श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 19 सिरीरागु महला १ ॥ ध्रिगु जीवणु दोहागणी मुठी दूजै भाइ ॥ कलर केरी कंध जिउ अहिनिसि किरि ढहि पाइ ॥ बिनु सबदै सुखु ना थीऐ पिर बिनु दूखु न जाइ ॥१॥ मुंधे पिर बिनु किआ सीगारु ॥ दरि घरि ढोई न लहै दरगह झूठु खुआरु ॥१॥ रहाउ ॥ आपि सुजाणु न भुलई सचा वड किरसाणु ॥ पहिला धरती साधि कै सचु नामु दे दाणु ॥ नउ निधि उपजै नामु एकु करमि पवै नीसाणु ॥२॥ गुर कउ जाणि न जाणई किआ तिसु चजु अचारु ॥ अंधुलै नामु विसारिआ मनमुखि अंध गुबारु ॥ आवणु जाणु न चुकई मरि जनमै होइ खुआरु ॥३॥ चंदनु मोलि अणाइआ कुंगू मांग संधूरु ॥ चोआ चंदनु बहु घणा पाना नालि कपूरु ॥ जे धन कंति न भावई त सभि अड्मबर कूड़ु ॥४॥ सभि रस भोगण बादि हहि सभि सीगार विकार ॥ जब लगु सबदि न भेदीऐ किउ सोहै गुरदुआरि ॥ नानक धंनु सुहागणी जिन सह नालि पिआरु ॥५॥१३॥ {पन्ना 19} उच्चारण: सिरीराग महला १॥ धृग जीवण दोहागणी मुठी दूजै भाय॥ कलर केरी कंध जिउ अहिनिस किर ढहि पाय॥ बिन सबदै सुख ना थीअै पिर बिन दूख न जाय॥१॥ मुंधे पिर बिन किआ सीगार॥ दर घर ढोई न लहै दरगह झूठ खुआर॥१॥ रहाउ ॥ आप सुजाण न भुलई सचा वड किरसाण॥ पहिला धरती साध कै सच नाम दे दाण॥ नउ निधि उपजै नाम एक करम पवै नीसाण॥२॥ गुर कउ जाण न जाणई किआ तिस चज अचार॥ अंधुलै नाम विसारिआ मनमुख अंध गुबार॥ आवण जाण न चुकई मर जनमै होय खुआर॥३॥ चंदन मोल अणाइआ कुंगू मांग संधूर॥ चोआ चंदन बहु घणा पाना नाल कपूर॥ जे धन कंत न भावई त सभ अडंबर कूड़॥४॥ सभ रस भोगण बाद हहि सभ सीगार विकार॥ जब लग सबद न भेदीअै किउ सोहै गुरदुआर॥ नानक धंन सुहागणी जिन सह नाल पिआर॥५॥१३॥ पद्अर्थ: ध्रिगु = धिक्कार के लायक। दोहागणी = बुरे भाग्य वाली, पति से विछुड़ी हुई। मुठी = ठगी हुई। दूजै भाइ = (प्रभू के बिना) किसी और के प्रेम में। केरी = की। अहि = दिन। निसि = रात। किरि = किर के, झड़ना।1। मुंधे = हे मूर्ख! ढोई = आसरा, सहारा।1। रहाउ। सुजाणु = सयाना, चतुर, सुजान। साधि कै = साफ कर के, तैयार करके। दे = देता है। दाणु = दाना, कण, बीज। करमि = बख्शिश द्वारा। नीसाणु = परवाना, राहदारी, पर्वानगी।2। जाणि = जानबूझ के। चजु अचारु = रवईआ। अंधुलै = अंधे ने। मनमुखि = अपने मन के पीछे चलने वाला। अंधु गुबारु = वह अंधा जिसके सामने घुप अंधेरा ही है। न चुकई = खतम नहीं होता।3। मोलि = मूल्य दे के, खरीद के। अणाइआ = मंगाया। कुंगू = केसर। मांग = केसों के बीच बनाया हुआ चीर। चोआ = इत्र। धन = स्त्री। कंत न भावई = पति को अच्छी ना लगी। सभि = सारे।4। बादि = व्यर्थ। विकार = बेकार। धनु = धन्य, भाग्यशाली। सह नालि = खसम के साथ।4। अर्थ: जो भाग्यहीन जीव स्त्री (प्रभू-पति के बिना माया आदि) और दूसरे प्यार में ठगी रहती है उसका जीना धिक्कार ही है। जैसे कॅलर की दीवार (सहजे-सहजे) झर-झर के नष्ट होती है, वैसे ही उसका आत्मिक जीवन भी दिन रात (माया के मोह में) धीरे धीरे क्षय हो जाता है। (सुख की खातिर वह दौड़-भाग करती है, पर) गुरू की शरण के बिना सुख नहीं मिल सकता (माया का मोह तो बल्कि दुख ही दुख पैदा करता है, और) प्रभू-पति को मिले बिना मानसिक दुख दूर नहीं होता।1। हे मूर्ख जीव-स्त्री! अगर पति ना मिले तो श्रृंगार करने का कोई लाभ नहीं होता। (अगर जीव-स्त्री प्रेम से वंचित रह के ही धार्मिक उद्यम कर्म आदि किये जा रही है, पर उसके अंदर माया मोह प्रबल है) वह प्रभू के दर पर प्रभू के घर में आसरा नहीं ले सकती, (क्योंकि) झूठ (भाव, माया का मोह) प्रभू की हजूरी में दुरकारा ही जाता है।1। रहाउ। (किसान अपने रोजमर्रा के तजरबे से जानता है कि बीज बीजने से पहले धरती को कैसे तैयार करना है ता कि बढ़िया फसल हो, इसी तरह) सदा स्थिर रहने वाला परमात्मा बड़ा किसान है, वह (बड़ा) सुजान किसान है, वह गलती नहीं करता (जिस हृदय-रूपी धरती में नाम-बीज बीजना होता है) वह उस हृदय-धरा को पहले अच्छी तरह से तैयार करता है फिर उसमें सच्चे नाम का बीज बोता है। वहाँ नाम उगता है, (मानों) नौ खजाने पैदा हो जाते हैं, प्रभू की मेहर से (उस हृदय में की मेहनत) कबूल हो जाती है।2। जो मनुष्य जानबूझ के गुरू (की बुर्जुगीयत) को नहीं समझता उसका सारा जीवन ढंग व्यर्थ है, (आत्मिक रौशनी के पक्ष से अगर परखें तो) उस अंधे ने प्रभू का नाम बिसारा है, अपने मन के पीछे चलने वाले के (जीवन में) अंधकार ही अंधकार रहता है। उसका जन्म-मरण का चक्कर नहीं खतम होता, वह नित्य पैदा होता है मरता है, पैदा होता है, मरता है, और खुआर होता रहता है।3। (किसी स्त्री ने अपने पति को प्रसन्न करने के लिए अपने शारीरिक श्रंृ्रगार के वास्ते) खरीद के चंदन मंगाया, केसर मंगाया, सिर के केसों को सुंदर बनाने के लिए मांग का सिंदूर मंगवाया, इत्र, चंदन व अन्य सुगन्धियां मंगवाईं, पान मंगवाए और कपूर मंगवाया, पर अगर वह स्त्री पति को (फिर भी) अच्छी ना लगी, तोउस के वह दिखावे के सारे उद्यम व्यर्थ हो गये, (आडंबर बनके रह गये)। (यही हाल जीव-स्त्री का है, पति-प्रभू दिखावे के धार्मिक कर्मों, उद्यमों से नहीं रीझता)।4। जब तक मनुष्य का मन गुरू के शबद (तीर) से विच्छेदित नहीं होता, तब तक गुरू के दर पे शोभा नहीं मिलती, ऐसे मनुष्य के द्वारा बरते गये सारे सुंदर पदार्थ व्यर्थ चले जाते हैं (क्योंकि, पदार्तों को भोगने वाला शरीर तो आखिर में राख हो जाता है) सारी शारीरिक सजावटें भी बेकार हो जाती हैं। हे नानक! वही भाग्यशाली जीव-सि्त्रयां मुबारक हैं जिनका प्रभू-पति सेपे्रम बना रहता है।4।13। सिरीरागु महला १ ॥ सुंञी देह डरावणी जा जीउ विचहु जाइ ॥ भाहि बलंदी विझवी धूउ न निकसिओ काइ ॥ पंचे रुंने दुखि भरे बिनसे दूजै भाइ ॥१॥ मूड़े रामु जपहु गुण सारि ॥ हउमै ममता मोहणी सभ मुठी अहंकारि ॥१॥ रहाउ ॥ जिनी नामु विसारिआ दूजी कारै लगि ॥ दुबिधा लागे पचि मुए अंतरि त्रिसना अगि ॥ गुरि राखे से उबरे होरि मुठी धंधै ठगि ॥२॥ मुई परीति पिआरु गइआ मुआ वैरु विरोधु ॥ धंधा थका हउ मुई ममता माइआ क्रोधु ॥ करमि मिलै सचु पाईऐ गुरमुखि सदा निरोधु ॥३॥ सची कारै सचु मिलै गुरमति पलै पाइ ॥ सो नरु जमै ना मरै ना आवै ना जाइ ॥ नानक दरि परधानु सो दरगहि पैधा जाइ ॥४॥१४॥ {पन्ना 19} उच्चारण: सिरी राग महला १॥ सुञीं देह डरावणी जा जीउ विचहु जाय॥ भाहि बलंदी विझवी धूउ न निकसिओ काय॥ पंचे रुंने दुख भरे बिनसे दूजै भाय॥१॥ मूढ़े, रामु जपहु गुण सारि॥ हउमै ममता मोहणी सभ मुठी अहंकार॥१॥ रहाउ॥ जिनी नाम विसारिआ दूजी कारै लग॥ दुबिधा लागे पच मुए अंतर त्रिसना अग॥ गुर राखे से उबरे होर मुठी धंधै ठग॥२॥ मुई परीत पिआर गया मुआ वैर विरोध॥ धंधा थका हउ मुई ममता माया क्रोध॥ करम मिलै सच पाईअै गुरमुख सदा निरोध॥३॥ सची कारै सच मिलै, गुरमत पलै पाय॥ सो नर जंमै ना मरै ना आवै ना जाय॥ नानक, दर परधान सो, दरगह पैधा जाय॥४॥१४॥ पद्अर्थ: सुञीं = अकेली, उजड़ी हुई। देह = काया,शरीर। जा = जब। जीउ = जिंद, जान, जीवात्मा। भाहि = आग (जीवन-सत्ता)। विझवी = बुझ गई। धूअ = धूआं, स्वास। पंचे = पांचों ज्ञान इन्द्रियां। दूजे भाइ = माया के मोह में।1। सारि = संभाल के, याद कर करके। सभ = सारी सृष्टि। मुठी = ठगी जा रही है। अहंकारि = अहंकार में।1। रहाउ। लगि = लग के। दुबिधा = दुचित्तापन, मेर तेर। पचि = खुआर हो के। मुऐ = आत्मिक जीवन गवा बैठे। गुरि = गुरू ने। उबरे = बच गए। मुठी = ठग ली। ठगि = ठग ने।1। मुई = खतम हो गई। हउ = अहंकार। ममता माइआ = माया की ममता, माया जोड़ने की लालसा। करमि = (प्रभू की) मेहर से। गुरमुखि = गुरू के द्वारा। निरोधु = (विकारों से) रोक।3। कारै = काम में (लग के)। पलै पाइ = प्राप्ति हो जाए। दरि = (प्रभू के) दर पे। परधानु = जाना माना, सुर्खरू। पैधा = सरोपा ले के, आदर ले के।4। अर्थ: जब जीवात्मा शरीर में से निकल जाती है तो ये शरीर उजड़ जाता है, इससे डर लगने लग पड़ता है। जो जीवन-अग्नि (पहले इसमें) जलती थी वह बुझ जाती है (जीवन सत्ता समाप्त हो जाती है)। कोई भी श्वास नहीं आता जाता। (आंख, कान आदि) जो पाँचों ज्ञानेन्द्रियां (पर तन, निंदा आदि) माया के मोह में नाश होते रहे, वह भी दुखी हो हो के रोए (भाव, नकारे हो हो के मजबूर हो गए)।1। हे मूर्ख जीव! (उस अंतिम दशा को सामने ला के) परमात्मा के गुण याद कर, प्रभू का नाम जप। सारी सृष्टि (गाफिल हो के) मोहनी माया की ममता में झूठे अहंकार में ठगी जा रही है।1। रहाउ। जिन लोगों ने और और निरे दुनियावी कामों में लग के परमात्मा का नाम भुला दिया, वो सदा मेर-तेर में फंसे रहे, उनके अंदर तृष्णा की आग भड़कती रही, जिस में खिझ-जल के वो आत्मिक मौत मर गए। जिन की रक्षा गुरू ने की, वे तृष्णा की आग से बच गए। बाकी सभी को दुनिया के सारे ठगों ने ठग लिया। पर, जो गुरमुखि ज्ञानेन्द्रियों को सदा सयंम में रखता हैउसे प्रभू की कृपा से उस प्रभू का मिलाप हो जाता है, उसकी दुनियावी प्रीत खतम हो जाती है, उसका माया वाले पदार्तों से प्यार समाप्त हो जाता है। उसका किसी के साथ विरोध नहीं रह जाता। उसकी माया वाली दौड़-भाग खत्म हो जाती है, अहंकार मर जाता है, माया की ममता मर जाती है और क्रोध भी मरजाता है।3। जो मनुष्य (सिमरन की) सदा टिके रहने वाले कर्म में लगा रहता है उसको सदा स्थिर प्रभू मिल जाता है, उसको गुरू की शिक्षा प्राप्त हो जाती है। वह मनुष्य बार बार मरता पैदा नहीं होता। वह जनम मरन के चक्रव्यूह से बच जाता है। हे नानक! वह मनुष्य प्रभू के दर पे सुर्खरू होता है और वह प्रभू की हजूरी में सरोपा ले के जाता है।4।14। सिरीरागु महल १ ॥ तनु जलि बलि माटी भइआ मनु माइआ मोहि मनूरु ॥ अउगण फिरि लागू भए कूरि वजावै तूरु ॥ बिनु सबदै भरमाईऐ दुबिधा डोबे पूरु ॥१॥ मन रे सबदि तरहु चितु लाइ ॥ जिनि गुरमुखि नामु न बूझिआ मरि जनमै आवै जाइ ॥१॥ रहाउ ॥ तनु सूचा सो आखीऐ जिसु महि साचा नाउ ॥ भै सचि राती देहुरी जिहवा सचु सुआउ ॥ सची नदरि निहालीऐ बहुड़ि न पावै ताउ ॥२॥ साचे ते पवना भइआ पवनै ते जलु होइ ॥ जल ते त्रिभवणु साजिआ घटि घटि जोति समोइ ॥ निरमलु मैला ना थीऐ सबदि रते पति होइ ॥३॥ इहु मनु साचि संतोखिआ नदरि करे तिसु माहि ॥ पंच भूत सचि भै रते जोति सची मन माहि ॥ नानक अउगण वीसरे गुरि राखे पति ताहि ॥४॥१५॥ {पन्ना 19-20} उच्चारण: सिरी राग महला १॥ तन जल बल माटी भया मन माया मोह मनूर॥ अउगण फिर लागू भऐ कूर वजावै तूर॥ बिन सबदै भरमाईअै दुबिधा डोबे पूर॥१॥ मन रे, सबद तरहु चित लाय॥ जिन गुरमुख नाम न बूझिआ मर जनमै आवै जाय॥१॥ रहाउ॥ तन सूचा सो आखीअै जिस महि साचा नाउ॥ भै सच राती देहुरी जिहवा सच सुआउ॥ सची नदरि निहालिअै बहड़ि न पावै ताउ॥२॥ साचे ते पवना भया पवनै ते जल होय॥ जल ते त्रिभवण साजिआ घट घट जोत समोय॥ निरमल मैला ना थीअै सबद रते पत होय॥३॥ इह मन साच संतोखिआ नदर करे तिस माहि॥ पंच भूत सच भै रते जोत सची मन माहि॥ नानक अउगुण वीसरे गुर राखे पति ताहि॥४॥१५॥ पद्अर्थ: मोहि = मोह में। मनूर = जला हुआ लोहा, लोहे की मैल, जंग लगा। फिरि = फिर भी। लागू = वैरी। कूरि = झूठ में (मस्त रह के)। तूर = बाजा (विकारों का)। भरमाईअै = भटकनों में पड़ा रहता है। दुबिधा = दो चित्ता पन। पूर = सारा परिवार (सारे ज्ञानेन्द्रिये)।1। सबदि = (गुरू के) शबद में। जिनि = जिस मनुष्य ने। गुरमुखि = गुरू की शरण पड़ के।1। रहाउ। सूचा = स्वच्छ, पवित्र। भै = भय, निर्मल डर में, अदब में। सचि = सदा स्थिर प्रभू की याद में। राती = रति हुई, रंगी हुई। देहुरी = सुंदर देह। सचु = सदा स्थिर प्रभू का नाम। सुआउ = स्वार्थ, मनोरथ। निहालिअै = देखा जाता है। न पावै ताउ = गरमी नहीं बर्दाश्त करता।2। साचे ते = सदा स्थिर रहने वाले परमात्मा से। पवनै ते = पवन से। त्रिभवणु = सारा जगत (तीनों भवन)। साजिआ = रचा गया। समोइ = समाई हुई है। सबदि रते = गुर शबद में रंगे रह के।3। पंच = भूत = पाँचों तत्व, सारा शरीर। गुरि = गुरू ने। ताहि = उसकी।4। अर्थ: हे (मेरे) मन! गुरू केशबद में चित्त जोड़ (और इस तरह संसार समुंदर के विकारों से) पार लांघ। जिस मनुष्य ने गुरू की शरण पड़ कर परमात्मा के नाम के साथ सांझ नहीं डाली, वह मरता है पैदा होता है, पैदा होता है मरता है।1। रहाउ। (जिस ने नाम नहीं सिमरा, उसका) शरीर (विकारों में ही) जल के मिट्टी हो जाता है (व्यर्थ चला जाता है)। उसका मन माया के मोह में फंस के (मानो) जला हुआ लोहा बन जाता है। फिर भी विकार उसकी खलासी नहीं करते, वह अभी भी झूठ में मस्त रह के (माया के मोह का) बाजा बजाता है। गुरु शबद से वंचित रह के वह भटकता रहता है। दुबिधा उस मनुष्य के (ज्ञानंन्द्रियों के) सारे ही परिवार को (मोह के समुंद्र में) डुबा देती है।1 जो सुंदर शरीर परमात्मा के अदब-प्यार में परमात्मा की याद में रंगा रहता है, जिसकी जीभ को सिमरन ही (अपने अस्तित्व का) असल उद्देश्य प्रतीत होता है, जिस शरीर में अडोल प्रभू का नाम टिका रहता है वही शरीर पवित्र कहला सकता है। जिस पे प्रभू के मेहर की नजर होती है, वह बार-बार (चौरासी के चक्कर की कुठाली में पड़ के) तपशनहीं सहता।2। गुरू के शबद में रंगे हुए को (लोक-परलोक) आदर मिलता है वह सदा पवित्र रहता है। उसे विकारों की मैल नहीं लगती। (उसे ये यकीन बना रहता है कि) परमात्मा से (सूक्ष्म तत्व) पवन बनी, पवन से जल अस्तित्व में आया, जल से ये सारा जगत रचा गया, (तथा, इस रचे संसार के) हरेक घट में परमात्मा की ज्योति समाई हुई है।3। हे नानक! जिस मनुष्य की गुरू ने रक्षा की, उसको (लोक-परलोक) में इज्जत मिली। विकार उस से परे हट गये, उसका मन अडोल प्रभू में टिक के संतोष की धारणी हो जाता है। उस पे प्रभू की मेहर की नजर बनी रहती है। उसका सारा शरीर प्रभू की याद में प्रभू के अदब में रंगा रहता है। सदा स्थिर प्रभू की ज्योति सदा उसके मन में टिकी रहती है।4।15। सिरीरागु महला १ ॥ नानक बेड़ी सच की तरीऐ गुर वीचारि ॥ इकि आवहि इकि जावही पूरि भरे अहंकारि ॥ मनहठि मती बूडीऐ गुरमुखि सचु सु तारि ॥१॥ गुर बिनु किउ तरीऐ सुखु होइ ॥ जिउ भावै तिउ राखु तू मै अवरु न दूजा कोइ ॥१॥ रहाउ ॥ आगै देखउ डउ जलै पाछै हरिओ अंगूरु ॥ जिस ते उपजै तिस ते बिनसै घटि घटि सचु भरपूरि ॥ आपे मेलि मिलावही साचै महलि हदूरि ॥२॥ साहि साहि तुझु समला कदे न विसारेउ ॥ जिउ जिउ साहबु मनि वसै गुरमुखि अम्रितु पेउ ॥ मनु तनु तेरा तू धणी गरबु निवारि समेउ ॥३॥ जिनि एहु जगतु उपाइआ त्रिभवणु करि आकारु ॥ गुरमुखि चानणु जाणीऐ मनमुखि मुगधु गुबारु ॥ घटि घटि जोति निरंतरी बूझै गुरमति सारु ॥४॥ गुरमुखि जिनी जाणिआ तिन कीचै साबासि ॥ सचे सेती रलि मिले सचे गुण परगासि ॥ नानक नामि संतोखीआ जीउ पिंडु प्रभ पासि ॥५॥१६॥ उच्चारण: सिरी राग महला १॥ नानक बेड़ी सच की तरीअै गुर वीचार॥ इक आवहि इक जावही पूर भरे अहंकार॥ मनहठ मती बूडीअै गुरमुख सच सु तार॥१॥ गुर बिन किउ तरीअै सुख होय॥ जिउ भावै तिउ राख तू मै अवर न दूजा कोय॥१॥ रहाउ॥ आगै देखउ डउ जलै पाछे हरिओ अंगूरु ॥ जिसते उपजै तिस ते बिनसै घट घट सच भरपूर॥ आपे मेल मिलावही साचै महल हदूर॥२॥ साह साह तुझ संमला कदे न विसारेउ॥ जिउ जिउ साहिब मन वसै गुरमुख अंम्रित पेउ॥ मन तन तेरा तू धणी गरब निवार समेउ॥३॥ जिन ऐह जगत उपाया त्रिभवण कर आकार॥ गुरमुख चानण जाणीअै मनमुख मुगध गुबार॥ घट घट जोत निरंतरी बूझै गुरमत सार॥४॥ गुरमुख जिनी जाणिआ तिन कीचै साबास॥ सचे सेती रल मिले सचे गुण परगास॥ नानक नाम संतोखीआ जीउ पिंड प्रभ पास॥५॥१६॥ पद्अर्थ: नानक = हे नानक! सच = सदा स्थिर प्रभू का नाम सिमरन। गुर वीचारि = गुरू की बताई विचार के द्वारा, गुरू के बताए उपदेश का आसरा ले के। इकि = अनेकों जीव। पूर = बेअंत जीव (भरी हुई नाव के सारे मुसाफिरों के समूह को ‘पूर’ कहते हैं)। भरे अहंकारि = अहंकार से भरे हुए, अहंकारी। मन हठि = मन के हठ में। मन हठि मती = हठ बुद्धि से, अपनी अक्ल के हठ पे चलने से। गुरमुखि = वह मनुष्य जो गुरू का आसरा लेता है। तारि = तैरा लेता है,तैराना।1। किउ तरीअै = नहीं तैरा जा सकता।1। रहाउ। आगै = सामने की ओर। डउ = जंगल की आग। डउ जले = मसाणों की आग जल रही है,बेअंत जीव मर रहे हैं। हरिओ अंगूर = हरे नए नए कोमल पौधे, नवजन्मा बच्चा। जिस ते = जिस परमात्मा से। सचु = सदा-स्थिर प्रभू। मिलावही = (हे प्रभू!) तू मिला लेता है। महलि = महल में।2। साहि = साँस से। साहि साहि = हरेक साँस से। संमला = संमलां, मैं याद करूँ। मनि = मन में। पेउ = पीऊँ, मैं पीऊँ। धणी = मालिक, खसम। गरबु = अहंकार। निवारि = दूर करके। समेउ = समा जाऊँ, लीन रहूँ।3। जिनि = जिस (प्रभू) ने। त्रिभवणु = तीनों भवन। आकारु = दिखता जगत। चानणु = जोति-रूप् प्रभू। मुगधु = मूर्ख। गुबार = अंधेरा। निरंतरि = (निर+अंतर) निर = अंतर, अंतर = दूरी, दूरी के बिना, एकरस। सारु = असलीयत।4। गुरमुखि = गुरू के द्वारा, गुरू की शरण पड़ के। कीचै = की जाती है, मिलती है। सेती = नाल। सचे गुण = सदा स्थिर रहने वाले प्रभू के गुण। नामि = नाम में (जुड़ के)। संतोखीआ = आत्मिक शांति प्राप्त होती है। जीउ = जीवात्मा। पिंड = शरीर। प्रभ पासि = प्रभू के हवाले करते (हैं)।5। अर्थ: हे नानक! (संसार एक अथाह समुंद्र है) अगर गुरू की शिक्षा पर चल के सिमरन की किश्ती बना लें तो (इस संसार समुंद्र से) पार हो सकते हैं। पर अनेकों ही अहंकारी जीव है (जो अपनी ही अक्ल पे गर्व में रहके कुराहे पड़ के) पैदा होते हैं और मरते हैं (जनम मरन के चक्रव्यूह में फंसे रहते हैं) अपनी अक्ल के हठ पर चलने से (संसार समुंद्र के विकारों में) मनुष्य डूबता ही है। जो मनुष्य गुरू की राह पर चलता है उस को परमात्मा पार लंघा लेता है।1। गुरू की शरण के बिना ना ही (इस संसार समुंद्र से) पार लांघ सकते है, ना ही आत्मिक आनंद ही मिलता है। (इस वास्ते, हे मन! प्रभू दर पे अरदास कर और कह– हे प्रभू!) जैसे भी हो सके तू मुझे (गुरू की शरण में) रख, (इस संसार सागर से पार लंघाने के वास्ते) मुझे कोई और (आसरा) नहीं सूझता।1। (जगत एक जंगल के समान है जिस में आगे आगे तो आग लगी हुई है जो पले पलाए बड़े बड़े वृक्षों को जलाती जा रही है; और पीछे पीछे नये नये कोमल पौधे उगते जा रहे हैं), पीछे पीछे नये कोमल बच्चे पैदा होते आ रहे हैं। जिस परमात्मा से यह जगत पैदा होता जाता है, उसी के (हुकम) अनुसार नाश भी होता रहता है। और, सदा स्थिर प्रभू हरेक शरीर में प्रचुर लबा-लॅब भरपूर है। हे प्रभू! तू खुद ही जीवों को अपने चरणों में जोड़ता है, तू खुद ही अपने सदा स्थिर महल में हजूरी में रखता है।2। (हे प्रभू ! मेहर कर) मैं हरेक साँस के साथ तुझे याद करता रहूँ, तुझे कभी भी ना भुलाऊँ। (हे भाई! अगर मालिक प्रभू की मेहर हो तो) गुरू की शरण पड़ के (वह) ज्यों-ज्यों मालिक (मेरे) मन में बसता जाए, और मैं आत्मिक जीवन देने वाला (उसका) नाम-जल पीता रहूँ। (हे प्रभू! मेरा) मन (मेरा) तन, तेरा ही दिया हुआ है, तू ही मेरा मालिक है। (मेहर कर, मैं अपने अंदर से) अहंकार दूर करके (तेरी याद में) लीन रहूँ।3। जिस (ज्योति-स्वरूप प्रभू) ने यह जगत पैदा किया है, ये त्रिभवणी स्वरूप बनाया है, गुरू की शरण पड़ने से उस ज्योति से सांझ बनाई जा सकती है (उससे संपर्क साधा जा सकता है)। पर अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य को ये ज्याति नहीं दिखती, उसे तो आत्मिक अंधकार ही अंधकार है। (यद्यपि) ईश्वरीय-ज्योति हरेक शरीर में एकरस व्यापक है, (पर) गुरू के मार्ग दर्शन से ही (गुरू की मति लेने से ये) असलियत समझी जा सकती है। जिन मनुष्यों ने गुरू की शरण पड़ के सर्व-व्यापी ज्योति से सांझ बना ली, उन्हें साबाश मिलती है। वे सदा स्थिर प्रभू के साथ ऐक-मेक हो जाते हैं, सदा स्थिर प्रभू के गुण उनमें अंकुरित हो उठते हैं। हे नानक! नाम में जुड़ के वे मनुष्य आत्मिक शांति का आनंद लेते हैं, वे अपनी जीवात्मा अपना शरीर प्रभू के हवालेकिए रहते हैं।5।16। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |