श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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सिरीरागु महला १ ॥ सुणि मन मित्र पिआरिआ मिलु वेला है एह ॥ जब लगु जोबनि सासु है तब लगु इहु तनु देह ॥ बिनु गुण कामि न आवई ढहि ढेरी तनु खेह ॥१॥ मेरे मन लै लाहा घरि जाहि ॥ गुरमुखि नामु सलाहीऐ हउमै निवरी भाहि ॥१॥ रहाउ ॥ सुणि सुणि गंढणु गंढीऐ लिखि पड़ि बुझहि भारु ॥ त्रिसना अहिनिसि अगली हउमै रोगु विकारु ॥ ओहु वेपरवाहु अतोलवा गुरमति कीमति सारु ॥२॥ लख सिआणप जे करी लख सिउ प्रीति मिलापु ॥ बिनु संगति साध न ध्रापीआ बिनु नावै दूख संतापु ॥ हरि जपि जीअरे छुटीऐ गुरमुखि चीनै आपु ॥३॥ तनु मनु गुर पहि वेचिआ मनु दीआ सिरु नालि ॥ त्रिभवणु खोजि ढंढोलिआ गुरमुखि खोजि निहालि ॥ सतगुरि मेलि मिलाइआ नानक सो प्रभु नालि ॥४॥१७॥ {पन्ना 20}

उच्चारण: सिरी रागु महला १॥ सुण मन मित्र पिआरिआ, मिल, वेला है ऐह॥ जब लग जोबन सास है तब लग इह तन देह॥ बिन गुण काम न आवई ढहि ढेरी तन खेह॥१॥ मेरे मन, लै लाहा घर जाहि॥ गुरमुख नाम सलाहीअै हउमै निवरी भाहि॥१॥ रहाउ॥ सुण सुण गंढण गंढीअै लिख पढ़ बुझहि भार॥ त्रिसना अहि निस अगली हउमै रोग विकार॥ ओह वेपरवाह अतोलवा गुरमत कीमत सार॥२॥ लख सिआणप जे करी लख सिउ प्रीत मिलाप॥ बिन संगत साध न ध्रापीआ बिन नावै दूख संताप॥ हरि जप जीअ रे छुटीअै गुरमुख चीनै आप॥3॥ तन मन गुर पहि वेचिआ, मन दीआ, सिर नाल॥ त्रिभवण खोज ढंढोलिआ गुरमुख खोज निहाल॥ सतिगुर मेल मिलाइआ नानक सो प्रभु नाल॥४॥१७॥

पद्अर्थ: जोबनि = जवानी में। जब लग = जब तक। देह = शरीर। आवई = आए, आता। ढहि = गिर के। ढेरी खेह = राख/मिट्टी की ढेरी।1।

लाहा = लाभ। लै = लेकर। घरि = (अपने) घर में। निवरी = निरर्विति, दूर हो जाएगी। भाहि = आग।1। रहाउ।

सुणि = सुन के। गंढणु गंढीअै = गाँठे बाँधनी, व्यर्थ के यतन करने, लोगों को रिझाने वाला उद्यम करना। लिखि = लिख के। बुझहि = विचारते है। भारु = पुस्तकों का भार, बहुत पुस्तकें। अहि = दिन। निसि = रात। अगली = बहुत। अतोलवा = जो तौला ना जा सके। जिसके बराबर ना ढूँढा जा सके। सारु = संभाल, समझ के। कीमति = कद्र।2।

करी = करना, मैं करूँ। सिउ = साथ। ध्रापीआ = भूख मिटती, तसल्ली होती। बिनु नावै = प्रभु का नाम जपने के बिना। संताप = कलेश। जीअ रे! = हे जीवात्मा! चीनै = पहचानता है। आपु = खुद को।3।

पाहि = पास। वेचिआ = (नाम के बदले) हवाले कर दिया। नालि = भी। खोजि = खोज के। गुरमुखि = गुरू के द्वारा। निहालि = निहालना, देख लिया। सतिगुरि = सतिगुरू ने। मेलि = (अपने चरणों में) मिला के।4।

अर्थ: हे प्यारे मित्र मन! (मेरा उपदेश) सुन। परमात्मा को मिल, (मिलने का) यही (मानव जन्म) ही समय है। जब तक जवानी में (हूँ, और) सांस चल रही है, तब तक ये शरीर काम दे रहा है। यदि प्रभू के गुण अपने अंदर ना बसाए, तो ये शरीर किस काम का? ये तो आखिर गिर के मिट्टी की ढेरी ही हो जाएगा ।1।

हे मेरे मन! (यहाँ से आत्मिक) लाभ कमा के (अपने परलोक) घर में जा। गुरू की शरण पड़ कर (यहाँ) प्रभू का नाम सलाहना चाहिए। नाम की बरकति से अहंकार की आग अंदर से मिट जाती है (आग ये कि मैं बड़ा हूँ, मैं बड़ा बन जाऊँ- बुझ जाती है)।1। रहाउ।

(पढ़े-लिखे लोग) बेअंत पुस्तकें लिख लिख के पढ़-पढ़ के विचारते हैं, (ज्ञान की बातें) सुन-सुन के लोगों की नजरों में विचारवान (दिखने का) व्यर्थ यतन करते हैं। परअंदर से दिन रात त्रिष्णा व्याप रही है। अहम् रोग, अहंकार के विकार अंदर (कायम) है। (दूसरी तरफ) वह परमात्मा (इस थोथी ज्ञान चातुर्य की) परवाह नहीं करता, (हमारे ज्ञान) उस को तौल भी नहीं सकते। (इसलिए ) गुरू की मति ले के उस की कद्र समझ।2।

यदि मैं लाख चतुराईआं करूँ, अगर मैं लाखों लोगों के साथ प्रीत करूँ, मिलाप पैदा करूँ, गुरू की संगत के बिना अंदर की तृष्णा खतम नहीं होती। प्रभू का नाम जपे बिना दुख-कलेश बना ही रहता है। हे मेरी जीवात्मा! परमात्मा का नाम जप के ही (इस तृष्णा से) मुक्ति मिल सकती है। (क्यूँकि) जो मनुष्य गुरू की शरण पड़ करनाम जपता है, वह अपने असल को पहचान लेता है।3।

जिस मनुष्य ने (नाम के बदले) अपना तन और अपना मनगुरू के हवाले कर दिया, जिसने मन हवाले किया और सिर भी हवाले कर दिया, उसने गुरू के द्वारा खोज करके उस प्रभू को (अपने अंदर ही) देख लिया, जिसको ढूँढने के लिए सारा जहान तलाश लिया था। हे नानक! शरण आए को गुरू ने अपने चरणों में जोड़ के प्रभू से मिला दिया, और वह प्रभू (अपने अंदर) अंग-संग ही दिखा दिया।4।17।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh