श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 14 ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ रागु सिरीरागु महला पहिला १ घरु १ ॥ नोट: ‘महला १’ के अंक से पहले शब्द ‘पहिला’ से स्पष्ट है कि अंक १ को पढ़ना है ‘पहला’। इसी तरह ‘घर १’ के अंक १ को भी पढ़ना है ‘पहला’। देखें पृष्ठ 23 पे शबद नं: 25 का शीर्षक ‘सिरीरागु महला १ घर दूजा २’। यहाँ ‘घर २’ के अंक 2 को लिखा है ‘दूजा’। देखें पृष्ठ 163 के शीर्षक ‘गउड़ी गुआरेरी महला ४ चउथा’। यहां, महला ४ के अंक को लिखा है ‘चउथा’। इसी तरह और भी ज्यादा तसल्ली वास्ते पाठक 1430 पन्नों वाली श्री गुरू ग्रंथ साहिब की बीड़ के पंन्ना नं:892, 524, 582, 605, 636, 661, 664 और 1169 पर देख सकते हैं। मोती त मंदर ऊसरहि रतनी त होहि जड़ाउ ॥ कसतूरि कुंगू अगरि चंदनि लीपि आवै चाउ ॥ मतु देखि भूला वीसरै तेरा चिति न आवै नाउ ॥१॥ हरि बिनु जीउ जलि बलि जाउ ॥ मै आपणा गुरु पूछि देखिआ अवरु नाही थाउ ॥१॥ रहाउ ॥ धरती त हीरे लाल जड़ती पलघि लाल जड़ाउ ॥ मोहणी मुखि मणी सोहै करे रंगि पसाउ ॥ मतु देखि भूला वीसरै तेरा चिति न आवै नाउ ॥२॥ सिधु होवा सिधि लाई रिधि आखा आउ ॥ गुपतु परगटु होइ बैसा लोकु राखै भाउ ॥ मतु देखि भूला वीसरै तेरा चिति न आवै नाउ ॥३॥ सुलतानु होवा मेलि लसकर तखति राखा पाउ ॥ हुकमु हासलु करी बैठा नानका सभ वाउ ॥ मतु देखि भूला वीसरै तेरा चिति न आवै नाउ ॥४॥१॥ {पन्ना 14} उच्चारण: मोती त मंदर ऊसरहि रतनी त होहि जड़ाउ॥ कसतूर कुंगू अगर चंदन लीप आवै चाउ॥ मत देख भूला वीसरै तेरा चित न आवै नाउ॥१॥ हरि बिन जीउ जल बल जाउ॥ मै आपणा गुर पूछ देखिआ अवर नाही थाउ॥१॥ रहाउ॥ धरती त हीरे लाल जड़ती पलघ लाल जड़ाउ॥ मोहणी मुख मणी सोहै करे रंग पसाउ॥ मत देख भूला वीसरे तेरा चित न आवै नाउ॥२॥ सिध होवा सिध लाई रिध आखा आउ॥ गुपत परगट होइ बैसा लोक राखै भाउ॥ मत देख भूला वीसरै तेरा चित न आवै नाउ॥३॥ सुलतान होवा मेल लसकर तख़त राखा पाउ। हुकम हासल करी बैठा नानका सभ वाउ॥ मत देख भूला वीसरै तेरा चित न आवै नाउ॥४॥१॥ पद्अर्थ: त = यदि। उसरहि = उसर पड़ना, बन जाना। कुंगू = केसर। अगरि = अगर से, ऊद की सुगंध भरी लकड़ी के साथ। चंदनि = चंदन से। लीपि = लिपाई करके। देखि = देख के। चिति = चिक्त में।1। पलघि = पलंग पे। मोहणी = मोहक स्त्री, सुंदर स्त्री। मुखि = मुह पर। रंगि = प्यार से। पसाओ = पसारा, खेल। रंगि पसाओ = प्यार भरी खेल। हाव = भाव।2। सिधु = योग साधना में खचित योगी। सिधि = योग कमाई में कामयाबी। लाई = लगाऊँ। रिधि = योग से प्राप्त हुई बरकतें। बैसा = मैं बैठूँ। भाउ = आदर, सत्कार।3। मेलि = एकत्र करके। लसकर = फौजें। तखति = तख़्त पे। हासलु करी = मैं हासल करूँ, मैं चलाऊँ। वाउ = हवा समान, व्यर्थ। करी = मैं करूँ।4। अर्थ: अगर (मेरे लिए) मोतियों के महल बन जाएं, यदि (वह महल-माड़ियां) रत्नों से जड़ी हों, (उन महल-माड़ियों को) कस्तूरी केसर व चंदन आदि से लिपाई करके (मेरे अंदर) चाव चढ़े, (तो भी यह सब कुछ व्यर्थ है, मुझे खतरा है कि महल माड़ियों) को देख के मैं कहीं (हे प्रभू !) तुझे भुला ना बैठूँ, कहीं तू मुझे विसर ना जाए, कहीं तेरा नाम मेरे चिक्त में टिके ही ना।1। मैंने अपने गुरू को पूछ के देख लिया है (मैंने अपने गुरू को पूछा है और मुझे यकीन भी आ गया है) कि प्रभू से बिछुड़ के ये जिंद जल-बल जाती है (तथा प्रभू की याद के बिना) और कोई जगह भी नहीं है (जहाँ वह जलन खतम हो सके)।1। रहाउ। यदि (मेरे रहने के वास्ते) धरती हीरे लालों से जड़ी जाए, अगर (मेरे सोने वाले) पलंघ पर लाल जड़े हों, यदि (मेरे सामने) वह सुंदर स्त्री हाव-भाव करे जिसके माथे पे मणी शोभायमान हो, (तो भी यह सब कुछ व्यर्थ है, मुझे खतरा है कि ऐसे सुंदर स्थान पे ऐसी सुंदरी को) देख के मैं कहीं (हे प्रभू!) तुझे भुला ना बैठूँ, कहीं तू मुझे बिसर ना जाए, कहीं तेरा नाम मेरे चिक्त में टिके ही ना।2। अगर मैं माहिर जोगी बन जाऊँ, अगर मैं योग-समाधियों की कामयाबियां हासिल कर लूँ, अगर मैं योग से प्राप्त हो सकने वाली बरकतों को आवाज मारूँ और वे (मेरे पास) आ जाएं, अगर (योग की ताकत से) मैं कभी छुप सकूँ कभी प्रत्यक्ष हो के बैठ जाऊँ, यदि (सारा) जगत मेरा आदर करे, (तो भी ये सब कुछ व्यर्थ है मुझे खतरा है कि इन रिद्धियों-सिद्धियों को देख के) मैं कहीं (हे प्रभू!) तुझे भुला ना बैठूँ, कहीं तू मुझे बिसर ना जाए, कहीं तेरा नाम मेरे चिक्त में टिके ही ना।3। अगर मैं फौजें इकट्ठी करके बादशाह बन जाऊँ, यदि मैं (तख़्त पे) बैठा (बादशाही का) हुकम चला सकूँ, तो भी, हे नानक! (ये) सब कुछ व्यर्थ है (मुझे खतरा है कि ये राज-भाग) देख के मैं कहीं (हे प्रभू!) तुझे भुला ना बैठूँ, कहीं तू मुझे बिसर ना जाए, कहीं तेरा नाम मेरे चिक्त में टिके ही ना।4।1। नोट: इस शबद के 4 बंद हैं। आखिरी बंद के बाद अंक 1 का भाव है कि यह पहला शबद समाप्त हुआ है। भाव: प्रभू की याद भुला के जिंद जल-बल जाती है। योग की रिद्धियां-सिद्धियां, व बादशाहियत् प्रभू के विछोड़े से पैदा हुई उस जलन को शांत नहीं कर सकते। ये तो बल्कि, परमात्मा से दूरी और बढ़ा के जलन पैदा करते हैं। सिरीरागु महला १ ॥ कोटि कोटी मेरी आरजा पवणु पीअणु अपिआउ ॥ चंदु सूरजु दुइ गुफै न देखा सुपनै सउण न थाउ ॥ भी तेरी कीमति ना पवै हउ केवडु आखा नाउ ॥१॥ साचा निरंकारु निज थाइ ॥ सुणि सुणि आखणु आखणा जे भावै करे तमाइ ॥१॥ रहाउ ॥ कुसा कटीआ वार वार पीसणि पीसा पाइ ॥ अगी सेती जालीआ भसम सेती रलि जाउ ॥ भी तेरी कीमति ना पवै हउ केवडु आखा नाउ ॥२॥ पंखी होइ कै जे भवा सै असमानी जाउ ॥ नदरी किसै न आवऊ ना किछु पीआ न खाउ ॥ भी तेरी कीमति ना पवै हउ केवडु आखा नाउ ॥३॥ नानक कागद लख मणा पड़ि पड़ि कीचै भाउ ॥ मसू तोटि न आवई लेखणि पउणु चलाउ ॥ भी तेरी कीमति ना पवै हउ केवडु आखा नाउ ॥४॥२॥ {पन्ना 14} उच्चारण: सिरीरागमहला १॥ कोट कोटी मेरी आरजा पवण पीअण अपिआउ॥ चंद सूरज दुइ गुफै न देखा सुपनै सउण न थाउ॥ भी तेरी कीमत ना पवै हउ केवड आखा नाउ॥१॥ साचा निरंकार निज थाइ॥ सुण सुण आखण आखणाजे भावै करे तमाइ॥१॥ रहाउ॥ कुसा कटीआ वार वार पीसण पीसा पाइ॥ अगी सेती जालीआ भसम सेती रल जाउ॥ भी तेरी कीमत ना पवै हउ केवड आखा नाउ॥२॥ पंखी होइ कै जे भवा सै असमानी जाउ॥ नदरी किसै न आवऊ ना किछ पीआ न खाउ॥ भी तेरी कीमत ना पवै हउ केवड आखा नाउ॥३॥ नानक कागद लख मणा पढ़ि पढ़ि कीचै भाउ॥ मसू तोट न आवई लेखण पउण चलाउ॥ भी तेरी कीमत ना पवै हउ केवड आखा नाउ॥४॥२॥ पद्अर्थ: कोटी = कोटि। कोटी कोटि = करोड़ों ही (साल)। आरजा = उम्र। पीअणु = पीना। अपिआउ = खाना, भोजन। गुफै = गुफा में (रह के)। सउणु थाउ = सोने की जगह। भी = फिर भी। हउ = मैं। केवडु = कितना बड़ा। नाउ = मशहूरी, शोभा।1। थाइ = जगह में, स्वरूप में। निज थाइ = अपने आप में, अपने स्वरूप में। सुणि सुणि = बार बार सुन के। आखणु = बयान। जे भावै = जो प्रभू को ठीक लगे। तमाइ = आकर्षण, (जीव के अंदर सिफत सलाह करने की) ललक। करे = पैदा कर देता है।1। रहाउ। कुसा = कोह दूँ, यदि मैं (अपने शरीर को) कष्ट दे दे के घायल कर दूँ। कटीआ = कटा दूँ, यदि मैं (अपने आप को) कटा डालूँ। वार वार = बार बार, दुबारा। पीसणि = चक्की में। पाइ = पा के। सेती = साथ। जालीआ = यदि मैं जला दूँ।2। सै = सैकड़ो। नदरी न आवऊ = मैं ना दिखूँ।3। कागद = कागज। कीचै = किया जाए। भाउ = अर्थ। मसू = (शब्द ‘मसु’ का संबंधकारक) मसु की, स्याही की। न आवई = न आए। लेखणि = कलम। पवणु = हवा। चलाउ = मैं चलाऊँ।4। अर्थ: यदि मेरी उम्र करोडों ही साल हो जाए, अगर हवा मेरा खाना-पीना (भोजन) बन जाए (यदि मैं हवा के आसरे जी सकूँ), यदि (किसी) गुफा में (बैठ के) चाँद सूरज दोनों को कभी ना देखूँ (भाव, कि रात-दिन गुफा में बैठ के मैं समाधि लगाए रखूँ), अगर सपनों में भी सोने की जगह ना मिले (यदि कभी ना सो सकूँ) तो भी (हे प्रभू! इतनी लम्बी समाधियां लगा के भी) मैं तेरा मुल्य नहीं पा सकता (तेरे बराबर का मैं किसी और को नहीं ढूँढ सकता), मैं तेरी कितनी महानता बयान करूँ? (मैं तेरी वडिआई महानता बताने के काबिल नहीं हूँ)।1। सदा कायम रहने वाला निराकार परमात्मा अपने आप में टिका हुआ है (उस को किसी और के आसरे की मुथाजी नहीं है) हम जीव एक दूसरे से सुन सुन के ही (उस की बुर्जुगी का) बयान कर देते हैं। (पर ये कोई नहीं कह सकता कि वह कितना बड़ा है)। अगर प्रभू को ठीक लगे तो (जीव के अंदर अपनी सिफत सलाह की) उमंग पैदा कर देता है।1। रहाउ। यदि मैं (तप द्वारा अपने शरीर को कष्ट) दे दे के घायल कर लूँ, बारंबार रॅती रॅती कटा दूँ, चक्की में डाल के पीस दूँ, आग से जला दूँ, और (स्वयं को) राख में मिला डालूँ (इतना तप साध के भी हे प्रभू!) तेरे बराबर का किसी और को मैं ढूँढ नहीं सकता, मैं तेरी वडिआई महानता बताने के काबिल नहीं हूँ।2। अगर मैं पंछी बन के उड़ सकूँ और सैकड़ों आसमानों तक पहुँच सकूँ, अगर (उड़ के इतना ऊँचा चला जाऊं कि ) मैं किसी को दिखाई ही ना दे सकूँ, खाऊं-पीऊँ भी कुछ नहीं (इतनी पहुँच रखते हुए) भी हे प्रभू!मैं तेरे बराबर का कोई और नहीं ढूँढ सकता, मैं तेरी वडिआई महानता बताने के काबिल नहीं हूँ ।3। हे नानक! (कह– हे प्रभू! अगर मेरे पास तेरी वडियाईयों से भरे हुए) लाखों मन कागज़ हों, उनको बार बार पढ़ के विचार भी की जाए, यदि (तेरी वडियाई लिखने के वास्ते) मैं हवा को कलम बना लूँ (लिखते-लिखते) स्याही की भी कभी कमी ना आए, तो भीहे प्रभू! मैं तेरा मुल्य नहीं पा सकता, मैं तेरी वडिआई महानता बताने के काबिल नहीं हूँ ।4।2। नोट: आखीरले अंक 2 का भाव ये है कि ये दूसरे शबद की समाप्ति है। भाव: यदि करोड़ों साल अटॅुट समाधि लगा के और बड़े-बड़े तप बर्दाश्त करके कोई दिव्य दृष्टि हासिल कर लें, अगर उड़ने की स्मर्था हासिल करके परमात्मा की रची हुई रचना का आखिरी छोर ढूँढने के लिए सैकड़ों आसमानों तक हो आए। यदि कभी ना खत्म होने वाली स्याही से लाखों मन कागजों पे प्रभू की महानता का लेखा निरंतर लिखते जाएं, तो भी कोई जीव उसकी वडिआईयों का अंत पाने के काबिल नहीं है। वह निरंकार प्रभू अपने सहारे खुद कायम है, उस को सहारा देने वाला कोई उसका शरीक नहीं है। वह जिस पर मेहर करे उसको अपनी सिफत सलाह की दात बख्शता है।2। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |