणा आखा नाही कहणा कथनु न जाई ॥ उच्चारण: जे हउ जाणा, आखा नाहीं, कहणा कथन ना जाई॥ गुरा इक देहि बुझाई॥ सभना जीआं का इक दाता, सो मैं विसरि न जाई॥५॥ पद्अर्थ: हउ = मैं। जाणा = समझ लूँ, अनुभव कर लूँ। आखा नाही = मैं उसका वर्णन नही कर सकता। कहणा.......जाई = कथन कहा नहीं जा सकता। गुरा = हे सत्गुरू! इक बुझाई = एक समझ। इकु दाता = दातें देने वाला एक अकाल पुरख। विसरि न जाई = भूल ना जाए। (यहाँ शब्द् ‘इक’ स्त्रीलिंग है और शब्द् ‘बुझाई’ का विशेषण है। शब्द् ‘इकु’ पुलिंग है और शब्द् ‘दाता’ का विशेषण है। दोनों शब्दों के जोड़ों का फर्क याद रखना होगा)। अर्थ: वैसे (इस अकाल पुरख के हुकम को) अगर मैं समझ (भी) लूँ, (तो भी) उसका वर्णन नहीं कर सकता। (अकाल-पुरख के हुकम का) कथन नहीं किया जा सकता। (मेरी तो) हे सत्गुरू! (तेरे आगे अरदास है कि) मुझे ये समझ दे कि जो सभी जीवों को दाता देने वाला एक रॅब हैमैं उसको भुला ना दूँ।5। भाव: प्रेम को मन में बसा के जो मनुष्य प्रभू की याद में जुड़ता है उसके हृदय में सदा सुख व शांति का निवास होता है। पर ये याद, ये बंदगी, गुरू के पास से ही मिलती है। गुरू ही ये दृढ़ करवाता है कि ईश्वर हर जगह में बस रहा है, गुरू के द्वारा ही जीव की प्रभू से दूरी दूर होती है। इसलिए गुरू के पास से ही बंदगी की दात मांगें।5। तीरथि नावा जे तिसु भावा विणु भाणे कि नाइ करी ॥ उच्चारण: तीरथ नावा, जे तिसु भावा, विणु भाणे कि नाइ करी॥ पद्अर्थ: तीरथि = तीर्थ पे। नावा = मैं स्नान करूँ। तिसु = उस रॅब को। भावा = मैं अच्छा लगूँ। विणु भाणे = अगर रॅब की नजर में कबूल ना हुआ, ईश्वर को ठीक लगे बिना। कि नाइ करी = स्नान करके मैं करूँ? जेती = जितनी। सिरठी = सृष्टि, कुनिया। उपाई = पैदा की हुई। वेखा = मैं देखता हूँ। विणु करमा = प्रभू की मेहर के बिना। जैसे: ‘विणु करमा किछु पाईअै नाही, जे बहु तेरा धावै’ (तिलंग महला १) कि मिलै = क्या मिलता है?कुछ नहीं मिलता। कि लई = क्या कोई ले सकता है? अर्थ: मैं तीर्तों पे जा के तब स्नान करूँ जो ऐसा करके उस प्रमात्मा को खुश कर सकूँ। पर, अगर इस तरह प्रमात्मा खुश नहीं होता तो मैं (तीर्तों पे) स्नान कर के क्या पा लूगाँ। ईश्वर की पैदा की हुई जितनी भी दुनिया मैं देखता हूँ (इसमें) प्रमात्मा की कृपा के बिना किसी को कुछ नहीं मिलता, कोई कुछ नहीं ले सकता। मति विचि रतन जवाहर माणिक जे इक गुर की सिख सुणी ॥ उच्चारण: मत विच रतन जवाहर माणिक जे इक गुर की सिख सुणी॥ पद्अर्थ: मति विचि = (मनुष्य की) बुद्धि में। माणिक = मोती। इक सिख = एक शिक्षा। सुणी = सुनी जाए, सुनें। अर्थ: यदि सत्गुरू की एक शिक्षा सुन ली जाए, तो मनुष्य की बुद्धि के अंदर रतन, जवाहर और मोती (उपज पड़ते हैं, अर्थात, प्रमात्मा के गुण पैदा हो जाते हैं)। गुरा इक देहि बुझाई ॥ उच्चारण: गुरा इक देह बुझाई ॥ अर्थ: (इसलिए) हे सत्गुरू! (मेरी तेरे आगे ये प्रार्थना ह,ै अरदास है कि) मुझे एक ये समझ दे, जिससे मुझे वह अकाल पुरख ईश्वर ना विसर जाए, जो सभी जीवों को दातें देने वाला है।6। भाव: तीर्तों के स्नान भी प्रभू की प्रसन्नता के प्यार की प्राप्ति का तरीका नहीं है। जिस पर मिहर हो वह गुरू के राह पे चल के प्रभू की याद में जुड़े। बस! उसी मनुष्य की मति में हिलौरे आते हैं।6। जे जुग चारे आरजा होर दसूणी होइ ॥ उच्चारण: जे जुग चारे आरजा होर दसूणी होइ॥ पद्अर्थ: जुग चारे = चारों युगों जितनी। आरजा = उम्र। दसूणी = दस गुनी। नवा खंडा विचि = सारी सृष्टि में। जाणीअै = जानी जाए, प्रगट हो जाए। सभ कोइ = हरेक मनुष्य। नालि चलै = साथ हो कर चले, हिमायती हो, पक्ष करे। अर्थ: अगर किसी मनुष्य की उम्र चार युगों जितनी हो जाए, (सिर्फ इतनी ही नहीं, बल्कि) उससे भी दस गूनी और (उम्र) हो जाए, अगर वो सारे संसार में प्रगट हो जाए और हरेक मनुष्य पीछे हो ले। चंगा नाउ रखाइ कै जसु कीरति जगि लेइ ॥ उच्चारण: चंगा नाउ रखाय कै जस कीरत जग लेय॥ पद्अर्थ: चंगा...कै = खूब मशहूर हो के, खूब नाम कमा के। जसु = शोभा। कीरति = शोभा। जगि = जगत में। लेइ = ले, कमाए। तिसु = अकाल पुरख की। नदरि = कृपा दृष्टि में। न आवई = नहीं आ सकता। वात = खबर, सुर्त। न के = कोई मनुष्य नहीं। कीटु = कीड़ा। करि = कर के, बना के, ठहिर के। दोसु धरे = दोश लगाता है। कीटा अंदरि कीटु = कीड़ों में कीड़ा, मामूली सा कीड़ा। अर्थ: अगर कोई खूब नाम कमा के सारे संसार में शोभा प्राप्त कर ले, पर लेकिन अकाल पुरख की मेहर की नजर में नहीं आ सका, तो वह ऐसा है जिसकी कोई बात भी नहीं पूछता। (अर्थात, इतना मान सत्कार होते हुए भी वह बेआसरा ही है)। (बल्कि ऐसा मनुष्य अकाल-पुरख के सामने) एक मामूली सा कीड़ा है। (“खसमै नदरी कीड़ा आवै।” आसा महला१) अकाल पुरख उासे दोषी करार दे के (उस पे नाम को भूलने का) दोष लगाता है। नानक निरगुणि गुणु करे गुणवंतिआ गुणु दे ॥ उच्चारण: नानक निरगुण गुण करे गुणवंतिआ गुण दे॥ पद्अर्थ: निरगुणि = गुणहीन मनुष्य में। गुणवंतिया = गुणी मनुष्यों को। करे = पैदा करता है। दे = देता है। तेहा = इस तरह का। न सुझई = नहीं सूझता, नहीं मिलता। जि = जो। तिसु = उस निर्गुण को। अर्थ: हे नानक! वह अकाल-पुरख गुणहीन मनुष्य में गुण पैदा कर देता है और गुणी जीवों को भी गुण वही बख्शता है। ऐसा कोई और नहीं दिखता जो निर्गुण जीवों को कोई गुण दे सकता हो। (प्रभू की मेहर की नजर ही उसको ऊँचा कर सकती है, लम्बी उम्र तथा जगत की शोभा सहायता नहीं करती)।7। भाव: प्रणायाम की सहायता से लंबी उम्र बढ़ा के जगत में हलांकि मनुष्य का आदर-सत्कार बन जाए, पर अगर वह बंदगी के गुणों से रहित है तो प्रभू की मेहर का पात्र नहीं बना। प्रभू की नजरों में तो बल्कि वह नामहीन जीव एक छोटा सा कीड़ा ही है। ये बंदगी वाला गुण जीव को प्रमात्मा की मेहर से ही मिल सकता है। नोट: पौड़ी 8 से 11 तक चारों एक ही लड़ी में है। इनका सांझा शव ये है कि जिन्होंने प्रभू की याद में चित्त जोड़ा हुआ है, उनके मन सदैव आनन्दित रहते हैं। सुणिऐ सिध पीर सुरि नाथ ॥ सुणिऐ धरति धवल आकास ॥ उच्चारण: सुणिअै सिध पीर सुरि नाथ॥ सुणिअै धरत धवल आकास॥ पद्अर्थ: सुणिअै = सुनने से, यदि नाम में सुरत जोड़ी जाए। सिध = वह योगी जिनकी मेहनत सफल हो चुकी है। सुरि = देवते। धवल = धरती का आसरा, बौलद। दीप = धरती के विभाजन के सात द्वीप। लोअ = लोक, भवन। पोहि न सकै = डरा नहीं सकता, अपना प्रभाव नहीं डाल सकता। विगासु = उमाह, खुशी, खिड़ाउ। अर्थ: हे नानक! (अकाल-पुरख के नाम में सुरति जोड़ने वाले) भक्तजनों के हृदय में सदा ही आनन्द बना रहता है, (क्योंकि) उसकी सिफत-सलाह सुनने से (मनुष्य के) दुखों व पापों का नाश हो जाता है। ये नाम हृदय में टिकने का ही नतीजा है कि (साधारण मनुष्य भी) सिद्धों,पीरों, देवताओं व नाथों वाली पदवी प्राप्त कर लेते हैं और उन्हें ये समझ आ जाती है कि धरती-आकाश का आसरा वह प्रभू ही है, जो सारे द्वीपों, लोकों, पातालों में व्यापक है।8। भाव: सिफत-सलाह में जुड़ के साधारण मानव भी उच्च आत्मिक अवस्था/पद को प्राप्त कर लेते हैं। उन्हें प्रत्यक्ष प्रतीत होता है कि प्रभू सारे खण्डों-ब्रह्मण्डों में व्यापक है, और धरती-आकाश का आसरा है। इस प्रकार हर जगह ईश्वर का दीदार होने से उनको मौत का डर भी नहीं सता सकता।8। सुणिऐ ईसरु बरमा इंदु ॥ सुणिऐ मुखि सालाहण मंदु ॥ उच्चारण: सुणिअै ईसर बरमा इंद॥ सुणिअै मुख सलाहण मंद॥ पद्अर्थ: ईसरु = शिव। इंदु = इंद्र देवता। मुखि = मुंह से। सालाहण = सिफत सलाहें, रॅब की उस्तति। मंदु = बुरा मनुष्य। जोग जुगति = योग की युक्ति, योग के साधन। तनि = शरीर के भीतर के। भेद = बातें। अर्थ: हे नानक! (नाम के साथ प्रीत करने वाले) भक्त जनों के हृदय में सदैव प्रसन्नता बनी रहती है; (क्योंकि) ईश्वर की सिफत सलाह उस्तति सुन के (मनुष्य) के दुखों और पापों का नाश हो जाता है। अकाल पुरख के नाम के साथ सुरति जोड़ने के सदका साधारण मनुष्य शिव,ब्रह्मा और इन्द्र की पदवी को प्राप्त कर लेता है, बुरा आदमी भी मुँह से ईश्वर की उस्तति करने लगता है, (साधारण बुद्धि वाले को भी) शरीर के भीतर की गहन सच्चाईयां, (भाव, आँख, कान, नाक, जीभ आदि इन्द्रियों के क्रिया कलापों व विकारों आदि की और की दौड़ भाग) के भेद का पता चल जाता है। प्रभू मेल की युक्ति की समझ पड़ जाती है, शास्त्रों स्मृतियों व वेदों की समझ पड़ जाती है। (भाव, धार्मिक पुस्तकों का असल ऊँचा निशाना तभी समझ आता है जब हम नाम में सुरति जोड़ते हैं, नहीं तो निरे लफ्जों को ही पढ़ लेते हैं, उस असली जज़बे तक नहीं पहुँचते जिस अहिसास पे पहुँच के उन धार्मिक पुस्तकों का सृजन हुआ होता है)।9। नोट: सुणिअै मुखि सालाहणु मंदु। कई टीकाकार इस तुक का अर्थ इस प्रकार करते हैं: ‘सुनने के कारण बुरे मनुष्य भी मुँह से सालाहे जाते हैं’ या ‘सुनने के कारण बुरे लोग भी मुखी और प्रशंसनीय हो जाते हैं’। पर– गुरबाणी व्याकरण अनुसार इस अर्थ के राह में कई रुकावटें हैं। शब्द ‘मंदु’ एकवचन है,इसका अर्थ है ‘बुरा मनुष्य’। शब्द ‘सालाहण’ क्रिया नहीं है। ‘सलाहे जाते हैं’ व्याकरण अनुसार वर्तमानकाल, अॅन पुरख, बहुवचन, क्रमवाच (Passive voice) है, पुरानी पंजाबी में इसके वास्ते शब्द ‘सालाहिअनि’ है, जैसे ‘पावहि’ (Active voice) कर्तरी वाच से ‘पाईअहि’ और ‘भवावहि’ से ‘भवाईअहि’ है, जैसे पउड़ी नं: २ में– हुकमी उतमु नीचु, हुकमि लिखि दुख सुख ‘पाई्रअहि’॥ इकना हुकमी बखसीस, इकि हुकमी सदा ‘भवाईअहि’॥ ‘सलाहते हैं’ करतरीवाच (Active voice) वर्तमान काल, अॅन पुरख, बहुवचन है। पुरानी पंजाबी में इसकी जगह ‘सालाहनि’ है। यह फर्क भी याद रखने वाला है, ‘ण’ नहीं है, ‘न’ है और इसके साथ मात्रा (ि) है, जैसे– गुरमुखि सालाहनि से सादु पाइनि मीठा अंम्रितु सारु। (प्रभाती म:३) तुधु सालाहनि तिनु धनु पलै, नानक का धनु सोई। (प्रभाती म:१) सालाहनि– सलाहते हैं, उस्तति करते हैं। सो, इस विचारयोग तुक में शब्द ‘सालाहण’ का अर्थ ‘सलाहते हैं’ या ‘सलाहे जाते हैं’ नहीं किया जा सकता। ‘सालाहण’ संज्ञा पुलिंग बहुवचन है, इसका एक वचन ‘सालाहणु’ है और इसका अर्थ है ‘सिफ़ति’, जैसे– सचु सालाहणु वडभागी पाईअै। (मारू म:५) सिफति सलाहणु छडि कै, करंगी लगा हंसु।2।16। (म:१ सूही की वार) पउड़ी की भाव: ज्यों ज्यों सुरति नाम में जुड़ती है जो मनुष्य पहले विकारी था, वह भी विकार छोड़ के सिफति सलाह करने वाला स्वभाव पका लेता है। इस तरह ये समझ आ जाता है कि गलत रास्ते की ओर जा रही ज्ञान-इन्द्रियां कैसे प्रभू से दूरियां बढ़ाए जा रही हैं और इस दूरी को मिटाने का कौन सा तरीका है। नाम में सुरति जोड़ने से ही धर्म-पुस्तकों का ज्ञान मानव मन में खुलता है।9। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |