श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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आसा महला १ ॥ तितु सरवरड़ै भईले निवासा पाणी पावकु तिनहि कीआ ॥ पंकजु मोह पगु नही चालै हम देखा तह डूबीअले ॥१॥ मन एकु न चेतसि मूड़ मना ॥ हरि बिसरत तेरे गुण गलिआ ॥१॥ रहाउ ॥ ना हउ जती सती नही पड़िआ मूरख मुगधा जनमु भइआ ॥ प्रणवति नानक तिन की सरणा जिन तू नाही वीसरिआ ॥२॥३॥ {पन्ना 12}

उच्चारण: आसा महला १॥ तित सरवरड़ै भईले निवासा, पाणी पावक तिनह कीआ॥ पंक जु मोह पग नही चालै, हम देखा तह डूबीअले॥१॥ मन, एक न चेतस मूढ़ मना॥ हरि बिसरत तेरे गुण गलिआ॥१॥ रहाउ॥ ना हउ जती सती नही पढ़िआ मूरख मुगधा जनम भया॥ प्रणवत नानक तिन की सरणा जिन तूं नाही वीसरया॥२॥३॥

पद्अर्थ: तितु = उस में (शब्द ‘तिसु’ का ‘तितु’ अधिकर्ण कारक एक वचन है)। सरवरु = तालाब। सरवरड़ा = भयानक तालाब। सरवरड़ै = भयानक तालाब में। तितु सरवरड़ै = उस भयानक तालाब में। भईले = हुआ है। पावकु = अग्नि, तृष्णा की आग। तिनहि = उस (प्रभू) ने स्वयं ही। पंक = कीचड़। पंक जु मोह = जो मोह का कीचड़ है। पगु = पैर। हम देखा = हमारे देखते ही, हमारे सामने ही। तह = उस (सरोवर) में। डूबीअले = डूब गये, डूब रहे हैं।1।

मन = हे मन! मूढ़ मना = हे मूर्ख मन! गलिआ = गलते जा रहे है, घटते जा रहे हैं।1। रहाउ।

हउ = मैं। जती = काम वासना को रोकने का यतन करने वाला। सती = ऊँचे आचरण वाला। मुगध = मूर्ख, बे-समझ। जनमु = जीवन। प्रणवति = विनती करता है।2।

अर्थ: (हे भाई! हम जीवों का) उस भयानक (संसार) सरोवर में बसेरा है (जिसमे) उस प्रभू ने खुद ही पानी (की जगह तृष्णा की) आग पैदा की है (और उस भयानक शरीर में) जो मोह का कीचड़ है (उसमें जीवों का) पैर नहीं चल सकता है (जीव मोह के कीचड़ में फंसे हुए हैं)। हमारे सामने ही (अनेको जीव मोह के कीचड़ में फस के) उस (तृष्णारूपी आग के अथाह समुंद्र में) डूबते जा रहे है।1।

हे मन! हे मूर्ख मन! तू एक परमात्मा को याद नहीं करता। तू ज्यों ज्यों प्रमात्मा को विसारता जा रहा है, तेरे (अंदर से) गुण घटते जा रहे हैं।1। रहाउ।

(हे प्रभू!) ना मैं जती हूँ, ना मैं सती हूँ, ना ही मैं पढ़ा हुआ हूँ। मेरा जीवन तो मूर्खों-बेसमझों वाला बना हुआ है (भाव, जत, सत और विद्या इस तृष्णा की आग और मोह के कीचड़ में गिरने से बचा नहीं सकते। यदि मनुष्य प्रभू को भुला दे तो जत, सत, विद्या के होते हुए भी मनुष्य की जिंदगी महांमूर्खों वाली ही होती है)। सो, नानक विनती करता है– (कि हे प्रभू ! मुझे) उन (गुरमुखों) की शरण में (रख), जिनको तू नहीं भूला (जिनको तेरी याद नहीं भूली)।2।3।

आसा महला ५ ॥ भई परापति मानुख देहुरीआ ॥ गोबिंद मिलण की इह तेरी बरीआ ॥ अवरि काज तेरै कितै न काम ॥ मिलु साधसंगति भजु केवल नाम ॥१॥ सरंजामि लागु भवजल तरन कै ॥ जनमु ब्रिथा जात रंगि माइआ कै ॥१॥ रहाउ ॥ जपु तपु संजमु धरमु न कमाइआ ॥ सेवा साध न जानिआ हरि राइआ ॥ कहु नानक हम नीच करमा ॥ सरणि परे की राखहु सरमा ॥२॥४॥ {पन्ना 12}

उच्चारण: आसा महला ५॥ भई परापत मानुख देहुरीआ॥ गोबिंद मिलण की इह तेरी बरीआ॥ अवर काज तेरै कितै न काम॥ मिल साधसंगत भज केवल नाम॥१॥ सरंजाम लाग भवजल तरन कै॥ जनम बृथा जात रंग माया कै॥१॥ रहाउ॥ जप तप संजम धरम न कमाया॥ सेवा साध न जानिआ हरि राया॥ कहु नानक हम नीच करंमा॥ सरण परे की राखहु सरमा॥२॥४॥

पद्अर्थ: भई परापति = मिली है। देहुरीआ = खूबसूरत देह। मानुख देहुरीआ = सुंदर मानव शरीर। बरीआ = बारी,मौका। अवरि = और सारे (अवरु = एकवचन, अवरि = बहुवचन)। भजु = याद कर, सिमर।1।

सरंजामि = इंतजाम में, प्रबंध में। लागु = लग। भवजल = संसार समुंद्र। तरन कै सरंजामि = पार होने की कोशिश में। ब्रिथा = व्यर्थ। जात = जा रहा है। रंगि = प्यार में।1। रहाउ।

जपु = सिमरन। तपु = सेवा आदि उद्यम। संजमु = मन को विकारों से रोकने की पूरी कोशिश। साधू = गूरू। सेवा हरि राइआ = हरि राय की सेवा, मालिक प्रभू का सिमरन। कहु = कहो। नानक = हे नानक! हम = हम जीव। नीच करंमा = नीच कर्म करने वाले, मंदकर्मी। सरमा = शर्म, लाज।2।

अर्थ: (हे भाई!) तुझे सुंदर मानव शरीर मिला है। परमेश्वर को मिलने का तेरे लिए यही मौका है। (यदि ईश्वर को मिलने का कोई प्रयत्न ना किया, तो) और सारे काम तेरे किसी भी अर्थ नहीं। (ये काम तेरी जीवात्मा को कोई लाभ नहीं पहुँचाएंगे)। (इस वास्ते) साध-संगत में (भी) मिल बैठा कर। (साध-संगति में बैठ के भी) सिर्फ परमेश्वर का नाम सिमरा कर (साध-संगति में बैठने का भी तभी लाभ है अगर वहाँ तू परमात्मा की सिफत सलाह में जुड़े)।1।

(हे भाई!) संसार समुन्द्र से पार लांघने की भी कोशिश में लग। (सिर्फ) माया के प्यार में मानव जन्म व्यर्थ जा रहा है। १। रहाउ।

(हे भाई!) तू प्रभू का सिमरन नहीं करता (प्रभू से मिलने के लिए सेवा आदि कोई) उद्यम नहीं करता, मन को विकारों की ओर से रोकने का कोई यत्न नहीं करता - तू (ऐसा कोई) धर्म नहीं कमाता। ना तूने गुरू की सेवा की, ना तूने मालिक प्रभू का नाम सिमरन ही किया। हे नानक! (परमेश्वर के दर पे अरदास कर, और) कह - (हे प्रभू!) हम जीव मंद-कर्मी हैं (तेरी शरण पड़े हैं) शरण पड़े की लाज रखो।2।4।

नोट: साधारण तौर पे हरेक संग्रहि के शबद आदि महला १ के शबदों से शुरू होते हैं। आगे बाकी गुरू–व्यक्तियों के सिलसिलेवार आते हैं। पर, संग्रहि ‘सो पुरखु’ का पहला शब्द है ही महला ४ का। इस वास्ते म: ४ का दूसरा शबदभी साथ ही दे के आगे बाकी की तरतीब सिलसिलेवार रखी है।

अगर ये दोनों संग्रहि अलग–अलग ना होते तो इनकी मिलीजुली तरतीब यूँ होती;

म: १– सोदरु केहा; सुणि वडा; आखा जीवा; तित सरवरड़ै-----(4 शबद)
म: ४– हरि के जन; सो पुरखु; तूं करता---------------------------(3 शबद)
म: ५– काहे रे मन; भई परापति-----------------------------------(2 शबद)
जोड़--------------------------------------------------------------------9 शबद।

सोहिला रागु गउड़ी दीपकी महला १    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ जै घरि कीरति आखीऐ करते का होइ बीचारो ॥ तितु घरि गावहु सोहिला सिवरिहु सिरजणहारो ॥१॥ तुम गावहु मेरे निरभउ का सोहिला ॥ हउ वारी जितु सोहिलै सदा सुखु होइ ॥१॥ रहाउ ॥ नित नित जीअड़े समालीअनि देखैगा देवणहारु ॥ तेरे दानै कीमति ना पवै तिसु दाते कवणु सुमारु ॥२॥ स्मबति साहा लिखिआ मिलि करि पावहु तेलु ॥ देहु सजण असीसड़ीआ जिउ होवै साहिब सिउ मेलु ॥३॥ घरि घरि एहो पाहुचा सदड़े नित पवंनि ॥ सदणहारा सिमरीऐ नानक से दिह आवंनि ॥४॥१॥ {पन्ना 12}

उच्चारण: एक ओअंकार सतिगुर प्रसादि॥ जै घर कीरत आखीअै करते का होय बीचारो॥ तित घर गावह सोहिला सिवरह सिरजणहारो॥१॥ तुम गावह मेरे निरभउ का सोहिला॥ हउ वारी जित सोहिलै सदा सुख होय॥१॥ रहाउ॥ नित नित जीअड़े समालीअन देखैगा देवणहार॥ तेरे दानै कीमत ना पवै तिस दाते कवण सुमार॥२॥ संबत साहा लिखिआ मिल कर पावहु तेलु॥ देह सजण असीसड़ीआ जिउ होवै साहिब सिउ मेल॥३॥ घर घर ऐहो पाहुचा सदड़े नित पवंन॥ सदणहारा सिमरीअै नानक से दिह आवंन॥४॥१॥

पद्अर्थ: जै घरि = जिस घर में। जिस सतसंग घर में। कीरति = सिफत सलाह। आखीअै = कही जाती है। तितु घरि = उस सत्संग घर में। सोहिला = सुहाग के गीत, प्रभू-पति से मिलन के उल्लास के शबद।

(नोट: लड़की के विवाह के समय जो गीत रात को औरतें मिल के गाती हैं उनको ‘सोहिलड़े’ कहा जाता है। इन गीतों में कुछ तो विछोड़े का जज़्बा होता है जो लड़की के ब्याहे जाने से माता-पिता और सहेलियों को होता है, तथा कुछ असीसें आदि होती हैं कि पति के घर जा के सुखी बसे), यश, सिफत सलाह, प्रभू-पति से मिलन के उल्लास के शबद।1।

हउ = मैं। वारी = सदके। जितु सोहिलै = जिस सोहिले की बरकत से।1। रहाउ।

नित नित = सदा ही। समालीअनि = संभालते हैं (कर्मवाच,वर्तमान काल, अन् पुरख, बहुवचन)। देखैगा = संभाल करता है, संभाल करेगा। तेरे = तेरे पास से (हे शरीर!)। दानै कीमति = दान का मुल्य, बख्शिशों की कीमत। सुमारु = अंदाजा, अंत।2।

संबति = साल। साहा = ब्याहे जाने का दिन। लिखिया = मिथा हुआ।

मिलि करि = मिल जुल के। पावहु तेल = (विवाह से कुछ दिन पहले विवाह वाली लड़की को मांईए डालते हैं। चाचियां, ताईयां व सहेलियां मिल के उसके सिर पर तेल डालती हैं, और आर्शीवाद भरेगीत गाती हैं कि पति के घर जा के सुखी बसे)। असीसड़ीआ = खूबसूरत आसीसें।3।

घरि = घर में। घरि घरि = हरेक घर में। पाहुचा = पहोचा, साहे चिट्ठी, बुलावा पत्र।

(नोट: विवाह का साहा और लगन मुकरॅर होने पे लड़के वालों का नाई बारात की गिनती आदि व और जरूरी संदेश ले के लड़की वालों के घर जाता है। उसको पहोचे वाला नाई कहते हैं)।

पवंनि = पड़ते हैं। सदड़े = बुलावे। सो दिह = उस दिहाड़े। आवंनि = आते हैं।

नोट: विवाह के समय पहले माईए की रस्म होती है। चाचियां, ताईयां, भाभियां व सहेलियां मिल के विवाह वाली लड़की के सिर में तेल डालती हैं। उसको स्नान करवाती हैं, साथ साथ सुहाग के गीत गाती हैं। पति के घर जा के सुखी बसने की आसीसें देती हैं। उन दिनों रात को गाने बैठी औरतें भी सोहिलड़े व सुहाग के गीत गाती हैं। इन गीतों में आसीसें व सुहाग के गीत भी होते हैं और वैराग के भी। क्योंकि, एक तरफ तो लड़की ने ब्याहे जा के अपने पति के घर जाना है; दूसरी तरफ, उस लड़की का माता–पिता, बहिनों–भाईयों, सहेलियों, चाचियों, ताईयों, भरजाईयों आदि से वियोग भी होना होता है। इन गीतों में ये दोनों मिश्रित भाव होते हैं।

जैसे विवाह के लिए समय महूरत तय किया जाता है, और उस तय समय में ही विवाह की सभी रस्में संपन्न करने का पूरा यतन किया जाता है। इसी प्रकार हरेक जीव-कन्या का वह समय पहले ही निश्चित किया जा चुका है, जब मौत की साहा-चिट्ठी आती है, और इसने साक-सम्बंधियों से बिछुड़ के इस जगत पेके घर को छोड़ के परलोक में जाना है।

इस शबद में शरीर = कन्या को समझाया गया है कि सत्संग में सुहाग के गीत गाया कर, और सुना कर। सत्संग, जैसे, माईएं पड़ने की जगह है। सत्संगी सहेलियां यहां एक-दूसरी सहेली को आसीसें देती हैं, अरदास करती हैंकि परलोक जाने वाली सहेली को प्रभू-पति का मिलाप हो।

अर्थ: जिस (सत्संग) घर में (परमात्मा की) सिफत-सलाह की जाती है और करतार के गुणों की विचार होती है (हे शरीर-कन्या!) उस (सत्संग) घर में (जा के तू भी) प्रभू के सिफत-सलाह के गीत (सुहाग-मिलाप के उल्लास के शबद) गाया कर और अपने पैदा करने वाले प्रभू को याद करा कर।1।

(हे शरीर!) तू (सत्संगियों के साथ मिल के) प्यारे निरभउ (पति परमेश्वर) की सिफत के गीत गा (और कह) मैं सदके हूँ उस सिफत के गीत से जिसकी बरकति से सदा सुख मिलता है।1। रहाउ।

(हे शरीर! जिस पति परमेश्वर की हजूरी में) सदा ही जीवों की संभाल हो रही है, जो दातें देने वाला मालिक (हरेक जीव की) संभाल करता है, (जिस दातार की) दातों के मुल्य (हे शरीर-कन्या!) तुझसे नहीं चुकाए जा सकते, उस दातार का क्या अंदाजा (तू लगा सकती है) ? (वह दातार प्रभू बहुत बेअंत है)।2।

(सत्संग में जा के, हे शरीर-कन्या! आरजूएं करा कर-) वह संबत् वह दिन (जो पहले ही) निश्चित है (जब पति के देश जाने के लिए मेरे वास्ते साहे-चिट्ठी आनी है, हे सत्संगी सहेलियो!) मिल के मुझे मांईएं डालो, तथा, हे सज्जन सहेलियो! मुझे खूबसूरत आर्शीवाद भी दो (भाव, मेरे लिए अरदास भी करो) जिससे प्रभू पति से मेरा मिलाप हो जाए।3।

(परलोक में जाने के लिए मौत की) ये साहा-चिट्ठी हरेक घर में आ रही है, ये बुलावे नित्य आ रहे हैं। (हे सत्संगियो!) उस बुलावा देने वाले प्रभू-पति को हमेशा याद रखना चाहिए (क्योंकि) हे नानक! (हमारे भी) वह दिन (नजदीक) आ रहे हैं।4।1।

रागु आसा महला १ ॥ छिअ घर छिअ गुर छिअ उपदेस ॥ गुरु गुरु एको वेस अनेक ॥१॥ बाबा जै घरि करते कीरति होइ ॥ सो घरु राखु वडाई तोइ ॥१॥ रहाउ ॥ विसुए चसिआ घड़ीआ पहरा थिती वारी माहु होआ ॥ सूरजु एको रुति अनेक ॥ नानक करते के केते वेस ॥२॥२॥ {पन्ना 12}

उच्चारण: राग आसा महला १॥ छिअ घर छिअ गुर छिअ उपदेस॥ गुर गुर एको वेस अनेक॥१॥ बाबा जै घर करते कीरत होय॥ सो घर राख वडाई तोय॥१॥ रहाउ॥ विसुए चसिआ घड़ीआ पहरा थित वारी माह होआ॥ सूरज एको रुत अनेक॥ नानक, करते के केते वेस॥२॥२॥

पद्अर्थ: छिअ = छे। घर = शास्त्र (सांख, न्याय, वैशेषिक, योग, मीमांसा तथा वेदांत)। गुर = (इन शास्त्रों के) कर्ता (कपिल, गौतम, कणाद, पतंजली, जैमिनी व व्यास)। उपदेश = शिक्षा, सिद्धांत। गुर गुर = ईष्ट प्रभू। ऐको = एक ही। वेस = रूप।1।

बाबा = हे भाई! जै घरि = जिस (सत्संग) घर में। करते कीरति = करतार की सिफत सलाह। होइ = होती है। राखु = संभाल। तोइ = तेरी। वडाई = भलाई।1। रहाउ।

आँख के 15 फोर = 1 विसा। 15 विसुए = 1 चसा। 30 चसे = 1 पल। 60 पल = 1 घड़ी। 7.5 घड़ीयां = 1 पहर। 8 पहर = 1 दिन रात। 15 थितें; 7 वार; 12 महीने; 6 ऋतुएं।2।

अर्थ: (हे भाई!) छे शास्त्र हैं, छे ही (इन शास्त्रों को) चलाने वाले हैं, छे ही इनके सिद्धांत हैं। पर इन सारों का मूल गुरू (परमात्मा) एक है। (ये सारे सिद्धांत) उस एक प्रभू के ही अनेकों वेश हैं (प्रभू की हस्ती के प्रकाश के रूप हैं)।1।

हे भाई! जिस (सत्संग) घर में करतार की सिफत सलाह होती है, उस घर को संभाल के रख (उस सत्संग का आसरा लिए रख। इसी में) तेरी भलाई है।1। रहाउ।

जैसे, विसुए, चसे, घड़ियां, पहर, थिति, वार, महीना (आदि) और अन्य ऋतुएं हैं, पर सूरज एक ही है (जिसके सारे विभिन्न रूप हैं), उसी प्रकार, हे नानक! करतार के (ये सारे सिद्धांत आदि) अनेकों स्वरूप हैं।2।2।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh