श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

Page 1, The Meaning and Structure of Japji Sahib


१ ओअंकार सतिगुर प्रसादि॥

जपु जी का भाव

पउड़ी-वार भाव:

(अ) १ से ३-

“झूठ” (माया) के कारण जीव की जो दूरी परमात्मा से बनती जा रही है वह प्रमात्मा के ‘हुकम’ में चलने से ही मिट सकती है। जब से जगत बना है तब से ही यही असूल चला आ रहा है।१।

प्रभू का ‘हुकम’ एक ऐसी सत्ता है, जिसके अधीन सारा ही जगत है। उस हुकम-सत्ता का मुकम्मल स्वरूप् बयान नहीं हो सकता, पर जो मनुष्य उस हुकम में चलना सीख लेता है, उस का स्वै-भाव मिट जाता है।२।

प्रभू के भिन्न-भिन्न कार्यों को देख के मनुष्य अपनी-अपनी समझ अनुसार प्रभू की हुकम-सत्ता का अंदाजा लगाते चले आ रहे हैं। करोड़ों ने ही यतन किया है, पर किसी भी तरफ से अंदाजा नहीं लग सका। बेअंत दातें उस के हुकम में बेअंत लोगों को मिल रही हैं। प्रभू की हुकम-सत्ता ऐसी ख़ूबी के साथ जगत का प्रबंध कर रही है कि बावजूद बेअंत उलझनों व गुँझलदार होते हुए भी उस प्रभू को कोई थकावट या खीज नहीं है।३।

(आ) ४ से ७

दान-पुन्य करने वाले या किसी तरह के पैसे के चढ़ावे से जीव की प्रभू से यह दूरी नहीं मिट सकती, क्योंकि ये दातें तो उस प्रमात्मा की ही दी हुई हैं। उस प्रभू से बातें उसकी अपनी बोली में ही हो सकती हैं, और वह बोली है ‘प्रेम’। जो मनुष्य अमृत बेला (प्रात:काल) में उठ के उस प्रभू की याद में जुड़ता है उसको ‘प्रेम-पटोला’ मिलता है। जिसकी बरकत से उसको हर जगह प्रमात्मा ही दिखाई देने लग जाता है। ४।

प्रेम को मन में बसा के जो मनुष्य प्रभू की याद में जुड़ता है, उसके हृदय में सदा सुख और शांति का निवास रहता है। पर यह याद, यह बंदगी गुरू के द्वारा ही मिलती है। गुरू ही ये दृढ़ करवाता है कि प्रभू हर जगह बस रहा है। गुरू के द्वारा ही जीव की प्रभू से दूरी दूर होती है। इसलिए गुरू से ही बंदगी की दात मांगें। ५।

तीर्तों का स्नान भी होते प्रभू की प्रसन्नता व प्यार की प्राप्ति का साधन नहीं है। जिस पे मेहर हो वह गुरू के राह पर चल कर प्रभू की याद में जुड़े। बस! उस मनुष्य की मति में ऊँचे हिलौरे आते हैं।६।१

प्रणायाम की मदद् से उम्र लम्बी करके जगत में भले ही मनुष्य का मान-आदर बन जाए, पर यदि वह बंदगी के गुण से रहित है तो प्रभू की मेहर का पात्र नहीं बना। प्रभू की नजरों में तो बल्कि वह नाम-रहित जीव एक छोटा सा कीड़ा ही है।७।

(इ) ८ से ११:

सो, प्रभू की याद में चिक्त जोड़ना है। जिन्होंने जोड़ा है उनके मन सदा खिले रहते हैं। सि़त-सलाह में जुड़ के साधारण मनुष्य भी ऊँची आत्मक अवस्था प्राप्त कर लेते हैं। उन्हें प्रत्यक्ष प्रतीत होता है कि प्रभू सारे खण्डों-ब्रह्मण्डों में व्यापक है और धरती-आकाश का आसरा है। इस तरह हर जगह प्रभू का दीदार होने से उन्हें मौत का डर भी नहीं सता सकता।८।

जैसे-जैसे श्रुति (सुर्त) नाम में जुड़ती है, जो मनुष्य पहले विकारी था वो भी विकार छोड़ के सिफ़्त-सलाह करने वाला स्वभाव परिपक्व कर लेता है। इसी तरह ये समझ आ जाता है कि गलत रास्ते पड़ी हुईं ज्ञानेन्द्रियां कैसे प्रभू से दूरी करवाए जातीं है तथा इस दूरी को मिटाने का तरीका क्या है। नाम में सुर्ति जोड़ने से ही धर्म-पुस्तकों का ज्ञान मनुष्य मन में खुलता है।९।

नाम में सुरति जोड़ने से ही मन विशाल होता है, जरूरतमंदों की सेवा व संतोषी जीवन बनता है। नाम में डुबकी ही अठसठ् तीर्तों का स्नान है। दुनियावी किसी भी मान-आदर की परवाह नहीं रह जाती। मन सहज अवस्था में, अडोलता में, मगन रहता है।१०।

जैसे-जैसे सुरति नाम में जुड़ती है, आदमी ईश्वरीय गुणों के समुंदर में डुबकी लगाता है। संसार एक अथाह समुंदर है, जहाँ विछड़ा हुआ जीव अन्धे की तरह हाथ-पैर मारता है। पर नाम के साथ जुड़ा हुआ जीव जीवन की सही राह ढूंढ लेता है।११।

(ई) १२ से १५:

प्रभू माया के प्रभाव से बेअंत ऊँचा है। उस के नाम में सुरति जोड़-जोड़ के जिस मानव के मन में उस की लगन लग जाती है, उस की भी आत्मा माया की मार से ऊपर उठ जाती है।

जिस मनुष्य की प्रभू के साथ लगन लग जाए, उसकी आत्मिक उच्चता का ना कोई बयान कर सकता है ना ही कोई लिख सकता है।१२।

प्रभू चरणों की प्रीत मनुष्य के मन में रोशनी कर देती है। सारे संसार में उसे परमात्मा ही दिखता है। उसे विकारों की चोटें नहीं लगतीं और ना ही उसे मौत डरा सकती है।१३।

याद की बरकत के साथ ज्यों-ज्यों मनुष्य का प्यार परमात्मा के साथ बनता है, इस सिमरन-रूप धर्म के साथ उसका इतना गहरा संबंध बन जाता है कि कोई भी रुकावट उसको इस सही निशाने से हटा नहीं सकते। और भटकाने वाली पगडंडियां उसे गलत राह पर नहीं भटका सकतीं।१४।

इस लगन की बरकत के साथ वे सारे बंधन टूट जाते हैं, जिन्होंने प्रभू से दूरी बनायी हुई थी। ऐसी लगन वाला सख्श केवल खुद ही नहीं बचता, अपने परिवार के जीवों को भी पति-प्रभू के साथ जोड़ लेता है। ये दात कृपा जिन पे गुरू जी के द्वारा होती है, वे प्रभू द्वार छोड़ के और तरफ नहीं भटकते।१५।

(उ) १६ से १९:

भाग्यशली वे मनुष्य हैं जिन्होंने गुरू के बताए रास्ते को अपना जीवन उद्देश्य बनाया है, जिन्होंने ‘नाम’ से सुरति जोड़ी है और जिन्होंने प्रभू से प्यार का रिश्ता गाँठा है। इस रास्ते पे चल के प्रभू की रज़ा में राज़ी रहना ही उन्हें भाता है। ये नाम सिमरन का ‘धर्म’ उनकी जि़न्दगी का सहारा बनता है, फलस्वरूप वे संतोषी जीवन व्यतीत करते हैं।

पर इस बंदगी का ये नतीजा नहीं निकल सकता कि कोई मनुष्य प्रभू की रची सृष्टि का अंत पा सके। इधर तो ज्यों-ज्यों ज्यादा गहराई में जाओगे, ये सृष्टि और बेअंत, और बेअंत प्रतीत होगी। असल में इस बेमतलब प्रयत्नों का ही नतीजा था कि लोगों ने ये धारणा मिथ ली कि हमारी धरती को एक बैल ने उठाया हुआ है। प्रमात्मा और उसकी कुदरत का अंत ढूंढना मनुष्य की जिन्दगी का मकसद् बन ही नहीं सकता।१६।

वर्ना, जगत में अगर आप उन लोगों की ही गिनती करने लगो, जो जप, तप, पूजा, धार्मिक पुस्तकों का पाठ, योग-समाधि आदि भले काम करते चले आ रहे हैं तो ये लेखा खत्म होने वाला ही नहीं।१७।

दूसरी तरफ, अगर आप चोर, डाकू, ठग, निंदक आदि जैसे लोगों का हिसाब लगाने लग जाएं तो यहाँ भी कोई अंत नहीं। जब से जगत बना है बेअंत जीव विकारों में ही ग्रसे चले आ रहे हैं।१८।

वैसे, कितनियों धरतियों के कितने जीव प्रभू ने रचे हैं? मनुष्य की किसी भी ‘बोली’ में कोई शब्द ही नहीं जो ये लेखा बयान कर सके।

‘बोली’ भी प्रभू द्वारा एक दात मिली है, पर ये मिली है सिफत-सालाह करने के लिए। ये नहीं हो सकता कि इस द्वारा मनुष्य प्रभू का अंत पा सके। देखिए! बेअंत है उसकी कुदरत, और इसमें जहाँ देखो वह स्वयं ही मौजूद है। कौन अंदाजा लगा सकता है कि वह कितना बड़ा है और उसकी रचना कितनी है?१९।

(ऊ) २० से २७:

माया के प्रभाव के कारण मनुष्य विकारों में पड़ जाता है और इसकी मति मैली हो जाती है। ये मैल इसे शुद्ध-स्वरूप प्रमात्मा से विछोड़ के रखती है और जीव दुखीरहता है। नाम सिमरन ही ऐकमेव तरीका है जिससे मन की यह मैल धुल सकती है। (सो, सिमरन तो विकारों की यह मैल धो के मन को प्रभू के साथ मिलाप के वास्ते है, प्रभू व उसकी रचना का अंत पाने के लिए जीव को समर्थ नहीं बना सकता)।२०।

जिस मनुष्य ने नाम में चित्त जोड़ा है, जिसको सिमरन की लगन लग गयी है, जिसके मन में प्रभू का प्यार उपजा है, उसकी आत्मा शुद्ध पवित्र हो जाती है। पर ये भक्ति उसकी मेहर से ही मिलती है।

बंदगी का फल ये नहीं हो सकता कि मनुष्य ये बता सके कि जगत कब बना। ना पण्डित, ना काज़ी, ना जोगी, कोई भी ये भेद नहीं पा सके। प्रमात्मा बेअंत बड़ा है, उसका बड़प्पन भी बेअंत है, उसकी रचना भी बेअंत है।२१।

प्रभू की कुदरत का हिसाब करते हुए ‘हजारों’ व ‘लाखों’ की गिनती के पैमानों का इस्तेमाल नहीं किया जा सकता। इतनी बेअंत कुदरत है कि इसका लेखा-जोखा करते हुए गिनती के पैमाने ही खत्म हो जाते हैं।२२।

सो, बंदगी से प्रभू का अंत नहीं पाया जा सकता। पर, इसका ये भाव नहीं कि बंदगी का कोई लाभ नहीं। बंदगी की बरकत से मनुष्य शाहों-पातशाहों की भी परवाह नहीं करता, ‘नाम’ के सामने बेअंत धन भी उसे तुच्छ प्रतीत होता है।२३।

प्रभू बेअंत गुणों का मालिक है, उसकी पैदा की हुई रचना भी बेअंत है। ज्यों-जयों ये कहें कि वह बड़ा है, त्यों-त्यों वह और बड़ा प्रतीत होने लगता है। जगत में ना कोई उस प्रभू जितना बड़ा है, और इसलिए कोई भी ये नहीं बता सकता कि प्रभू कितना बड़ा है। २४।

प्रभू का बड़प्पन बयान करना तो कहाँ रहा, उसकी बख्शिश ही इतनी बड़ी है कि लिखने में नहीं समेटी जा सकती। जगत में जो बड़े-बड़े दिखाई देते हैं ये सभी उस प्रभूके दर से माँगते हैं। वह तो बल्कि इतना बड़ा है कि जीवों द्वारा मांगे बिना ही इनकी जरूरतें समझ के अपने-आप ही दातें दिए जाता है।

और जीव की मूर्खता देखो, जो कुछ ईश्वर से मिला है उसको इस्तेमाल करते-करते देने वाले दातार (ईश्वर) को विसार के विकारों में खचित हो जाता है, और कई दुख-कलेशों को आमंत्रित कर लेता है। पर ये दुख-कलेश भी प्रभू की दात ही हैं, कयोंकि इन्हीं दुख-कलेशों के कारण ही मनुष्य को दुबारा हुकम (रज़ा) में चलने की प्रेरणा मिलती है, और वह सिफत-सलाह करने लग जाता है। ये सिफत-सलाह ही सबसे ऊँची दात है।२५।

जगत में बेअंत विद्वान हो चुके हैं और पैदा होते रहेंगे। पर, ना तो अब तक कोई लेखा कर सका है और ना ही आगे कोई कर सकेगा कि प्रभू में कितना बड़प्पन है, कितने गुण हैं, कितनी बख्शिशें जीवों पे वह कर रहा है। बेअंत हैं उसके गुण, बेअंत हैं उसकी दातें। इस भेद को उस प्रभू के अलावा और कोई नहीं जानता, ये काम मनुष्य की ताकत से बहुत परे का है। उस मनुष्य को होछा जानों जो प्रभू के गुणों व दातों की सीमां ढूढने का दावा करता है।२६।

कई रंगों की, कई किस्मों की, कई अनाजों की, बेअंत रचना करतार ने रची है। इस बेअंत सृष्टि की संभाल भी वह स्वयं ही कर रहा है। क्योंकि वह स्वयं ही एक ऐसा है जो सदा कायम रहने वाला है, और जिसका प्रताप भी सदा टिके रहने वाला है। जगत में एैसा कौन है जो ये बताने का दम भर सके कि कैसे स्थान पे बैठ के वह सृजनहार इस बेअंत रचना की संभाल कर रहा है? किसी भी मनुष्य में ऐसी समर्था ही नहीं। मनुष्य को बस यही फबता है कि वह प्रभू की रज़ा में रहे। यही एक तरीका है प्रभू से दूरी मिटाने का, और यही है इसके जीवन का मनोरथ। देखिए! हवा,पानी आदि तत्वों से लेकर ऊँचे जीवन वाले महापुरुषों तक सभी अपने-अपने अस्तित्व के उदृेश्य को सफल करने का प्रयत्न कर रहे हैं, अर्थात, उसके हुकम में मिले हुए कर्म को करे जा रहे हैं।२७।

(ए) २८ से ३३:

समूचे संसार को पैदा करने वाले तथा सदा स्थिर रहने वाले परमात्मा का सिमरन ही जीवन-मनोरथ है। सिमरन ही रज़ा मे टिका के प्रभू से जीव की दूरी को मिटा सकता है।

योग मत की खि्ांथा, मुंद्रा, झोली आदिक भी जीव की प्रभू से दूरी मिटाने में समर्थ नहीं है। ज्यों-ज्यों याद में जुड़ोंगे, संतोषी जीवन बनेगा। हक की मेहनत करने का तरीका आ जाएगा। मौत सिर पे याद रहेगी और विकारों से बचे रहोगे। प्रभू की हस्ती में यकीन बनेगा, और सारी ख़लकत में वह व्यापक दिखाई देगा।२८।

सिमरन की बरकत से यह ज्ञान पैदा होगा कि प्रभू हर जगह रमा हुआ है और सबका सांई है, उसकी रज़ा में जीव यहाँ आ के इकट्ठे होते हैं और रज़ा में ही चले जाते हैं; इस तरह ख़लकत से प्यार करने का तरीका आ जाएगा। योगाभ्यास द्वारा प्राप्त हुईं रिद्धियों-सिद्धियों को ऊँचा जीवन समझ लेना भूल है, ये तो बल्कि गलत रास्ते पे ले जाती हैं (इनकी सहायता से योगी लोग, आम जनता पे दबाव डाल के उन्हें इन्सानियत से गिराते हैं)।२९।

ज्यों-ज्यों मनुष्य प्रभू की याद में जुड़ता है, त्यों-त्यों उसे ये ख्याल कच्चे प्रतीत होने लगते हैं कि ब्रह्मा, विष्णु, शिव आदिक कोई अलग हस्तियां जगत का प्रबंध चला रही हैं। सिमरन वाले को यकीन है कि प्रभू स्वयं अपनी रज़ा में अपनी हुकम-सत्ता जगत को चला रहा है, हलांकि, जीवों को इन आँखों से वह दिखता नहीं।३०।

बंदगी की बरकत से ही ये समझ पड़ती है कि भले ही करतार की पैदा की सृष्टि बेअंत है फिर भी उसकी पालना करने के लिए उसके भण्डार भी बेअंत हैं, कभी खत्म नहीं हो सकते; उसके इस प्रबंध के राह में कोई रोक नहीं पड़ सकती।३१।

(‘कूड़ की पालि’ (झूठ का पर्दा/ झूठ की दीवार) में घिरा हुआ जीव दुनिया के चिंता-फिक्र, दुख-क्लेशों के गड्ढों में गिरा रहता है, तथा प्रभू का निवास स्थान, मानो एक ऊँचा ठिकाना है जहाँ ठंड ही ठंड, शांति ही शांति है)। इस नीची जगह से उस ऊँची अर्शी अवस्था पे मनुष्य तब ही पहुँच सकता है, जब ‘सिमरन’ की सीढ़ी का आसरा ले, ‘तूँ तूँ’ करता ‘तूँ’ में ही स्वै-लीन कर दे। इस ‘स्वै’ समर्पण के बिना इस ‘याद’ वाला उद्यम यूँ ही है जैसे आकाश की बातें सुनकर कीड़ियों को भी वहाँ पहुँचने का शौक पैदा हो जाए, पर चलें अपनी कीड़ी वाली रफतार ही। ये भी ठीक है कि प्रभू की मर्ज़ी में अपनी मर्ज़ी को वही मनुष्य मिटाते हैं जिन पे प्रभू की मेहर हो।३२।

भलाई के रास्ते पे चलना या गलत रास्ते पड़ जाना जीवों के अपने बस की बात नहीं, जिस प्रभू ने पैदा किए हैं, वही इन पुतलियों को खिला रहा है। सो, जो कोई जीव प्रभू की सिफत-सलाह कर रहा है तो ये प्रभू की अपनी मेहर है; जो कोई इस पक्ष से छूटा रह गया तो ये भी मालिक की मर्ज़ी है। अगर हम उसके दर से दातें मांगते हैं तो ये प्रेरणा भी वो स्यवं ही करने वाला है और फिर दातें देता भी खुद ही है। अगर कोई जीव राज और धन के नशे में धुत है तो ये भी रज़ा प्रभू की है। यदि किसी की सुरति प्रभू-चरणों में है व जीवन-जुगति साफ है तो ये मेहर भी प्रभू की ही है।३३।

(ऐ) ३४ से ३८:

जिस मनुष्य पे प्रभू की कृपा होती है, उसे पहले ये समझ आ जाती है कि मनुष्य धरती पे किसी खास उद्देश्य को निभाने आया है। यहाँ जो अनेकों जीव पैदा होते हैं इन सभी का अपने-अपने किए कर्मों अनुसार ये निस्तारा होता है कि किस-किस ने मानव जन्म उद्देश्यों को पूरा किया है। जिनकी मेहनत कबूल होती है वो प्रभू की हज़ूरी में आदर पाते हैं। यहाँ संसार में किसी का बडा़-छोटा कहलाना कोई मायनेनहीं रखता।३४।

मानव-जन्म के ‘धर्म’ (फर्ज़) के समझ आ जाने से मनुष्य का मन बड़ा ही विशाल हो जाता है। पहले एक छोटे से परिवार से बंधा हुआ ये जीव बहुत तंग-दिल था; अब इसे ये ज्ञान हो जाता है कि बेअंत प्रभू का पैदा किया हुआ जगत एक बड़ा परिवार है, जिसमें बेअंत कृष्ण, बेअंत विष्णू, बेअंत ब्रह्मा, बेअंत धरतियां, बेअंत ध्रू भगत, बेअंत इन्द्र, बेअंत चंद्रमा, बेअंत सूर्य आदि हैं। इस ज्ञान की बरकत से तंग-दिली हट के इसके अंदर जगत प्यार की लहर चल के खुशी ही खुशी बनी रहती है।३५।

अब जैसे जैसे सारा जगत एक सांझा परिवार दिखता है, जीव ख़लकत की सेवा की मेहनत का भार उठाता है। मन की पहली तंग-दिली हट के विशालता व उदारता की कसौटी पे नए सिरे से मन खूबसूरती से तराषा जाता है। मन में एक नई जागृति आती है, सुरति ऊँची होने लग जाती है।३६।

इस आत्मक अवस्था तक पहुँचे जीव पे प्रमात्मा की कृपा का दरवाज़ा खुलता है। उसे सभी अपने ही दिखते हैं, हर तरफ प्रभू ही नजर आता है। ऐसे मनुष्यों की सुरति हमेशा प्रभू की सिफत-सलाह में जुड़ी रहती है, अब माया इसे ठग नहीं सकती, आत्मा बलवान हो जाती है, प्रभू से दूरी नहीं पड़ सकती। अब उसे प्रत्यक्ष प्रतीत होता हैकि बेअंत कुदरत रच के प्रभू सबको अपनी रज़ा में चला रहा है, और सभी पे मेहर की नज़र कर रहा है।३७।

पर ये उच्च आत्मक अवस्था तभी बनती है जब आचरण पवित्र हो, दूसरों की आक्रामक-वृति के बर्दाश्त का हौसला हो, ऊँची व विशाल समझ हो,प्रभू का डर हृदय में टिका रहे, सेवा की कमायी करे, ख़ालक व ख़लकत का प्यार दिल में हो। ये जत, धीरज, मत, ज्ञान, भय, कमाई व प्रेम के गुण एक सच्ची टकसाल हैं, जिसमें गुरु-शबद् की मोहर घड़ी जाती है (भाव, जिस अवस्था में सत्गुरू जी ने बाणी उचारी है, ऊपर वर्णन किए गए व्यक्तिव वाले सिख को भी बाणी उसी अवस्था में ले पहुँचती है)।३८।

सिद्धांत (जो आखिरी श्लोक में है) -

ये जगत एक रंग-भूमि है, जिसमें जीव-खिलाड़ी अपनी अपनी खेल खेल रहे हैं। हरेक जीव के खेल की पड़ताल बड़े ध्यान से की जा रही है। जो सिर्फ माया की खेल ही खेल गए, वो प्रभू से दूरी बनाते गए। पर जिन्होंने ‘सिमरन’ की खेल खेली, वे अपनी मेहनत सफल कर गए, व और भी कई जीवों को इस सही राह पे डालते हुए खुद प्रभू की हज़ूरी में सुर्ख़्रू हुए।१।


‘जपु’ जी का समूचा भाव

(प्र:) मनुष्य की ईश्वर से जो दूरी बनी हुई है यह कैसे हट सकती है?

(उ:) ईश्वर का हुक्म मानने से, उसके स्वभाव से अपना स्वभाव मिलाने से (जैसे, अगर पुत्र पिता का हुक्म मानता रहे तो पिता-पुत्र में कोई दूरी नहीं पैदा होती)।

दान देने से, तीर्तों पे स्नान करने या प्राणायाम द्वारा उम्र बढ़ा लेने से भी यह दूरी दूर नहीं हो सकती। (पौड़ी १ से ७)

(प्र:) हुक्म मानने का तरीका क्या है?

(उ:) जैसे जैसे मनुष्य गुरू के बताए रास्ते पे चल के प्रमात्मा का भजन करता है, तैसे तैसे इसे प्रभू की रज़ा मीठी लगने लगती है। सो, रज़ा में, हुक्म में चलने के लिए जीव ने प्रभू की सिफत-सलाह में सुरति जोड़नी है। सुरति भी इतनी जोड़नी है कि मन प्रभू में पतीज जाए। सिफत-सलाह में से निकलने को जी ही ना करे। (८ से १५)

सुरति जोड़ने का का कभी भी ये फल नहीं निकलेगा कि जीव प्रमात्मा या उसकी रचना का अंत पा सके। वह स्वयं खुद बेअंत है, उसकी रचना भी बेअंत है। सिफत-सलाह में सुरति जोड़ने का एक ही फल होगा कि उसकी रज़ा में रहने का स्वभाव मज़बूत होगा। (१६ से २७)

जैसे ना दान, ना तीर्थ स्नान, ना प्राणायाम और ना रचना बारे उपनिषदों की फिलासफी जीव की ईश्वर से दूरी दूर करने में समर्थ है, उसी प्रकार जोगियों की मुंद्रा-खिंथा आदिक भी यह दरार दूर नहीं कर सकते। सिमरन और याद ही ऐकमात्र तरीका है। (जिसको याद करते रहें, उसके साथ प्यार बढ़ता जाता है। प्यार की सहायता से स्वभाव भी मिल जाता है।) जब प्रभू की मेहर हो, जीव ‘स्वैभाव’ को मिटा के सिमरन करता है, दूरी मिटाने का, बस! यही एक उपाय है। (पौड़ी २८ से ३३)

प्रभू की मेहर से मनुष्य साधारण हालात से ऊँचा हो के पहले ये सूझ हासिल करता है कि जगत में उसके आने का मनोरथ क्या है, किस फर्ज को अदा करने के लिए यह भेजा गया है। यह समझ आने पर जीव अपने छोटे से परिवार के मोह की तंगदिली में से निकलता है, सारा जगत उसको प्रमात्मा पिता का एक बड़ा परिवार दिखता है। फिर वह इस बड़े परिवार की सेवा के लिए मेहनत-मुशक्कत करता है, मालिक की याद में जुड़ता है, ख़ालक की याद व ख़लकत की सेवा से ज्यों ज्यों जीव का मन स्वार्थ की हदें पार करके बेअंत विशाल होता है, त्यों त्यों प्रभू की कृपा के दरवाजे इस पे खुलते हैं, ये प्रभू से एकरूप हो जाता है। पर जैसे सोनार की कुठाली में सोना तपश बर्दाश्त करता है, अहिरण (एक प्रकार की हथौड़ी) की चोट खाता है, ठीक उसी प्रकार जीव ने भी सिमरन की सच्ची टकसाल में मन को तराषना है, घड़ना है। वह टकसाल क्या है? - जत, धीरज, मति, ज्ञान, भउ, मेहनत और प्रेम (अर्थात, सबसे पहले आचरण पवित्र हो, दूसरों की आक्रामक वृति का बर्दाश्त करने के लायक हो और विशाल हो, ईश्वर का डर हृदय में टिका रहे, सेवा की कमाई करे व कायनात का प्यार दिल में हो)। (३४ से ३८)

(प्र:) इस बाणी का नाम ‘जपु’ क्यों रखा गया? गुरू अर्जुन साहिब ने इसे श्री गुरू ग्रंथ साहिब जी के आरम्भ में क्यों दर्ज किया? इसका हर रोज़ पाठ क्यूँ करना है?

(उ:) 1. इस बाणी की पहिली ही पौड़ी में प्रश्न है कि जीव की प्रमात्मा से दूरी कैसे दूर हो सकती है। इसका उक्तर ये किया गया है कि प्रभू की रज़ा में चलने से प्रभू से फासला मिट जाता है। प्रभू की रज़ा मिठी कैसे लगे? प्रभू का सिमरन करने से, ज्यों ज्यों जीव प्रभू को याद करता है त्यों त्यों उससे जीव का प्यार बनता है तथा प्यार की वजह से उसके किए काम अच्छे लगने लग पड़ते हैं, उसकी रज़ा मीठी लगती है। सो, सिमरन’ या ‘जप’ ही एक ऐसा तरीका है जो जीव की प्रभू से दूरी को मिटा सकता है। इस सारी बाणी में सिर्फ यही विचार है कि दान-पुन्य, तीर्थ यात्रा, प्राणयाम, जगत-रचना बारे में विचार, योग की खिंथा-मुंद्रा आदिक चिन्हों--इनमें से कोई भी प्रभू से विछड़े जीव को प्रभू से नहीं मिला सकता। प्रभू का ‘सिमरन’ ही एकमात्र तरीका है, ‘सिमरन’ की ही इस बाणी में व्याख्या है। इस वास्ते इसका नाम भी ‘जपु’ ही रखा गया है। ‘जपु’ का अर्थ है सिमरन, बंदगी, भजन।

गुरू ग्रंथ साहिब की सारी बाणी की तरतीब अगर ध्यान से देखें तो हरेक ‘राग’ में सबसे पहले गुरू नानक देव जी की बाणी दर्ज मिलती है, इसके बाद गुरू अमरदास जी की, फिर गुरू रामदास जी, गुरू अरजन देव और गुरू तेग बहादर जी की बाणी दर्ज है। हरेक ‘राग’ में पहले ‘शबद्’, फिर अष्टपदियां, फिर छंत आदि उपरोक्त तरतीब अनुसार ही दर्ज हैं। सो, गुरू ग्रंथ साहिब के आरम्भ में गुरू नानक देव जी की ही बाणी हो सकती थी।

∙ सिख धर्म का मुख्य उद्देश्य है ‘सिमरन’। ‘सिमरन’, मानों, एक ऐसी केन्द्रीय नींव है जिसके ऊपर ‘धर्म’ की इमारत निर्मित की गई है। सो, गुरू ग्रंथ साहिब के आरम्भ में भी उसी ही बाणी का दर्ज किया जाना फबता था जो इस केन्द्रीय असूल पर खुली व्याख्या हो। और, इस विषय पर सबसे सटीक बाणी है, ‘जपु’। सो, गुरू अर्जुन साहिब ने इसी बाणी को गुरू ग्रंथ साहिब के आरम्भ में दर्ज किया है।

∙ प्रभू की बेअंत दातें मिलने के बावजूद भी जीव दुखी है, क्योंकि यह सुख के श्रोत प्रभू से विछड़ा हुआ है। यह विछड़ना कैसे मिटे? प्रभू की रजा में चल के, प्रभू के स्वभाव में अपना स्वभाव मिलाके। स्वभाव तभी मिल सकता है अगर जीव प्रभू को सदा याद करके उसके साथ प्यार का रिश्ता जोड़ ले। ये एक ऐसा ज़रूरी सवाल है जिसकी हरेक प्राणी मात्र को अपने दुख-कलेश, त्रिष्णा आदि मिटाने के लिए विचारने की हमेशा जरूरत है। ये सवाल गुरू नानक देव जी की लिखी बाणी ‘जपु’ में विशेष तौर पे बिचारा गया है। तभी तो इस बाणी का हर रोज पाठ करने की सत्गुरू जी द्वारा हिदायत है, ताकि सिखों को एक ही बात याद आती रहे कि प्रभू से बने फासले को मिटाने के एक मात्र उपाय है और वह है परमात्मा का सिमरन, उस के नाम की याद; उस के गुणों का ‘जपु’।


काव्य संरचना

पुराने जमाने से ये आम रिवाज चला आ रहा है कि कोई लिखारी या कवि कोई काव्य रचना करने के समय सबसे पहले अपने ईष्ट की उस्तति करता है। इसे ‘मंगलाचरण’ कहते हैं। पुस्तक के आखिर में लिखारी अपने ईष्ट का धन्यवाद करता है, या उससे कोई वर मांगता है, या अपनी लिखी रचना का ‘सिद्धांत’ एक–दो बंदों में लिख देता है।

गुरू नानक देव जी ने ‘जपु’ के आरम्भ मेंव आखिर में वही पुरातन तरीका इस्तेमाल किया है। इस बाणी के असल विषय–वस्तु की 38 पौड़ियां हैं। पहली पौड़ी में मानव जीवन के एक जरूरी पहिलू के बारे में जो सवाल छेड़ा है कि जीव की प्रभू से बनी हुई दूरी कैसे दूर हो सकती है, उसके विभिन्न पहिलुओं को ले के इन सभी पौड़ियों में सविस्तार विचार किया गया है।

लफ्ज ‘जपु’ से पहले ‘१ओअंकार’ से ‘गुर प्रसादि’ तक मूल–मन्त्र है। ‘जपु’ जी की बाणी के अस्तित्व से इस मूलमंत्र का कोई संबंध नहीं है। ये तो गुरू ग्रंथ साहिब के आरम्भ में उसी तरह लिखा गया है, जिस तरह हरेक ‘राग’ के शुरू में दर्ज है।

(प्र:) जपु जी कब लिखी गई?

(उ:) 1. पुस्तक ‘पुरातन जन्मसाखी’ की साखी नं:10 ‘वेंई प्रवेश’ अनुसार ‘जपु’ जी परमात्मा की हजूरी में उच्चारित हुई। अभी जब उदासियां (गुरू नानक देव जी की प्रचार यात्राएं) शुरू नहीं हुईं थीं, और सत्गुरू जी अभी सुल्तानपुर ही रहते थे। वेंई नदी वाली साखी 1507 (संवत1564) में हुई थी।

साखी वाला लिखता है कि जब परमेश्वर के सेवक वेंई नदी में स्नान कर रहे सत्गुरू नानक देव जी को परमेश्वर की दरगाह में ले गए ‘तबि अवाजु होआ– नानक! मेरा हुकम तेरीनदरी आया है, तू मेरे हुकम की सिफ़त कर। तब बाबा बोला। धुनि उठी:रागु आसा जपु म:१। सलोक। आदि सचु जुगादि सचु। है भी सचु। नानक होसी भी सचु।१। जपु संपूरणू कीता’।

∙ डाक्टर मोहन सिंह जी ने (जो कि पंजाब यूनिवर्सिटी के ओरिएण्टल कॉलेज के पंजाबी डिपार्टमैंट के मुख्याध्यापक हैं व पंजाबी के प्रसिद्ध विद्वान लिखारी हैं) अपनी पुस्तक ‘पंजाबी भाखा ते छंदा–बंदी’ में एक हस्त–लिखित का हवाला दिया है, जिसे वे बोली के आधार पर सतारहवीं सदी के मध्य की लिखी गई मानते हैं। ये हस्त–लिखत अब पश्चिमी पंजाब यूनिवर्सिटी की लाईब्रेरी में है। उसके मुताबक गुरू नानक देव जी करतारपुर में टिके हुए थे, तो ‘दरगाह परमेसर की बुलइआ’। वापस आ के अपने सिख अंगद को कहने लगे, ‘पुरखा! परब्रहम का हुकम है कि सिफति मेरी करणी।’ ‘गुरू नानक देव जी ने अपणा ख़ज़ाना अंगद दे हवाले कीता। कहिओसि– पुरखा! हुण तूं जपु रच। तब गुरू बाबे नानक दे हजूरि गुरू अंगद बाबे दी बाणी दा जोड़ बंधिआ। जपु का। अठतीस पउड़ीआं सारी बाणी विचहु मथि करि कढी है।’

∙ इस हस्त–लिखित अनुसार ‘जपु’ जीगुरू नानक देव जी की पहली रचना नहीं है, बल्कि उनकी सारी बाणी का सार है। और, ये तब रची गई जब बाबा लहिणा जी गुरू नानक देव जी के पास करतारपुर आ चुके थे। वैसे इस साखीकार को ये पता नहीं है कि करतारपुर कहाँ है, वह ब्यासा नदी के किनारे समझता है। लिखता है, ‘तब ब्यास नदी के किनारे करतारपुरि एहु उपदेसु गुरू बाबे अंगद सिख के ताईं कहिआ’। बाबा लहिणा जी का जन्म सन्1504 में हुआ था, और 28 सालों की उम्र में वो गुरू नानक जी के पास सन् 1532 में करतारपुर आए थे। साखी से ये बात भी स्पष्ट होती है कि बाबा लहिणा जीगुरू नानक देव जी के बहुत ही नज़दीकी हो चुके थे। उन्हें अंगद नाम भी मिल चुका हुआ था। इससे यही अंदाजा लग सकता है कि जपु जी गुरू नानक देव जी की पिछली उम्र में लिखी गई थी। तब तक सारी ही ‘उदासियों’ को पूरा हुए चोखा समय हो चुका था।

नोट: यहाँ इस हस्त–लिखित का ये इशारा भी पाठक याद रखें कि गुरू नानक देव जी ने अपनी सारी बाणी जो उन्होंने खुद ही लिख के रखी हुई थी, श्री गुरू अंगद देव जी को दे दी थी– ‘आपणा खज़ाना अंगद सिख के हवाले कीता’।

डा: मोहन सिंह जी भी इस हस्त–लिखित का हवाला दे के आखिर में भाई गुरदास जी की वार के हवाले से लिखते हैं– ‘मक्के बग़दाद मदीने से मुड़ के बाबे जी ने उदासी भेष उतार के करतारपुर मे टिकाना किया। तथा, ‘इससे स्पष्ट है कि जपु जी, रहिरास, गोसटि, सोदर, आरती बाणी करतारपुर में उचारी गई, जहाँ बाणी रूप गंगा को धारण करने वाले अंगद जी मौजूद थे।’

∙ कई सज्जन कहते हैं कि सत्गुरू नानक साहिब ने इस बाणी के द्वारा सिखों को उपदेश दिया था। कई विद्वान इस ख्याल के हैं कि बाबा लहिणा जी को उपदेश देने के लिए ये बाणी उचारी थी। कई सज्जन इस बाणी का टीका करने के समय ये मिथ लेते हैं कि कोई जिज्ञासु सत्गूरू जी से प्रश्न पूछता जा रहा है और सत्गुरू जी इन पौड़ियों द्वारा तरतीबवार उत्तर दिए जा रहे हैं।

∙ ये सारे ही ख्याल कल्पना से प्रतीत होते हैं। ज्यों ज्यों पाठक सज्जन ध्यान लगा के इस बाणी के साथ जुड़ेंगे, ये बात साफ दिखने लग जाएगी कि ये सारी विचार एक ही तुक के इर्द–गिर्द केन्द्रित है– ‘किव सचिआरा होईअै, किव कूड़ै तुटै पालि’। बड़ी ऊँची आत्मक उड़ान है, मानव जीवन के एक अत्यंत जरूरी पहिलू पे गहिरी विचार है। समूचे तौर पे ये बाणी यह प्रगट कर रही है कि किसी एकांत समय में, एकांत स्थल पर, एकांत चिक्त हो कर लिखी गई है। गुरू नानक देव जी की तीन ‘वारें’ हैं, जो माझ, आसा व मलार राग में दर्ज हैं। इनकी सिर्फ पौड़ियों को ही ध्यान से पढ़ कर देखिए। तीनों की अलग–अलग विषय–वस्तु ही स्पष्ट कर देती है कि ‘आसा दी वार’ उम्र के दूर आखिरी हिस्से में कहीं एकांत जगह पर लिखी गई है। इस वार का अहम विषय–वस्तु है ‘मानव जीवन की उद्देश्य’। आसा दी वार की तरह ही ‘जपु’ भी मानव जीवन के एक अहम पहिलू पर गहरी विचार है कि मनुष्य की प्रमात्मा से बनी हुई दूरी कैसे दूर हो सकती है। आसा दी वार की तरह ही ये भी उम्र के आखिरी हिस्से में किसी एकांत जगह में बैठ के लिखी गई है, किसी जिज्ञासु आदि के प्रश्नों के उक्तरों का निष्कर्श नहीं है। प्रश्नोंक्तरों को त्याग के ज्यों ज्यों इस बाणी की गहराई में उुबकी लगाएंगे, त्यों त्यों ये मजेदार भाव समझ में आएगा कि ये सारी विचार ‘किव कूड़ै तुटै पालि’ की केन्द्र के इर्द–गिर्द घूम रही है। जो किसी जुड़े हुए मन की आत्मिक उड़ान का ही नतीजा हो सकता है, प्रश्न–उक्तरों का नहीं।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh