श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 11 तूं घट घट अंतरि सरब निरंतरि जी हरि एको पुरखु समाणा ॥ इकि दाते इकि भेखारी जी सभि तेरे चोज विडाणा ॥ तूं आपे दाता आपे भुगता जी हउ तुधु बिनु अवरु न जाणा ॥ तूं पारब्रहमु बेअंतु बेअंतु जी तेरे किआ गुण आखि वखाणा ॥ जो सेवहि जो सेवहि तुधु जी जनु नानकु तिन कुरबाणा ॥२॥ {पन्ना 11} उच्चारण: तू घट घट अंतर, सरब निरंतर जी, हर एको पुरख समाणा॥ इक दाते इक भेखारी जी, सभ तेरे चोज विडाणा॥ तूँ आपे दाता आपे भुगता जी, हउ तुध बिन अवर न जाणा॥ तूँ पारब्रहम बेअंत बेअंत जी, तेरे किआ गुण आख वखाणा॥ जो सेवह जो सेवह तुध जी, जन नानक, तिन कुरबाणा॥२॥ पद्अर्थ: घट = शरीर। अंतरि = में, अंदर। घट घट अंतरि = हरेक शरीर में। सरब = सारे। निरंतरि = अंदर एक रस। सरब निरंतरि = सभी में एक रस। अंतरु = दूरी। निरंतरि = दूरी के बिना, एकरस। एको = एक (स्वयं) ही। इकि = (शब्द ‘इक’ का बहुवचन) कई जीव। दाते = दानी। भेखारी = मंगते। सभि = सारे। विडाण = आश्चर्य। चोज = कौतक, तमाशे,चमत्कार। भुगता = भोगनेवाला, उपभोगकरने वाला, उपयोग कर्ता। हउ = मैं। आखि = कह के। वखाणा = मैं बयान करूँ। सेवहि = सिमरते हैं। जनु नानकु = (पिछले छंद में ‘जन नानक’ और इस ‘जनु नानकु’ में फर्क को ध्यान से देखें)।2। अर्थ: हे हरि! तू हरेक शरीर में व्यापक है, तू सारे जीवों में एक रस मौजूद है, तू एक खुद ही सभ में समाया हुआ है (फिर भी) कई जीव दानी हैं, कई जीव मंगते हैं– ये सारे तेरे ही आश्चर्यजनक तमाशे हैं (क्योंकि असल में) तू स्वयं ही दातें देने वाला है, तथा, स्वयं ही (उन दातों का) उपयोग करने वाला है। (सारी सृष्टि में) मैं तेरे बिना किसी और को नहीं पहचानता (तेरे बिना और कोई नहीं दिखता)। मैं तेरे कौन कौन से गुण गा के बताऊँ? तू बेअंत पारब्रह्म है। हे प्रभू! जो मनुष्य तुझे याद करते हैं, तुझे सिमरते हैं (तेरा) दास नानक उनसे सदके जाता है।2। हरि धिआवहि हरि धिआवहि तुधु जी से जन जुग महि सुखवासी ॥ से मुकतु से मुकतु भए जिन हरि धिआइआ जी तिन तूटी जम की फासी ॥ जिन निरभउ जिन हरि निरभउ धिआइआ जी तिन का भउ सभु गवासी ॥ जिन सेविआ जिन सेविआ मेरा हरि जी ते हरि हरि रूपि समासी ॥ से धंनु से धंनु जिन हरि धिआइआ जी जनु नानकु तिन बलि जासी ॥३॥ {पन्ना 11} उच्चारण: हरि धिआवह हरि धिआवह तुध जी, से जन जुग मह सुखवासी॥ से मुकत से मुकत भए जिन हरि धिआइआ जी, तिन तूटी जम की फासी॥ जिन निरभउ जिन हरि निरभउ धिआइआ जी तिन का भउ सभ गवासी॥ जिन सेविआ जिन सेविआ मेरा हरि जी, ते हरि हरि रूप समासी॥ से धंन से धंन जिन हरि धिआइआ जी, जन नानक तिन बलि जासी॥३॥ पद्अर्थ: हरि जी = हे प्रभू जी! धिआवहि = सिमरते हैं। से जन = वे लोग। जुगि महि = जिंदगी में। सुखवासी = सुख से बसने वाले। मुकतु = (माया के बंधनों से) आजाद। फासी = फांसी। भउ सभु = सारा डर। गवासी = दूर कर देता है। रूपि = रूप में। समासी = मिल जाते हैं। धंनु = सौभाग्य वाले। बलि जासी = सदके जाता है।3। अर्थ: हे प्रभू जी! जो लोग तुझे सिमरते हैं, तेरा ध्यान धरते हैं, वो लोग अपनी जिंदगी में सुखी बसते हैं। जिन लोगों ने हरि नाम सिमरा है, वे हमेशा के लिए माया के बंधनों से आजाद हो गये हैं, उनकी यमों वाली फांसी टूट गई है (भाव, आत्मिक मौत उनके नजदीक नहीं फटकती)। जिन लोगों ने सदा निरभउ प्रभू का नाम सिमरा है; प्रभू उनका सारा डर दूर कर देता है। जिन मनुष्यों ने प्यारे प्रभू को हमेशा सिमरा है, वो प्रभू के रूप में ही लीन हो गये हैं। सौभाग्यशाली हैं वे मनुष्य, धन्य हैं वह लोग, जिन्होंने प्रभू का नाम सिमरा है। दास नानक उनके सदके जाता है।3। तेरी भगति तेरी भगति भंडार जी भरे बिअंत बेअंता ॥ तेरे भगत तेरे भगत सलाहनि तुधु जी हरि अनिक अनेक अनंता ॥ तेरी अनिक तेरी अनिक करहि हरि पूजा जी तपु तापहि जपहि बेअंता ॥ तेरे अनेक तेरे अनेक पड़हि बहु सिम्रिति सासत जी करि किरिआ खटु करम करंता ॥ से भगत से भगत भले जन नानक जी जो भावहि मेरे हरि भगवंता ॥४॥ {पन्ना 11} उच्चारण: तेरी भगत तेरी भगत भंडार जी, भरे बिअंत बेअंता॥ तेरे भगत तेरे भगत सलाहन तुध जी हरि अनिक अनेक अनंता॥ तेरी अनिक तेरी अनिक करह हरि पूजा जी, तप तापह जपह बेअंता॥ तेरे अनेक तेरे अनेक पढ़ह बहु समृति सासत जी, कर किरिआ खट करम करंता॥ से भगत से भगत भले जन नानक जी, जो भावह मेरे हरि भगवंता॥४॥ पद्अर्थ: भगति भंडार = भक्ति के खजाने। भगत = भक्ति करने वाले। (नोट: शब्द ‘भक्ति’ और ‘भक्त’ के फर्क को ध्यान में रखना है)। अनिक = अनेकों। तपु = धूणियां आदि का शारीरिक कष्ट। सिम्रिति = स्मृतियां, वह धार्मिक पुस्तकें हैं जो हिन्दू विद्वान ऋषियों ने वेदों के याद करके अपने समाज की अगवाई के लिए लिखे। इनकी गिनती 27 के करीब है। सासत = शास्त्र, हिन्दू धर्म के दर्शनशास्त्र (फिलासफी) की पुस्तकें जो गिनती में 6 हैं: सांख, योग, न्याय, वैशेषिक, मीमांसा व वेदांत। किरिआ = कृया, धार्मिक संस्कार। खटु = छे। खटु करम = मनुस्मृति अनुसार ये छे कर्म यूँ हैं: विद्या पढ़नी व पढ़ानी, यॅग करना व यॅग करवाना, दान देना व दान लेना। करंता = करते हैं। भावहि = अच्छे लगते हैं। अर्थ: हे प्रभू! तेरी भक्ति के बेअंत खजाने भरे पड़े हैं। हे हरी! अनेकों और बेअंतों तेरे भक्त तेरी सिफत सलाह कर रहे हैं। हे प्रभू! अनेकों जीव तेरी पूजा करते हैं। बेअंत जीव (तुझे मिलने के लिए) तप साधना करते हैं। तेरे अनेकों (सेवक) कई समृतियां व शास्त्र पढ़ते हैं (और उनके बताए हुए) छे धार्मिक कर्म व और कर्म करते हैं। हे दास नानक! वही भगत भले हैं (उनके ही प्रयत्न कबूल हुए मानों) जो प्यारे हरि-भगवंत को प्यारे लगते है।4। तूं आदि पुरखु अपर्मपरु करता जी तुधु जेवडु अवरु न कोई ॥ तूं जुगु जुगु एको सदा सदा तूं एको जी तूं निहचलु करता सोई ॥ तुधु आपे भावै सोई वरतै जी तूं आपे करहि सु होई ॥ तुधु आपे स्रिसटि सभ उपाई जी तुधु आपे सिरजि सभ गोई ॥ जनु नानकु गुण गावै करते के जी जो सभसै का जाणोई ॥५॥१॥ {पन्ना 11} उच्चारण: तूं आदि पुरख अपरंपर करता जी, तुध जेवड अवर न कोई॥ तूं जुग जुग एको, सदा सदा तूं एको जी, तूं निहचल करता सोई॥ तुध आपे भावै सोई वरतै जी, तूं आपे करह सु होई॥ तुधआपे सृष्टि सभ उपाई जी, तुध आपे सिरज सभ गोई॥ जन नानक गुण गावै करते के जी, जो सभसै का जाणोई॥५॥१॥ पद्अर्थ: आदि = शुरू से। अपरंपर = अ+परं+पर, जिसका परले का परला छोर ना ढूँढा जा सके, बेअंत। तुधु जेवडु = तेरे जितना, तेरे बराबर का। अवरु = और। जुगु जुगु = हरेक युग में। एको = एक स्वयं ही। निहचल = ना हिलने योग्य, अटल। वरतै = होता है। सु = वह। सभ = सारी। उपाई = पैदा की। सिरजि = पैदा करके। आपे = स्वयं ही। गोई = नाश की। जाणोई = जानने वाला। सभसै का = हर एक (दिल का)। सोई = संभाल करने वाला। अर्थ: हे प्रभू ! तू (सारे जगत का) मूल है। सभ में व्यापक है, बेअंत है, सबको पैदा करने वाला है और तेरे बराबर का और कोई नहीं है। तू हरेक युग में एक स्वयं तू ही है, तू सदैव ही स्वयं ही स्वयं है, तू सदैव कायम रहने वाला है, सबको पैदा करने वाला है, सबकी सार लेने वाला है। हे प्रभू! जगत में वही होता है जो तुझे स्वयं को अच्छा लगता है। वही होता है जो तू स्वयं करता है। हे प्रभू! सारी सृष्टि स्वयं तूने पैदा की है। तू खुद ही इसको पैदा करके, खुद ही इसका नाश करता है। दास नानक उस करतार के गुण गाता है जो हरेक जीव के दिल की जानने वाला है।5।1। नोट: इस शबद के पाँच बंद (Stanzas) हैं। हरेक बंद में पाँच तुके हैं। आखिरी बंद की समाप्ति पर अंक ‘5’ के साथ एक और अंक ‘1’ दिया गया है। इसका अर्थ है कि शीर्षक ‘सो पुरखु’ एक नया संग्रहि है जिसका यह पहला शबद है। आसा महला ४ ॥ तूं करता सचिआरु मैडा सांई ॥ जो तउ भावै सोई थीसी जो तूं देहि सोई हउ पाई ॥१॥ रहाउ ॥ सभ तेरी तूं सभनी धिआइआ ॥ जिस नो क्रिपा करहि तिनि नाम रतनु पाइआ ॥ गुरमुखि लाधा मनमुखि गवाइआ ॥ तुधु आपि विछोड़िआ आपि मिलाइआ ॥१॥ तूं दरीआउ सभ तुझ ही माहि ॥ तुझ बिनु दूजा कोई नाहि ॥ जीअ जंत सभि तेरा खेलु ॥ विजोगि मिलि विछुड़िआ संजोगी मेलु ॥२॥ जिस नो तू जाणाइहि सोई जनु जाणै ॥ हरि गुण सद ही आखि वखाणै ॥ जिनि हरि सेविआ तिनि सुखु पाइआ ॥ सहजे ही हरि नामि समाइआ ॥३॥ तू आपे करता तेरा कीआ सभु होइ ॥ तुधु बिनु दूजा अवरु न कोइ ॥ तू करि करि वेखहि जाणहि सोइ ॥ जन नानक गुरमुखि परगटु होइ ॥४॥२॥ {पन्ना 11-12} उच्चारण: आसा महला ४॥ तूँ करता सचिआर मैडा सांई॥ जो तउ भावै सोई थीसी, जो तू देह सोई हउ पाई॥१॥ रहाउ ॥ सभ तेरी तूं सभनी धिआया॥ जिसनो क्रिपा करह, तिन नाम रतन पाया॥ गुरमुख लाधा मनमुखि गवाया॥ तुध आप विछोड़िआ आप मिलाया॥१॥ तूं दरिआउ, सभ तूझ ही माहि॥ तुझ बिन दूजा कोई नाहि॥ जीअ जंत सभ तेरा खेल॥ विजोग मिल विछुड़िआ संजोगी मेल॥२॥ जिस नो तूं जाणाइहि सोई जन जाणैं हरिगुण सद ही आख वखाणै॥ जिन हरि सेविआ तिन सुख पाया॥ सहजे ही हरि नाम समाया॥३॥ तूं आपे करता तेरा कीआ सभ होय॥ तुध बिन दूजा अवर न कोय॥ तू कर कर वेखह जाणह सोय। जन नानक गुरमुख परगट होय॥४॥२॥ नोट:इस शबद के 4 बंद हैं। अंक 4 से अगला 2 अंक बताता है कि शीर्षक ‘सो पुरखु’ की कड़ी में ये दूसरा शबद है। पद्अर्थ: सचिआरु = (सच+आलय) स्थ्रिता का घर, सदा कायम रहने वाला। मैडा = मेरा। सांई = खसम, मालिक। तउ = तुझे। भावै = अच्छा लगता है। थीसी = होगा। हउ = मैं। पाई = पाऊँ, प्राप्त करता हूँ।1। सभ = सारी सृष्टि। तूं = तुझे। (गउड़ी छंत म:5 पंना 248 = ‘मोहन, तूं मानहि एकु जी, अवर सभ राली’ = यहां भी शब्द ‘तूं’ का अर्थ ‘तैनूं’ या तुझे है। भाव, हे मोहन प्रभू! तुझ एक को ही लोग नाश रहित मानते हैं, और सारी सृष्टि नाशवंत है)। इसी तरह सिरी राग महला 5, पंना 51,शबद नं:95 = ‘जिनि तूं साजि सवारिआ’ = तूं = तुझे। पंना = 52 = ‘जिन तूं सेविआ भाउ करि’ = तूं = तुझे। पंना61 = ‘गुरमति तूं सलाहणा, होरु कीमत कहणु न जाइ’ तूं = तुझे। पंना100 = ‘जिन तूं जाता, जो तुधु मनि भाणे’ तूं = तुझे। पंना102 = ‘तिसु कुरबाणी जिनि तूं सुणिआ’ तूं = तुझे। पंना130 = ‘तुधु बिनु अवरु न कोई जाचा, गुर परसादी तूं पावणिआ’ तूं = तुझे। पंना 142 = ‘भी तूं है सलाहणा, आखण लहै न चाउ’ में भी तूं = तुझे। और भी बहुत सारे ऐसे प्रमाण हैं)। तिनि = उस (मनुष्य) ने। गुरमुखि = वह मनुष्य जिसका मुँह गुरू की ओर है। मनमुखि = वह मनुष्य जिसका मुँह अपने मन की ओर है।1। माहि = में। सभि = सारे। विजोगि = वियोग के कारण (भाव, जिसके माथे पर वियोग के लेख हैं)। मिलि = मिल के, मानव शरीर प्राप्त करके। संजोगी = संयोग (के लेख) से। मेलु = मिलाप।2। जाणाइहि = (तू) समझ बख्शता है। सोई = वही। सद = सदा। आखि = कह के। सहजे = सहज, आत्मिक अडोलता में। नामि = नाम में।3। आपे = स्वयं ही। कीआ = किया हुआ। सभु = हरेक काम। अवरु = और। वेखहि = संभाल करता है। सोइ = सार। गुरमुखि = गुरू की शरण पड़ने वाला मनुष्य।4। अर्थ: (हे प्रभू!) तू सबको पैदा करने वाला है, तू सदा कायम रहने वाला है, तू ही मेरा खसम है। (जगत में) वही कुछ होता है जो तुझे पसंद आता है। जो कुछ तू दे, मुझे वही कुछ प्राप्त हो सकता है।1। रहाउ। (हे प्रभू!) सारी सृष्टि तेरी (ही बनाई हुई) है, सारे जीव तुझे ही सिमरते हैं। जिस पर तू दया करता है उसने तेरा रतन जैसा (कीमती) नाम ढूँढ लिया है। जो अपने मन के पीछे चला, उसने गवा लिया। (पर, किसी जीव के क्या बस? हे प्रभू!) जीव को तू स्वयं ही (अपने आप से) विछोड़ता है, और स्वयं ही खुद से मिला लेता है।1। (हे प्रभू!) तू (जिंदगी का, मानो, एक) दरिया है, सारे जीव तेरे में ही (मानों, लहरें) हैं। तेरे बिना (तुझ जैसा) और कोई नहीं है। ये सारे जीअ-जंतु तेरी (रची हुई) खेल हैं। जिनके माथे पर विछोड़े का लेख है, वह मानव जन्म प्राप्त करके भी तुझसे विछुड़े हुए हैं। (पर, तेरी रज़ा अनुसार) संजोगों केलेख से (फिर तेरे साथ) मिलाप हो जाता है।2। (हे प्रभू!) जिस मनुष्य को तू खुद सूझ बख्शता है, वह मनुष्य (जीवन का सही रास्ता) समझता है। वह मनुष्य, हे हरी! सदा तेरे गुण गाता है, और (औरों को) उचार उचारके सुनाता है। (हे भाई!) जिस मनुष्य ने प्रमात्मा का नाम सिमरा है, उसने सुख हासिल किया है। वह मनुष्य सदा आत्मिक अडोलता में टिका रहके प्रभू के नाम में लीन हो जाता है।3। ( हे प्रभू!) तू स्वयं ही सब कुछ पैदा करने वाला है, सब कुछ तेरा किया हुआ ही होता है। तेरे बिना (तेरे जैसा) और कोई नहीं है। जीव पैदा करके उनकी संभाल भी तू स्वयं ही करता है। और, हरेक (के दिल) की सार जानता है। हे दास नानक! जो मनुष्य गुरू की शरण पड़ता है उसके अंदर प्रमात्मा परगट हो जाता है।4।2। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |