श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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सिरीरागु महला १ ॥ वणजु करहु वणजारिहो वखरु लेहु समालि ॥ तैसी वसतु विसाहीऐ जैसी निबहै नालि ॥ अगै साहु सुजाणु है लैसी वसतु समालि ॥१॥ भाई रे रामु कहहु चितु लाइ ॥ हरि जसु वखरु लै चलहु सहु देखै पतीआइ ॥१॥ रहाउ ॥ जिना रासि न सचु है किउ तिना सुखु होइ ॥ खोटै वणजि वणंजिऐ मनु तनु खोटा होइ ॥ फाही फाथे मिरग जिउ दूखु घणो नित रोइ ॥२॥ खोटे पोतै ना पवहि तिन हरि गुर दरसु न होइ ॥ खोटे जाति न पति है खोटि न सीझसि कोइ ॥ खोटे खोटु कमावणा आइ गइआ पति खोइ ॥३॥ नानक मनु समझाईऐ गुर कै सबदि सालाह ॥ राम नाम रंगि रतिआ भारु न भरमु तिनाह ॥ हरि जपि लाहा अगला निरभउ हरि मन माह ॥४॥२३॥ {पन्ना 23}

उच्चारण: सिरी राग महला १॥ वणज करहु वणजारिहो वखर लेह समाल॥ तैसी वसतु विसाहीअै जैसी निबहै नाल॥ अगै साह सुजाण है लैसी वसत समाल॥१॥ भाई रे, राम कहहु चित लाय॥ हरि जस वखर लै चलहु सहु देखै पतीआय॥१॥ रहाउ॥ जिना रास न सच है किउ तिना सुख होय॥ खोटे वणज वणंजिअै मन तन खोटा होय॥ फाही फाथे मिरग जिउ दूख घणो नित रोय॥२॥ खोटे पोतै न पवह तिन हरि गुर दरस न होय॥ खोटै जात न पत है खोट न सीझस कोय॥ खोटे खोट कमावणा आय गया पति खोय॥३॥ नानक मन समझाईअै गुर कै सबद सालाह॥ राम नाम रंग रतिआ भार न भरम तिनाह॥ हरि जप लाहा अगला निरभउ हरि मन माह॥४॥२३॥

पद्अर्थ: वणजारा = वणज करने वाला, व्यापारी (आम तौर पे वणजारे घूम फिर के गांव-गांव में सौदा बेचते हैं। जीव को वणजारा कहा गया है क्योंकि यहां इसने सदा नहीं बैठे रहना)। वखरु = सौदा। विसाहीअै = खरीदनी चाहिए। साहु = शाहूकार (जिस ने राशि पूँजी देकर वणजारे भेजे हैं)। सुजाणु = सुजान, सिआने। समालि लैसी = संभाल के लेगा, परख के लेगा।1।

जसु = शोभा। सहु = खसम, प्रभू। पतिआइ = तसल्ली करके।1। रहाउ।

खोटै = खोटे से। खोटै वणजि = खोटे व्यापार से। वणंजिअै = व्यापार करें। मिरग = हिरन। घणों = बहुत। रोइ = रोता है, दुखी होता है।

खोटे = खोटे (सिक्के)। पोतै = खजाने में। गुर दरसु = गुरू का दर्शन। खोटि = खोट के द्वारा। न सीझसि = कामयाब नहीं होता। खोटु कमावणा = खोटा काम ही करना। खोइ = गवा के।3।

सबदि सालाह = सिफति सलाह वाले शबद द्वारा। रंगि = रंग में। भारु = बोझ। भरमु = भटकन। जपि = जप के। अगला लाहा = बहुत नफा। मन माह = मन में।4।

(नोट: शब्द ‘सालाह’, ‘तिनाह’ के साथ मिलाने के लिए ‘माहि’ की जगह ‘माह’ है)।

अर्थ: हे (राम नाम का) व्यापार करने आए जीवो! (नाम का) व्यापार करो, नाम सौदा संभाल लो। वैसा सौदा ही खरीदना चाहिए जो सदा के लिए साथ निभाए। परलोक में बैठा शाहूकार सुजान है वह (हमारे खरीदे हुए) सौदे की पूरी परख करके कबूल करेगा।1।

हे भाई! चित्त लगा के (प्रेम सहित) परमात्मा का नाम जपो। (यहां से अपने साथ) परमात्मा की सिफत सलाह का सौदाले के चलो, प्रभू पति खुश हो के देखेगा।1। रहाउ।

जिन लोगों के पास सदा कायम रहने वाले प्रभू के नाम की पूँजी नहीं, उन्हें कभी आत्मिक आनन्द नहीं मिल सकता। अगर नित्य खोटा व्यापार ही करते रहें तो मन भी खोटा हो जाता है तथा शरीर भी खोटा (भाव, खोट मनुष्य के अंदर रच जाता है)। जैसे, जाल में फंसा हुआ हिरन दुखी होता है, वैसे ही (खोट की फाही में फस के) जीव को बहुत दुख होता है, वह नित्य दुखी होता है।2।

खोटे सिक्के (सरकारी) खजाने में नहीं लिए जाते (वैसे ही खोटे बंदे दरगाह में आदर नहीं पाते) उन्हें हरि का गुरू का दीदार नहीं होता। खोटे मनुष्य की असलियत ठीक नहीं होती। खोटे को इज्जत नहीं मिलती। खोट करने से कोई जीव (आत्मिक जीवन में) कामयाब नहीं हो सकता। खोटे मनुष्य ने सदा खोट ही कमाना है। (उसे खोट कमाने की आदत बन जाती है)। वह अपनी इज्जत गवा के सदा जन्मता मरता रहता है।3।

हे नानक! परमात्मा की सिफत सलाह वाले गुर-शबद के द्वारा अपने मन को समझाना चाहिए। जो लोग परमात्मा के नाम के प्यार में रंगे रहते हैं, उनको खोटे कामों का भार सहना नहीं पड़ता। उनका मन खोटे कामों की ओर नहीं दौड़ता। परमात्मा का नाम जप के बहुत सारा आत्मिक लाभ कमा लेते हैं, और वह प्रभू जो निरभय है, जो किसी डर के अधीन नहीं, मन में आ बसता है।4।23।

सिरीरागु महला १ घरु २ ॥ धनु जोबनु अरु फुलड़ा नाठीअड़े दिन चारि ॥ पबणि केरे पत जिउ ढलि ढुलि जुमणहार ॥१॥ रंगु माणि लै पिआरिआ जा जोबनु नउ हुला ॥ दिन थोड़ड़े थके भइआ पुराणा चोला ॥१॥ रहाउ ॥ सजण मेरे रंगुले जाइ सुते जीराणि ॥ हं भी वंञा डुमणी रोवा झीणी बाणि ॥२॥ की न सुणेही गोरीए आपण कंनी सोइ ॥ लगी आवहि साहुरै नित न पेईआ होइ ॥३॥ नानक सुती पेईऐ जाणु विरती संनि ॥ गुणा गवाई गंठड़ी अवगण चली बंनि ॥४॥२४॥ {पन्ना 23}

उच्चारण: सिरी राग महला १ घरु २॥ धन जोबन अर फुलड़ा नाठीअड़े दिन चार॥ पबण केरे पत जिउ ढल ढुल जुंमणहार॥१॥ रंग माण लै पिआरिआ जा जोबन नउहुला॥ दिन थोड़ड़े थके, भया पुराणा चोला॥१॥ रहाउ॥ सजण मेरे रंगुले जाय सुते जीराण॥ हंभी वंञां डुमणी रोवां झीणी बाण॥२॥ की न सुणेही गोरीऐ आपण कंनी सोय॥ लगी आवहि साहुरै नित न पेईआ होय॥३॥ नानक सुती पेईअै, जाण विरती संन॥ गुणां गवाई गंठड़ी अवगण चली बंन॥४॥२४॥

पद्अर्थ: अरु = और।

(नोट: शब्द ‘अरु’ जिसके बाद में ‘ु’ की मात्रा है इसका अर्थ है: और। जबकि शब्द ‘अरि’ के अंत में मात्रा है ‘ि’उसका अर्थ है ‘वैरी’)।

फुलड़ा = सुंदर सा फूल। नाठीअड़े = मेहमान, पराहुणे। पबणि = पानी के किनारे उगी हुई बनस्पति। केरे = के। पत = पत्र (बहुवचन)। ढलि ढुलि = कुम्हला के, सूख के। जुंमणहार = (सिंधी शब्द) चले जाने वाले, नाशवंत।1।

रंगु = आत्मिक आनंद। जा = जब तक। नउहुला = नये हुलारे वाला, नवयौवन। थके = रह गए। चोला = शरीर।1। रहाउ।

रंगुले = प्यारे। जीराणि = कब्रिस्तान में। हंभी = हम भी। वंझा = जाऊँगी। डुमनी = दु+मनी, दो मन, दुचित्ती में हो के। रोवा = रोती हूँ। झीणी = मध्यम, धीमी। बाणि = बाणी, आवाज।2।

गोरीऐ = हे सुंदर जीव स्त्री! आनण कंनी = अपने कानों से, ध्यान से। सोइ = खबर। लगी आवहि = जरूर आएगी। पेईआ = पिता का घर, यह जगत।3।

सुती = गाफल, बेपरवाह हो रही। पेईअै = पेके घर में। जाण = समझ। विरती = वि+रात्रि, रात के उट, दिन दिहाड़े। गंठड़ी = छोटी सी पोटली। बंनि = बांध के, इकट्टे करके। संनि = सेंध, दीवार भेद कर चोरी के लिए रास्ता।4।

अर्थ: धन, जवानी और छोटा सा फूल- ये चार दिनों के ही मेहमान होते हैं। जैसे बनस्पति के पत्ते पानी के ढल जाने के बाद सूख के नाश हो जाते हैं, ऐसे ही ये भी नाश हो जाते हैं।1।

हे प्यारे! जब तक नई जवानी हैतब तक आत्मिक आनन्द ले ले। जब उम्र के दिन थोड़े रह गए, शारीरिक चोला पुराणा हो जाएगा (फिर सिमरन नहीं हो सकेगा)।1। रहाउ ।

मेरे प्यारे सज्जन कब्रिस्तान में जा के सो गए हैं, (मैं उनके विजोग में) धीमी आवाज में रो रही हूँ (पर मुझे ये समझ नहीं आ रही कि) मैं भी दुचित्ती में हो के (उधर को ही) चल पड़ूंगी।2।

हे सुंदर जीव स्त्री! तू ध्यान से ये खबर क्यूँ नहीं सुनती कि पेका घर (इस लोक का बसेवा) सदा नहीं रह सकता, सहुरे घर (परलोक में) जरूर जाना पड़ेगा।3।

हे नानक! जो जीव स्त्री पेके घर (इस लोक में गफ़लत की नींद) सोई रही, ऐसे जानों कि (उसके गुणों को) दिन दिहाड़े ही सेंध लगी रही। उसने गुणों की गठड़ी गवा ली। वह (यहां से) अवगुणों की गठड़ी बांध के ले चली।4।24।

सिरीरागु महला १ घरु दूजा २ ॥ आपे रसीआ आपि रसु आपे रावणहारु ॥ आपे होवै चोलड़ा आपे सेज भतारु ॥१॥ रंगि रता मेरा साहिबु रवि रहिआ भरपूरि ॥१॥ रहाउ ॥ आपे माछी मछुली आपे पाणी जालु ॥ आपे जाल मणकड़ा आपे अंदरि लालु ॥२॥ आपे बहु बिधि रंगुला सखीए मेरा लालु ॥ नित रवै सोहागणी देखु हमारा हालु ॥३॥ प्रणवै नानकु बेनती तू सरवरु तू हंसु ॥ कउलु तू है कवीआ तू है आपे वेखि विगसु ॥४॥२५॥ {पन्ना 23}

उच्चारण: सिरी रागु महला १ घरु दूजा २॥ आपे रसीआ आप रस आपे रावणहार॥ आपे होवै चोलड़ा आपे सेज भतार॥१॥ रंग रता मेरा साहिब, रव रहिआ भरपूर॥१॥ रहाउ॥ आपे माछी मछुली आपे पाणी जाल॥ आपे जाल मणकड़ा आपे अंदर लाल॥२॥ आपे बहु बिध रंगुला सखीऐ मेरा लाल॥ नित रवै सोहागणी देख हमारा हाल॥३॥ प्रणवै नानक बेनती तू सरवर तू हंस॥ कउल तू है कवीआ तू है आपे वेख विगस॥४॥२५॥

पद्अर्थ: रसीआ = रस से भरा हुआ। रावणुहारु = रस को भोगने वाला। चोलड़ा = स्त्री की चोली, स्त्री। भतारु = खसम, पति।1।

रंगि = रंग में, प्रेम में। रता = रंगा हुआ। रवि रहिआ = व्यापक है। भरपूर = प्रचुर।1। रहाउ।

माछी = मछली पकड़ने वाला। जाल मणकड़ा = जाल के मणके (लोहे आदि के मणके जो जाल को भारा करने के लिए निचली तरफ लगाए जाते हैं ता कि जाल पानी में डूबा रहे)। लालु = मास की बोटी (मछली को फसाने के लिए चारा)।2।

बहु बिधि = कई तरीकां से। रंगुला = रंगीला, अटखेलियां करने वाला। लालु = प्यारा। रवै = मिलता है, भोगता है। सोहागणी = भाग्य वालियों को।3।

प्रणवै = विनती करता है, विनिम्रता से कहता है। कउल = सूर्य की रौशनी में खिलने वाला कमल का फूल। कवीआ = (चाँद की चाँदनी में खिलने वाली) कंमी। वेखि = देख के। विगसु = खिलता है, खुश होता है।4।

अर्थ: मेरा मालिक प्रभू प्यार में रंगा हुआ है, वह (सारी सृष्टि में) पूर्ण तौर पर व्यापक है।1। रहाउ।

प्रभू स्वयं ही रस भरा पदार्थ है, स्वयं ही (उस में) रस है, और स्वये ही उस स्वाद का आनंद लेने वाला है। प्रभू खुद ही स्त्री बनता है, खुद ही सेज, और खुद ही (भोगने वाला) पति है।1।

प्रभू खुद ही मछलियां पकड़ने वाला है, खुद ही मछली है। खुद ही पानी है (जिसमें मछली रहती है), खुद ही जाल है (जिससे मछली पकड़ी जाती है)। प्रभू ही उस जाल के मणके है, खुद ही उस जाल में मास की बोटी है (जो मछली को जाल की ओर प्रेरती है)।

हे सहेलियो! मेरा प्यारा प्रभू स्वयं ही कई तरीकों से अटखेलियां करने वाला है। भाग्यशाली जीव-सि्त्रयों को वह पति प्रभू सदा मिलता है। पर मेरे जैसियों का हाल देख (कि हमें कभी दीदार नहीं होता)।3।

हे प्रभू! नानक (तेरे दर पर) अरदास करता है (तू हर जगह मौजूद है, मुझे भी दीदार दे) तू ही सरोवर है, तू ही सरोवर पे रहने वाला हंस है। सूरज की रौशनी में खिलने वाला कमल का फूल भी तू ही है और चाँद की चाँदनी में खिलने वाली कमीं भी तू ही है (अपने जमाल को ओर अपने जलाल को) देख के तू खुद ही खुश होने वाला है।4।24।

सिरीरागु महला १ घरु ३ ॥ इहु तनु धरती बीजु करमा करो सलिल आपाउ सारिंगपाणी ॥ मनु किरसाणु हरि रिदै जमाइ लै इउ पावसि पदु निरबाणी ॥१॥ काहे गरबसि मूड़े माइआ ॥ पित सुतो सगल कालत्र माता तेरे होहि न अंति सखाइआ ॥ रहाउ ॥ बिखै बिकार दुसट किरखा करे इन तजि आतमै होइ धिआई ॥ जपु तपु संजमु होहि जब राखे कमलु बिगसै मधु आस्रमाई ॥२॥ बीस सपताहरो बासरो संग्रहै तीनि खोड़ा नित कालु सारै ॥ दस अठार मै अपर्मपरो चीनै कहै नानकु इव एकु तारै ॥३॥२६॥ {पन्ना 23}

उच्चारण: सिरी राग महला १ घर ३॥ इह तन धरती, बीज करमा करो, सलिल आपाउ सारंगपाणी॥ मन किरसाण, हरि रिदै जंमाय लै, इउ पावस पद निरबाणी॥१॥ काहे गरबस, मूढ़े, माया॥ पित सुतो सगल कालत्र माता तेरे होहि न अंत सखाया॥ रहाउ॥ बिखै बिकार दुसट किरखा करे इन तज आतमै होइ धिआई॥ जप तप संजम होहि जब राखे कमल बिगसै मधु आस्रमाई॥२॥ बीस सपताहरो बासरो संग्रहै तीन खोड़ा नित काल सारै॥ दस अठारमै अपरंपरो चीनै कहै नानक इव ऐक तारै॥३॥२६॥

पद्अर्थ: करमा = रोजमर्रा के काम। करो = करो, बनाओ। सलिल = पानी। आपाउ = सींचना। सलिल आपाउ = पानी से सीचनां। सारिंगपाणी = परमात्मा (का नाम)। किरसाणु = किसान। रिदै = हृदय में। जंमाइ लै = उगा ले। इउं = इस तरह। निरबाण = वासना रहित, निर्वाण, बुझा हुआ,जिस में से वासना खत्म हो जाए।1।

गरबासि = अहंकार करता है। मूढ़े = हे मूर्ख! सुतो = सुत,पुत्र। पित = पिता। सगल = सारे। कालत्र = कलत्र, स्त्री। अंति = आखिरी समय। सखाइआ = मित्र।

दुसट = बेरे। किरखा करे = उखाड़ देना (जैसे किसान खेतों में से नदीन उखाड़ देता है)। तजि = छोड़ के। आतमै होइ = अपने अंदर एक चित्त हो के। संजमु = मन को विकारों की तरफ से रोकना। होहि = बन जाना। मधु = शहद,रस, आत्मिक आनन्द। आस्रमाई = सृमना, चूता है।2।

बीस = गिनती के बीस। सप्त = सात। बीस सप्ताहरो = 27 दिन 27 नछत्र। बासरो = दिन। संग्रहै = इकट्ठा करे। तीनि खोड़ा = तीन अवस्थाएं (बाल, जवानी और बुढ़ापा)। सारै = याद रखे। दस = चार वेद और छे शास्त्र। अठारमै = अठारह पुराणों में। अपरंपरो = अपरंपर, परमात्मा। चीनै = खोजे, पहिचाने। इव = इस तरह। ऐक = प्रभू।3।

अर्थ: हेमूर्ख! माया का गुमान कयों करता है? पिता, पुत्र, स्त्री, मां-ये सारे अंत में तेरे सहायक नहीं बन सकते। रहाउ।

(हे भाई!) इस शरीर को धरती बना, अपने (रोजमर्रा के) कामों को बीज बना, परमात्मा के नाम के पानी से (इस जमीन की) सिंचाई कर। अपने मन को किसान बना, परमात्मा का नाम अपने हृदय में उगा। इस तरह (हे भाई!) वह आत्मिक अवस्था प्राप्त कर लेगा जहां कोई वासना पहुँच नहीं कर सकती।1।

जो मनुष्य गलत विषौ-विकारों को हृदय रूपी भूमि में से इस तरह उखाड़ फेंकता है जैसे खेतों में से नदीन। इन विकारों का त्याग करके जो मनुष्य अपने अंदर एक-चित्त हो के प्रभू को सिमरता है, जब जप, तप व संजम (उसके आत्मिक जीवन के) रक्षक बनते हैं, तो उसका हृदय कमल खिल उठता है। उसके अंदर आत्मिक आनंद का रस मानों सिमने लगता है, चूने लगता है।2।

हे नानक! जो मनुष्य 27 ही नक्षत्रों में (भाव) हर रोज (प्रभू का नाम धन) एकत्र कर रहे हैं, जो मनुष्य अपनी तीनों ही अवस्थाओं (बालपन, जवानी और बुढ़ापा) में मौत को याद रखे, जो चार वेदों, छह शास्त्रो और अठारह पुराणों (आदि सारी धार्मिक पुस्तकों) में परमात्मा (के नाम) को ही खोजें तो इस तरह परमात्मा उस को (संसार समुंद्र से) पार लंघा लेता है।3।26।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh