श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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रागु धनासरी महला १ ॥ गगन मै थालु रवि चंदु दीपक बने तारिका मंडल जनक मोती ॥ धूपु मलआनलो पवणु चवरो करे सगल बनराइ फूलंत जोती ॥१॥ कैसी आरती होइ ॥ भव खंडना तेरी आरती ॥ अनहता सबद वाजंत भेरी ॥१॥ रहाउ ॥ सहस तव नैन नन नैन हहि तोहि कउ सहस मूरति नना एक तुोही ॥ सहस पद बिमल नन एक पद गंध बिनु सहस तव गंध इव चलत मोही ॥२॥ सभ महि जोति जोति है सोइ ॥ तिस दै चानणि सभ महि चानणु होइ ॥ गुर साखी जोति परगटु होइ ॥ जो तिसु भावै सु आरती होइ ॥३॥ हरि चरण कवल मकरंद लोभित मनो अनदिनुो मोहि आही पिआसा ॥ क्रिपा जलु देहि नानक सारिंग कउ होइ जा ते तेरै नाइ वासा ॥४॥३॥ {पन्ना 13}

उच्चारण: राग धनासरी महला १॥ गगन मै थाल, रवि चंद दीपक बने, तारिका मंडल जनक मोती॥ धूप मलआनलो, पवण चवरो करे, सगल बनराय फूलंत जोती॥१॥ कैसी आरती होय॥ भवखंडना तेरी आरती॥ अनहता सबद वाजंत भेरी॥१॥ रहाउ॥ सहस तव नैन, नन नैन हहि तोहि कउ, सहस मूरत, नना एक तोही॥ सहस पद बिमल, नन एक पद, गंध बिन, सहस तव गंध, इव चलत मोही॥२॥ सभ महि जोत, जोत है सोय॥ तिस दे चानण, सभ मह चानण होय॥ गुर साखी जोत परगट होय॥ जो तिस भावै सु आरती होय॥३॥ हरि चरण कवल मकरंद लोभित मनो, अनदिनो मोहि आही पिआसा॥ क्रिपा जल देह नानक सारिंग कउ, होय जा ते तेरै नाय वासा॥४॥३॥

पद्अर्थ: गगन = आकाश। गगन मै = गगनमय, आकाशरूप, सारा आकाश। रवि = सूरज। दीपक = दीप, दीया। जनक = जैसा, जानो, मानो। मलआनलो = मलय+अनलो, मलय पर्वत की ओर से आने वाली हवा, अनल = हवा, पवन। मलय पर्वत पर चंदन के पौधे होने की वजह से उधर से आनी वाली हवा भी सुगंध भरी होती है। मलय पहाड़ भारत के दक्षिण में है। सगल = सारी। बनराइ = बनस्पति। फुलंत = फूल रही है। जोती = जोति-रूप प्रभू।1। भव खंडन = हे जनम मरन काटने वाले। अनहता = अन+हत, जो बिना बजाए बजे, एक रस। शबद = आवाज़, जीवन रौंअ। भेरी = डॅफ, नगारा।1। रहाउ ।

सहस = हजारों। तव = तेरे। नैन = आँखें। नन = कोई नहीं। हहि = (‘है’ का बहुवचन)। तोहि कउ = तेरे, तुझे, तेरे वास्ते। मूरति = शकल। ना = कोई नहीं। तूोही = तेरी (अक्षर ‘त’ के साथ दो मात्राएं हैं = ‘ु’ व ‘ो’। असल शब्द ‘तुही’ है जिसे ‘तोही’ पढ़ना है)। पद = पैर। बिमल = साफ। गंध = नाक। तिव = इस तरह। चलत = कौतक, आश्चर्यजनक खेल।2।

जोत = प्रकाश, रोशनी। सोइ = उस प्रभू। तिस दै चानणि = उस परमेश्वर के प्रकाश से। साखी = शिक्षा के साथ।3।

मकरंद = फूलों के बीच की धूल (Pollen Dust), फूलों का रस। मनो = मन। अनदिनुों = हर रोज (अक्षर ‘न’ के साथ दो मात्राएं हैं = ‘ु’ व ‘ो’। असल शब्द ‘अनदिनु’ है जिसे ‘अनदिनो’ पढ़ना है)। मोहि = मुझे। आही = है, रहती है। सारंगि = पपीहा। कउ = को। जा ते = जिस से, जिसके साथ। तेरे नाइ = तेरे नाम में।4।

अर्थ: सारा आकाश (जैसे कि) थाल है। सूरज और चाँद (उस थाल में) दिये बने हुए हैं। तारों के समूह, जैसे, थाल में मोती रखे हुए हैं। मलय पर्वत से आने वाली हवा, जैसे धूप (धूणे की सुगंध) है। हवा चौर कर रही है। सारी बनस्पति जोति-रूप (प्रभू की आरती) वास्ते फूल दे रही है।1।

हे जीवों के जनम, मरन, नाश करने वाले! (कुदरति में) कैसी सुंदर तेरी आरती हो रही है! (सभ जीवों में चल रहीं) एक ही जीवन तरंगें, मानों तेरी आरती के वास्ते नगारे बज रहे है।1। रहाउ।

(सभ जीवों में व्यापक होने के कारण) हजारों तेरी आँखें हैं (पर, निराकार होने की वजह से, हे प्रभू) तेरी कोई आँख नहीं। हजारों तेरी शक्लें हैं, पर तेरी कोई भी शक्ल नहीं है। हजारों तेरे सुंदर पैर हैं (पर निराकार होने के कारण) तेरा एक भी पैर नहीं। हजारों तेरे नाक हैं, पर तू नाक के बिना ही है। तेरे ऐसे चमत्कारों ने मुझे हैरान किया हुआ है।1।

सारे जीवों में एक वही परमात्मा की ज्योति बरत रही है। उस ज्योति के प्रकाश से सारे जीवों में प्रकाश (सूझ-बूझ) है। पर, इस ज्योति का ज्ञान गुरू की शिक्षा से ही होता है। (गुरू के द्वारा ही ये समझ पड़ती है कि हरेक के अंदर परमात्मा की ज्योति है) (इस सर्व-व्यापक ज्योति की) आरती ये है कि जो कुछ भी उसकी रजा में हो रहा है, वह जीव को अच्छा लगे (प्रभू की रजा में रहना ही प्रभू की आरती करना है)।3।

हे हरी! तुम्हारे चरन-रूपी कमल फूलों के लिए मेरा मन ललचाता है, हर रोज मुझे इस रस की प्यास लगी हुई है। मुझ नानक पपीहे को अपनी मेहर का जल दे, जिस (की बरकति) से मैं तेरे नाम में टिका रहूँ।4।3।

नोट: आरती– (आरित, आरात्रिका) देवते की मूर्ति अथवा किसी पूज्य के आगे दीए घुमा के पूजा करनी। हिन्दू मतानुसार चार बार चरणों के आगे, दो बार नाभी के ऊपर, एक बार मुँह पे, और सात बार सारे शरीर पे दीए घुमाने चाहिए। दीपक एक से लेकर एक सौ तक होते हैं। गुरू नानक देव जी ने इस आरती का ख्ंडन करके करतार की कुदरती आरती की प्रसंशा की है।

रागु गउड़ी पूरबी महला ४ ॥ कामि करोधि नगरु बहु भरिआ मिलि साधू खंडल खंडा हे ॥ पूरबि लिखत लिखे गुरु पाइआ मनि हरि लिव मंडल मंडा हे ॥१॥ करि साधू अंजुली पुनु वडा हे ॥ करि डंडउत पुनु वडा हे ॥१॥ रहाउ ॥ साकत हरि रस सादु न जाणिआ तिन अंतरि हउमै कंडा हे ॥ जिउ जिउ चलहि चुभै दुखु पावहि जमकालु सहहि सिरि डंडा हे ॥२॥ हरि जन हरि हरि नामि समाणे दुखु जनम मरण भव खंडा हे ॥ अबिनासी पुरखु पाइआ परमेसरु बहु सोभ खंड ब्रहमंडा हे ॥३॥ हम गरीब मसकीन प्रभ तेरे हरि राखु राखु वड वडा हे ॥ जन नानक नामु अधारु टेक है हरि नामे ही सुखु मंडा हे ॥४॥४॥ {पन्ना 13}

उच्चारण: राग गउड़ी पूरबी महला ४॥ काम करोध नगर बहु भरिआ मिल साधू खंडल खंडा हे॥ पूरब लिखत लिखे गुर पाया मन हरि लिव मंडल मंडा हे॥१॥ कर साधू अंजुली पुन वडा हे॥ कर डंडउत पुन वडा हे॥१॥ रहाउ॥ साकत हरि रस साद न जाणिआ तिन अंतर हउमै कंडा हे॥ जिउ जिउ चलह चुभै दुख पावहि जमकाल सहह सिर डंडा हे॥२॥ हरि जन हरि हरि नाम समाणे दुख जनम मरण भव खंडा हे॥ अबिनासी पुरख पाया परमेसर बहु सोभ खंड ब्रहमंडा हे॥ हम गरीब मसकीन प्रभ तेरे, हरि राख राख वड वडा हे॥ जन नानक नाम अधार टेक है हरि नामे ही सुख मंडा हे॥४॥४॥

पद्अर्थ: कामि = काम-वासना से। करोधि = क्रोध से। नगरु = शरीर, नगर। मिलि = मिलके। साधू = गुरू। खंडल खंडा = तोड़ा है। पूरबि = पूर्व में, पहले बीते समय मे। पूरबि लिखे लिखत = पिछले (किये कर्मों के) लिखे हुए संस्कारों के अनुसार। मनि = मन में। मंडल मंडा = जड़ा हुआ है।

अंजुली = दोनों हाथ जुड़े हुए। पुनु = भला काम। डंडउत = डंडौत, नीचे लेट कर नमस्कार।1। रहाउ।

साकत = ईश्वर से टूटे हुए लोग। सादु = स्वाद। तिन अंतरि = उनके अंदर, उनके मन में। चलहि = चलते हैं। चुभै = (काँटा) चुभता है। जम कालु = (आत्मिक) मौत। सिरि = सिर पे।2।

नामि = नाम में। समाणे = लीन, मस्त। भव = संसार। खंडा हे = नाश कर लिया है। सोभ = शोभा। खंड ब्रहमंडा = सारे जगत में।3।

मसकीन = आज़िज़। प्रभ = हे प्रभू। राखु = रक्षा कर। आधारु = आसरा। नामे = नाम में ही। मंडा = मिला।4।

अर्थ: (मनुष्य का यह शरीर रूपी) शहर काम और क्रोध से भरा रहता है। गुरू को मिल के ही (काम-क्रोध आदि के इस मेल को) तोड़ जा सकता है। जिस मनुष्य को पूर्बले कर्मों के संजोगों से गुरू मिल जाता है, उसके मन में परमात्मा के साथ लिव लग जाती है (और उसके अंदर से कामादिक विकारों का जोड़ टूट जाता है)।1।

(हे भाई!) गुरू के आगे हाथ जोड़, यह बहुत भला काम है। गुरू के आगे नत्मस्तक हो जाओ, ये बड़ा नेक काम है।1। रहाउ।

जो मनुष्य प्रमात्मा से टूटे हुए हैं, वे उसके नाम के रस के स्वाद को नहीं समझ सकते। उनके मन में अहंकार का (मानों) काँटा चुभा हुआ है। ज्यों ज्यों वे चलते हैं (ज्यों ज्यों वे अहम् के स्वभाव में जीते हैं, अहंकार का काँटा उनको) चुभता है, वे दुख पाते हैं, और अपने सिर पर उन्हें आत्मिक मौत रूपी डंडा बर्दाश्त करना पड़ता है। (भाव, आत्मिक मौत उनके सिर पे सवार रहती है)।2।

(दूसरी तरफ) परमात्मा के प्यारे बंदेपरमात्मा के नाम में जुड़े रहते हैं। उनके संसार के जनम-तरण का दुख काटा जाता है। उन्हें कभी नाश ना होने वाला परमेश्वर मिल जाता है। उनकी शोभा सारे खंड-ब्रहिमंडों में हो जाती है।3।

हे प्रभू! हम जीव तेरे दर के गरीब मंगते हैं। तू सबसे बड़ा मददगार है। हमें (इन कामादिक विकारों से) बचा ले। हे प्रभू तेरे दास नानक को तेरा ही आसरा है, तेरा नाम ही सहारा है। तेरे नाम में जुड़ने से ही सुख मिलता है।4।4।

नोट: अगर पैर में काँटा चुभ जाए तो चलना–फिरना मुश्किल हो जाता है। उस काँटे को निकालने की जगह यदि पैरों में मख़मल की जूती पहन लें, तो भी चलते वक्त वह काँटा चुभता ही रहेगा। सुख तभी होगा, जब वह काँटा पैर में से निकाल लिया जाए।

जितनी देर तक आदमी के अंदर अहंकार है, यह दुखी ही करता रहेगा। बाहरी धार्मिक भेष आदि भी सुख नहीं दे सकेंगे।

रागु गउड़ी पूरबी महला ५ ॥ करउ बेनंती सुणहु मेरे मीता संत टहल की बेला ॥ ईहा खाटि चलहु हरि लाहा आगै बसनु सुहेला ॥१॥ अउध घटै दिनसु रैणारे ॥ मन गुर मिलि काज सवारे ॥१॥ रहाउ ॥ इहु संसारु बिकारु संसे महि तरिओ ब्रहम गिआनी ॥ जिसहि जगाइ पीआवै इहु रसु अकथ कथा तिनि जानी ॥२॥ जा कउ आए सोई बिहाझहु हरि गुर ते मनहि बसेरा ॥ निज घरि महलु पावहु सुख सहजे बहुरि न होइगो फेरा ॥३॥ अंतरजामी पुरख बिधाते सरधा मन की पूरे ॥ नानक दासु इहै सुखु मागै मो कउ करि संतन की धूरे ॥४॥५॥ {पन्ना 13}

उच्चारण: राग गउड़ी पूरबी महला ५॥ करउ बेनंती सुणह मेरे मीता संत टहल की बेला॥ ईहा खाट चलहु हरि लाहा आगै बसन सुहेला॥१॥ अउध घटै दिनस रैणारे॥ मन गुर मिल काज सवारे॥१॥ रहाउ॥ इह संसार बिकार संसे महि तरिओ ब्रहम गिआनी॥ जिसहि जगाय पीआवै इह रस अकथ कथा तिन जानी॥२॥ जा कउ आऐ सोई बिहाझहु हरि गुर ते मनह बसेरा॥ निज घर महल पावहु सुख सहजे बहुरि न होइगो फेरा॥३॥ अंतरजामी पुरख बिधाते सरधा मन की पूरे॥ नानक दास इहै सुख मागै मो कउ करि संतन की धूरे॥४॥५॥

पद्अर्थ: करउ = मैं करता हूँ (वर्तमानकाल, उत्तमपुरख, एकवचन)। सुणहु = तुम सुनो (आदेश भविष्यत, मध्यम पुरख, बहुवचन)। बेला = मौका, बेला। ईहा = यहाँ, इस जनम में। खाटि = कमा के। लाहा = लाभ, कमाई। आगै = परलोक में। बसनु = बसना, आबाद होना। सुहेला = सुखमय।1।

अउधु = उम्र। रैणा = रात। मन = हे मन! मिलि = मिल के। सवारे = सवार ले।1। रहाउ।

बिकार = विकार रूप, विकारों से भरा हुआ। संसे महि = शंकाओं में, तौखले में। जिसहि = जिस मनुष्य को। जगाइ = जगा के। पीआवै = पिलाता है। तिनि = उसने।2।

जा कउ = जिस (मनोरथ) के वास्ते। बिहाझहु = खरीदो, व्यापार करो। ते = से, के द्वारा। मनहि = मन में ही। निज घरि = अपने घर में। महलु = (प्रभू का) ठिकाना। सहजे = सहजि, आत्मिक अडोलता में। बहुरि = फिर, दुबारा।3।

अंतरजामी = हे दिलों के जानने वाले! पुरख = हे सभ में व्यापक! बिधाते = हे सृजनहार! पूरे = पूरी कर। मागै = मांगता है। मो कउ = मुझे। धूरे = चरण धूड़।4।

अर्थ: हे मेरे मित्रो! सुनो! मैं विनती करता हूँ- (अब) गुरमुखों की सेवा करने की बेला है। (यदि सेवा करोगे, तो) इस जनम में ईश्वर के नाम की कमाई कर के जाओगे, और परलोक में बसेरा सुखमय हो जाएगा।1।

हे मन! दिन रात (बीत बीत के) उम्र घटती जा रही है। हे (मेरे) मन! गुरू को मिल के (मानव जीवन के) उद्देश्य को सफल कर।1। रहाउ।

ये जगत विकारों से भरपूर है। (जगत के जीव) शंकाओं में (डूब रहे हैं। इनमें से) वही मनुष्य निकलता है जिस ने परमात्मा के साथ जान-पहिचान बना ली है। (विकारों में सो रहे) जिस मनुष्य को प्रभू स्वयं खुद जगा के ये नाम अमृत पिलाता है, उस मनुष्य ने अकथ प्रभू की बातें (बेअंत गुणों वाले प्रभू की सिफत सलाह) करने का तौर-तरीका सीख लिया है।2।

(हे भाई!) जिस काम वास्ते (यहाँ) आए हो, उस का व्यापार करो। वह हरि नाम गुरू के द्वारा ही मन में बस सकता है। (यदि गुरू की शरण पड़ोगे, तो) आत्मिक आनंद और अडोलता में टिक के अपने अंदर ही परमात्मा का ठिकाना ढूँढ लोगे। फिर दुबारा जनम-मरन का चक्कर नहीं रहेगा।3।

हे हरेक दिल की जानने वाले सर्व-व्यापक सृजनहार! मेरे मन की इच्छा पूरी कर। दास नानक तुझसे यही सुख मांगता है कि मुझे संतों के चरणों की धूड़ बना दे।4।5।

नोट: आखीरले अंक ५ का भाव ये है कि इस संग्रहि (सोहिले) का यह पाँचवां शबद् है। पाठक सज्जन ध्यान रखें कि इस संग्रहि का नाम ‘सोहिला’ है, ‘कीरतन सोहिला’ नहीं।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh