श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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सिरीरागु महला ५ ॥ मिलि सतिगुर सभु दुखु गइआ हरि सुखु वसिआ मनि आइ ॥ अंतरि जोति प्रगासीआ एकसु सिउ लिव लाइ ॥ मिलि साधू मुखु ऊजला पूरबि लिखिआ पाइ ॥ गुण गोविंद नित गावणे निरमल साचै नाइ ॥१॥ मेरे मन गुर सबदी सुखु होइ ॥ गुर पूरे की चाकरी बिरथा जाइ न कोइ ॥१॥ रहाउ ॥ मन कीआ इछां पूरीआ पाइआ नामु निधानु ॥ अंतरजामी सदा संगि करणैहारु पछानु ॥ गुर परसादी मुखु ऊजला जपि नामु दानु इसनानु ॥ कामु क्रोधु लोभु बिनसिआ तजिआ सभु अभिमानु ॥२॥ पाइआ लाहा लाभु नामु पूरन होए काम ॥ करि किरपा प्रभि मेलिआ दीआ अपणा नामु ॥ आवण जाणा रहि गइआ आपि होआ मिहरवानु ॥ सचु महलु घरु पाइआ गुर का सबदु पछानु ॥३॥ भगत जना कउ राखदा आपणी किरपा धारि ॥ हलति पलति मुख ऊजले साचे के गुण सारि ॥ आठ पहर गुण सारदे रते रंगि अपार ॥ पारब्रहमु सुख सागरो नानक सद बलिहार ॥४॥११॥८१॥ {पन्ना 46}

उच्चारण: सिरीराग महला ५॥ मिल सतिगुर सभ दुख गया हरि सुख वसिआ मन आय॥ अंतर जोत प्रगासीआ ऐकस सिउ लिव लाय॥ मिल साधू मुख ऊजला पूरब लिखआ पाय॥ गुण गोविंद नित गावणे निरमल साचै नाय॥१॥ मेरे मन, गुर सबदी सुख होय॥ गुर पूरे की चाकरी बिरथा जाय न कोय॥१॥ रहाउ ॥ मन कीआं इछां पूरीआं पाया नाम निधान॥ अंतरजामी सदा संग करणैहार पछान॥ गुर परसादी मुख ऊजला जप नाम दान इसनान॥ काम क्रोध लोभ बिनसिआ तजिआ सभ अभिमान॥2॥ पाया लाहा लाभ नाम पूरन होऐ काम॥ कर किरपा प्रभ मेलिआ दीआ अपणा नाम॥ आवण जाणा रह गया आप होआ मिहरवान॥ सच महल घर पाया गुर का सबद पछान॥३॥ भगत जना कउ राखदा आपणी किरपा धार॥ हलत पलत मुख ऊजले साचे के गुण सार॥ आठ पहर गुण सारदे रते रंग अपार॥ पारब्रहम सुख सागरो नानक सद बलिहार॥४॥११॥८१॥

पद्अर्थ: सभु = सारा। हरि सुखु = परमात्मा (के मिलाप) का सुख। मनि = मन में। आइ = आ के। अंतरि = अंदर, मन में। ऐकसु सिउ = एक (परमात्मा) से। लाइ = लगा के। मिलि = मिल के। साधू = गुरू। ऊजला = रोशन। पूरबि = पहिले (जनम के) समय में। साचै नाइ = सदा स्थिर प्रभु के नाम में (जुड़ के)।1।

मन = हे मन! चाकरी = सेवा। बिरथा = वृथा, खाली।1। रहाउ।

निधानु = खजाना। अंतरजामी = (जीवों के दिल के) अंदर पहुँच जाने वाला। संगि = अंग-संग। पछानु = जान पहिचान का, मित्र। परसादी = प्रसाद से, कृपा से। जपि = जप के। दानु = सेवा। इसनानु = पवित्र आचरण। अभिमानु = अहंकार।2।

लाहा = लाभ, नफा। काम = (सारे) काम। करि = कर के। प्रभि = प्रभु ने। रहि गइआ = समाप्त हो गया। सचु = सदा स्थिर रहने वाला। महलु = ठिकाना। पछानु = जाना हुआ, साथी।3।

कउ = को। धारि = धारण करके। हलति = इस लोक में, अत्र। पलति = परलोक में, परत्र। मुख = (शब्द ‘मुख’ बहुवचन व ‘मुखु’ एकवचन है)। सारि = संभाल के। सारदे = संभालते। रंगि = रंग में, प्रेम में। सुख सागरो = सुख का समुंद्र, सुख का स्रोत। सद = सदा।4।

अर्थ: हे मेरे मन! गुरू के शबद में जुड़ने से आत्मिक आनंद मिलता है जो भी कोई मनुष्य पूरे गुरू की सेवा करता है (भाव, पूरे गुरू के शबद अनुसार चलता है) वह (गुरू के दर से) खाली नहीं जाता।1। रहाउ।

सतिगुरू को मिल के (मनुष्य का) सारा दुख दूर हो जाता है। परमात्मा के (चरणों) में सुरति जोड़ के मनुष्य के मन में परमात्मा की ज्योति का प्रकाश हो जाता है। गुरू को मिल के मनुष्य का मुंह रोशन हो जाता है (चेहरे पर अंदर के आत्मिक जीवन की लाली आ जाती है), पहिले जनम में की गई नेक कमाई के लिखे हुए लेख सामने आ जाते हैं। सदा स्थिर प्रभु के पवित्र नाम में (जुड़ के) मनुष्य सदा गोविंद के गुण गाने की उत्सुक्ता रखता है।1।

(गुरू के शबद में जुड़ के जो मनुष्य) परमात्मा के नाम का खजाना ढूंढ लेता है, उसके मन की सारी ख्वाहिशें पूरी हो जाती हैं। (अर्थात, उसका मन दुनियावी वासनाओं पीछे दौड़ने से हट जाता है)। हरेक के दिल की जानने वाला परमात्मा उस मनुष्य को सदा अपने अंग-संग दिखता है, सृजनहार प्रभु उसको अपना मित्र प्रतीत होता है। गुरू की कृपा से परमात्मा का नाम जपके (दूसरों की) सेवा (कर के) पवित्र आचरण (बना के) उसका मुंह चमक उठता है। उस मनुष्य के अंदर से काम-क्रोध-लोभ का नाश हो जाता है। वह मनुष्य अहंकार तो बिल्कुल ही त्याग देता है।2।

प्रभु ने कृपा करके जिस मनुष्य को (अपने चरणों में) जोड़ लिया और अपना नाम बख्शा, उस ने (जब) परमात्मा का नाम (जीवन के व्यापार में) बतौर लाभ हासिल कर लिया, तो उस के सारे काम सफल हो गए (तृष्णा अधीन हो रही दौड़ भाग खत्म हो गई)।

जिस मनुष्य पर परमात्मा खुद मेहर करता है, उसके जन्म मरण का चक्कर समाप्त हो जाता है। गुरू का शबद उस मनुष्य का (जीवन-) साथी बन जाता है। सदा स्थिर प्रभु के चरण उस को ऐसा ठिकाना मिल जाता है, जिस को वह अपना (आत्मिक) घर बना लेता है।3।

अपनी कृपा करके परमात्मा अपने भक्तों को (काम-क्रोध-लोभ आदि विकारों से) बचा के रखता है। सदा स्थिर प्रभु के गुण (हृदय में) संभाल के उन (भक्तों) के मुंह इस लोक में और परलोक में रोशन हो जाते हैं। वह (भक्त) बेअंत प्रभु के (प्यार-) रंग में रंगे रहते हैं और आठों पहर उस के गुण (अपने दिल में) संभालते हैं। हे नानक! पारब्रहम परमात्मा उनको सारे सुखों का समुंद्र दिखता है, और वो उससे सदा सदके होते रहते हैं।4।11।81।

सिरीरागु महला ५ ॥ पूरा सतिगुरु जे मिलै पाईऐ सबदु निधानु ॥ करि किरपा प्रभ आपणी जपीऐ अम्रित नामु ॥ जनम मरण दुखु काटीऐ लागै सहजि धिआनु ॥१॥ मेरे मन प्रभ सरणाई पाइ ॥ हरि बिनु दूजा को नही एको नामु धिआइ ॥१॥ रहाउ ॥ कीमति कहणु न जाईऐ सागरु गुणी अथाहु ॥ वडभागी मिलु संगती सचा सबदु विसाहु ॥ करि सेवा सुख सागरै सिरि साहा पातिसाहु ॥२॥ चरण कमल का आसरा दूजा नाही ठाउ ॥ मै धर तेरी पारब्रहम तेरै ताणि रहाउ ॥ निमाणिआ प्रभु माणु तूं तेरै संगि समाउ ॥३॥ हरि जपीऐ आराधीऐ आठ पहर गोविंदु ॥ जीअ प्राण तनु धनु रखे करि किरपा राखी जिंदु ॥ नानक सगले दोख उतारिअनु प्रभु पारब्रहम बखसिंदु ॥४॥१२॥८२॥ {पन्ना 46}

उच्चारण: सिरी राग महला ५॥ पूरा सतिगुर जे मिलै पाईअै सबद निधान॥ कर किरपा प्रभ आपणी जपीअै अंम्रित नाम॥ जनम मरण दुख काटीअै लागै सहज धिआन॥१॥ मेरे मन, प्रभ सरणाई पाय॥ हरि बिन दूजा को नही ऐको नाम धिआय॥१॥ रहाउ ॥ कीमत कहण न जाईअै सागर गुणी अथाहु॥ वडभागी मिल संगती सचा सबद विसाहु॥ कर सेवा सुखसागरै सिर साहा पातसाह॥२॥ चरण कमल का आसरा दूजा नाही ठाउ॥ मै धर तेरी पारब्रहम, तेरै ताण रहाउ॥ निमाणिआ, प्रभ, माण तूं, तेरै संग समाउ॥३॥ हरि जपीअै आराधीअै आठ पहर गोविंद॥ जीअ प्राण तन धन रखे कर किरपा राखी जिंद॥ नानक सगले दोख उतारिअनु प्रभु पारब्रहम बखसिंद॥४॥१२॥८२॥

पद्अर्थ: सबदु = सिफति सलाह की बाणी। निधानु = खजाना। प्रभ = हे प्रभु! अंम्रित = आत्मिक जीवन देने वाला। जनम मरण दुखु = जनम मरन (के चक्कर का) दुख। सहजि = आत्मिक अडोलता मे।1।

प्रभ सरणाई = प्रभु की शरण में। पाइ = पड़ो।1। रहाउ।

सागरु गुणी = गुणों का सागर। वडभागी = हे भाग्यशाली मन! विसाहु = विहाझ। सुख सागरै = सुखों के सागर प्रभु की। सिरि = सिर पे।2।

चरण कमल = कमल के फूल जैसे सुंदर चरण। ठाउ = जगह, आसरा। मै = मुझे। धर = आसरा। तेरै ताणि = तेरे आसरे। रहाउ = रहूं, मैं रहता हूं। प्रभ = हे प्रभु!3।

जीअ प्राण = जीवों के प्राण। दोख = पाप। उतारिअनु = उतारे+उन, उस ने उतार दिए हैं।4।

अर्थ: हे मेरे मन! प्रभु की शरण पड़। प्रभु के बिना कोई और (रक्षक) नहीं है। (हे मन!) प्रभु का नाम सिमर।1। रहाउ।

(हे मन!) अगर पूरा गुरू मिल जाए, तो (उससे) परमात्मा की सिफत सलाह का खजाना मिल जाता है। हे प्रभु! अपनी मेहर कर (गुरू मिला, ता कि) आत्मिक जीवन देने वाला (तेरा) नाम (हम) जप सकें। जनम मरन के चक्कर में पड़ने का हम अपना दुख दूर कर सकें और हमारी सुरति आत्मिक अडोलता में टिक जाए।1।

परमात्मा (सारे) गुणों का समुंद्र है, (ऐसा समुंद्र है जिसकी) गहराई का अंत नहीं मिल सकता। उसका मुल्य ही नहीं बताया जा सकता (अर्थात, कीमती से कीमती कोई ऐसी चीज नहीं जिसके बदले परमात्मा मिल सके)। हे (मेरे) भाग्यशाली (मन!) साध-संगति में मिल बैठ, (और वहां) सदा स्थिर रहने वाले परमात्मा की सिफत सलाह की बाणी (का सौदा) खरीद। (साध-संगति में विधि, तरीका सीख के) सुखों के सागर प्रभु की सेवा भक्ति कर। वह प्रभु (दुनिया के) शाहों के सिर पर बादशाह है।2।

(हे पारब्रह्म! मुझे तेरे ही) सुंदर चरणों का आसरा है। (तेरे बिना) मेरे लिए और कोई जगह नहीं है, मुझे तेरी ही ओट है, मैं तेरे (दिये) बल से ही जीता हूँ। हे प्रभु! जिनको जगत में कोई आदर-सत्कार नहीं देता, तूं उनका भी सम्मान (का जरीआ) है। (मेहर कर) मैं तेरे चरणों में लीन रहूँ।3।

(हे मेरे मन!) आठों पहर परमात्मा का नाम जपना चाहिए, गोबिंद को आराधना चाहिए। परमात्मा (शरण आए) जीवों के प्राणों को (विकारों से) बचाता है। ज्ञान इन्द्रियों को (विकारों से) बचाता है, उनके नाम-धन की रक्षा करता है। (शरण आए जीव की) जीवात्मा को मेहर करके (विकारों से) बचाता है। हे नानक! प्रभु पारब्रह्म बख्शणहार है, वह (शरण में आए के) सारे पाप दूर कर देता है।4।12।82।

सिरीरागु महला ५ ॥ प्रीति लगी तिसु सच सिउ मरै न आवै जाइ ॥ ना वेछोड़िआ विछुड़ै सभ महि रहिआ समाइ ॥ दीन दरद दुख भंजना सेवक कै सत भाइ ॥ अचरज रूपु निरंजनो गुरि मेलाइआ माइ ॥१॥ भाई रे मीतु करहु प्रभु सोइ ॥ माइआ मोह परीति ध्रिगु सुखी न दीसै कोइ ॥१॥ रहाउ ॥ दाना दाता सीलवंतु निरमलु रूपु अपारु ॥ सखा सहाई अति वडा ऊचा वडा अपारु ॥ बालकु बिरधि न जाणीऐ निहचलु तिसु दरवारु ॥ जो मंगीऐ सोई पाईऐ निधारा आधारु ॥२॥ जिसु पेखत किलविख हिरहि मनि तनि होवै सांति ॥ इक मनि एकु धिआईऐ मन की लाहि भरांति ॥ गुण निधानु नवतनु सदा पूरन जा की दाति ॥ सदा सदा आराधीऐ दिनु विसरहु नही राति ॥३॥ जिन कउ पूरबि लिखिआ तिन का सखा गोविंदु ॥ तनु मनु धनु अरपी सभो सगल वारीऐ इह जिंदु ॥ देखै सुणै हदूरि सद घटि घटि ब्रहमु रविंदु ॥ अकिरतघणा नो पालदा प्रभ नानक सद बखसिंदु ॥४॥१३॥८३॥ {पन्ना 46-47}

उच्चारण: सिरी राग महला ५॥ प्रीत लगी तिस सच सिउ मरै न आवै जाय॥ ना वेछोड़िआ विछुड़ै सभ महि रहिआ समाय॥ दीन दरद दुख भंजना सेवक के सत भाय॥ अचरज रूप निरंजनो गुर मेलाया माय॥१॥ भाई रे, मीत करह प्रभ सोय॥ माया मोह परीत ध्रिग, सुखी न दीसै कोय॥१॥ रहाउ ॥ दाना दाता सीलवंत निरमल रूप अपार॥ सखा सहाई अति वडा ऊचा वडा अपार॥ बालक बिरध न जाणीअै निहचल तिस दरवार॥ जो मंगीअै सोई पाईअै निधारा आधार॥२॥ जिस पेखत किलविख हिरहि, मन तन होवै सांत॥ इक मन ऐक धिआईअै मन की लाहि भरांत॥ गुण निधान नवतन सदा, पूरन जा की दात॥ सदा सदा आराधीअै दिन विसरह नही रात॥३॥ जिन कउ पूरब लिखिआ तिन का सखा गोविंद॥ तन मन धन अरपी सभो, सगल वारीअै इह जिंद॥ देखै सुणै हदूर सद घट घट ब्रहम रविंद॥ अकिरतघणा नो पालदा, प्रभ, नानक, सद बखसिंद॥४॥१३॥८३॥

पद्अर्थ: सच सिउ = सदा स्थिर प्रभु से। जाइ = जाता, नाश होता है। आवै = पैदा होना। भंजना = नाश करने वाला। भाउ = प्रेम। सत भाइ = भली भावना से। निरंजनु = निर+अंजन, माया के प्रभाव से रहित। गुरि = गुरू ने। माइ = हे माँ!1।

ध्रिगु = तिरस्कार योग्य।1। रहाउ।

दाना = (सब कुछ) जानने वाला। सीलवंतु = अच्छे स्वभाव वाला। अपारु रूप = बहुत ही संदर रूप वाला। सखा = मित्र। बिरधि = बुढा। निहचलु = अटॅल। निधारा आधारु = निआसरों का आसरा।2।

किलविख = पाप। हिरहि = नाश हो जाते हैं। मनि = मन में। तनि = शरीर में इक मनि = एकाग्र मन से, मन लगा के। भरांति = भ्रांति, भटकना। नवतनु = नया निरोया। विसरहु = भुलाओ।3।

पूरबि = पहिले जनम के समय में। अरपी = मैं अर्पण करता हूँ। वारीअै = समर्पित कर दें, सदके कर दें। हदूरि = हाजर नाजर, अंग संग। घटि घटि = हरेक घट मे। रविंदु = रव रहा है। अकिरतघन = (कृतघ्न = किए को नाश करने वाला) किऐ उपकार को भुला देने वाला। नो = को। प्रभ = हे प्रभु! नानक = हे नानक!4।

अर्थ: हे मां! मेरी प्रीति (अब) उस सदा स्थिर रहने वाले प्रभु के साथ लग गई है, जो कभी मरता नहीं, जो ना पैदा होता है ना मरता है। वह विछुड़ने से नहीं विछुड़ता। (हे मां!) वह परमात्मा सभ जीवों में समा रहा है। (हे मां!) गरीबों के दुख नाश करने वाला वह प्रभु सेवक को उसकी भली भावना के साथ मिलता है। उस प्रभु का सुंदर रूप है, उसपे माया का प्रभाव नहीं पड़ता। हे मां! वह परमात्मा मुझे मेरे गुरू ने मिला दिया है।1।

हे भाई! (तू भी) उसी परमात्मा को अपना मित्र बना। माया का मोह माया की प्रीत धिक्कारयोग्य है (इसे त्याग के, माया के मोह में फंसा हुआ) कोई भी आदमी सुखी नहीं दिखता।1। रहाउ।

(हे भाई!) वह परमात्मा सब के दिलों की जानने वाला है, सब को दातें देने वाला है। मीठे स्वभाव वाला है। पवित्र स्वरूप है, बेअंत सुंदर रूप वाला है,वही सभसे बड़ा मित्र है और सहायता करने वाला है, ऊँचा है, बड़ा है, बेअंत है।

न वह कभी बाल उम्र वाला होता है, ना वह कभी बुड्ढा होता है। (भाव, जीवों की तरह उसकी अवस्था घटती-बढ़ती नहीं)। उस प्रभु का दरबार अटल है। (उसका हुकम मोड़ा नहीं जा सकता)। (उस परमात्मा के दर से) जो कुछ मांगते हैं वही कुछ मिल जाता है। परमात्मा निआसरों का आसरा है।2।

(हे भाई!) जिस परमात्मा का दर्शन करने से (सारे) पाप नाश हो जाते हैं, (जिसके दर्शनों से) मन में और शरीर में (आत्मिक) ठंड पड़ जाती है, अपने मन की (माया के ओर की) भटकन दूर करके उस परमात्मा को मन लगा के सिमरना चाहिए। ना दिन में,ना रात को, कभी भी उसको ना भुलाओ।3।

(हे भाई!) जिन लोगों के माथे पे पहिले जन्म में की नेक कमाई के लेख उघड़ते हैं, परमात्मा उनका मित्र बन जाता है। मैं तो अपना शरीर, अपना मन, अपना धन (सब कुछ उसका प्यार हासिल करने के लिए) अर्पण करने को तैयार हूं। (हे भाई! प्रभु का प्रेम प्राप्त करने के लिए) ये सारी जीवात्मा कुर्बान कर देनी चाहिए। वह परमात्मा अंग-संग रह कर (हरेक जीव के किये कर्मों को) देखता है (हरेक जीव की अरदासें) सुनता है, परमात्मा हरेक शरीर में व्यापक है।

हे नानक! (अरदास कर और कह) हे प्रभु ! तू उनको भी पालता है, जो तेरे किए उपकारों को भुला देते हैं। तू सदा ही (जीवों की भूलें) बख्शने वाला है।4।13।83।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh