श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 45 स्रीरागु महला ५ ॥ नामु धिआए सो सुखी तिसु मुखु ऊजलु होइ ॥ पूरे गुर ते पाईऐ परगटु सभनी लोइ ॥ साधसंगति कै घरि वसै एको सचा सोइ ॥१॥ मेरे मन हरि हरि नामु धिआइ ॥ नामु सहाई सदा संगि आगै लए छडाइ ॥१॥ रहाउ ॥ दुनीआ कीआ वडिआईआ कवनै आवहि कामि ॥ माइआ का रंगु सभु फिका जातो बिनसि निदानि ॥ जा कै हिरदै हरि वसै सो पूरा परधानु ॥२॥ साधू की होहु रेणुका अपणा आपु तिआगि ॥ उपाव सिआणप सगल छडि गुर की चरणी लागु ॥ तिसहि परापति रतनु होइ जिसु मसतकि होवै भागु ॥३॥ तिसै परापति भाईहो जिसु देवै प्रभु आपि ॥ सतिगुर की सेवा सो करे जिसु बिनसै हउमै तापु ॥ नानक कउ गुरु भेटिआ बिनसे सगल संताप ॥४॥८॥७८॥ {पन्ना 45} उच्चारण: श्रीराग महला ५॥ नाम धिआऐ, सो सुखी, तिस मुख ऊजल होय॥ पूरे गुर ते पाईअै परगट सभनी लोय॥ साधसंगत कै घर वसै ऐको सचा सोय॥१॥ मेरे मन, हरि हरि नाम धिआय॥ नाम सहाई सदा संगि आगै लए छडाय॥१॥ रहाउ॥ दुनीआं कीआं वडिआईआं कवनै आवहि काम॥ माया का रंग सभ फिका जातो बिनस निदान॥ जा कै हिरदै हरि वसै सो पूरा परधान॥२॥ साधू की होह रेणुका अपणा आप तिआग॥ उपाव सिआणप सगल छड गुर की चरणी लाग॥ तिसहि परापत रतन होय जिस मसतक होवै भाग॥३॥ तिसै परापत भाईहो जिस देवै प्रभ आप॥ सतगुर की सेवा सो करे जिस बिनसै हउमै ताप॥ नानक कउ गुर भेटिआ बिनसे सगल संताप॥४॥८॥७८॥ पद्अर्थ: सो = वह मनुष्य। तिसु = उस का। ऊजलु = रोशन, चमक वाला। ते = से। सभनी लोइ = सारे भवनों में। घरि = घर में। सचा = सदा स्थिर रहने वाला प्रभु। सहाई = सहायता करने वाला। अगै = परलोक विच।1। रहाउ। कवनै कामि = कौन से काम? फिका = बे स्वाद, होछा। जातो = जाता है। निदानि = समाधान। परधानु = जाना माना।2। रेणुका = चरण धूड़। आपु = स्वै भाव, अहंकार। तिसहि = तिस ही, उसी को ही। मसतकि = माथे पे।3। भाई हो = हे भाईयो! जिसु हउमै = जिस का अहंकार। कउ = को। भेटिआ = मिला।4। अर्थ: हे मेरे मन! सदा परमात्मा का नाम सिमर। परमात्मा का नाम (जीवात्मा की) सहायता करने वाला है। (सदा जीवात्मा के) साथ रहता है, और परलोक में (किये हुए कर्मों का लेखा होने के वक्त) छुड़ा लेता है।1। रहाउ। जो मनुष्य परमात्मा का नाम सिमरता है वही सुखी रहता है। उसका मुख (परलोक में) उजला रहता है। (यह नाम) पूरे गुरू से ही मिलता है। (यद्यपि नाम का मालिक प्रभु) सारे ही भवनों में प्रत्यक्ष बसता है। वह सदा कायम रहने वाला प्रभु साध-संगति के घर में बसता है।1। (हे मेरे मन!) दुनिया के बड़प्पन किसी काम नहीं आते। माया के कारण (मुंह पे दिखता) रंग फीका पड़ जाता है। क्योंकि, ये रंग आखिर नाश हो जाता है। जिस मनुष्य के हृदय में परमात्मा (का नाम) बसता है, वह सभ गुणों वाला हो जाता है तथा (हर जगह) जाना माना जाता है।2। (हे मेरे मन!) गुरू के चरणों की धूल बन और अपना अहं भाव छोड़ दे। (हे मन! और) सारे तरीके व चतुराईयां छोड़ के गुरू की शरण पड़ा रह। जिस मनुष्य के माथे पे (पूर्बले) भाग्य जागते हैं (वही गुरू की शरण पड़ता है तथा उसको) परमात्मा का नाम-रतन मिल जाता है।3। हे भाईयो! प्रभु का नाम उसी मनुष्य को मिलता है जिसको (गुरू के द्वारा) प्रभु खुद देता है। गुरू की सेवा भी वही मनुष्य करता है जिसके अंदर अहम् का ताप नाश हो जाता है। हे नानक! जिस मनुष्य को गुरू मिलता है उसके सारे कलेश दूर हो जाते हैं।4।8।78। सिरीरागु महला ५ ॥ इकु पछाणू जीअ का इको रखणहारु ॥ इकस का मनि आसरा इको प्राण अधारु ॥ तिसु सरणाई सदा सुखु पारब्रहमु करतारु ॥१॥ मन मेरे सगल उपाव तिआगु ॥ गुरु पूरा आराधि नित इकसु की लिव लागु ॥१॥ रहाउ ॥ इको भाई मितु इकु इको मात पिता ॥ इकस की मनि टेक है जिनि जीउ पिंडु दिता ॥ सो प्रभु मनहु न विसरै जिनि सभु किछु वसि कीता ॥२॥ घरि इको बाहरि इको थान थनंतरि आपि ॥ जीअ जंत सभि जिनि कीए आठ पहर तिसु जापि ॥ इकसु सेती रतिआ न होवी सोग संतापु ॥३॥ पारब्रहमु प्रभु एकु है दूजा नाही कोइ ॥ जीउ पिंडु सभु तिस का जो तिसु भावै सु होइ ॥ गुरि पूरै पूरा भइआ जपि नानक सचा सोइ ॥४॥९॥७९॥ {पन्ना 45} उच्चारण: सिरीराग महला ५॥ इक पछाणू जीअ का इको रखणहार॥ इकस का मन आसरा इको प्राण अधार॥ तिस सरणाई सदा सुख पारब्रहम करतार॥१॥ मन मेरे, सगल उपाव तिआग॥ गुरु पूरा आराध नित इकस की लिव लाग॥१॥ रहाउ॥ इको भाई, मित इक, इको मात पिता॥ इकस की मन टेक है जिन जीउ पिंड दिता॥ सो प्रभु मनहु न विसरै जिन सभ किछ वस कीता॥२॥ घर इको, बाहर इको, थान थनंतर आप॥ जीअ जंत सभ जिन कीऐ आठ पहर तिस जाप॥ इकस सेती रतिआ, न होवी सोग संताप॥३॥ पारब्रहम प्रभ ऐक है दूजा नाही कोय॥ जीउ पिंड सभ तिस का जो तिस भावै सु होय॥ गुर पूरै पूरा भया जप नानक सचा सोय॥४॥९॥७९॥ पद्अर्थ: पछाणू = मित्र। जीअ का = जीवात्मा का (शब्द ‘जीउ’ से ‘जीअ’ बन जाता है संबंधक के प्रयोग से)। इको = एक (प्रभु) ही। मनि = मन में। प्राण अधारु = प्राणों का आसरा, जीवात्मा का सहारा।1। उपाव = उपाय। लिव = लगन। लागु = लगाए रख।1। रहाउ। टेक = सहारा। जिनि = जिस (प्रभु) ने। जीउ = जीवात्मा। पिंडु = शरीर। मनहु = मन से। वसि = वस में।2। घरि = घर में,हृदय में। थान थनंतरि = स्थान स्थान का अंतर, हरेक स्थान में। जीअ = (शब्द ‘जीउ’ का बहुवचन)। सभि = सारे। सेती = साथ। रतिआ = रंगे रहने से। संतापु = कलेश।3। तिस का: शब्द ‘तिसु’ में से ‘ु’ की मात्रा, संबंधक ‘का’ के कारण हट गया है। देखें गुरबाणी व्याकरण। गुरि = गुरू के द्वारा। सचा = सदा स्थिर रहने वाला प्रभु।4। अर्थ: हे मेरे मन! और सारे उपाय त्याग दे। सिर्फ पूरे गुरू को हमेशा याद रख। (सिर्फ गुरू के शबद का आसरा ले, और) एक परमात्मा (के चरणों) की लगन (अपने अंदर) लगा के रख।1। रहाउ। (हे भाई!) जीवात्मा का मित्र सिर्फ परमात्मा ही है। परमात्मा ही जीवात्मा को (विकार आदि से) बचाने वाला है। (इस वास्ते) अपने मन में सिर्फ परमात्मा का आसरा रख, सिर्फ परमात्मा ही जीवात्मा का सहारा है। वह पारब्रहम करतार (ही सहारा है) उसकी शरण पड़ने से सदा सुख मिलता है।1। (हे मन!) सिर्फ परमात्मा ही (असल) भाई है मित्र है। सिर्फ परमात्मा ही (असल) माता-पिता है। (भाव, माता पिता की तरह पालणहार है)। (मुझे तो) उस परमात्मा का ही मन में सहारा है, जिसने यह जीवात्मा दी है, जिसने यह शरीर दिया है। (मेरी सदा यही अरदास है कि) जिस प्रभु ने सभ कुछ अपने बस में रखा हुआ है वह कभी मेरे मन से ना बिसरे।2। (हे भाई ! तेरे) हृदय में भी और बाहर हर जगह पर भी सिर्फ परमात्मा ही बस रहा है। (हे भाई!) आठों पहर उस प्रभु को सिमर, जिस ने सारे जीव-जन्तु पैदा किए हैं। अगर सिर्फ परमात्मा के (प्यार रंग) में रंगे रहें, तो कभी कोई दुख कलेश नहीं आता।3। पारब्रहम परमात्मा ही (सारे संसार का मालिक) है, कोई और उसके बराबर का नहीं है। (सभ जीवों का) शरीर उस परमात्मा का ही दिया हुआ है, (जगत में) वही कुछ होता है जो उस को अच्छा लगता है। हे नानक! जो मनुष्य पूरे गुरू के द्वारा उस सदा स्थिर प्रभु को सिमरता है, वह (सभ गुणों से) मुकम्मल हो जाता है।4।9।79। सिरीरागु महला ५ ॥ जिना सतिगुर सिउ चितु लाइआ से पूरे परधान ॥ जिन कउ आपि दइआलु होइ तिन उपजै मनि गिआनु ॥ जिन कउ मसतकि लिखिआ तिन पाइआ हरि नामु ॥१॥ मन मेरे एको नामु धिआइ ॥ सरब सुखा सुख ऊपजहि दरगह पैधा जाइ ॥१॥ रहाउ ॥ जनम मरण का भउ गइआ भाउ भगति गोपाल ॥ साधू संगति निरमला आपि करे प्रतिपाल ॥ जनम मरण की मलु कटीऐ गुर दरसनु देखि निहाल ॥२॥ थान थनंतरि रवि रहिआ पारब्रहमु प्रभु सोइ ॥ सभना दाता एकु है दूजा नाही कोइ ॥ तिसु सरणाई छुटीऐ कीता लोड़े सु होइ ॥३॥ जिन मनि वसिआ पारब्रहमु से पूरे परधान ॥ तिन की सोभा निरमली परगटु भई जहान ॥ जिनी मेरा प्रभु धिआइआ नानक तिन कुरबान ॥४॥१०॥८०॥ {पन्ना 45} उच्चारण: सिरीराग महला ५॥ जिना सतगुर सिउ चित लाया से पूरे परधान॥ जिन कउ आप दइआल होय तिन उपजै मन गिआन॥ जिन कउ मसतक लिखिआ तिन पाया हरि नाम॥१॥ मन मेरे ऐको नाम धिआय॥ सरब सुखा सुख ऊपजहि दरगह पैधा जाय॥१॥ रहाउ ॥ जनम मरण का भउ गया भाउ भगत गोपाल॥ साधू संगत निरमला आप करे प्रतिपाल॥ जनम मरण की मल कटीअै गुर दरसन देख निहाल॥2॥ थान थनंतर रवि रहिआ पारब्रहम प्रभु सोय॥ सभना दाता ऐक है दूजा नाही कोय॥ तिस सरणाई छूटीअै कीता लोड़े सु होय॥३॥ जिन मन वसिआ पारब्रहम से पूरे परधान॥ तिन की सोभा निरमली परगट भई जहान॥ जिनी मेरा प्रभु धिआइआ नानक तिन कुरबान॥४॥१०॥८०॥ पद्अर्थ: सिउ = साथ। से = वह लोग। पूरे = सर्व गुण संपन्न। परधान = जाने माने। मनि = मन में। उपजै = प्रगट होता है। गिआनु = परमात्मा से जान पहिचान। मसतकि = माथे पे।1। उपजहि = पैदा होते हैं (‘उपजै’ एकवचन है, ‘उपजहि’ बहुवचन)। पैधा = सिरोपा ले के, आदर सहित। जाइ = जाता है।1। रहाउ। भउ = डर। भाउ = प्यार। गोपाल = संसार की पालना करने वाला। प्रतिपाल = रक्षा। कटीअै = काटी जाती है। देखि = देख के। निहाल = प्रसंन्न।2। थान थनंतरि = हरेक जगह में, स्थान स्थान का फर्क। सोइ = वही। छुटीअै = (विकारो की मैल से) बचते हैं। कीता लोड़े = करना पसंद करता है।3। जिनी = जिन्होंने। कुरबान = सदके।4। अर्थ: हे मेरे मन! सिर्फ परमात्मा का नाम सिमर। (जो मनुष्य सिमरता है, उसके अंदर) सारे श्रेष्ठ सुख पैदा हो जाते हैं। वह परमात्मा की दरगाह में आदर के साथ जाता है।1। रहाउ। जिन लोगों ने सत्गुरू के साथ अपना मन जोड़ा है, वह सारे गुणों वाले हो जाते हैं। वह (लोक परलोक में) जाने माने जाते हैं। जिन पे परमात्मा खुद दयाल होता है, उनके मन में परमात्मा के साथ गहरी सांझ पैदा हो जाती है। जिनके माथे पे (धुर से ही बख्शिश का लेख) लिखा हुआ उघड़ता है, वह परमात्मा का नाम प्राप्त कर लेते हैं।1। जो मनुष्य गोपाल प्रभु की भक्ति करता है, प्रभु से प्र्रेम करता है, उसका जनम-मरन (के चक्कर में पड़ने का) डर दूर हो जाता है। साध-संगति में रहके वह पवित्र हो जाता है। परमात्मा खुद (विकारों से उसकी) रखवाली करता है। गुरू के दर्शन करके (उसका तन मन) खिल जाता है, जनम मरन के चक्कर में डालने वाली उसकी विकारों की मैल काटी जाती है।2। (हे मेरे मन!) वह पारब्रहम परमात्मा हरेक जगह व्यापक है। वह खुद ही सब जीवों को दातें देने वाला है, उस के बराबर और कोई नहीं। (जगत में वही कुछ होता है जो वह करना चाहता है, उसकी शरण पड़ने से (विकारों से) खलासी होती है।3। (हे भाई!) जिन मनुष्यों के मन में पारब्रहम परमेश्वर का नाम बस जाता है, उनके अंदर सारे गुण पैदा हो जाते हैं। वह हर जगह आदर पाते हैं। उनकी बे-दाग शोभा-बड़प्पन सारे जगत में जाहिर हो जाती है। हे नानक! (कह) जिन मनुष्यों ने प्रभु का सिमरन किया है, मैं उनसे सदके जाता हूं।4।10।80। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |