श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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सिरीरागु महला ५ ॥ भलके उठि पपोलीऐ विणु बुझे मुगध अजाणि ॥ सो प्रभु चिति न आइओ छुटैगी बेबाणि ॥ सतिगुर सेती चितु लाइ सदा सदा रंगु माणि ॥१॥ प्राणी तूं आइआ लाहा लैणि ॥ लगा कितु कुफकड़े सभ मुकदी चली रैणि ॥१॥ रहाउ ॥ कुदम करे पसु पंखीआ दिसै नाही कालु ॥ ओतै साथि मनुखु है फाथा माइआ जालि ॥ मुकते सेई भालीअहि जि सचा नामु समालि ॥२॥ जो घरु छडि गवावणा सो लगा मन माहि ॥ जिथै जाइ तुधु वरतणा तिस की चिंता नाहि ॥ फाथे सेई निकले जि गुर की पैरी पाहि ॥३॥ कोई रखि न सकई दूजा को न दिखाइ ॥ चारे कुंडा भालि कै आइ पइआ सरणाइ ॥ नानक सचै पातिसाहि डुबदा लइआ कढाइ ॥४॥३॥७३॥ {पन्ना 43}

उच्चारण: सिरी राग महला ५॥ भलके उठ पपोलीअै विण बुझे मुगध अजाण॥ सो प्रभ चित न आयो छुटैगी बेबाण॥ सतगुर सेती चित लाय सदा सदा रंग माण॥१॥ प्राणी तूं आया लाहा लैण॥ लगा कित कुफकड़े सभ मुकदी चली रैण॥१॥ रहाउ॥ कुदम करे पस पंखीआ दिसै नाही काल॥ ओतै साथ मनुख है फाथा माया जाल॥ मुकते सेई भालीअहि जि सचा नाम समाल॥२॥ जो घर छडि गवावणा सो लगा मन माहि॥ जिथै जाय तुध वरतणा तिस की चिंता नाहि॥ फाथे सेई निकले जि गुर की पैरी पाहि॥३॥ कोई रख न सकई दूजा को न दिखाय॥ चारे कुंडा भाल कै आय पया सरणाय॥ नानक सचै पातसाह डुबदा लया कढाय॥४॥३॥७३॥

पद्अर्थ: भलके = नित्य हर रोज। उठि = उठ के,उद्यम से। पपोलीअै = पालना पोसना है। मुगध = मूर्ख। अजाणि = बेसमझ। चिति = चिक्त में। छुटैगी = अकेली छोड़ दी जाएगी। बेबाणि = बीआबान में, जंगल में, मसाणों में। सेती = साथ। रंगु = आत्मिक आनंद।1।

लाहा = लाभ। लैणि = लेने के वास्ते। कितु = किस में? कुफकड़े = फक्करी पड़ने वाले काम में, खुआरी पड़ने वाले काम में। रैणि = (उम्र की) रात।1। रहाउ।

कुदमु = कलोल। पंखीआं = पक्षी। काल = मौत। ओतै साथि = उस टोले में, उस तरह का। जालि = जाल में। मुकते = (जाल में से) आजाद। सेई = वही लोग। भालीअहि = मिलते हैं। जि = जो।2।

तुधु = तू। चिंता = ख्याल। पाहि = पड़ते हैं।3।

न दिखाइ = नहीं दिखाई देता। चारे कुंडा = चारों तरफ, सारी दुनिया (कुंड)। सचै पातशाहि = सॅचे पातशाह ने, सत्गुरू ने।4।

अर्थ: हे प्राणी ! तू (जगत में परमात्मा के नाम का) लाभ लेने के लिए आया है। तू किस खुआरी वाले काम में उलझा हुआ है? तेरी जिंदगी की सारी रात खत्म होती जा रही है।1। रहाउ।

हर रोज उद्यम से इस शरीर को पालते पोसते हैं, (जिंदगी का मनोरथ) समझे बगैर यह मूर्ख ही रह जाता है। इसे कभी उस परमात्मा (जिसने इसे पैदा किया है) याद नहीं आता, और आखिर में इसे मसाणों में फेक दिया जाएगा।

(हे प्राणी! अभी भी वक्त है, अपने) गुरू के साथ चिक्त जोड़ ले, और (परमात्मा का नाम सिमर के) सदा कायम रहने वाला आत्मिक आनंद ले।1।

पशु कलोल करते हैं, पंक्षी कलोल करते हैं। (पशु और पंक्षी को) मौत नहीं दिखती। (पर) मनुष्य भी उसके साथ ही जा मिला है (पशु पक्षी की तरह इसे भी मौत याद नहीं, और यह) माया के जाल में फंसा हुआ है। माया के जाल से बचे हुए वही लोग दिखते हैं जो परमात्मा का सदा कायम रहने वाला नाम हृदय में बसाते हैं।2।

(हे प्राणी!) जो (ये) घर छोड़ के सदा के लिए चले जाना है, वह तुझे अपने मन में (प्यारा) लग रहा है। और जहां जा के तेरा वास्ता पड़ना है, उसका तूझे (रॅक्ती भर भी) फिक्र नहीं। (सभ जीव माया के मोह में फंसे हुए हैं, इस मोह में) फंसे हुए वही बंदे निकलते हैं जो गुरू के चरणों में पड़ जाते हैं।3।

(पर, माया का मोह है ही बड़ा प्रबल, इस में से गुरू के बिना) और कोई बचा नहीं सकता। (गुरू के बिना ऐसी स्मर्था वाला) कोई दिखाई नहीं देता। मैं तो सारी सृष्टि ढूंढ के गुरू की शरण आ पड़ा हूँ। हे नानक (कह) सॅचे पातशाह ने, गुरू ने मुझे (माया के मोह समुंद्र में) डूब रहे को निकाल लिया है।4।3।73।

सिरीरागु महला ५ ॥ घड़ी मुहत का पाहुणा काज सवारणहारु ॥ माइआ कामि विआपिआ समझै नाही गावारु ॥ उठि चलिआ पछुताइआ परिआ वसि जंदार ॥१॥ अंधे तूं बैठा कंधी पाहि ॥ जे होवी पूरबि लिखिआ ता गुर का बचनु कमाहि ॥१॥ रहाउ ॥ हरी नाही नह डडुरी पकी वढणहार ॥ लै लै दात पहुतिआ लावे करि तईआरु ॥ जा होआ हुकमु किरसाण दा ता लुणि मिणिआ खेतारु ॥२॥ पहिला पहरु धंधै गइआ दूजै भरि सोइआ ॥ तीजै झाख झखाइआ चउथै भोरु भइआ ॥ कद ही चिति न आइओ जिनि जीउ पिंडु दीआ ॥३॥ साधसंगति कउ वारिआ जीउ कीआ कुरबाणु ॥ जिस ते सोझी मनि पई मिलिआ पुरखु सुजाणु ॥ नानक डिठा सदा नालि हरि अंतरजामी जाणु ॥४॥४॥७४॥ {पन्ना 43}

उच्चारण: सिरी राग महला ५॥ घड़ी मुहत का पाहुणा काज सवारणहार॥ माया काम विआपिआ समझै नाही गावार॥ उठ चलिआ पछुताया परिआ वस जंदार॥१॥ अंधे, तू बैठा कंधी पाहि॥ जे होवी पूरब लिखिआ ता गुर का बचन कमाहि॥१॥ रहाउ॥ हरी नाही नह डडुरी पकी वढणहार॥ लै लै दात पहुतिआ लावे करि तईआर॥ जा होआ हुकमु किरसाण दा ता लुणि मिणिआ खेतार॥२॥ पहिला पहर धंधै गया दूजे भर सोया॥ तीजै झाख झखाया चउथै भोर भया॥ कद ही चिति न आयो जिनि जीउ पिंड दीआ॥३॥ साध-संगत कउ वारिआ जीउ कीआ कुरबाण॥ जिस ते सोझी मन पई मिलिआ पुरख सुजाण॥ नानक डिठा सदा नाल, हरि अंतरजामी जाण॥४॥४॥७४॥

पद्अर्थ: मुहत = मुहुर्त, दो घड़ीआं। पाहुणा = प्राहुणा। कामि वासना = काम वासना में। विआपिआ = फसा हुआ। गावारु = मूर्ख। उठि = उठ के। वसि जंदार = जंदार के बस में, यम के वस में। जंदार = जंदाल, अवैड़ा, यम।1।

कंधी = नदी का किनारा। पाहि = पास। पूरबि = शुरू से।1। रहाउ।

डडुरी = वह खेती जिसमें दाने पड़ चुके हैं पर अभी कच्चे और नर्म हैं। दात = दातरी, हसिया। पहुतिआ = पहुँच गए। लावे = फसल काटने वाले। करि = कर के। किरसाण = किसान, खेत का मालिक। लुणि = काट के। खेतारु = सारा खेत।2।

धंधे = धंधे में, जंजाल में। भरि = भर के, अघा के, पेट भर के। झाख झखाइआ = विषौ भोगे। भोरु = भोर, सुबहु, दिन। चिति = चिॅक्त में। जिनि = जिस प्रभु ने। जीउ = जिंद। पिंडु = शरीर।3।

वारिआ = कुर्बान, सदके। मनि = मन मे। सुजाण = सियाना, होशियार। पाणु = सियाना।4।

अर्थ: हे (माया के मोह में) अंधे हुए जीव! (जैसे कोई पेड़ नदी के किनारे पर उगा हुआ हो तो किसी भी समय नदी के किनारे के टूटने से वृक्ष नदी में बह सकता है, ठीक उसी तरह) तू (मौत रूपी नदी के) किनारे पर बैठा हुआ है (पता नहीं किस वक्त मौत आ जाए)। अगर (तेरे माथे पर) पूर्व जन्म में (की हुई कमाई के अच्छे लेख) लिखे हुए हों तो तू गुरू का उपदेश कमा ले (गुरू के उपदेश मुताबक अपना जीवन बनाए, और आत्मिक मौत से बच जाए)।1। रहाउ।

(किसी के घर घड़ी दो घड़ी के लिये गया हुआ मेहमान उस घर के काम संवारने वाला बन बैठे तो हास्यास्पद ही होता है, उसी तरह से जीव इस जगत में) घड़ी दो घड़ियों का मेहमान ही है, पर इस के ही काम-धंधे निपटाने वाला बन जाता है। मूर्ख (जीवन का सही रास्ता) नहीं समझता, माया के मोह में और कामवासना में फंसा रहता है। जब (यहां से) उठ के चल पड़ता है तो पछताता है (पर, उस वक्त पछताने से क्या होता है?) यमों के तो बस पड़ जाता है।1।

यह जरूरी नहीं कि हरी खेती ना काटी जाए, डोडियों पर आई अधपकी फसल ना काटी जाए, और सिर्फ पकी हुई ही काटी जाए। जब खेत के मालिक का हुकम होता है, वह काटने वाले तैयार करता है जो हसिए ले ले के (खेत में) आ पहुंचते हैं। (वह काटने वाले खेत को) काट के सारा खेत नाप लेते हैं। (इस तरह जगत का मालिक प्रभु जब हुकम करता है जम आ के जीवों को ले जाते हैं, चाहे बाल उम्र हो, चाहे जवान हो और चाहे बुजुर्ग हो चुके हों)।2।

(माया में ग्रसे मूर्ख मनुष्य की जीवन की रात का) पहिला पहर दुनिया के धंधों में बीत जाता है। दूसरे पहर (मोह की नींद में) जी भर के सोता रहता है, तीसरे पहर विषय भोगता रहता है। और चौथे पहर (आखिर) दिन चढ़ जाता है (बुढ़ापा आ के मौत आ पुकारती है)। जिस प्रभु ने ये जीवात्मा और शरीर दिया है वह कभी भी इसके चिक्त में नहीं आता (उसे कभी भी याद नहीं करता)।3।

हे नानक! (कह) मैं साध-संगति पर सदके जाता हूं, साध-संगति के ऊपर अपनी जीवात्मा कुर्बान करता हूं। क्योंकि, साध-संगति से ही मन में (प्रभु के सिमरन की) सूझ पैदा होती है, (साध-संगति द्वारा ही) सभ के दिल की जानने वाला अकाल-पुरख मिलता है। अंतरयामी सुजान प्रभु को (साध-संगति की कृपा से ही) मैंने सदा अपने अंग-संग देखा है।4।4।74।

सिरीरागु महला ५ ॥ सभे गला विसरनु इको विसरि न जाउ ॥ धंधा सभु जलाइ कै गुरि नामु दीआ सचु सुआउ ॥ आसा सभे लाहि कै इका आस कमाउ ॥ जिनी सतिगुरु सेविआ तिन अगै मिलिआ थाउ ॥१॥ मन मेरे करते नो सालाहि ॥ सभे छडि सिआणपा गुर की पैरी पाहि ॥१॥ रहाउ ॥ दुख भुख नह विआपई जे सुखदाता मनि होइ ॥ कित ही कमि न छिजीऐ जा हिरदै सचा सोइ ॥ जिसु तूं रखहि हथ दे तिसु मारि न सकै कोइ ॥ सुखदाता गुरु सेवीऐ सभि अवगण कढै धोइ ॥२॥ सेवा मंगै सेवको लाईआं अपुनी सेव ॥ साधू संगु मसकते तूठै पावा देव ॥ सभु किछु वसगति साहिबै आपे करण करेव ॥ सतिगुर कै बलिहारणै मनसा सभ पूरेव ॥३॥ इको दिसै सजणो इको भाई मीतु ॥ इकसै दी सामगरी इकसै दी है रीति ॥ इकस सिउ मनु मानिआ ता होआ निहचलु चीतु ॥ सचु खाणा सचु पैनणा टेक नानक सचु कीतु ॥४॥५॥७५॥ {पन्ना 43-44}

उच्चारण: सिरीराग महला ५॥ सभे गला विसरन इको विसर न जाउ॥ धंधा सभ जलाय कै गुर नाम दीआ सच सुआउ॥ आसा सभे लाहि कै इका आस कमाउ॥ जिनी सतिगुर सेविआ तिन अगै मिलिआ थाउ॥१॥ मन मेरे, करते नो सालाहि॥ सभे छड सिआणपा गुर की पैरी पाहि॥१॥ रहाउ॥ दुख भुख नह विआपई जे सुखदाता मन होय॥ कित ही कंम न छिजीअै जा हिरदै सचा सोय॥ जिसु तूं रखहि हथ दे तिसु मारि न सकै कोय॥ सुखदाता गुर सेवीअै सभ अवगण कढै धोय॥२॥ सेवा मंगै सेवको लाईआं अपुनी सेव॥ साधू संग मसकते तूठै पावा देव। सभ किछ वसगत साहिबै आपे करण करेव॥ सतिगुर कै बलिहारणै मनसा सभ पूरेव॥३॥ इको दिसै सजणों इको भाई मीत॥ इकसै दी सामगरी इकसै दी है रीत॥ इकस सिउ मन मानिआ ता होआ निहचल चीत॥ सच खाणा सच पैनणा टेक नानक सच कीत॥४॥५॥७५॥

पद्अर्थ: विसरनु = (‘विसरनि’ और ‘विसरनु’ का फर्क समझने योग्य है। ‘विसरनु’ हुकमी भविष्यत अन पुरख बहुवचन है) बेशक विसर जाएं। गुरि = गुरू के। सचु = सदा स्थिर रहने वाला। सुआउ = मनोरथ। लाहि कै = दूर कर के। कमाउ = मैं कमाता हूं। जिनी = जिन मनुष्यों ने। तिन = उनको। अगै = प्रभु की दरगाह में। थाउ = जगह, आदर।1।

नो = को। पाहि = पड़ जाना।1। रहाउ।

विआपई = जोर डाल सकता। मनि = मन में। कितु = किसी में। कंमि = काम में। कित ही कंमि = किसी भी काम में।

(शब्द ‘कितु’ की ‘ु’ की मात्रा ‘ही’ लगने के कारण नहीं लगाई गई)।

छिजीअै = (आत्मिक जीवन में) कमजोर होते हैं। दे = दे के। सभि = सारे। धोइ = धो के।2।

मसकते = मुशक्कति, मेहनत। तूठै = अगर तू प्रसंन्न हो। देव = हे प्रभु! वसगति = वस में। करण करेव = करण कारण योग्य। मनसा = मनीषा, मन+आसा, जरूरतें। पूरेव = पूरी करता है।3।

इको = एक ही। सामगरी = सामग्री, सारे पदार्थ। रीति = मर्यादा। सिउ = से, साथ। सचु = सदा स्थिर प्रभु का नाम। खाणा = आत्मिक खुराक। टेक = आसरा।4।

अर्थ: हे मेरे मन! करतार की सिफत सलाह कर। (पर, यह सिफत सलाह की दात गुरू से ही मिलती है। सो तू) सभी चतुराईयां छोड़ के गुरू के चरणों पर गिर जा।1। रहाउ।

(मेरी तो सदा यही अरदास है कि) और सारी बातें बे-शक भूल जाएं, पर एक परमात्मा का नाम मुझे (कभी) ना भूले। गुरू ने (दुनिया के) धंधों से मेरा सारा मोह जला के मुझे प्रभु का नाम दिया है। यह सदा स्थिर नाम ही अब मेरा (जीवन) मनोरथ है। मैं (दुनिया की) सारी आशाएं मन से दूर करके एक परमात्मा की आस (अपने अंदर) पक्की करता हूं।

जिन लोगों ने सतिगुरू का आसरा लिया है उनको परलोक में (प्रभु की दरगाह में) आदर मिलता है।1।

अगर, सुख देने वाला परमात्मा मन में बस जाए, तो ना दुनिया के दुख जोर डाल सकते हैं, ना माया की तृष्णा ही कमजोर कर सकती है। जब, हृदय में वह सदा स्थिर रहने वाला परमात्मा बसता हो, तो किसी भी काम में लगें आत्मिक जीवन कमजोर नहीं होता।

हे प्रभु! जिस मनुष्य को तू अपना हाथ दे के (विकारों से) बचाता है, कोई (विकार) उसे (आत्मिक मौत) मार नहीं सकते। (हे भाई!) आत्मिक आनंद देने वाले सतिगुरू की शरण लेनी चाहिए, सत्गुरू (मन में से) सारे अवगुण निकाल के धो देता है।2।

हे प्रकाश स्वरूप प्रभु! मैं सेवक (तेरे से) उन (जीव-सि्त्रयों) की सेवा (का दान) मांगता हूं, जिनको तूने अपनी सेवा में लगाया हुआ है। हे प्रभु! अगर, तू ही मेहर करे, तो मुझे साध-संगति की प्राप्ति हो और सेवा की दात मिले।

हे भाई! हरेक (दात) मालिक के अपने इख्तियार में है। वह खुद ही सब कुछ करन कारण योग्य है। मैं अपने सतिगुरू से सदके जाता हूं। सतिगुरू मेरी सारी जरूरतें पूरी करने वाला है।3।

(हे भाई! जगत में) एक परमात्मा ही असल सज्जन दिखाई देता हैं वही एक (असली) भाई है और मित्र है। दुनिया का सारा धन पदार्थ उस एक परमात्मा का ही दिया हुआ है। उस ही की मर्यादा जगत में चल रही है।

हे नानक! जब मनुष्य का मन एक परमात्मा (की याद) में रॅच जाता है, जब उसका चिक्त (माया की ओर) डोलने से हट जाता है। वह परमात्मा के सदा स्थिर नाम को अपनी आत्मा की खुराक बना लेता है। नाम को ही अपनी (आत्मिक) पोशाक बनाता है और सदा स्थिर नाम को ही अपना आसरा बनाता है।4।5।75।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh