श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 32 सिरीरागु महला ३ ॥ गुरमुखि क्रिपा करे भगति कीजै बिनु गुर भगति न होई ॥ आपै आपु मिलाए बूझै ता निरमलु होवै सोई ॥ हरि जीउ साचा साची बाणी सबदि मिलावा होई ॥१॥ भाई रे भगतिहीणु काहे जगि आइआ ॥ पूरे गुर की सेव न कीनी बिरथा जनमु गवाइआ ॥१॥ रहाउ ॥ आपे जगजीवनु सुखदाता आपे बखसि मिलाए ॥ जीअ जंत ए किआ वेचारे किआ को आखि सुणाए ॥ गुरमुखि आपे देइ वडाई आपे सेव कराए ॥२॥ देखि कुट्मबु मोहि लोभाणा चलदिआ नालि न जाई ॥ सतगुरु सेवि गुण निधानु पाइआ तिस दी कीम न पाई ॥ हरि प्रभु सखा मीतु प्रभु मेरा अंते होइ सखाई ॥३॥ आपणै मनि चिति कहै कहाए बिनु गुर आपु न जाई ॥ हरि जीउ दाता भगति वछलु है करि किरपा मंनि वसाई ॥ नानक सोभा सुरति देइ प्रभु आपे गुरमुखि दे वडिआई ॥४॥१५॥४८॥ {पन्ना 32} उच्चारण: सिरी राग महला ३॥ गुरमुख क्रिपा करे भगत कीजै, बिन गुर, भगत न होई॥ आपै आप मिलाऐ बूझे, ता निरमलु होवै सोई॥ हरि जीउ साचा साची बाणी सबद मिलावा होई॥१॥ भाई रे, भगत हीण काहे जग आया॥ पूरे गुर की सेव न कीनी बिरथा जनम गवाया॥१॥ रहाउ॥ आपे जगजीवन सुखदाता आपे बखस मिलाए॥ जीअ जंत ऐ किआ वेचारे किआ को आख सुणाए॥ गुरमुख आपे देय वडाई आपे सेव कराऐ॥२॥ देख कुटंब मोह लोभाणा चलदिआं नाल न जाई॥ सतगुर सेव गुण निधान पाया तिस दी कीम न पाई॥ हरि प्रभ सखा मीत प्रभ मेरा अंते होय सखाई॥३॥ आपणै मन चित कहै कहाए, बिन गुर आप न जाई॥ हरि जीउ दाता भगत वछल है, कर किरपा मंन वसाई॥ नानक सोभा सुरत देय प्रभ आपे गुरमुख दे वडिआई॥४॥१५॥४८॥ पद्अर्थ: गुरमुखि = गुरू द्वारा। कीजै = की जा सकती है। आपै = (गुरू के) स्वयं में। आपु = अपने आप को। साचा = सदा स्थिर। बाणी = सिफत सलाह। सबदि = सिफत सलाह की बाणी में (जुड़ने से)।2। जगि = जगत में। काहे आइआ = आने का कोई लाभ नहीं हुआ।1। रहाउ। जग जीवन = जगत की जीवन, जीवों की जिंदगी का सहारा। बखसि = बख्शिश करके । आपे = (प्रभु) खुद ही।2। (नोट: शब्द 'बखस' और 'बखसि' में फर्क याद रखने योग्य है)। देखि = देख के। मोहि = मोह में। गुण निधान = गुणों का खजाना, प्रभू। तिस दी = उस मनुष्य (आत्मिक उच्चता) की। कीम = कीमत। सखा = साथी, मित्र। सखाई = सहाई।3। मनि = मन में। आपु = स्वै भाव, अहम्। भगति वछलु = भक्ति से प्यार करने वाला। मंनि = मन में। सुरति = समझ।4। अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य परमात्मा की भक्ति से वंचित रहा, उसे जगत में आने का कोई लाभ नहीं हुआ। जिस मनुष्य ने पूरे गुरू की बताई सेवा ना की, उसने मानुख जन्म व्यर्थ गवा लिया।1। रहाउ। अगर परमात्मा गुरू के द्वारा (जीव पर) कृपा करे तो (जीव द्वारा) भक्ति की जा सकती है। (गुरू की शरण पड़े) बगैर परमात्मा की भक्ति नहीं हो सकती। जो मनुष्य अपने आप को (गुरू के) अस्तित्व में जोड़ दे (इस भेद को) समझ ले, तो वह पवित्र जीवन वाला हो जाता है। परमात्मा सदा स्थिर रहने वाला है, (उसकी सिफत सलाह भी सदा स्थिर रहने वाली है) सिफत सलाह की बाणी के द्वारा ही उससे मिलाप हो सकता है।1। परमात्मा स्वयं ही जगत के जीवों की जिन्दगी का सहारा है, स्वयं ही (जीवों को) सुख देने वाला है, स्वयं ही मेहर करके (जीवों को) अपने साथ जोड़ता है। (अगर वह खुद मेहर ना करे तो उसके चरणों में जुड़ने के वास्ते) विचारे जीव बिल्कुल अस्मर्थ है। (प्रभु की मेहर के बिना) ना कोई जीव (उसकी सिफत) कह सकता है ना ही सुना सकता है। परमात्मा स्वयं ही गुरू के द्वारा (अपने नाम की वडिआई) देता है, और स्वयं अपनी सेवा भक्ति कराता है।2। जीव अपने परिवार को देख के इस के मोह में फंस जाता है। (पर, परिवार का कोई साथी) जगत से चलने के वक्त जीव के साथ नहीं जाता। जिस मनुष्य ने गुरू की बताई सेवा करके गुणों के खजाने परमात्मा को ढूंढ लिया, उस की (आत्मिक उच्चता की) कीमत नहीं पड़ सकती। परमात्मा उस मनुष्य का दोस्त बन जाता है मित्र बन जाता है, अंत समय भी उसका साथी बनता है।3। अपने मन में अपने चित्त में जीव बेशक कहता रहे, दूसरों से भी कहलवाता फिरे (कि मेरे अंदर अहंकार नहीं है) पर यह अहम् अहंकार गुरू की शरण पड़े बगैर दूर नहीं हो सकता। जो प्रभू सब जीवों को दातें देने वाला है तथा भक्ति से प्यार करता है वह कृपा करके खुद ही (अपनी भक्ती जीव के) हृदय में बसाता है। हे नानक! प्रभु स्वयं ही (अपनी भक्ति की) सुरति बख्शता है व शोभा बख्शता है। स्वयं ही गुरू की शरण में डाल के (अपने दर पे उसे) आदर सत्कार देता है।4।15।48। सिरीरागु महला ३ ॥ धनु जननी जिनि जाइआ धंनु पिता परधानु ॥ सतगुरु सेवि सुखु पाइआ विचहु गइआ गुमानु ॥ दरि सेवनि संत जन खड़े पाइनि गुणी निधानु ॥१॥ मेरे मन गुर मुखि धिआइ हरि सोइ ॥ गुर का सबदु मनि वसै मनु तनु निरमलु होइ ॥१॥ रहाउ ॥ करि किरपा घरि आइआ आपे मिलिआ आइ ॥ गुर सबदी सालाहीऐ रंगे सहजि सुभाइ ॥ सचै सचि समाइआ मिलि रहै न विछुड़ि जाइ ॥२॥ जो किछु करणा सु करि रहिआ अवरु न करणा जाइ ॥ चिरी विछुंने मेलिअनु सतगुर पंनै पाइ ॥ आपे कार कराइसी अवरु न करणा जाइ ॥३॥ मनु तनु रता रंग सिउ हउमै तजि विकार ॥ अहिनिसि हिरदै रवि रहै निरभउ नामु निरंकार ॥ नानक आपि मिलाइअनु पूरै सबदि अपार ॥४॥१६॥४९॥ {पन्ना 32} उच्चारण: सिरी राग महला ३॥ धन जननी जिन जाइआ धंन पिता परधान॥ सतगुर सेव सुख पाया विचहु गया गुमान॥ दर सेवन संत जन खड़े पाइन गुणी निधान॥१॥ मेरे मन, गुरमुख धिआय हरि सोय॥ गुर का सबद मन वसै मन तन निरमल होय॥१॥ रहाउ॥ कर किरपा घर आया आपे मिलिआ आय॥ गुरसबदी सालाहीअै रंगे सहज सुभाय॥ सचै सच समाया, मिल रहै न विछुड़ जाय॥२॥ जो किछ करणा सु कर रहिआ अवर न करणा जाय॥ चिरी विछुंने मेलिअन सतगुर पंनै पाय॥ आपे कार कराइसी अवर न करणा जाय॥३॥ मन तन रता रंग सिउ हउमै तज विकार॥ अहिनिस हिरदै रवि रहै निरभउ नाम निरंकार॥ नानक आप मिलाइअन पूरै सबद अपार॥४॥१६॥४९॥ पद्अर्थ: धनु = (धन्य) भाग्य वाली। जननी = मां। जिनि = जिस (मां) ने। जाइआ = जनम दिया। धंनु = (धन्य) भाग्य वाला। सेवि = सेव कर, शरण ले के। दरि = (गुरू के) दर पे। सेवनि = सेवा करते हैं। खड़े = सावधान हो के। पाइनि = पाते हैं। गुणी निधानु = गुणों का खजाना, प्रभु।1। गुरमुखि = गुरू की शरण पड़ के। सोइ = वह । मलि = मन में।1। रहाउ। करि = कर के। घरि = हृदय रूपी घर में। आपे = स्वयं ही। सालाहीअै = सलाहा जा सकता है। रंगे = रंग देता है। सहजि = आत्मिक अडोलता में। सुभाइ = प्रेम में। सचै = सदा स्थिर प्रभु में ही, सत्य ही।2। मेलिअनु = उस (प्रभु) ने मिलाए हैं। सतगुर पंनै = गुरू के पन्ने में, गुरू के लेखे में, गुरू के साथ (लग के)। कराइसी = कराएगा।3। तजि = छोड़ के। अहि = दिन। निसि = रात। निरभउ = भय दूर करने वाला। मिलाइअनु = उस (प्रभु) ने मिलाए हैं। सबदि = गुरू के शबद द्वारा।4। अर्थ: हे मेरे मन! गुरू की शरण पड़ के उस परमात्मा को सिमर। (जिस मनुष्य के) मन में गुरू का शबद बस जाता है उस का मन पवित्र हो जाता है। उसका शरीर पवित्र हो जाता है। (अर्थात्, ज्ञानेन्द्रियां विकारों से हट जाती हैं।)।1। रहाउ। वह माँ भाग्यशाली है जिस ने (गुरू को) जन्म दिया। (गुरू का) पिता भी भाग्यवान है (और मनुष्य जाति में) श्रेष्ठ है। सतिगुरू की शरण लेने से आत्मिक आनन्द प्राप्त होता है (जो मनुष्य गुरू की शरण में आता है उसके) अंदर से अहंकार दूर हो जाता है। (जो) संतजन (गुरू के) दर पर सावधान हो के सेवा करते हैं, वे गुणों के खजाने परमात्मा को मिल लेते हैं।1। (गुरू की शरण पड़ने से ही) परमात्मा (जीव के) हृदय घर में आकर प्रगट होता है, स्वयं ही आ के मिलता है। गुरू के शबद द्वारा ही परमात्मा की सिफत सलाह की जा सकती है (जो मनुष्य सिफत सलाह करता है उसको प्रभु) आत्मिक अडोलता में व (अपने) प्रेम में रंग देता है। (गुरू की शरण पड़ के) मनुष्य सदा स्थिर प्रभु में ही लीन रहता है, सदैव प्रभु चरणों में विलीन रहता है, कभी विछुड़ता नहीं।2। (परमात्मा की रजा ही ऐसी है कि उसको मिलने के वास्ते जीव सत्गुरू की शरण पड़े, इस रजा का उलंघन नहीं हो सकता) वह परमात्मा वही कुछ कर रहा है जो उसकी रजा है। (उस रजा के उलट) और कुछ किया ही नहीं जा सकता। सत्गुरू के साथ लग के परमात्मा ने चिरों से बिछुड़े जीवों को अपने चरणों में मिला लिया है। प्रभु स्वयं ही (गुरू की शरण पड़ने वाला) कर्म (जीवों से) करवाता है, इसके उलट नहीं चला जा सकता।3। (गुरू की शरण पड़ के ही) अहम् का विकार दूर करके मनुष्य का मन और शरीर भी परमात्मा के प्रेम रंग से रंगा जाता है। (अगर जीव गुरू की शरण पड़े तो) आकार-रहित परमात्मा का निर्भैता देने वाला नाम दिन रात उसके हृदय में टिका रहता है। हे नानक! बेअंत पूर्ण प्रभु ने गुरू के शबद के द्वारा स्वयं जीवों को (अपने चरणों में) मिलाया है।4।16।49। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |