श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 26 सिरीरागु महला ३ घरु १ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ हउ सतिगुरु सेवी आपणा इक मनि इक चिति भाइ ॥ सतिगुरु मन कामना तीरथु है जिस नो देइ बुझाइ ॥ मन चिंदिआ वरु पावणा जो इछै सो फलु पाइ ॥ नाउ धिआईऐ नाउ मंगीऐ नामे सहजि समाइ ॥१॥ मन मेरे हरि रसु चाखु तिख जाइ ॥ जिनी गुरमुखि चाखिआ सहजे रहे समाइ ॥१॥ रहाउ ॥ जिनी सतिगुरु सेविआ तिनी पाइआ नामु निधानु ॥ अंतरि हरि रसु रवि रहिआ चूका मनि अभिमानु ॥ हिरदै कमलु प्रगासिआ लागा सहजि धिआनु ॥ मनु निरमलु हरि रवि रहिआ पाइआ दरगहि मानु ॥२॥ सतिगुरु सेवनि आपणा ते विरले संसारि ॥ हउमै ममता मारि कै हरि राखिआ उर धारि ॥ हउ तिन कै बलिहारणै जिना नामे लगा पिआरु ॥ सेई सुखीए चहु जुगी जिना नामु अखुटु अपारु ॥३॥ गुर मिलिऐ नामु पाईऐ चूकै मोह पिआस ॥ हरि सेती मनु रवि रहिआ घर ही माहि उदासु ॥ जिना हरि का सादु आइआ हउ तिन बलिहारै जासु ॥ नानक नदरी पाईऐ सचु नामु गुणतासु ॥४॥१॥३४॥ {पन्ना 26} उच्चारण: (ੴ ) एक ओअंकार सतिगुर प्रसादि॥ हउ सतिगुर सेवी आपणा इक मन इक चित भाय॥ सतिगुर मन कामना तीरथ है जिसनो देय बुझाय॥ मन चिंदिआ वर पावणा जो इछै सो फल पाय॥ नाउ धिआईअै नाउ मंगीअै नामे सहज समाय॥१॥ मन मेरे हरि रस चाख तिख जाय॥ जिनी गुरमुख चाखिआ सहजे रहे समाय॥१॥ रहाउ॥ जिनी सतिगुर सेविआ तिनी पाया नाम निधान॥ अंतर हरि रस रव रहिआ चूका मन अभिमान॥ हिरदै कमल प्रगासिआ लागा सहज धिआन॥ मन निरमल हरि रव रहिआ पाया दरगह मान॥२॥ सतिगुर सेवन आपणा ते विरले संसार॥ हउमै ममता मार कै हरि राखिआ उर धार॥ हउ तिन कै बलिहारणै जिना नामे लगा पिआर॥ सेई सुखीऐ चहु जुगी जिना नाम अखुट अपार॥३॥ गुर मिलिअै नाम पाईअै चूकै मोह पिआस॥ हरि सेती मन रवि रहिआ घर ही माहि उदास॥ जिना हरि का साद आया हउ तिन बलिहारै जास॥ नानक नदरी पाईअै सच नाम गुणतास॥४॥१॥३४॥ पद्अर्थ: हउ = मैं। सेवी = मैं सेवा करता हूं। इक मनि = एक मन हो के, एकाग्र हो के। भाइ = प्रेम से। भाउ = प्रेम। कामना = इच्छा। मन कामना = मन की कामनाएं। देइ बुझाइ = समझा देता है। मन चिंदिआ = मन इच्छित। वरु = मांग, बख्शीश। नामे = नाम ही, नाम से ही। सहजि = आत्मिक अडोलता में।1। तिख = तृखा, प्यास, तृष्णा। जाइ = दूर हो जाए। गुरमुखि = गुरू के द्वारा।1। रहाउ। निधानु = खजाना। अंतरि = (उनके) अंदर। रवि रहिआ = रचा हुआ, रमिया। मनि = मन में से। हिरदे कमल-हृदय का कमल फूल।2। सेवनि = (जो) सेवा करते हैं। संसारि = संसार में। मम = मेरा। ममता = मलकीअत की लालसा। उरधारि = हृदय में टिका के। उर = हृदय। सेई = वही। चहुं जुगी = चारों युगों में, सदा ही। अखुटु = कभी ना खत्म होने वाला। अपारु = बेअंत, जिसका पार न पड़ सके।3। गुरि मिलिअै = अगर गुरू मिल जाए। चूकै = दूर हो जाता है। सेती = साथ। रवि रहिआ = एक मेक हुआ रहता है। घर ही माहि = घर में ही। उदासु = निर्लिप,उपराम। सादु = स्वाद। हउ जासु = मैं जाता हूं। बलिहारै = कुर्बान। नदरी = मेहर की नजर से। गुणतासु = गुणों का खजाना।4। अर्थ: हे मेरे मन! परमात्मा (के नाम) का स्वाद चख, (तेरी माया वाली) तृष्णा दूर हो जाएगी। जिन लोगों ने गुरू की शरण पड़ के 'हरि जस' चखा है, वे आत्मिक अडोलता में टिके रहते हैं।1। रहाउ। मैं एकाग्र मन हो के, एकाग्र चित्त हो केप्रेम से अपने सतिगुरू की शरण लेता हूँ। सत्गुरू मन की इच्छाएं पूरी करने वाला तीर्थ है (पर ये समझ उस मनुष्य को ही आता है) जिस को (गुरू स्वयं) समझाए। (गुरू के द्वारा) मन-इच्छित मांग मिल जाती है। मनुष्य जो इच्छा धारण करता है वही फल हासिल कर लेता है। (पर) परमात्मा का नाम ही सिमरना चाहिए और (गुरू की ओर से) नाम ही मांगना चाहिए। नाम में जुड़ा हुआ मनुष्य आत्मिक अडोलता में टिक जाता है।1। जिन लोगों ने सत्गुरू की शरण ली है, उन्होंने (सभ पदार्तों का) खजाना प्रभू नाम प्राप्त कर लिया है। उनके हृदय में नाम रस रच गया है, उनके मन से अहंकार दूर हो गया है। उनके हृदय में कमल फूल खिल गया है। उनकी सुरति आत्मिक अडोलता में लग गई है। उनका पवित्र (हो चुका) मन हर वक्त परमात्मा का नाम सिमरता है, उनको परमात्मा की हजूरी में आदर मिलता है।2। (पर) जगत में वह लोग बिरले हैं जो सत्गुरू की शरण लेते हैं, जो अहंकार व मल्कियत की लालसा को मार के अपने हृदय में परमात्मा को टिकाते हैं। मैं उन लोगों के सदके हूँ जिनका सदा परमात्मा के नाम में ही प्रेम बना रहता है। वही लोग सदा सुखी रहते हैं जिनके पास कभी ना खत्म होने वाला बेअंत नाम (का खजाना) है।3। अगर गुरू मिल जाए तो परमात्मा का नाम प्राप्त हो जाता है। (नाम की बरकति से) माया का मोह दूर हो जाता है, माया की तृष्णा खत्म हो जाती है। मनुष्य का मन परमात्मा (की याद) में एकमेक होया रहता है, दुनिया के काम काज करता हुआ ही (माया से) उपराम रहता है। मैं उन लोगों पर बलिहार जाता हूँ। जिन्हें परमात्मा के नाम का स्वाद आ गया है। हे नानक! परमात्मा की मेहर की नजर से ही परमात्मा का सदा स्थिर रहने वाले व सारे गुणों का खजाना नाम प्राप्त होता है।4।1।34। नोट: अंक 34 का भाव ये है गुरू नानक देव जी के 33 और गुरू अमरदास जी का ये एक शबद मिला के सारा जोड़ 34 बना। सिरीरागु महला ३ ॥ बहु भेख करि भरमाईऐ मनि हिरदै कपटु कमाइ ॥ हरि का महलु न पावई मरि विसटा माहि समाइ ॥१॥ मन रे ग्रिह ही माहि उदासु ॥ सचु संजमु करणी सो करे गुरमुखि होइ परगासु ॥१॥ रहाउ ॥ गुर कै सबदि मनु जीतिआ गति मुकति घरै महि पाइ ॥ हरि का नामु धिआईऐ सतसंगति मेलि मिलाइ ॥२॥ जे लख इसतरीआ भोग करहि नव खंड राजु कमाहि ॥ बिनु सतगुर सुखु न पावई फिरि फिरि जोनी पाहि ॥३॥ हरि हारु कंठि जिनी पहिरिआ गुर चरणी चितु लाइ ॥ तिना पिछै रिधि सिधि फिरै ओना तिलु न तमाइ ॥४॥ जो प्रभ भावै सो थीऐ अवरु न करणा जाइ ॥ जनु नानकु जीवै नामु लै हरि देवहु सहजि सुभाइ ॥५॥२॥३५॥ {पन्ना 26} उच्चारण:सिरी रागु महला ३॥ बहु भेख कर भरमाईअै मन हिरदै कपट कमाय॥ हरि का महल न पावई मर विसटा माहि समाय॥१॥ मन रे गृह ही माहि उदास॥ सच संजम करणी सो करे गुरमुख होय परगास॥१॥ रहाउ॥ गुर कै सबद मन जीतिआ गत मुकत घरै महि पाय॥ हरि का नाम धिआइअैसतसंगत मेल मिलाय॥२॥ जे लख इसतरीआ भोग करह नव खंड राज कमाहि॥ बिन सतगुर सुख न पावई फिर फिर जोनी पाहि॥३॥ हरि हार कंठ जिनी पहिरिआ गुर चरणी चित लाय॥ तिना पिछे रिधि सिधि फिरै ओना तिल न तमाय॥४॥ जो प्रभ भावै सो थीअै अवर न करणा जाय॥ जन नानक जीवै नाम लै हरि देवहु सहज सुभाय॥५॥२॥३५॥ पद्अर्थ: भेख करि = धार्मिक पहनावे पहन कर। करि = कर के। भरमाईअै = भटकन में पड़ जाते हैं। मनि = मन में। हिरदै = हृदय में। कपटु = धोखा। कमाइ = कमा के, करके। महलु = टिकाना। पावई = प्राप्त करता है, ढूंढ लेता है। मरि = (आत्मिक मौत) मर के। विसटा माहि = गंद में, विकार रूपी गंद में।1। सचु = सदा स्थिर प्रभू का नाम। संजमु = विकारों से परहेज। करणी = करनी, कर्तव्य, करने योग्य काम। गुरमुखि = गुरू की शरण पड़ के। परगासु = (आत्मिक) प्रकाश, सूझ।1। रहाउ । सबदि = शबद द्वारा। गति = ऊँची आत्मिक अवस्था। मुकति = विकारों से खलासी। घरै = घर ही। घरै महि = घर ही में। मेलि = मेल में, जब लोगों का एकॅठ हुआ हो, उसमें। मिलाइ = मिल के।2। नवखंड राजु = सारी धरती का राज। न पावही = तू प्राप्त नही करेगा।3। कंठि = गले में। लाइ = लगा के। रिधि सिधि = करामाती ताकतें। तिलु = रॅती भर। तमाइ = तमा, लालच।4। प्रभ भावै = हे प्रभू ! तुझे पसंद हो। जीवै = आत्मिक जीवन प्राप्त कर सके। हरि = हे हरि! स्हजि = आत्मिक अडोलता में। सुभाइ = प्रेम में।4। अर्थ: हे (मेरे) मन! गृहस्थ में (रहते हुए) ही (माया के मोह से) निर्लिप (रह)। (पर जिस मनुष्य के हृदय में) गुरू की शरण पड़ के समझ पैदा होती है, वह मनुष्य (ही) सदा स्थिर प्रभू नाम सिमरन की कमाई करता है और विकारों से संकोच करता है (इस वास्ते, हे मन ! गुरू की शरण पड़ के ये करने योग्य कामों को करने का ढंग सीखो)।1। रहाउ। बहुत सारे धार्मिक पहरावे पहन के (दूसरों को ठगने के लिए अपने) मन में दिल में खोट कमा के (मनुष्य खुद ही) भटकन में उलझ के रह जाता है। (जो मनुष्य ये दिखावा ठगी करता है वह) परमात्मा की हजूरी प्राप्त नहीं कर सकता। (बल्कि वह) आत्मिक मौत मर कर (ठॅगी आदि) विकारों के गंद में फसा रहता है।1। जिस मनुष्य ने गुरू के शबद में जुड़ के अपने मन को वस में कर लिया है, वह गृहस्थ में रहते हुए भी ऊँची आत्मिक अवस्था प्राप्त कर लेता है, विकारों से खलासी पा लेता है। (इस वास्ते हे मन!) साध-संगति के एकत्र में मिल के परमात्मा के नाम का सिमरन करना चाहिए।2। (हे भाई!) अगर तू (काम-वासना पूरी करने के लिए) लाखों सि्त्रयां भी भोग ले, अगर तू सारी धरती का राज भी कर ले, तो भी सत्गुरू की शरण के बिना आत्मिक सुख नहीं मिल सकेगा, (बल्कि) बारम्बार योनियों में पड़ा रहेगा।3। जिन लोगों ने गुरू के चरणों में मन जोड़ के परमात्मा के नाम सिमरन का हार अपने गले में पहन लिया है, करामाती ताकतें उनके पीछे पीछे चलतीं हैं, पर उनहें उसका रत्ती मात्र भी लालच नहीं होता।4। (पर, हम जीवों के भी क्या बस?) हे प्रभू! जो कुछ तुझे ठीक लगता है वही होता है। (तेरी मर्जी के बग़ैर) और कुछ नहीं किया जा सकता। हे हरि! (मुझे) अपना नाम बख्श, ता कि आत्मिक अडोलता में टिक के, तेरे प्रेम में जुड़ के (तेरा) दास नानक (तेरा) नाम सिमर के आत्मिक जीवन प्राप्त कर सके।5।2।35। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |