श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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The Meaning and Structure of Japji Sahib

ੴ सति नामु करता पुरखु निरभउ निरवैरु
अकाल मूरति अजूनी सैभं गुर प्रसादि ॥

उच्चारण: १ (इक) ओअंकार सतिनाम करता पुरख निरभउ निरवैर
अकाल मूरत अजूनी सैभं गुरप्रसाद॥

पद्अर्थ:

१ओअंकार का उच्चारण करने के लिए इसके तीन हिस्से किए जाते हैं– १, ਓ, और  ͡  : इसका पाठ है ‘इक ओअंकार’। तीनों हिस्सों का अलग-अलग उच्चारण ऐसे बनता है: १ = इक। ਓ = ओअं।  ͡   = कार।

ਓਂ ‘ओअं’ संस्कृत का शब्द है। अमर कोश के अनुसार इसके तीन अर्थ हैं:

वेद आदि धर्म पुस्तकों के आरम्भ तथा अंत में, प्रार्थना व किसी पवित्र धार्मिक कार्य आरम्भ में अक्षर ‘ओं’ पवित्र अक्षर मान के इस्तेमाल किया जाता है।

किसी आदेश व प्रश्न आदि के उत्तर में आदर व सत्कार से ‘जी हाँ’ कहना । सो, ‘ओं’ का अर्थ है ‘जी हाँ’।

ओअं = ब्रह्म।

इनमें से कौन सा अर्थ इस शब्द का यहाँ लिया जाना है– इसे दृढ़ करने के लिए शब्द ‘ओअं’ से पहले ‘१’ लिख दिया है। इसका भाव ये है कि यहां ‘ओअं’ का अर्थ है ‘वह हस्ती जो एक है। जिस जैसा और कोई नहीं है और जिसमें ये सारा जगत समा जाता है’।

तीसरा हिस्सा   ͡   है, जिसका उच्चारण है ‘कार’। ‘कार’ संस्कृत का एक पिछोत्तर (प्रत्यय) है। आम तौर पर ये प्रत्यय ‘संज्ञा’ के आखिर में इस्तेमाल किया जाता है। इसका अर्थ है ‘एक रस, जिस में परिवर्तन ना आए’।

इस प्रत्ययके लगाने से ‘संज्ञा’ के लिंग में कोई फर्क नहीं पड़ता। भाव अगर ‘संज्ञा’ पहिले ‘पुलिंग’ है, तो इसके पीछे प्रत्यय लग जाने के बाद भी पुल्रिग ही रहता है। अगर, पहले स्त्रीलिंग हो तो इस प्रत्यय के समेत भी स्त्री लिंग ही रहता है। जैसे कि, पुलिंग:

नंनाकारु न कोइ करेई।

राखै आपि वडिआई देई।2।2। (गउड़ी म:१)

कीमति सो पावै आपि जणावै

आपि अभुलु न भुलए।

जै जैकारु करहि तुधु भावहि

गुर कै सबदि अमुलए।9।2।5 (सूही म:१)

सहजे रुणझुणकार सुहाइआ।

ता कै घरि पारब्रहमु समाइआ।7।3। (गउड़ी म:५)

स्त्रीलिंग:

दइआ धारी तिनि धारणहार।

बंधन ते होई छुटकार।7।4। (रामकली म:५)

मेघ समै मोर निरतिकार।

चंदु देखि बिगसहि कउलार।4।2। (बसंत म:५)

देखि रूपु अति अनूपु मोह महा मग भई।

किंकनी सबद झनतकार खेलु पाहि जीउ ।1।6। (सवईए महले चउथे के)

इस प्रत्यय के लगने से इन शब्दों के अर्थ इस प्रकार करने हैं–

नंनकार = एक-रस इन्कार, सदा के लिए इन्कार।

जैकार = लगातार ‘जै जै’ की गूँज।

निरतिकार = एक रस नाच।

झनतकार = एक रस सुंदर आवाज़।

प्रत्यय ‘कार’ लगाने के बिना और लगाने से, दोनों तरह से शब्दों के अर्तों में फर्क नीचे दिए प्रमाणों से स्पष्ट हो जाता है:

“घरि महि घरु दिखाइ देइ, सो सतिगुरु पुरखु सुजाणु।

पंच सबदि धुनिकार धुनि, तह बाजै सबदु नीसाणु।1।27।

धुनि = आवाज। धुनिकार = लगातार नाद, निरंतर आवाज। इसी तरह:

मनु भूलो सिरि आवै भारु।

मनु मानै हरि एकंकार ।2।2। (गउड़ी म:१)

एकंकारु = एक ओअंकार, वह एक ओं जो एक रस है, जो हर जगह व्यापक है।

सो, ੴका उच्चारण है‘इक (एक) ओअंकार’ और इसके अर्थ है “एक अकाल पुरख, जो एक रस सर्व-व्यापक है”।

सतिनामु = जिसका नाम ‘सति’ है। लफ्ज सति का संस्कृत स्वरूप सत्य है, इसका अर्थ है ‘अस्तित्व वाला’। इस का धातु ‘अस’ है, जिसके अर्थ हैं ‘होना’। इस तरह ‘सतिनाम’ के अर्थ हैं “वह एक ओअंकार, जिसका नाम है अस्तित्व वाला’।

पुरखु = संस्कृत मेंव्योतिपत्ति अनुसार इस शब्द के अर्थ यूँ किए गए हैं, ‘पूरिशेते इति पुरष:’, अर्थात जो शरीर में लेटा हुआ है। संस्कृत में आम प्रचलित अर्थ है ‘मनॅुख’। भगवत गीता में ‘पुरखु’, ‘आत्मा’ के अर्तों में इस्तेमाल हुआ है। ‘रघुवंश’ में ये शब्द ‘ब्राह्मण्ड वा आत्मा’ के अर्तों में आया है, इसी तरह पुस्तक ‘शिशुपाल वध’ में भी।

श्री गुरू ग्रंथ साहिब में ‘पुरखु’ का अर्थ है ‘वह ओअंकार जो सारे जगत में व्यापक है, वह आत्मा जो सारी सृष्टि में रम रही है’। ‘मनुख’ और ‘आत्मा’ अर्तों में भी ये शब्द कई जगह आया है।

अकाल मूरति = शब्द ‘मूर्ति’ स्त्रीलिंग है, ‘अकाल’ इसका विशषण है, ये भी स्त्रीलिंग रूप में लिखा गया है। अगर शब्द ‘अकाल’ अकेला ही ‘पुरखु’, ‘निरभउ’, ‘निरवैर’ की तरह ‘इक ओअंकार’ का गुणवाचक होता तो पुलिंग रूप में होता, तो इसके अंत में भी (ु) की मात्रा होती।

नोट: शब्द ‘मूरति’ (मूर्ति) तथा ‘मूरतु’ का भेद जानना जरूरी है। ‘मूरति’ के साथ सदा (ि) की मात्रा लगती है और स्त्रीलिंग है। इसका अर्थ है ‘स्वरूप’। संस्कृत का शब्द है।

लफ्ज ‘मुरतु’ संस्कृत का शब्द ‘महूरत’ है। महूरत आदि शब्द समय के लिए इस्तेमाल होते हैं। ये शब्द पुलिंग है।

अजूनी = योनियों से रहित, जो जन्म में नहीं आता।

सैभं = स्वयंभू (स्व = स्वयं। भं = भू) अपने आप से होने वाला, जिसका प्रकाश अपने आप से हुआ है।

गुर प्रसादि = गुरू के प्रसाद से, गुरू की कृपा द्वारा, भाव, उपरोक्त ‘इक (एक) ओअंकार’ गुरू की कृपा से प्राप्त होता है।

अर्थ: अकाल-पुरख एक है, जिसका नाम ‘अस्तित्व वाला’ है जो सृष्टि का रचनहार है, (करता है) जो सभ में व्यापक है, भय से रहित है (निर्भय), वैर से रहित है (निर्वेर), जिसका स्वरूप काल से परे है, (भाव, जिसका शरीर नाश-रहित है), जो यौनियों में नहीं आता,जिसका प्रकाश अपने आप से हुआ है और जो सत्गुरू की कृपा से मिलता है।

नोट: ये उपरोक्त बाणी गुरसिख्खी का मूलमंत्र है। इससे आगे लिखी गई बाणी का नाम है ‘जपु’। ये बात याद रखने वाली है कि ये ‘मूलमंत्र’ अलग है और बाणी ‘जपु’ अलग। श्री गुरू ग्रंथ साहिब के आरम्भ में ये मूलमंत्र लिखा है। जैसे हरेक राग के शुरू में भी लिखा मिलता है। बाणी ‘जपु’ लफ्ज ‘आदि सचु’ से शुरू होती है। बाणी ‘आसा दी वार’ के शुरू में भी यही मूलमंत्र है, पर ‘वार’ से इसका कोई संबंध नहीं है। ठीक वैसे ही यहाँ भी है। ‘जपु’ के आरम्भ में मंगलाचरण के तौर पर एक शलोक उच्चारा गया है, फिर ‘जपु’ साहिब की 38 पौड़ियां हैं।

॥ जपु ॥

इस सारी बाणी का नाम ‘जपु’ है । (उच्चारण ‘जप’)

आदि सचु जुगादि सचु ॥
है भी सचु नानक होसी भी सचु ॥१॥

उच्चारण: आद सच जुगाद सच॥ है भी सच नानक होसी भी सच॥१॥

पद्अर्थ: आदि = आरम्भ से। सचु = अस्तित्व वाला। शब्द ‘सचु’ संस्कृत के ‘सत्य’ का प्राकृत है, जिसकी धातु ‘अस’ है। ‘अस’ का अर्थ है ‘होना’। जुगादि = युगों के आरम्भ से। है = अर्थात, इस समय भी है। नानक = हे नानक। होसी = होगा, रहेगा।१।

अर्थ: हे नानक! अकाल पुरख आरम्भ से ही अस्तित्व वाला है, युगों के आरम्भ से मौजूद है। इस समय भी मौजूद है और आगे भी अस्तित्व में रहेगा।१।

नोट: ये श्लोक मंगलाचरण के तौर पर है। इस में गुरू नानक देव जी ने अपने ईष्ट का स्वरूप बयान किया है। जिसका जप, सिमरन करने का उपदेश इस सारी बाणी ‘जपु’ में किया गया है।

इससे आगे बाणी ‘जपु’ की रचना शुरू होती है।


सोचै सोचि न होवई जे सोची लख वार ॥
चुपै चुप न होवई जे लाइ रहा लिव तार ॥

उच्चारण: सोचै सोच न होवई जे सोची लख वार॥ चुपै चुप न होवई जे लाय रहां लिव तार॥

पद्अर्थ: सोचै = स्वच्छता रखने से, पवित्रता कायम रखने से। सोचि = सुचि, पवित्रता, सुच। न होवई = नहीं हो सकती। सोची = मैं स्वच्छता रखूँ। चुपै = चुप कर रहने से। चुप = शांति, मन की चुप, मन का टिकाउ। लाइ रहा = मैं लगायी रखूँ। लिव तार = लिव की तार, लिव की डोर, एक तार समाधि।

नोट: इस पौड़ी की पाँचवीं लाइन पढ़ने से ये पता चलता है कि इस पौड़ी में गुरू नानक साहिब मन को ‘सचिआरा’ (सत्यनिष्ठ) करने का तरीका बता रहे हैं। सबसे पहले उन साधनों का जि़कर करते हैं जो और लोग इस्तेमाल कर रहे हैं। तीर्तों का स्नान, जंगलों में जा के समाधी लगानी, मन की भूख को पहले माया से तृप्त करने की कोशिश, शास्त्रों की फिलासफी––ये आम प्रचलित तरीके थे। पर सत्गुरू जी इनसे अलग वह साधन बताते हैं, जिसे गुरु सिखी का मौलिक सिद्धांत समझ लेना चाहिए, भाव, अकाल पुरखु की रजा में चलना।

पहली चार लाईनों के ठीक अर्थ समझने के लिए पाँचवीं लाइन पर खास ध्यान देना जरूरी है। ‘किव सचिआरा होइअै किव कूड़ै तुटै पालि।’ इस लाइन को पहली हर एक लाइन के साथ पढ़ने से स्पष्ट हो जाता है कि पहिली हरेक लाइन में ‘मन’का ही जिकर है। पहली लाइन में ‘मन की सुच’, दूसरी में ‘मन की चुप’, तीसरी में ‘मन की भूख’ और चौथी में ‘मन की चतुराई’ का हाल बताया है।

(प्र:) लफ्ज ‘सोचि’ के अर्थ ‘स्वच्छता’ से क्यूँ किए गए हैं?

(उ:) मन की सोचों और चतुराईयों का तो चौथी लाइन में वर्णन कर दिया गया है, इस वास्ते पहिली लाइन में कुछ और ख्याल है, जो नीचे लिखी तुकों को पढ़ने से स्पष्ट हो जाता है:

कहु नानक सचु धिआईअै॥

सुचि होवै तां, सचु पाईअै॥ (आसा दी वार)

सोच करै दिनसु अरु राति॥

मन की मैल न तन ते जाति॥ (सुखमनी)

न सुचि संजमु तुलसी माला॥

गोपी कानु न गऊ गोपाला॥

तंतु मंतु पाखंडु न कोई,

ना को वंसु वजाइदा॥7॥ (मारू महला १)

‘सोच’ का अर्थ है ‘स्नान’, तथा ‘सुचि’ का अर्थ है ‘पवित्रता’। इन दो शब्दों को मिलाने से बना है ‘सोचि’। जिसका अर्थ है सॅुच, पवित्रता, स्नान। शब्द ‘सुचि’ स्त्रीलिंग है। संस्कृत में भी ये इसी रूप में है। जैसे शब्द ‘मन’ से ‘मनि’ बना है और जिसका अर्थ है ‘मन में’। लेकिन, इस तरह ‘सोच’ से ‘सोचि’ नहीं बन सकता, क्योंकि शब्द ‘मन’ पुलिंग है और ‘सोच’ (जिसका अर्थ ‘विचार’ है) स्त्रीलिंग है। सो, शब्द ‘सोचि’ अधिकर्ण कारक की (ि) मात्रा के बिना ही असल रूप वाला संस्कृत का ही शब्द ‘सुचि’ है, जिसके अर्थ हैं पवित्रता।

अर्थ: अगर में लाखों बार (भी) (स्नान आदि से शरीर की) स्वच्छता रखूँ, (तो भी इस तरह) स्वच्छता रखने से (मन की) स्वच्छता नहीं रहि सकती। यदि मैं (शरीर की) एक-तार समाधि लगाई रखूँ; (तो भी इस तरह) चुप कर के रहने से मन शांत नहीं हो सकता।

भुखिआ भुख न उतरी जे बंना पुरीआ भार ॥
सहस सिआणपा लख होहि त इक न चलै नालि ॥

उच्चारण: भुखिआं भुख ना उतरी, जे बंनां पुरीआं भार॥
सहस सियाणपां लख होहि त इक न चलै नालि॥

पद्अर्थ: भुख = त्रिष्णा, लालच। भुखिआ = त्रिष्णा के अधीन रहने से। न उतरी = दूर नहीं हो सकती। बंना = बांध लूँ, सम्भाल लूँ। पुरी = लोक, भवण। पुरीआ भार = सारे लोकों के भार। भार = पदार्तों के समूह। सहस = हजारों। सिआणपा = चतुराईयां। होहि = हों। इक = एक भी चतुराई।

अर्थ: यदि मैं सारे भवनों के पदार्तों के ढेर (भी) संभाल लूँ, तो भी त्रिष्णा के अधीन रहने से त्रिष्णा दूर नहीं हो सकती। यदि, (मेरे में) हजारों व लाखों ही चतुराईयां हों, (तो भी उनमें से) एक भी चतुराई साथ नहीं देती।

किव सचिआरा होईऐ किव कूड़ै तुटै पालि ॥
हुकमि रजाई चलणा नानक लिखिआ नालि ॥१॥

उच्चारण: किव सचियारा होईऐ, किव कूड़ै तुटै पाल॥
हुकम रजाई चलणा, नानक लिखिआ नाल॥१॥

पद्अर्थ: किव = किस तरह। होईअै = हो सकते हैं। कूड़ै पालि = झूठ की पाल, झूठ की दीवार, झूठ का पर्दा। सचिआरा = (सच आलय) सच का घर, सत्य के प्रकाश के योग्य। हुकमि = हुकम में। रजाई = रजा वाला, अकाल पुरख। नालि = जीव के साथ ही, शुरू से ही जब से जगत बना है।1।

अर्थ: (तो फिर) अकाल पुरख के प्रकाश होने योग्य कैसे बन सकते हैं (और हमारे अंदर का) झूठ का पर्दा कैसे कैसे टूट सकता है? रजा के मालिक अकाल पुरख के हुकम में चलना- (यही एक मात्र विधि है)। हे नानक! (ये विधि) आरम्भ से ही जब से जगत बना है, लिखी चली आ रही है।1।

भाव: प्रभू से जीव की दूरी मिटाने का एक ही तरीका है कि जीव उसकी रजा में चले। ये उसूल धुर से ही ईश्वर द्वारा जीव के लिए जरूरी हैं। पिता के कहने पर पुत्र चलता रहे तो प्यार, ना चले तो दूरी पड़ती जाती है।

हुकमी होवनि आकार हुकमु न कहिआ जाई ॥
हुकमी होवनि जीअ हुकमि मिलै वडिआई ॥

उच्चारण: हुकमी होवन आकार, हुकम न कहिआ जाई॥
हुकमी होवन जीअ, हुकम मिलै वडिआई॥

पद्अर्थ: हुकमी = हुक्म में, अकाल-पुरख के हुकम अनुसार। होवनि = होते हैं, अस्तित्व में आते हैं, बन जाते हैं। आकार = स्वरूप, शक्लें, शरीर। न कहिआ जाई = कथन नहीं किया जा सकता। जीअ = जीव जन्तु। हुकमि = हुकम अनुसार। वडिआई = आदर, शोभा।

अर्थ: अकाल पुरख के हुकम के अनुसार सारे शरीर बनते हैं, (पर ये) हुकम कहा नहीं जा सकता कि कैसा है। ईश्वर के आदेश मुताबिक ही सारे जीव पैदा हो जाते हैं और आदेशानुसार ही (ईश्वर के दर पर) शोभा मिलती है।

हुकमी उतमु नीचु हुकमि लिखि दुख सुख पाईअहि ॥
इकना हुकमी बखसीस इकि हुकमी सदा भवाईअहि ॥

उच्चारण: हुकमी उक्तम नीच, हुकम लिख दुख सुख पाई्रयह॥
इकना हुकमी बखशीस, इक हुकमी सदा भवाईयह॥

पद्अर्थ: उतमु = श्रेष्ठ, बढ़िया। लिखि = लिख के, लिखे अनुसार। पाईअहि = प्राप्त होते हैं, भोगते हैं। इकना = कई मनुष्यों को। बखसीस = दात, बख्शिश। इकि = एक मनुष्य। भवाईअहि = भ्रमित होते हैं, जन्म-मृत्यु के चक्कर में पड़े रहते हैं।

अर्थ: रॅब के हुकम में कोई मनुष्य अच्छा (बन जाता) है, काई बुरा। उसके हुकम में ही (अपने किए कर्मों के) लिखे अनुसार दुख व सुख भोगते हैं। हुकम में ही कई मनुष्यों पर (अकाल पुरख के दर से) कृपा होती है, और उसके हुकम में ही कई मनुष्य नित्य जन्म-मरण के चक्कर में फसे रहते हैं।

हुकमै अंदरि सभु को बाहरि हुकम न कोइ ॥
नानक हुकमै जे बुझै त हउमै कहै न कोइ ॥२॥

उच्चारण: हुकमै अंदर सभ को, बाहर हुकम न कोय॥
नानक हुकमै जे बुझै, त हौमैं कहै न कोय॥२॥

पद्अर्थ: अंदरि = रॅब के हुकम में। सभु को = हर एक जीव। बाहरि हुकम = हुकम से बाहर। हकमै = हुकम को। बुझै = समझ ले। हउमै कहै न = अहंकार भरे बोल नहीं बोलता, मैं मैं नहीं कहता, स्वार्थी नहीं बनता।

अर्थ: हरेक जीव ईश्वर के हुकम में ही है, कोई जीव हुकम से बाहर नहीं हो सकता। हे नानक! अगर कोई मनुष्य अकाल पुरख के हुकम को समझ ले तो फिर वो स्वार्थ भरी बातें नहीं करता (अर्थात, स्वार्थी जीवन छोड़ देता है)।2।

भाव: प्रभू के हुकम का सही स्वरूप बयान नहीं किया जा सकता, पर वह छोटे दायरे में नहीं है।

गावै को ताणु होवै किसै ताणु ॥
गावै को दाति जाणै नीसाणु ॥

उच्चारण: गावै को ताण होवै किसै ताण॥
गावै को दात जाणै नीसाण॥

पद्अर्थ: को = कोई मनुष्य। ताणु = बल, अकाल पुरख की ताकत। किसै = जिस किसी मनुष्य को। ताणु = समर्था। दाति = बख्शे हुए पदार्थ। नीसाणु = (कृपा का) निशान।

अर्थ: जिस किसी मनुष्य की स्मर्था होती है, वह ईश्वर की ताकत को गाता है, (भाव, उसकी सिफत-सलाह करता है और उसके उन कर्मों का कथन करता है जिनसे उनकी बड़ी ताकत प्रगट हो) कोई मनुष्य उसकी दातों को ही गाता है, (क्योंकि, इन दातों को वह ईश्वर की कृपा का) निशान समझता है।

गावै को गुण वडिआईआ चार ॥
गावै को विदिआ विखमु वीचारु ॥

उच्चारण: गावै को गुण वडिआईआं चार॥
गावै को विदिआ विखम वीचार॥

पद्अर्थ: चार = सुंदर। विदिआ = विद्या द्वारा। विखमु = कठिन, मुष्किल। विचारु = ज्ञान।

शब्द ‘चार’ विशेषण है, जो एकवचन पुलिंग के साथ ‘चारु’ हो जाता है और बहुवचन के साथ या स्त्रीलिंग के साथ ‘चार’ रहता है। पर शब्द ‘चारि’ ‘चहुँ’ (4) की गिनती का वाचक है। जैसे–

1. चारि कुंट दह दिस भ्रमे, थकि आए प्रभ की साम।
2. चारि पदारथ कहै सभु कोई।
3. चचा चरन कमल गुर लागा।
धनि धनि उआ दिन संजोग सभागा।
चारि कुंट दहदिस भ्रमि आइओ।
भई क्रिपा तब दरसनु पाइओ।
चार बिचार, बिनसिओ सभ दूआ।
साध संगि मनु निरमलु हूआ।

4. तटि तीरथि नही मनु पतीआइ।
चार अचार रहे उरझाइ।2।

अर्थ: कोई मनुष्य ईश्वर के सुन्दर गुण और अच्छी बढ़ाईयों का वर्णन करता है। कोई मनुष्य विद्या के बल से अकाल पुरख के कठिन ज्ञान को गाता है (भाव, शास्त्र आदि विद्या द्वारा आत्मिक फिलासफीजैसे मुश्किल विषयों पर विचार करता है)।

गावै को साजि करे तनु खेह ॥
गावै को जीअ लै फिरि देह ॥

उच्चारण: गावै को, साजि करे, तन खेह॥
गावै को, जीअ लै फिर देह॥

पद्अर्थ: साजि = पैदा करके, बना के। तनु = शरीर को। खेह = स्वाह, राख। जीअ = जीवात्मा। लै = ले के। देह = दे देता है।

नोट: ‘जीउ’ तथा ‘जीअ’ बहुवचन है।

यहाँ शब्द ‘देह’ का ‘ह’ पहली तुक के ‘खेह’ के साथ मिलाने के वास्ते बरता गया है। वैसे शब्द ‘देह’ संज्ञा का अर्थ है ‘शरीर’, जैसे कि ‘भरीअै हथु पैरु तनु देह’।

शब्द ‘दे’, ‘देहि’ और ‘देह’ को अच्छी तरह समझने के लिए जपु जी में से ही नीचे लिखीं तुकें दी जा रही हैं:

देंदा दे लैदे थकि पाहि। पउड़ी३।

आखहि मंगहि देहि देहि, दाति करे दातारु।४।

गुरा इक देहि बुझाई।५।

नानक निरगुणि गुणु करे गुणवंतिआ गुण दे।७।

भरीअै हथु पैरु तनु देह।२०।

ले साबूणु लईअै ओहु धोइ।२०।

आपे जाणै आपे देइ।२५।

दे– देता है। दे–दे के।

देइ–देता है। देइ–दे के

देह–शरीर। देहि–देह (हुकमी भविष्यत काल)।

अर्थ: कोई मनुष्य ऐसे गाता है, ‘अकाल पुरख शरीर को बना के फिर राख कर देता है। कोई ऐसे गाता है, ‘हरी (शरीरों में से) जान निकाल के फिर (दूसरे शरीरों में) डाल देता है’।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh