श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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सिरीरागु महला ५ घरु १ ॥ किआ तू रता देखि कै पुत्र कलत्र सीगार ॥ रस भोगहि खुसीआ करहि माणहि रंग अपार ॥ बहुतु करहि फुरमाइसी वरतहि होइ अफार ॥ करता चिति न आवई मनमुख अंध गवार ॥१॥ मेरे मन सुखदाता हरि सोइ ॥ गुर परसादी पाईऐ करमि परापति होइ ॥१॥ रहाउ ॥ कपड़ि भोगि लपटाइआ सुइना रुपा खाकु ॥ हैवर गैवर बहु रंगे कीए रथ अथाक ॥ किस ही चिति न पावही बिसरिआ सभ साक ॥ सिरजणहारि भुलाइआ विणु नावै नापाक ॥२॥ लैदा बद दुआइ तूं माइआ करहि इकत ॥ जिस नो तूं पतीआइदा सो सणु तुझै अनित ॥ अहंकारु करहि अहंकारीआ विआपिआ मन की मति ॥ तिनि प्रभि आपि भुलाइआ ना तिसु जाति न पति ॥३॥ सतिगुरि पुरखि मिलाइआ इको सजणु सोइ ॥ हरि जन का राखा एकु है किआ माणस हउमै रोइ ॥ जो हरि जन भावै सो करे दरि फेरु न पावै कोइ ॥ नानक रता रंगि हरि सभ जग महि चानणु होइ ॥४॥१॥७१॥ {पन्ना 42}

उच्चारण: सिरी राग महला ५ घरु १॥ किआ तू रता, देख कै पुत्र कलत्र सीगार॥ रस भोगहि, खुसीआ करहि, माणहि रंग अपार॥ बहुत करहि फुरमाइसी वरतहि होय अफार॥ करता चित न आवई मनमुख अंध गवार॥१॥ मेरे मन, सुखदाता हरि सोय॥ गुर परसादी पाईअै करम परापत होय॥१॥ रहाउ॥ कपड़ भोग लपटाइआ सुइना रुपा खाक॥ हैवर गैवर बहु रंगे कीऐ रथ अथाक॥ किस ही चित न पावही बिसरिआ सभ साक॥ सिरजणहार भुलाइआ विणु नावै नापाक॥२॥ लैदा बद दुआइ तूं माइआ करहि इकत॥ जिस नो तूं पतीआइदा सो सुण तुझै अनित॥ अहंकार करहि अहंकारीआ विआपिआ मन की मत॥ तिन प्रभ आप भुलाया ना तिस जात न पत॥३॥ सतगुर पुरख मिलाइआ इको सजण सोय॥ हरि जन का राखा एक है, किआ माणस, हउमै रोय॥ जो हरि जन भावै सो करे दर फेर न पावै कोय॥ नानक रता रंग हरि, सभ जग महि चानण होय॥४॥१॥७१॥

पद्अर्थ: रता = रॅता, मस्त। भोगहि = तूं भोगता है। अपार = बेअंत। फुरमाइसी = (‘फुरमायश’ का बहुवचन) हुकम। अफार = आफरा हुआ, अहंकारी। चिति = (तेरे) चिक्त में। आवई = आए, आता। मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाला। अंध = हे अंधे! गवार = हे मूर्ख।1।

सोइ = वह ही। गुर परसादी = गुरू की कृपा से। करमि = (करमु = बख्शिश) मेहर से।1। रहाउ।

कपड़ि = कपड़े में, कपड़े इस्तेमाल में। भोगि = भोग में, खाने में। लपटाइआ = मस्त, फंसा हुआ। रुपा = चांदी। खाकु = धरती। हैवर = (हय+वर) बढ़ीया घोड़े। गैवर = (गज+वर) बढ़ीया हाथी। बहु रंगे = कई रंगों में, कई किस्मों में। अथाक = (अ+थक), ना थकने वाले। पावही = पाना, प्राप्ति, तू पाता है, लाता है। साक = संबंधी। सिरजणहारि = सृजनहार ने। नापाक = गंदा, मलीन, अपवित्र।2।

बद दुआइ = बद् असीसें। इकत = एकत्र, इकट्ठी। जिस नो = जिस (कुटंब) को। पतिआइदा = खुश करता है। सणु = समेत। सणु तुझे = तेरे सहित। अनित = ना नित्य रहने वाला, नाशवंत। विआपिआ = व्याप्त, फसा हुआ, दबाव में आया हुआ। तिनि = उस ने। प्रभि = प्रभु ने। तिनि प्रभि = उस प्रभु ने। पति = (दुनिआवी) इज्जत।3।

सतिगुरि = सतिगुर ने। पुरखि = पुरख ने। सतिगुर पुरखि = अकाल-पुरख के रूप गुरू ने। माणह = (बहुवचन) मनुष्य। रोइ = रोता है। दरि = दर पे। फेरु = फेरा, मोड़ा। रंगि = प्रेम में। चानणु = प्रकाश (-मीनार)।4।

अर्थ: हे मेरे मन! वह परमात्मा स्वयं ही सुख देने वाला है। (वह परमात्मा) गुरू की कृपा से मिलता है (अपनी ही) मेहर से मिलता है।1। रहाउ।

हे अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य ! हे (माया के मोह में) अंधे हुए मनुष्य! हे मूर्ख! तू (अपने) पुत्रों को देख के, (अपनी) स्त्री के हाव-भाव को देख के क्यूँ मस्त हो रहा है? तू (दुनिया के कई) रस भोगता है, तू (कई तरह की) खुशियों का आनन्द लेता है, तू अनेकों (किस्म की) मौजें करता है। तू बड़े हुकम (भी) देता है, तू अहंकारी हो के (लोगों के साथ अहंकारी) बरताव करता है। तुझे करतार याद ही नहीं रहा।1।

(हे मूर्ख!) तू खाने में, पहनने में मस्त हो रहा है, तू सोना, चांदी धरती एकत्र कर रहा है। तूने कई किस्मों के बढ़ीया घोड़े, बढ़ीया हाथी और कभी ना थकने वाले रॅथ इकट्ठे कर लिए हैं। (माया की मस्ती में) तू अपने साक संबंधियों को भी भुला बैठा है, किसी को तू अपने चिक्त में नहीं लाता।

परमात्मा के नाम के बिना तू (आत्मिक जीवन में) गंदा है। सृजनहार प्रभु ने तुझे अपने मन से उतार दिया है।2।

(हे मूर्ख!) तू (धक्केशाही करके) संपक्ति एकत्र करता है (जिस करके लोगों की) बद्-दुआएं लेता है। (पर) जिस (परिवार) को तू (इस सम्पदा से) खुश करता है वह तेरे समेत ही नाशवंत है। हे अहंकारी! तू अपने मन की मति के दबाव में आया हुआ है और (धन-सम्पक्ति) का गुमान करता है।

जिस (दुर्भाग्य वाले जीव) को उस प्रभु ने स्वयं ही गुमराह किया हो (प्रभु की हजूरी में) ना उसकी (ऊँची) जाति (किसी काम की) ना (दुनिया वाली कोई) इज्जत।3।

अकाल-पुरख के रूप सतिगुरू ने जिस मनुष्य को वह प्रभु सज्जन ही मिला दिया है, प्रभु के उस सेवक का रखवाला (हर जगह) प्रभु खुद ही बनता ळै। दुनिया के लोग उसका कुछ बिगाड़ नहीं सकते। (पर अपनी) अहम् में (फंसा मनुष्य) दुखी (ही) रहता है।

परमात्मा के सेवक को जो अच्छा लगता है, परमात्मा वही करता है। परमात्मा के दर पे उसकी बात कोई काट नहीं सकता। हे नानक! जो मनुष्य परमात्मा के प्यार रंग में रंगा रहता है, वह सारे जगत में प्रकाश (-मीनार) बन जाता है।4।1।71।

नोट: अंक नं:1 बताता है कि महला 5 का यह पहिला शबद है।

सिरीरागु महला ५ ॥ मनि बिलासु बहु रंगु घणा द्रिसटि भूलि खुसीआ ॥ छत्रधार बादिसाहीआ विचि सहसे परीआ ॥१॥ भाई रे सुखु साधसंगि पाइआ ॥ लिखिआ लेखु तिनि पुरखि बिधातै दुखु सहसा मिटि गइआ ॥१॥ रहाउ ॥ जेते थान थनंतरा तेते भवि आइआ ॥ धन पाती वड भूमीआ मेरी मेरी करि परिआ ॥२॥ हुकमु चलाए निसंग होइ वरतै अफरिआ ॥ सभु को वसगति करि लइओनु बिनु नावै खाकु रलिआ ॥३॥ कोटि तेतीस सेवका सिध साधिक दरि खरिआ ॥ गिर्मबारी वड साहबी सभु नानक सुपनु थीआ ॥४॥२॥७२॥ {पन्ना 42}

उच्चारण: सिरी राग महला ५॥ मन बिलास बहु रंग घणा द्रिसट भूल खुसीआ॥ छत्रधार बादिसाहीआं विच सहसे परीआ॥१॥ भाई रे, सुख साधसंग पाया॥ लिखिआ लेख तिन पुरख बिधातै दुख सहसा मिट गया॥१॥ रहाउ॥ जेते थान थनंतरा तेते भव आया॥ धन पाती वड भूमीआ मेरी मेरी करि परिआ॥२॥ हुकम चलाऐ निसंग होय वरतै अफरिआ॥ सभ को वसगत कर लइओन बिन नावै खाक रलिआ॥३॥ कोट तेतीस सेवका सिध साधिक दर खरिआ॥ गिरंबारी वड साहबी सभ नानक सुपन थीआ॥४॥२॥७२॥ (पन्ना ४२)

पद्अर्थ: मनि = मन में। बिलासु = खेल तमाशा। बहु रंगु = कई रंगों का। घणा = बहुत। द्रिसटि = नजर, निगाह। भूलि = भूल के। छत्रधार बादसाहीआ = वह बादशाहियां जिनकी रहमत से सिर पे छत्र टिके हुए हों। सहसा = फिक्र, सहम, संशय।

साध संगि = साध संग में। तिनि = उस ने। पुरखि = (अकाल) पुरख ने। बिधातै = सृजनहार ने।1। रहाउ।

थान थनंतरा = थान थान अंतरा। धरती की और और जगह। भवि आइआ = देख के आया। धनपाती = धनपति, धनाढ। भूमीआ = भुमि का मालिक।2।

निसंग = संग के बिना, बिना शर्म के। अफरिआ = अफरा हुआ, अहंकारी। सभ को = हरेक जीव को। वसगति = बस में। लइओनि = लिया है उसने। खाकु = मिट्टी (में)।3।

कोटि तेतीस = तेतीस करोड़ देवते। दरि = दर से। गिरंबारी = गिरां बारी, भारी जिम्मेवारी वाली। गिरां = भारी। बार = बोझ, जिंमेवारी। साहबी = हकूमत। थीआ = हो जाता है।4।

अर्थ: हे भाई! साध-संगति में ही सुख मिलता है। उस अकाल-पुरख सृजनहार ने (जिसके माथे पर अच्छे भाग्यों का) लेख लिख दिया (उस को सत्संग मिलता है तथा उसका) दुख सहम दूर हो जाता है।1। रहाउ।

अगर किसी मनुष्य के मन में कई किस्म की बहुत सी चाव-उमंगें हों, अगर उसकी निगाह (दुनियां की) खुशियों में ही भूली रहें, अगर ऐसी बादशाहियां मिलती हों कि सिर पर छत्र टिके रहें, तो भी (साध-संगति के बिना ये सभ मौजें) सहम में डाल के रखती हैं।1।

धरती पे जितनी भी सुंदर सुंदर जगहें हैं (अगर कोई मनुष्य) वह सारे ही स्थल घूम घूम के देख आया हो, अगर कोई बहुत धनाड हो, बहुत सारी धरती का मालिक हो, तो भी (साध-संगति के बिना) “मेरा पैसा” “मेरी जमीन” कह कह के दुखी रहता है।2।

अगर कोई मनुष्य डर-खतरा-झिझक उतार के (लोगों पे) अपना हुकम चलाए, लोगों से बड़ी अकड़ वाला सलूक करे, अगर उसने हरेक को अपने वस में कर लिया हो तो भी (साध-संगति से वंचित रह के परमात्मा के) नाम के बगैर (सुख नहीं मिलता, और आखिर) मिट्टी में मिल जाता है।3।

अगर कोई इतनी बड़ी हकूमत का मालिक बन जाए, कि भारी जिंमेवारी भी मिल जाए, और तेतीस करोड़ देवते उसके सेवक बन जाएं, सिद्ध और साधक उसके दर पर खड़े रहें, तो भी, हे नानक! (साध-संगति के बिना सुख नहीं मिलता, और) ये सभ कुछ आखिर सपना बन के रह जाता है।4।2।72।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh