श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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सिरीरागु महला १ घरु ४ ॥ एका सुरति जेते है जीअ ॥ सुरति विहूणा कोइ न कीअ ॥ जेही सुरति तेहा तिन राहु ॥ लेखा इको आवहु जाहु ॥१॥ काहे जीअ करहि चतुराई ॥ लेवै देवै ढिल न पाई ॥१॥ रहाउ ॥ तेरे जीअ जीआ का तोहि ॥ कित कउ साहिब आवहि रोहि ॥ जे तू साहिब आवहि रोहि ॥ तू ओना का तेरे ओहि ॥२॥ असी बोलविगाड़ विगाड़ह बोल ॥ तू नदरी अंदरि तोलहि तोल ॥ जह करणी तह पूरी मति ॥ करणी बाझहु घटे घटि ॥३॥ प्रणवति नानक गिआनी कैसा होइ ॥ आपु पछाणै बूझै सोइ ॥ गुर परसादि करे बीचारु ॥ सो गिआनी दरगह परवाणु ॥४॥३०॥ {पन्ना 25}

उच्चारण: सिरी राग महला १ घर ४॥ एका सुरत जेते है जीअ॥ सुरति विहूणा कोइ न कीअ॥ जेही सुरत तेहा तिन राह॥ लेखा इको आवहु जाह॥१॥ काहे जीअ, करहि चतुराई॥ लेवै देवे ढिल न पाई॥१॥ रहाउ॥ तेरे जीअ जीआ का तोहि॥ कित कउ साहिब आवहि रोहि॥ जे तू, साहिब, आवहि रोह॥ तू ओना का तेरे ओह॥२॥ असी बोलविगाड़ विगाड़ह बोल॥ तू नदरी अंदर तोलह तोल॥ जह करणी तह पूरी मत॥ करणी बाझहु घटे घटि॥३॥ प्रणवत नानकु गिआनी कैसा होय॥ आप पछाणै बूझे सोय॥ गुर परसाद करे बीचार॥ सो गिआनी दरगह परवाण॥४॥३०॥

पद्अर्थ: सुरति = सूझ। ऐका सुरति = एक (परमात्मा की दी हुई) सूझ। जीअ = (जीउ का बहुवचन) जीव। जेते = जितने। विहूणा = बगैर। कीअ = पैदा किया। तिन राहु = उन जीवों का जीवन रास्ता। लेखा इको = एक परमात्मा ही ये लेखा रखता है। आवहु जाहु = (मिली सुरति अनुसार) जीव आते हैं जाते हैं।1।

जीअ = हे जीव! लेवै = (जीव से सूझ) छीन लेता है।1। रहाउ।

(ष्भ) तोहि = तू। कित = क्यूँ? साहिब = हे साहिब! रोहि = रोह में, गुस्से में। ओहि = वह सारे जीव।2।

बोलविगाड़ = बड़बोले, विगड़े बोल बोलने वाले। विगाड़ह = (वर्तमान उत्तम पुरख, बहुवचन) हम बिगाड़ते हैं। विगाड़ह बोल = हम फीके बोल बोलते हैं। नदरी अंदरि = मेहर की निगाह से। तोलहि = तू तोलता है, तू जाचता है। जह = जहां, जिस मनुष्य के अंदर। करणी = गुरू का बताया हुआ आचरण। घटे घटि = घट ही घट, मति कमजोर ही कमजोर।3।

प्रणवति = विनती करता है। आपु = स्वयं को, अपनी असलीयत को। परसादि = कृपा से।

अर्थ: जितने भी जीव हैं (इन सबके अंदर) एक परमात्मा की ही बख्शी हुई सूझ काम कर रही है, (परमात्मा ने) कोई भी ऐसा जीव पैदा नहीं किया जिसे सूझ से वंचित रखा हो। जैसी सूझ (प्रभू जीवों को देता है) वैसा ही जीवन रास्ता वे पकड़ लेते हैं। (उसी मिली सूझ अनुसार) जीव (जगत में) आते हैं और (यहां) से चले जाते हैं। ये मर्यादा चलाने वाला प्रभू खुद ही है।1।

हे जीव! तू (अपनी अच्छी सूझ दिखाने के लिए) क्यूँ चालाकी करता है? वह परमात्मा ही (जीवों को सूझ) देता है और ले भी लेता है। रत्ती मात्र भी समय नहीं लगाता।1। रहाउ।

हे मालिक प्रभू! सारे जीव तेरे पैदा किये हुए हैं। सभी जीवों का तू ही पति है। (अगर जीव तुझसे मिली सूझ अक्ल का गुमान भी करें फिर भी तू) गुस्से में नहीं आता (क्योंकि आखिर ये जीव तेरे ही हैं)। हे मालक प्रभू! अगर तू गुस्से में भी आये (तो किस पे आए ?) तू उनका मालिक है वो सारे तेरे ही बनाये हुए हैं।2।

(हे प्रभू!) हम जीव बड़बोले हैं, (तुझसे मिली सूझ अकल पर मान करके अनेकों बार) फीके बोल बोल देते हैं। पर तू (हमारे कुबोलों को) मेहर की निगाह से परखता है। (गुरू के द्वारा बताए रास्ते पर चल के) जिस मनुष्य के अंदर ऊँचा आचरण बन जाता है उसकी सोच-समझ भी गंभीर हो जाती है (और वह बड़बोला नहीं बनता)। ऊँचे आचरण के बगैर आदमी की सूझ-बूझ भी नीची ही रहती है।3।

नानक बेनती करता है– असल ज्ञानवान मनुष्य वह है जो अपने असल को पहचानता है, जो उस परमात्मा को ही (अक्लदाता) समझता है। जो गुरू की मेहर से (अपनी चतुराई छोड़ के बुद्धि-दाता प्रभू के गुणों का) विचार करता है। ऐसा ज्ञानवान मनुष्य प्रभू की हजूरी में कबूल हो जाता है।4।30।

सिरीरागु महला १ घरु ४ ॥ तू दरीआउ दाना बीना मै मछुली कैसे अंतु लहा ॥ जह जह देखा तह तह तू है तुझ ते निकसी फूटि मरा ॥१॥ न जाणा मेउ न जाणा जाली ॥ जा दुखु लागै ता तुझै समाली ॥१॥ रहाउ ॥ तू भरपूरि जानिआ मै दूरि ॥ जो कछु करी सु तेरै हदूरि ॥ तू देखहि हउ मुकरि पाउ ॥ तेरै कमि न तेरै नाइ ॥२॥ जेता देहि तेता हउ खाउ ॥ बिआ दरु नाही कै दरि जाउ ॥ नानकु एक कहै अरदासि ॥ जीउ पिंडु सभु तेरै पासि ॥३॥ आपे नेड़ै दूरि आपे ही आपे मंझि मिआनुो ॥ आपे वेखै सुणे आपे ही कुदरति करे जहानुो ॥ जो तिसु भावै नानका हुकमु सोई परवानुो ॥४॥३१॥ {पन्ना 25}

उच्चारण: सिरी राग महला १ घर ४॥ तू दरिआउ दाना बीना मै मछुली कैसे अंत लहां॥ जह जह देखा तह तह तू है तुझ ते निकसी फूट मरां॥१॥ न जाणा मेउ न जाणा जाली॥ जा दुख लागै ता तुझै समाली॥१॥ रहाउ॥ तू भरपूर जानिआ मै दूर॥ जो कछ करी सु तेरै हदूर॥ तू देखहि हउ मुकर पाउ॥ तेरै कंम न तेरै नाय॥२॥ जेता देह तेता हउ खाउ॥ बिआ दर नाही कै दर जाउ॥ नानक ऐक कहै अरदास॥ जीउ पिंड सभ तेरै पास॥3॥ आपे नेड़ै दूर आपे ही आपे मंझ मिआनो ॥ आपे वेखै सुणे आपे ही कुदरत करे जहानो॥ जो तिस भावै नानका हुकम सोई परवानो॥४॥३१॥

पद्अर्थ: दाना = जानने वाला। बीना = देखने वाला (बीनाई = नजर)। मछुली = छोटी सी मछली। मै कैसे लहा = लहां, ढूँढू, मैं कैसे ढूँढू? मैं नहीं ढूंढ सकती। जह जह = जिधर जिधर। देखा = देखूं, मैं देखती हूँ। ते = से। निकसी = निकली हुई, विछुड़ी हुई। फूटि मरा = मैं फूट के मर जाती हूं।1।

मेउ = मल्लाह, माछी ।

(नोट: दरियाओं के किनारे आमतौर पे मल्लाह मछली पकड़ने का काम भी करते हैं।)

समाली = मैं याद करती हूं।1। रहाउ।

भरपूरि = हर जगह मौजूद। करी = मैं करता हूं। तेरै हदूरि = तेरी हाजरी में। तू देख लेता है। मुकरि पाउ = मैं मुकर जाता हूं। तेरै कंमि = तेरे काम में। तेरै नाइ = तेरे नाम में।2।

जेता = जितना कुछ। देहि = तू देता है। हउ = मैं। बिआ = दूसरा। दरु = दरवाजा, घर। कै दरि = किस के दर पे? जाउ = जाऊँ। तेरै पासि = तेरे पास, तेरे हवाले हैं, तेरे ही आसरे हैं।3।

मंझि = बीच में।

मिआनुो, जहानुो, परवानुो (नोट: असल शब्द हैं– मिआनु) जहानु और परवानु। छंद की चाल पूरी रखने के लिए एक मात्रा बढ़ाई गई है, इनको पढ़ना है: मिआनो, जहानो व परवानो।

मिआनु = दरमिआन, बीच का हिस्सा। तिसु भावै = जो उस प्रभू को ठीक लगे। कुदरति = सत्य, ताकत।4।

अर्थ: हे प्रभू! तू (एक) दरिया के (समान) है, मैं (तेरे में रहने वाली) एक छोटी सी मछली हूं। मैं तेरा आखिरी छोर नहीं ढूंढ सकती। (मेरी हालत) तू ही जानता है, तू ही (नित्य) देखता है। मैं (मछली और दरिया में) जहां देखती हूं उधर तू ही तू (दरिया ही दरिया) है। अगर मैं दरिया में से बाहर निकल जाऊँ, तो उस वक्त तड़फ के मर जाती हूं (मेरा जीवन तेरे ही आसरे है)।1।

(हे दरिया रूपी प्रभू! तुझसे विछोड़ने वाले) ना मुझे माछी की समझ है, ना ही एसके जाल की (उनसे बचना मेरे बस की बात नहीं)। (तुझसे बिछोड़ने के वास्ते) जब मुझे कोई (आत्मिक) दुख व्यापता है, तो मैं तुझे याद करती हूं।1। रहाउ।

हे प्रभू! तू (इस जगत में) हर जगह मौजूद है। मैंने तुझे कहीं दूर बसा हुआ समझा हुआ है (असलीयत ये है कि) जो कुछ मैं करता हूँ, वह तेरी हजूरी में ही कर रहा हूँ। तू सब कुछ देखता है। (फिर भी) मैं अपने किये काम से मुकर जाता हूँ। मैं ना उस काम में लगता हूँ जो तुझे परवान हों, ना ही मैं तेरे नाम में जुड़ता हूँ।2।

हे प्रभू! जो कुछ तू मुझे देता है, मैं वही खाता हूँ। कोई और दरवाजा नहीं है जहां मैं जाऊँ (और सवाली बनूँ)। नानक सिर्फ इतनी विनती करता है कि ये जीवात्मा तेरी ही दी हुई हैये शरीर भी तेरा ही दिया हुआ है, ये सब कुछ तेरे ही आसरे रह सकता है।3।

प्रभू खुद ही हरेक जीव के नजदीक है, खुद ही दूर भी है। खुद ही सारे जगत में मौजूद है। प्रभू खुद ही हरेक जीव की संभाल करता है, खुद ही हरेक की अरजोई सुनता है, खुद ही अपनी कुदरत से सत्ता से जगत को पैदा करता है। हे नानक! जो हुकमउसको ठीक लगता है, वही हरेक जीव को कबूल करना पड़ता है।4।31।

सिरीरागु महला १ घरु ४ ॥ कीता कहा करे मनि मानु ॥ देवणहारे कै हथि दानु ॥ भावै देइ न देई सोइ ॥ कीते कै कहिऐ किआ होइ ॥१॥ आपे सचु भावै तिसु सचु ॥ अंधा कचा कचु निकचु ॥१॥ रहाउ ॥ जा के रुख बिरख आराउ ॥ जेही धातु तेहा तिन नाउ ॥ फुलु भाउ फलु लिखिआ पाइ ॥ आपि बीजि आपे ही खाइ ॥२॥ कची कंध कचा विचि राजु ॥ मति अलूणी फिका सादु ॥ नानक आणे आवै रासि ॥ विणु नावै नाही साबासि ॥३॥३२॥ {पन्ना 25}

उच्चारण: सिरी रागु महला १ घरु ४॥ कीता कहा करे मन मान॥ देवणहारे कै हथ दान॥ भावै देय न देई सोय॥ कीते कै कहिअै किआ होय॥१॥ आपे सच भावै तिस सच॥ अंधा कचा कच निकच॥१॥ रहाउ॥ जा के रुख बिरख आराउ॥ जेही धात तेहा तिन नाउ॥ फुल भाउ फल लिखिआ पाय॥ आप बीज आपे ही खाय॥२॥ कची कंध कचा विच राज॥ मत अलूणी फिका साद॥ नानक आणे आवै रास॥ विण नावै नाही साबास॥३॥३२॥

पद्अर्थ: कीता = पैदा किया हुआ जीव। मनि = मन में। कहा मानु करे = क्या मान कर सकता है? कै हथि = के हाथ में। भावै = यदि ठीक लगे,अगर उसकी मर्जी हो। कै कहीअै = के कहने से।1।

सचु = सदा स्थिर रहने वाला। तिसु = उस को। अंधा = ज्ञानहीन। कचा = कच्चा, होछा। कचु = होछा। निकचु = बिल्कुल होछा।1। रहाउ।

आराउ = आरास्तगी, सजावट। जा के = जिस के (पैदा किये हुए)। धातु = असलीयत। भाउ = भावना, रुचि। बीजि = बीज के। खाइ = खाता है।2।

कंध = (जीवन निर्माण की) दीवार। राजु = (जीवन निर्माण बनाने वाला) मन। अलूणी = गुण हीन। सादु = स्वाद (भाव, जीवन)। आणे रासि = यदि रासि लाए, अगर सुधार दे। आवै रासि = सुधर जाता है। साबासि = आदर, इज्जत।3।

अर्थ: परमात्मा सदा स्थिर रहने वाला है। उसे सदा स्थिर रहने वाला (अपना नाम) ही पसंद आता है। पर ज्ञानहीन जीव (माया की मलकियत के कारण) होछा है, सदा होछा ही रहता है (प्रभू को ये होछापन पसंद नहीं आ सकता)।1। रहाउ।

(दुनिया के पदार्तों का) बटवारा (की ताकत) दातार प्रभू के अपने हाथ में है। प्रभू का पैदा किया हुआ जीव अपने मन में (माया का) क्या मान कर सकता है? उसकी मर्जी है कि धन पदार्थ दे या ना दे। पैदा किये जीव के कहने से कुछ नहीं बन सकता।1।

जिस परमात्मा के (पैदा किये हुए यह) पेड़-पौधे हैं वह ही इन्हें सजावट देता है। जैसी वृक्षों की असलियत होती है वैसा ही उनका नाम पड़ जाता है। (वैसे ही उनमें फल-फूल पनपते हैं)। (इस तरह जैसी) भावना के फूल (किसी मनुष्य के अंदर है) उसी अनुसार उसको जीवन फल लगता है। (उसका जीवन बनता है)। हरेक इन्सान जो कुछ खुद बीजता है, खुद ही खाता है (जैसे कर्म करता है वैसा ही जीवन बनता है)।2।

जिस मनुष्य के अंदर अन्जान मन (जीवन निर्माण करने वाला) राज-मिस्त्री (कारीगर) है, उसकी जीवन निर्माण की दीवार भी कच्ची (कमजोर) ही बनती है। उसकी अक्ल भी फीकी व उसका सारा जीवन भी फीका (बे-रसा) ही रहता है। (पर जीव के क्या बस?) हे नानक! अगर प्रभू खुद जीव के जीवन को सुधारे तोही सुधरता है। (वर्ना) प्रभू के नाम से वंचित रहके उसकी हजूरी में आदर नहीं मिलता।3।32।

सिरीरागु महला १ घरु ५ ॥ अछल छलाई नह छलै नह घाउ कटारा करि सकै ॥ जिउ साहिबु राखै तिउ रहै इसु लोभी का जीउ टल पलै ॥१॥ बिनु तेल दीवा किउ जलै ॥१॥ रहाउ ॥ पोथी पुराण कमाईऐ ॥ भउ वटी इतु तनि पाईऐ ॥ सचु बूझणु आणि जलाईऐ ॥२॥ इहु तेलु दीवा इउ जलै ॥ करि चानणु साहिब तउ मिलै ॥१॥ रहाउ ॥ इतु तनि लागै बाणीआ ॥ सुखु होवै सेव कमाणीआ ॥ सभ दुनीआ आवण जाणीआ ॥३॥ विचि दुनीआ सेव कमाईऐ ॥ ता दरगह बैसणु पाईऐ ॥ कहु नानक बाह लुडाईऐ ॥४॥३३॥ {पन्ना 25}

उच्चारण: सिरी राग महला १ घर ५॥ अछल छलाई नह छलै नह घाउ कटारा कर सकै॥ जिउ साहिब राखै तिउ रहै इस लोभी का जीउ टलपलै॥१॥ बिन तेल दीवा किउ जलै॥१॥ रहाउ॥ पोथी पुराण कमाईअै॥ भउ वटी इत तन पाईअै॥ सच बूझण आण जलाईअै॥२॥ इह तेल दीवा इउ जलै॥ कर चानण साहिब तउ मिलै॥१॥ रहाउ॥ इत तन लागै बाणीआ॥ सुख होवै सेव कमाणीआ॥ सभ दुनीआ आवण जाणीआ॥३॥ विच दुनीआ सेव कमाईअै॥ ता दरगह बैसण पाईअै॥ कहु नानक बाह लुडाईअै॥४॥३३॥

पद्अर्थ: अछल = जो छली ना जा सके, जिसे कोई ठग ना सके। न छलै = नहीं ठगी जाती, धोखा नहीं खाती। छलाई नह छलै = जो कोई छलने का यत्न करे भी, तो भी वह छली नहीं जा सकती। घाउ = जख्म। साहिबु = मालिक, प्रभू। टलपलै = डोलता है।1।

किउ जलै = जलता नहीं रह सकता।1। रहाउ।

कमाईअै = कमाई करें, जीवन बनाएं। इतु = इस में। तनि = तन में। इतु तनि = इस तन में। सचु बूझणु = सच को समझना, सदा स्थिर प्रभू से सांझ डालना। आणि = ला के।2।

बाणीआ = गुरू की बाणी। लागै = असर करे।3।

बैसणु = बैठने की जगह। बाह लुडाईअै = बे-फिक्र हो जाना।4।

नोट: इस शबद में ‘रहाउ’ के दो बंद है। पहले ‘रहाउ’ में प्रश्न किया गया है और दूसरे ‘रहाउ’ में प्रश्न का उत्तर है।

अर्थ: (सिमरन के) तेल के बिना (आत्मिक जीवन का) दिया कैसे टहकता रह सकता है? (माया मोह की अंधेरी के झोके जीवात्मा को अडोल नहीं रहने देते) 1। रहाउ।

अछल माया, जिसको कोई छलने का यतन करे तो भी वह छली नहीं जाती। जिसको किसी की कटार कोई जख्म नहीं कर सकती ( जिसे कोई मार नहीं सकता) - के आगे लोभी जीव का मन डोल जाता है। मालिक प्रभू की रजा इसी तरह की है (भाव, जगत में नियम ही ये है कि जहां नाम नहीं वहां मन माया के आगे डोल जाता है)।1।

धर्म पुस्तकों के हिसाब से जीवन बनाएं (ये हो तेल), परमात्मा का डर-ये शरीर (दिए, दीपक) में बाती डाल दें, परमात्मा के साथ गहरी सांझ (ये हो आग) के साथ जलाएं।2।

ये नाम तेल हो, तभी इस जीवन का दीपक टहकता है। (हे भाई!) प्रभू के नाम का प्रकाश कर, तभी मालिक प्रभू के दर्शन होते हैं।1। रहाउ।

(जिस मनुष्य को) इस शरीर में गुरू का उपदेश असर करता है। (प्रभू की) सेवा करने से (सिमरन करने से) उसको आत्मिक आनंद मिलता है। जगत उसको नाशवंत दिखाई देता है।3।

(हे भाई !) दुनिया में (आ के) प्रभू की सेवा (सिमरन) करना चाहिए तभी उसकी हजूरी में बैठने की जगह मिलती है। हे नानक! कह– (सिमरन की बरकति से) बे-फिक्र हो जाते हैं। (फिर कोई चिंता-सोग नही व्याप्त होता)।4।33।

नोट: सिरी राग में गुरू नानक देव जी के ये 33 शबद हैं।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh