श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 21 सिरीरागु महला १ ॥ मरणै की चिंता नही जीवण की नही आस ॥ तू सरब जीआ प्रतिपालही लेखै सास गिरास ॥ अंतरि गुरमुखि तू वसहि जिउ भावै तिउ निरजासि ॥१॥ जीअरे राम जपत मनु मानु ॥ अंतरि लागी जलि बुझी पाइआ गुरमुखि गिआनु ॥१॥ रहाउ ॥ अंतर की गति जाणीऐ गुर मिलीऐ संक उतारि ॥ मुइआ जितु घरि जाईऐ तितु जीवदिआ मरु मारि ॥ अनहद सबदि सुहावणे पाईऐ गुर वीचारि ॥२॥ अनहद बाणी पाईऐ तह हउमै होइ बिनासु ॥ सतगुरु सेवे आपणा हउ सद कुरबाणै तासु ॥ खड़ि दरगह पैनाईऐ मुखि हरि नाम निवासु ॥३॥ जह देखा तह रवि रहे सिव सकती का मेलु ॥ त्रिहु गुण बंधी देहुरी जो आइआ जगि सो खेलु ॥ विजोगी दुखि विछुड़े मनमुखि लहहि न मेलु ॥४॥ मनु बैरागी घरि वसै सच भै राता होइ ॥ गिआन महारसु भोगवै बाहुड़ि भूख न होइ ॥ नानक इहु मनु मारि मिलु भी फिरि दुखु न होइ ॥५॥१८॥ {पन्ना 21} उच्चारण: सिरीराग महला १॥ मरणै की चिंता नही जीवण की नही आस॥ तू सरब जीआ प्रतिपालही लेखै सास गिरास॥ अंतर गुरमुख तू वसहि जिउ भावै तिउ निरजास॥१॥ जीअरे राम जपत मन मान॥ अंतर लागी जल बुझी पाया गुरमुख गिआन॥१॥ रहाउ॥ अंतर की गति जाणीअै गुर मिलीअै संक उतार॥ मुइआ जित घर जाईअै तित जीवदिआ मर मार॥ अनहद सबद सुहावणे पाईअै गुर वीचार॥२॥ अनहद बाणी पाईअै तह हउमै होए बिनास॥ सतगुर सेवे आपणा हउ सद कुरबाणै तास॥ खड़ दरगह पैनाईअै मुख हरि नाम निवास॥3॥ जह देखा तह रवि रहे सिव सकती का मेल॥ त्रिह गुण बंधी देहुरी जो आया जग सो खेल॥ विजोगी दुख विछुड़े मनमुख लहह न मेल॥४॥ मन बैरागी घर वसै सच भै राता होय॥ गिआन महारस भोगवै बाहुड़ भूख न होय॥ नानक इह मन मार मिल भी फिर दुख न होय॥५॥१८॥ पद्अर्थ: सास = साँस। गिरास = ग्रास, खाना खाते मुंह में डाला जाने वाला कौर। निरजासु = देखता है, संभाल करता है।1। जीअ रे = हे (मेरी) जीवात्मा! मानु = मनाओ। जलि = जलन। गिआनु = जान पहिचान, सांझ।1। रहाउ। गति = हालत। गुर मिलीअै = गुरू को मिलना चाहिए। संक उतारि = शंका उतार के, पूरी श्रद्धा से। जितु घरि = जिस घर में। मुइआ = मर के, आखिर को। मुइआ जितु घरि जाईअै = जिस मौत के वश अंत को पड़ना है। मरु = मौत, मौत का डर। मारि = मार लेते हैं। अनहद = (हन = मारना,चोट मारनी) बिना चोट लगाए बजने वाला, एकरस। सबदि = शबद के द्वारा। गुर वीचारि = गुरू की बताई विचार से, गुरू की शिक्षा पर चल के। अनहद बाणी = एक रस सिफत सलाह करने वाली अवस्था। बाणी = सिफत सलाह। तह = वहां,उस अवस्था में। तासु = उस से। खड़ि = ले जा के,पहुँचा के। पैनाईअै = सरोपे से आदर किया जाता है। मुखि = (जिस के) मुंह में।3। देखा = मैं देखता हूँ। रवि रहे = मशगूल हैं, व्यस्त रहता है। सिव = जीवात्मा। सकती = माया। त्रिह गुण = माया के तीनों गुणों में। बंधी = बंधी हुई। जगि = जगत में। विजोग = बिछुड़े हुए। मनमुखि = अपने मन के पीछे चलने वाला। न लहहि = नहीं लेते, ले नहीं सकते।4। बैरागी = माया से वैरागी। घरि = घर में, अपने स्वरूप में। सच भै = सच के निर्मल भय में। राता = रंगा हुआ। भोगवै = भोगता है। भूख = तृष्णा, लालच। मारि = मार के, बस में करके।5। अर्थ: हे (मेरी) जीवात्मा! (ऐसा उद्यम कर कि) प्रमात्मा का नाम सिमरते सिमरते मन (सिमरन में) पसीज जाए। गुरू की शरण पड़ के (सिमरन के द्वारा) जिस मनुष्य ने परमात्मा के साथ गहरी सांझ बना ली है, उसके अंदर की तृष्णा की जलन बुझ जाती है।1। (जो मनुष्य गुरू के संमुख रहता है, सिमरन की बरकत से उसको) मौत का डर नहीं रहता, और और लम्बी उम्र की वो आकांक्षाएं नहीं बनाता, (उसे यकीन होता है कि हे प्रभू!) तू सारे जीवों की पालना करता है, जीवों के हरेक स्वास हरेक ग्रास तेरे हिसाब में (तेरी नजर में) है। ( हे प्रभू !) गुरू के सन्मुख रहने वाले मनुष्य के अंदर तू प्रगट हो जाता है, (उसको ये यकीन बना रहता है कि) जैसे तेरी रजा है तैसे ही तू (सभ की) संभाल करता है।1। पूरी श्रद्धा के साथ गुरू की शरण पड़ जाना चाहिए, (इस तरह) अंदर बसते प्रमात्मा की समझ आ जाती है। मरने से पहले ही उस मौत का डर मर जाता है, जिस मौत के वश आखिर में पड़ना ही होता है। (पर ये अवस्था तभी) प्राप्त होती है जब गुरू की बताई शिक्षा पर चलें, और (प्रभू की सिफत सलाह वाले) सुंदर शबद में एकरस जुड़े रहें।2। जब एकरस सिफत सलाह कर सकने वाली अवस्था प्राप्त हो जाए, तो उस अवस्था में (मनुष्य के अंदर के) अहम् का नाश हो जाता है (मैं बड़ा हूँ, मैं बड़ा हो जाऊँ-ये हो खतम हो जाती है)। मैं सदा सदके हूँ उस मनुष्य के जो अपने गुरू की सेवा करता है (भाव, गुरू के बताए मार्ग पर चलता है), उसके मुंह में सदा प्रभू का नाम बसता है। उसे प्रभू की हजूरी में जा के आदर मिलता है। (पर संसार की हालत और तरह की बन रही है) मैं जिधर देखता हूँ उधर ही (मनमुख) जीव माया में मस्त हो रहे हैं। (हर तरफ) माया और जीवों का गठजोड़ बना हुआ है। मनमुखों का शरीर माया के तीन गुणों में बंधा हुआ है। अपने मन के पीछे चलने वाले जो भी जीव जगत में आयेवो यही खेल खेलते रहे। अपने मन के पीछे चलने वाले लोग परमात्मा से मिलाप हासिल नहीं कर सकते, क्योंकि वे विछुड़े हुए (सदा) बिछुड़े ही रहते हैं और हमेशा दुख पाते हैं।4। (माया से) वैरागा हुआ मन (भटकनों से बचा रह के) अपने स्वरूप में ही टिका रहता है, (क्योंकि) वह परमात्मा के अदब में रंगा रहता है। वह मन (सदा) परमात्मा के साथ गहरी सांझ का आनंद लेता है, और उसे पुनः माया की तृष्णा नहीं सताती। हे नानक! तू भी इस मन को (माया के मोह से) मार के (प्रभू चरणों में) जुड़ारह, फिर कभी (तुझे प्रभू से विछुड़ने का) संताप नहीं व्यापेगा।5।18। सिरीरागु महला १ ॥ एहु मनो मूरखु लोभीआ लोभे लगा लुोभानु ॥ सबदि न भीजै साकता दुरमति आवनु जानु ॥ साधू सतगुरु जे मिलै ता पाईऐ गुणी निधानु ॥१॥ मन रे हउमै छोडि गुमानु ॥ हरि गुरु सरवरु सेवि तू पावहि दरगह मानु ॥१॥ रहाउ ॥ राम नामु जपि दिनसु राति गुरमुखि हरि धनु जानु ॥ सभि सुख हरि रस भोगणे संत सभा मिलि गिआनु ॥ निति अहिनिसि हरि प्रभु सेविआ सतगुरि दीआ नामु ॥२॥ कूकर कूड़ु कमाईऐ गुर निंदा पचै पचानु ॥ भरमे भूला दुखु घणो जमु मारि करै खुलहानु ॥ मनमुखि सुखु न पाईऐ गुरमुखि सुखु सुभानु ॥३॥ ऐथै धंधु पिटाईऐ सचु लिखतु परवानु ॥ हरि सजणु गुरु सेवदा गुर करणी परधानु ॥ नानक नामु न वीसरै करमि सचै नीसाणु ॥४॥१९॥ {पन्ना 21} सिरीरागु महला १॥ ऐह मनो मूरख लोभीआ लोभे लगा लोभान॥ सबद न भीजै साकता दुरमत आवन जान॥ साधू सतिगुर जे मिलै ता पाईअै गुणी निधान॥१॥ मन रे, हउमै छोड गुमान॥ हरि गुर सरवर सेव तू, पावह दरगह मान॥१॥ रहाउ॥ राम नाम जप दिनस रात गुरमुख हर धन जान॥ सभ सुख हरि रस भोगणे संत सभा मिल गिआन॥ नित अहनिस हरि प्रभ सेविआ सतगुर दीआ नाम॥२॥ कूकर कूड़ कमाईअै गुर निंदा पचै पचान॥ भरमे भूला दुख घणों जम मार करै खुलहान॥ मनमुख सुख न पाईअै गुरमुख सुख सुभान॥३॥ अैथै धंध पिटाईअै सच लिखत परवान॥ हरि सजण गुर सेवदा गुर करणी परधान॥ नानक नाम न वीसरै करम सचै नीसाण॥४॥१९॥ (पन्ना २१) पद्अर्थ: लोभे = लोभ में ही। मनो = मन। सबदि = शबद में। न भीजै = पतीजता नहीं। साकता = माया में लिप्त। दुरमति = बुरी मति के कारण। आवनु जानु = जनम मरन का चक्र। साधू = गुरू। गुणी निधानु = गुणों का खजाना, परमात्मा। लुोभानु: अक्षर ‘ल’ के साथ दो मात्राएं हैं– ‘ु’ और ‘ो’ । असल शब्द ‘लोभानु’ है, पर यहां तुक की चाल ठीक करने के लिए ‘ो’ की जगह ‘ु’ का इस्तेमाल करके ‘लुभान’ पढ़ना है। सरवरु = श्रेष्ठ तालाब।1। रहाउ। गुरमुखि = गुरू के चरण पड़ के। जानु = पहचान, सांझ डाल। सभि = सारे। मिलि = मिल के। गिआनु = गहरी सांझ। अहि = दिन। निसि = रात। सतिगुरि = सतिगुर ने।2। कूकर = कुत्ता। पचै = खुआर होता है। पचै पचानु = हर वक्त खुआर ही होता रहता है, पचता ही पचता है। घणों = बहुत। मारि = मार मार के। खुलहानु करै = (जैसे खलियान में किसान कूट कूट के धान का छिलका निकालाता है उसका), भोह/भूसा कर देता है। खुलहानु = खुलना, गहरी अप्रगट चोटें मारनी। सुभानु = सुबहान, आश्चर्य।3। अैथै = इस लोक में, इस जनम में। धंधु = जंजाल। धंधु पिटाईअै = दुनिया के ही जंजालों में ही खचित रहते हैं। गुर करणी = गुरू वाली करनी। परधानु = श्रेष्ठ। करमि = बख्शिश से। करमि सचै = सदा स्थिर प्रभू की मेहर से। नीसाणु = परवाना, लेख। अर्थ: हे (मेरे) मन! मैं (ही चतुर सुजान) हूँ, मैं (ही चतुर सुजान) हूँ- यह अहंकार छोड़, और परमात्मा रूप गुरू की शरण पड़ जो (आत्मा को पवित्र करने वाला) सरोवर है। (इस तरह) प्रभू की हजूरी में आदर हासल करेगा।1। रहाउ। पर माया में लिप्त मनुष्य का ये मन मूर्ख है लालची है, हर वक्त लोभ में फंसा रहता है। गुरू के शबद में इसकी रुचि ही नहीं बनती। इस कुमति के कारण जनम मरन का चक्र बना रहता है। अगर इसे गुरू सतिगुरू मिल जाए, तो गुणों का खजाना प्रभू इसे मिल जाता है।1। हे मन! प्रमात्मा का नाम दिन रात जपा कर। गुरू की शरण पड़ के हरि नाम धन की कद्र समझ। साध-संगति में मिल के हरि-नाम के साथ सांझ डाल, सारे आत्मिक आनन्द प्राप्त हो जाएंगे। (पर जिसको) सतिगुरू ने नाम की दात बख्शी, उसी ने सदा दिन-रात हरि प्रभू का सिमरन किया है।2। जो मनुष्य अपने लोभी मन के पीछे चलता हैवह कुत्तों की तरह (टुकड़े-टुकड़े के वास्ते दर दर भटकता) है, वह सदा माया वाली दौड़-भाग ही करता है। (यहां तक नीचे गिर जाता है कि) गुरू की निंदा में हर वक्त खुआर होता है। माया वाली भटकन में गलत रास्ते पर पड़ता है, बहुत दुख पाता है, (आखिर) यमराज उसे गहरी मार मार के उसका भूसा बना देता है। अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य कभी सुख नहीं पाता, पर गुरू की शरण में पड़ते सार ही आश्चर्यजनक आत्मिक आनन्द की प्राप्ति होती है। (लोभी मनुष्य) इस लोक में दुनिया के जंजालों में खचित रहता है, (पर प्रभू की हजूरी में) सिमरन का लेखा कबूल होता है। गुरू असल मित्र परमात्मा का सिमरन करता है (और औरों को भी यही प्रेरणा करता है)। गुरू वाली ये करनी (दरगाह में) प्रवान है मानी जाती है। हे नानक! सदा कायम रहने वाले प्रभू की मेहर से (जिस मनुष्य के मस्तक पे) लेख उघड़ता है उसे कभी प्रभू का नाम नहीं भूलता।4।19। सिरीरागु महला १ ॥ इकु तिलु पिआरा वीसरै रोगु वडा मन माहि ॥ किउ दरगह पति पाईऐ जा हरि न वसै मन माहि ॥ गुरि मिलिऐ सुखु पाईऐ अगनि मरै गुण माहि ॥१॥ मन रे अहिनिसि हरि गुण सारि ॥ जिन खिनु पलु नामु न वीसरै ते जन विरले संसारि ॥१॥ रहाउ ॥ जोती जोति मिलाईऐ सुरती सुरति संजोगु ॥ हिंसा हउमै गतु गए नाही सहसा सोगु ॥ गुरमुखि जिसु हरि मनि वसै तिसु मेले गुरु संजोगु ॥२॥ काइआ कामणि जे करी भोगे भोगणहारु ॥ तिसु सिउ नेहु न कीजई जो दीसै चलणहारु ॥ गुरमुखि रवहि सोहागणी सो प्रभु सेज भतारु ॥३॥ चारे अगनि निवारि मरु गुरमुखि हरि जलु पाइ ॥ अंतरि कमलु प्रगासिआ अम्रितु भरिआ अघाइ ॥ नानक सतगुरु मीतु करि सचु पावहि दरगह जाइ ॥४॥२०॥ {पन्ना 21-22} उच्चारण: सिरी राग महला १॥ इक तिल पिआरा वीसरै रोग वडा मन माहि॥ किउ दरगह पत पाईअै जा हरि न वसै मन माहि॥ गुर मिलिअै सुख पाईअै अगन मरै गुण माहि॥१॥ मन रे अहि निस हरि गुण सार॥ जिन खिन पल नाम न वीसरै, ते जन विरले संसार॥१॥ रहाउ॥ जोती जोत मिलाईअै सुरती सुरत संजोग॥ हिंसा हउमै गत गए नाही सहसा सोग॥ गुरमुख जिस हरि मन वसै तिस मेले गुर संजोग॥२॥ काया कामण जे करी भोगे भोगणहार॥ तिस सिउ नेह न कीजई जो दीसै चलणहार॥ गुरमुख रवह सोहागणी सो प्रभ सेज भतार॥३॥ चारे अगन निवार मर, गुरमुख हरि जल पाय॥ अंतर कमल प्रगासिआ अंम्रित भरिआ अघाय॥ नानक, सतिगुर मीत कर सच पावहि दरगह जाय॥४॥२0॥ पद्अर्थ: इकु तिलु = रत्ती भर समय भी। माहि = में। पति = इज्जत। गुरि मिलिअै = अगर गुरू मिल जाए। अगनि = तृष्णा की आग।1। अहि निसि = दिन रात। सारि = संभाल, याद कर। जिन = जिन लोगों को (नोट: शब्द ‘जिन’ बहुवचन है, इसका एकवचन ‘जिनि’ है, जिसका अर्थ है–जिसने)। ते जन = वे लोग।1। रहाउ। जोती = ज्योति का मालिक हरि। सुरती = सुरति का मालिक प्रभू। हिंसा = निर्दयता। गतु = (धातु ‘गम’ का भूतकाल। गम = जाना) बीता हुआ। गतु गए = पूर्ण तौर पे दूर हो गए। मनि = मन में। संजोगु = अवसर, मौका।2। कामणि = स्त्री। काइआ = काया,शरीर। करी = मैं करूँ। न कीजई = नहीं करना चाहिए। रवहि = रति रहना, मिलाप का सुख पाती हैं। सोहागणी = भाग्यशाली जीव-सि्त्रयां। सेज भतारु = (हृदय) सेज का पति।3। चारे अगनि = चारों अग्नियां (हंस, हेतु, लोभ तथा कोप अग्नि) निर्दयता, मोह, लोभ व क्रोध। प्रगासिआ = खिलता है। अघाइ = पेट भर के, पूरे तौर पे।4। अर्थ: हे (मेरे) मन! दिन रात (हर समय) परमात्मा के गुण याद करता रह। जगत में वे (भाग्यशाली) मनुष्य कम ही होते हैं जिन को प्रभू का नाम छिनमात्र भी नहीं भूलता।1। रहाउ। (ऐसे भाग्यशाली लोगों को) जो रत्ती भर समय के लिए भी प्रीतम प्रभू विसर जाए, तो वह अपने मन में बड़ा रोग (पैदा हो गया समझते हैं)। (वैसे भी) यदि परमात्मा के नाम मन में ना बसे, तो परमात्मा की दरगाह में इज्जत नहीं मिल सकती। अगर गुरू मिल जाए (तो वह प्रभू की सिफत सलाह की दात देता है, इसकी बरकत से) आत्मिक आनंद प्राप्त होता है (क्योंकि) सिफत सलाह में जुड़ने से तृष्णा की आग बुझ जाती है।1। अगर प्रभू की ज्योति में अपनी जीवात्मा मिला दें, उस में अपनी सुरति का मेल कर दें तो कठोरता और अहम् दूर हो जाते हैं, कोई सहम व चिंता भी नहीं रह जाती। गुरू की शरण में पड़ कर जिस मनुष्य के मन में प्रभू की याद टिकती है, गुरू उसको परमात्मा के साथ मिलने का पूरा अवसर प्रदान करता है।2। जैसे स्त्री अपने आप को अपने पति के हवाले करती है, वैसे ही मैं काया को स्त्री बनाऊँ, काया स्त्री (भाव, ज्ञानेन्द्रियों ) को प्रभू की ओर करूँ, तो प्रभू पति का मिलाप हो। इस शरीर से इतना मोह नहीं करना चाहिए (कि इसे विकारों की ओर आजादी मिली रहे), यह तो प्रत्यक्ष तौर पर नाशवंत है। गुरू के राह पर चलने वाली जीव-सि्त्रयां प्रभू को सिमरती हैं, और वह प्रभू उनके हृदय सेज पर बैठता है।3। हे नानक! गुरू के द्वारा नाम जल प्राप्त कर के (हृदय में) सुलग रहीं चारों अग्नियों को बुझा के (तृष्णा की ओर से) मर जा। (इस तरह) तेरे अंदर (हृदय) कमल खिल जाएगा। (तेरे हृदय में) आत्मिक जीवन देने वाला नाम-जल भर जाएगा। गुरू को मित्र बना, यकीनी तौर पे परमात्मा की हजूरी प्राप्त कर लेगा।4।20। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |