श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

Page 33

सिरीरागु महला ३ ॥ गोविदु गुणी निधानु है अंतु न पाइआ जाइ ॥ कथनी बदनी न पाईऐ हउमै विचहु जाइ ॥ सतगुरि मिलिऐ सद भै रचै आपि वसै मनि आइ ॥१॥ भाई रे गुरमुखि बूझै कोइ ॥ बिनु बूझे करम कमावणे जनमु पदारथु खोइ ॥१॥ रहाउ ॥ जिनी चाखिआ तिनी सादु पाइआ बिनु चाखे भरमि भुलाइ ॥ अम्रितु साचा नामु है कहणा कछू न जाइ ॥ पीवत हू परवाणु भइआ पूरै सबदि समाइ ॥२॥ आपे देइ त पाईऐ होरु करणा किछू न जाइ ॥ देवण वाले कै हथि दाति है गुरू दुआरै पाइ ॥ जेहा कीतोनु तेहा होआ जेहे करम कमाइ ॥३॥ जतु सतु संजमु नामु है विणु नावै निरमलु न होइ ॥ पूरै भागि नामु मनि वसै सबदि मिलावा होइ ॥ नानक सहजे ही रंगि वरतदा हरि गुण पावै सोइ ॥४॥१७॥५०॥ {पन्ना 33}

उच्चारण: सिरी राग महला ३॥ गोविंद गुणी निधान है अंत न पाया जाय॥ कथनी बदनी न पाईअै हउमै विचहु जाय॥ सतगुर मिलिअै सद भै रचै आप वसै मन आय॥१॥ भाई रे, गुरमुख बूझे कोय॥ बिन बूझे करम कमावणे, जनम पदारथ खोय॥१॥ रहाउ॥ जिनी चाखिआ तिनी साद पाया बिन चाखे भरम भुलाय॥ अंम्रित साचा नाम है कहणा कछू न जाय॥ पीवत हू परवाण भया पूरै सबद समाय॥२॥ आपे देय त पाईअै होर करणा किछू न जाय॥ देवण वाले के हथ दात है, गुरू दुआरे पाय॥ जेहा कीतोन तेहा होआ जेहे करम कमाय॥३॥ जत सत संजम नामु है विणु नावै निरमल न होय॥ पूरै भाग नाम मन वसै सबद मिलावा होय॥ नानक सहजे ही रंग वरतदा हरि गुण पावै सोय॥४॥१७॥५०॥

पद्अर्थ: गोविदु = धरती के जीवों के दिलों की जानने वाला परमात्मा। निधानु = खजाना। कथनी = (सिर्फ) कहने मात्र से। बदनी = (वद् बोलना) बोलने से। सतिगुरि मिलिअै = अगर गुरू मिल जाए। सद = सदा। भै = डर में, अदब में। रचै = रच जाए, एकमेक हो जाए। मनि = मन में।1।

गुरमुखि = गुरू की शरण पड़ कर। खोइ = गवा लेते हैं।1। रहाउ।

सादु = स्वाद। भरमि = भटकन में। भुलाइ = गलत रास्ते पड़ जाते हैं। कछू = कोई (स्वाद)। हू = ही। पीवत हू = पीते ही।2।

देइ = देता है, अगर दे। कै हथि = के हाथ में। गुरू दुआरै = गुरू के द्वारा। कीतोनु = उन कीतो, उस (प्रभु) ने किया। जेहे = उ+जेहे, उस जैसे।3।

जतु = कामनाओं से बचने के उद्यम। सतु = ऊँचा आचरण। संजमु = इन्द्रियों को विकारों से रोकने का यत्न। विणु नावै = नाम (सिमरन) के बिना। मनि = मन में। सबदि = (गुरू के) शबद द्वारा। सहजे = आत्मिक अडोलता में। रंगि = (प्रभु के) प्रेम में। वरतदा = जीवन व्यतीत करता है। सोइ = वही मनुष्य।4।

अर्थ: हे भाई! जो कोई मनुष्य (सही जीवन जुगति) समझता है वह गुरू के द्वारा ही समझता है। (सही जीवन जुगति) समझने के बिना (निहित धार्मिक) कर्म करने से मनुष्य कीमती मानव जनम गवा लेता है।1। रहाउ।

परमात्मा सभ गुणों का खजाना है। (उसके गुणों का) आखिरी छोर ढूंढा नहीं जा सकता। सिर्फ यही कहने से कथन करने से (कि मैंने परमात्मा को ढूंढ लिया है) परमात्मा को प्राप्त नहीं किया जा सकता। (परमात्मा तभी मिलता है यदि) मनुष्य के अंदर से अहम् खत्म हो जाए। गुरू के मिलने से मनुष्य का हृदय सदा परमत्मा के डर-अदब में भीगा रहता है। (और इस तरह) परमात्मा स्वयं मनुष्य के हृदय में आ बसता है।1।

परमात्मा का सदा स्थिर एक नाम आत्मिक जीवन देने वाला रस है। इसके स्वाद का वर्णन नहीं किया जा सकता। जिन्होंने ये अमृत चखा हैउन्होंने इसके स्वाद का आनन्द लिया है। (नाम अमृत का स्वाद) चखने के बिना मनुष्य माया की भटकन में पड़ कर गलत रास्ते पर पड़ जाता है। पूरे गुरू के शबद में लीन हो के नाम अमृत पीते ही मनुष्य (प्रभु की हजूरी में) कबूल हो जाता है।2।

(नाम अमृत की दात) अगर परमात्मा खुद ही दे तो मिलती है। (अगर उसकी मेहर ना हो तो) और कोई चारा नहीं किया जा सकता। (नाम की दाति) देने वाले परमात्मा के अपने हाथ में यह दात है। (उसकी रजा के अनुसार) गुरू के दर से ही मिलती है। (परमात्मा ने जीव को) जिस तरह का बनाया, जीव वैसा ही बन गया। (फिर) वैसे ही कर्म जीव करता है। (उसकी रजा अनुसार ही जीव गुरू के दर पर आता है)।3।

(मनुष्य अपने जीवन को पवित्र करने के लिए जत सत संजम साधनाएं करता है, पर नाम सिमरन के बिना ये किसी काम के नहीं।) परमात्मा का नाम-अमृत ही जत है, नाम ही सत है और नाम ही संजम है। नाम के बिना मनुष्य पवित्र जीवन वाला नहीं हो सकता। बहुत किस्मत के साथ जिस मनुष्य के मन में परमात्मा का नाम आ बसता है, गुरू के शबद द्वारा मनुष्य का प्रभु से मिलाप हो जाता है।

हे नानक! (गुरू के शबद की बरकति से) जो मनुष्य आत्मिक अडोलता में टिक के परमात्मा के प्रेम रंग में जीवन व्यतीत करता है वह मनुष्य परमात्मा के गुण अपने अंदर बसा लेता है।4।17।50।

सिरीरागु महला ३ ॥ कांइआ साधै उरध तपु करै विचहु हउमै न जाइ ॥ अधिआतम करम जे करे नामु न कब ही पाइ ॥ गुर कै सबदि जीवतु मरै हरि नामु वसै मनि आइ ॥१॥ सुणि मन मेरे भजु सतगुर सरणा ॥ गुर परसादी छुटीऐ बिखु भवजलु सबदि गुर तरणा ॥१॥ रहाउ ॥ त्रै गुण सभा धातु है दूजा भाउ विकारु ॥ पंडितु पड़ै बंधन मोह बाधा नह बूझै बिखिआ पिआरि ॥ सतगुरि मिलिऐ त्रिकुटी छूटै चउथै पदि मुकति दुआरु ॥२॥ गुर ते मारगु पाईऐ चूकै मोहु गुबारु ॥ सबदि मरै ता उधरै पाए मोख दुआरु ॥ गुर परसादी मिलि रहै सचु नामु करतारु ॥३॥ इहु मनूआ अति सबल है छडे न कितै उपाइ ॥ दूजै भाइ दुखु लाइदा बहुती देइ सजाइ ॥ नानक नामि लगे से उबरे हउमै सबदि गवाइ ॥४॥१८॥५१॥ {पन्ना 33}

उच्चारण: सिरीराग महला ३॥ कांइआ साधै, उरध तप करै, विचहु हउमै न जाय॥ अधिआतम करम जे करे नाम न कबही पाय॥ गुर कै सबद जीवत मरै हरिनाम वसै मन आय॥१॥ सुण मन मेरे, भज सतगुर सरणा॥ गुर परसादी छुटीअै, बिख भवजल सबद गुर तरणा॥१॥ रहाउ॥ त्रै गुण सभा धात है दूजा भाउ विकार॥ पंडित पढ़ै बंधन मोह बाधा नह बूझै बिखिआ पिआर॥ सतगुर मिलिअै त्रिकुटी छुटै चउथै पद मुकत दुआर॥२॥ गुर ते मारग पाईअै चूकै मोह गुबार॥ सबद मरै ता उधरै पाऐ मोख दुआर॥ गुर परसादी मिल रहै सच नाम करतार॥३॥ इह मनूआ अत सबल है छडे न कितै उपाय॥ दूजे भाए दुखु लाइदा बहुती देइ सजाय॥ नानक नाम लगे से उबरे हउमै सबदि गवाइ॥४॥१८॥५१॥

पद्अर्थ: कांइआ = शरीर। साधै = साधता है, बस में रखने के यत्न करता है। उरध = उल्टा लटक के। अधिआतम कर्म-आत्मा संबंधी धार्मिक कर्म। आध्यात्म = आत्मा संबंधी। कब ही = कभी भी। जीवतु मरै = जीता हुआ मर जाए, दुनिया का कार्य-व्यवहार करता हुआ ही विकारों से बचा रहे। मनि = मन में।1।

भजु सरणा = शरण पड़ो। छुटीअै = (माया के प्रभाव से) बचना है। बिखु = जहर, माया की जहरीला असर। भव जल = संसार समुंद्र।1। रहाउ।

त्रै गुण = माया के तीन गुण: रजो गुण तमो गुण व सतो गुण। धातु = माया। दूजा भाउ = (प्रभु के बिना) और प्यार। बिखिआ पिआरि = माया के प्यार में। त्रिकुटी = माथे की लकीरें, अंदर का खिज। चउथे पद = उस आत्मिक दर्जे में जो माया के तीन गुणों से ऊपर है।2।

ते = से। मारगु = (जीवन का सही) रास्ता। गुबार = अंधेरा। सबदि = गुरू के शबद से। उधरै = बच जाता है। मोख दुआरु = (विकारों से) बचने का रास्ता, मोक्ष द्वार। मिलि रहै = जुड़ा रहे।3।

सबल = बलवान। कितै उपाइ = किसी भी तरह से। दूजै भाइ = माया के प्रेम में। देइ = देता है। सबदि = शबद से। जलाइ = जला के।4।

अर्थ: हे मेरे मन! (मेरी बात) सुन। सत्गुरू की शरण पड़। (माया के प्रभाव से) गुरू की कृपा से बचते हैं। ये जहर (भरा) संसार समुंद्र गुरू के शबद द्वारा ही तैर सकते हैं।1 रहाउ।

मानव शरीर को (ज्ञानेन्द्रियों को) अपने बस में रखने के कई प्रयत्न करता है। उल्टा लटक के तप करता है। (पर इस तरह) अंदर का अहम् दूर नहीं होता। अगर मनुष्य आत्मिक उन्नति संबंधी (ऐसे नियत धार्मिक) कर्म करता रहे, तो कभी भी वह परमात्मा का नाम प्राप्त नहीं कर सकता। जो मनुष्य गुरू के शबद की सहायता से दुनिया की कृत कार करता हुआ ही विकारों से बचता है, उसके मन में प्रभु का नाम आ बसता है।1।

तीन गुणों के अधीन रह कर काम करना, यह सारा माया का ही प्रभाव है। और माया का ही प्यार (मन में) विकार पैदा करता है। माया के बंधनों के मोह में फंसा हुआ पंडित (धर्म पुस्तकें) पढ़ता है, पर माया के प्यार में (फंसा रहने के कारण वह जीवन का सही रास्ता) नहीं समझ सकता। अगर सतिगुरू मिल जाए तो (माया मोह के कारण पैदा हुई अंदर की खिज) दूर हो जाती है। माया के तीन गुणों से ऊपर के आत्मिक दर्जे में (पहुँचने से) (माया के मोह से खलासी) का दरवाजा मिल जाता है।2।

गुरू से जीवन का सही राह मिल जाता है। (मन में से) मोह का अंधेरा दूर हो जाता है। अगर मनुष्य गुरू के शबद से जुड़ के माया के मोह से मर जाए तो (संसार समुंद्र में डूबने से बच जाता है)

और विकारों से खलासी का राह मिल जाता है। गुरू की कृपा से ही मनुष्य (प्रभु चरणों में) जुड़ा रह सकता है और प्रभु का सदा स्थिर नाम प्राप्त कर सकता है।3।

(नहीं तो) यह मन (तो) बड़ा बलवान है (गुरू की शरण के बिना और) किसी भी तरीके से ये (गलत रास्ते पड़ने से) हटता नहीं। माया के प्यार में फसा के (मनुष्य को) दुख चिपका लेता है, तथा बड़ी सजा देता है।

हे नानक! जो लोग गुरू के शबद से अहम् दूर करके परमात्मा के नाम में जुड़ते हैं वह (इसके पंजे से) बचते हैं।4।18।51।

सिरीरागु महला ३ ॥ किरपा करे गुरु पाईऐ हरि नामो देइ द्रिड़ाइ ॥ बिनु गुर किनै न पाइओ बिरथा जनमु गवाइ ॥ मनमुख करम कमावणे दरगह मिलै सजाइ ॥१॥ मन रे दूजा भाउ चुकाइ ॥ अंतरि तेरै हरि वसै गुर सेवा सुखु पाइ ॥ रहाउ ॥ सचु बाणी सचु सबदु है जा सचि धरे पिआरु ॥ हरि का नामु मनि वसै हउमै क्रोधु निवारि ॥ मनि निरमल नामु धिआईऐ ता पाए मोख दुआरु ॥२॥ हउमै विचि जगु बिनसदा मरि जमै आवै जाइ ॥ मनमुख सबदु न जाणनी जासनि पति गवाइ ॥ गुर सेवा नाउ पाईऐ सचे रहै समाइ ॥३॥ सबदि मंनिऐ गुरु पाईऐ विचहु आपु गवाइ ॥ अनदिनु भगति करे सदा साचे की लिव लाइ ॥ नामु पदारथु मनि वसिआ नानक सहजि समाइ ॥४॥१९॥५२॥ {पन्ना 33-34}

उच्चारण: सिरी राग महला ३॥ किरपा करे गुर पाईअै हरि नामो देय द्रिड़ाय॥ बिन गुर किनै न पायो बिरथा जनम गवाय॥ मनमुख करम कमावणे दरगह मिलै सजाय॥१॥ मन रे दूजा भाउ चुकाय॥ अंतर तेरै हरि वसै गुर सेवा सुख पाय॥ रहाउ॥ सच बाणी सच सबद है जा सच धरे पिआर॥ हरि का नाम मन वसै हउमै क्रोध निवार॥ मन निरमल नाम धिआईअै ता पाऐ मोख दुआर॥२॥ हउमै विच जग बिनसदा मर जंमै आवै जाय॥ मनमुख सबद न जाणनी जासन पत गवाय॥ गुर सेवा नाउ पाईअै सचे रहै समाय॥३॥ सबद मंनिअै गुर पाईअै विचहु आप गवाय॥ अनदिन भगत करे सदा साचे की लिव लाय॥ नाम पदारथ मन वसिआ नानक सहज समाय॥४॥१९॥५२॥

पद्अर्थ: नामो = नामु। देइद्रिड़ाइ = हृदय में पक्का कर देता है। किनै = किसी ने भी। अंतरि तेरै = तेरे अंदर।1। रहाउ।

सचु = यथार्थ, ठीक। जा = जब। सचि = सदा स्थिर प्रभु में। निवारि = दूर करके। मनि = मन में। धिआईअै = सिमरा जा सकता है।2।

बिनसदा = आत्मिक मौत मरता है। जाणनी = जानते। जासनि = जाएंगे। पति = इज्जत। सचे = सच ही, सदा स्थिर प्रभु में ही।3।

सबदि मंनिअै = अगर गुरू के शबद में श्रद्धा बन जाए। आपु = स्वै भाव। अनदिनु = हर रोज। मनि = मन में। सहजि = आत्मिक अडोलता में।4।

अर्थ: (जब परमात्मा) कृपा करता है (तो) गुरू मिलता है (गुरू मनुष्य के हृदय में) परमात्मा का नाम पक्का कर देता है। (कभी भी) किसी मनुष्य ने गुरू के बिना (परमात्मा को) नहीं प्राप्त किया। (जो मनुष्य गुरू की शरण नहीं आता वह) अपना मानव जन्म व्यर्थ गवा लेता है। अपने मन के पीछे चल के (नीयत धार्मिक) कर्म (भी) करने से प्रभु की दरगाह में सजा ही मिलती है।1। रहाउ।

हे मेरे मन! (गुरू की शरण पड़ कर अपने अंदर से) माया का प्यार दूर कर। परमात्मा तेरे अंदर बसता है (फिर भी तू सुखी नहीं है) गुरू द्वारा बताई सेवा भक्ति करने से ही आत्मिक सुख की प्राप्ति होती है।1। रहाउ।

जब मनुष्य सदा स्थिर प्रभु में प्यार जोड़ता है, तब उस को गुरू की बाणी गुरू का शबद यर्थाथ प्रतीत होता है (गुरू के शबद द्वारा अंदर से) अहम् व क्रोध दूर करके परमात्मा का नाम मनुष्य के मन में आ बसता है। परमात्मा का नाम पवित्र मन के द्वारा ही सिमरा जा सकता है (जब मनुष्य सिमरता है) तब विकारों से निजात की राह ढूँढ लेता है।3।

जगत अहम् में फंस कर आत्मिक मौत सहता है और बारंबार पैदा होता मरता रहता है। अपने मन के पीछे चलने वाले लोग गुरू के शबद (की कद्र) नहीं जानते। वह अपनी इज्जत गवा के ही (जगत में से) जाऐंगे। गुरू की बताई सेवा-भक्ति करने से परमात्मा का नाम प्राप्त होता है (जो मनुष्य गुरू की बताई सेवा करता है वह) सदा स्थिर परमात्मा में लीन रहता है।3।

अगर गुरू के शबद में श्रद्धा बन जाए तो गुरू मिल जाता है (जो मनुष्य गुरू के शबद में श्रद्धा बनाता है वह अपने) अंदर से अहम् दूर कर लेता है। वह हर वक्त सदा स्थिर प्रभु के चरणों में सुरति जोड़ के सदा उसकी भक्ति करता है। हे नानक! उस के मन में परमात्मा का अमुल्य नाम आ बसता है। वह आत्मिक अडोलता में भी टिका रहता है।4।19।52।

TOP OF PAGE

Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh