श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 47 सिरीरागु महला ५ ॥ मनु तनु धनु जिनि प्रभि दीआ रखिआ सहजि सवारि ॥ सरब कला करि थापिआ अंतरि जोति अपार ॥ सदा सदा प्रभु सिमरीऐ अंतरि रखु उर धारि ॥१॥ मेरे मन हरि बिनु अवरु न कोइ ॥ प्रभ सरणाई सदा रहु दूखु न विआपै कोइ ॥१॥ रहाउ ॥ रतन पदारथ माणका सुइना रुपा खाकु ॥ मात पिता सुत बंधपा कूड़े सभे साक ॥ जिनि कीता तिसहि न जाणई मनमुख पसु नापाक ॥२॥ अंतरि बाहरि रवि रहिआ तिस नो जाणै दूरि ॥ त्रिसना लागी रचि रहिआ अंतरि हउमै कूरि ॥ भगती नाम विहूणिआ आवहि वंञहि पूर ॥३॥ राखि लेहु प्रभु करणहार जीअ जंत करि दइआ ॥ बिनु प्रभ कोइ न रखनहारु महा बिकट जम भइआ ॥ नानक नामु न वीसरउ करि अपुनी हरि मइआ ॥४॥१४॥८४॥ {पन्ना 47} उच्चारण: सिरीराग महला ५॥ मन तन धन जिन प्रभ दीआ रखिआ सहज सवार॥ सरब कला कर थापिआ अंतर जोत अपार॥ सदा सदा प्रभु सिमरीअै अंतर रखु उर धार॥१॥ मेरे मन, हरि बिन अवर न कोय॥ प्रभ सरणाई सदा रहु दूख न विआपै कोय॥१॥ रहाउ॥ रतन पदारथ माणका सुइना रुपा खाक॥ मात पिता सुत बंधपा कूड़े सभे साक॥ जिनि कीता तिसहि न जाणई मनमुख पस नापाक॥२॥ अंतर बाहर रव रहिआ तिस नो जाणै दूर॥ त्रिसना लागी रच रहिआ अंतरि हउमै कूर॥ भगती नाम विहूणिआं आवहि वंञहि पूर॥३॥ राख लेहु प्रभु करणहार जीअ जंत कर दया॥ बिन प्रभ कोय न रखनहार महा बिकट जम भया॥ नानक नाम न वीसरउ कर अपनी हरि मया॥४॥१४॥८४॥ पद्अर्थ: जिनि = जिस ने। प्रभि = प्रभु ने। सहजि = अडोलता में। सवारि = संवार के, सजा के। कला = ताकतें। उर धारि = हृदय में टिका के।1। न विआपै = जोर नहीं डाल सकता।1। रहाउ। रूपा = चाँदी। माणक = मोती। खाकु = मिट्टी (समान), नाशवंत। सुत = पुत्र। बंधपा = रिश्तेदार। कूड़े = झूठे, साथ छोड़ जाने वाले। तिसहि = उस को। जाणई = जाने, जानता है। मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाला। नापाक = अपवित्र, गंदे जीवन वाला।2। रवि रहिआ = मौजूद है। तिस नो = उस को (शब्द ‘तिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘नो’ के कारण हट गई है; देखें गुरबाणी व्याकरण)। कूरि = झूठी। वंञहि = वंजहि, चले जाते हैं। पूर = भरी हुई किश्ती के सारे मुसाफिर, अनेकों जीव।3। प्रभ = हे प्रभू! करि = कर के। बिकट = कठिन। जम भइआ = जम का डर। वीसरउ = मैं भूलूं। मइआ = दया।4। अर्थ: हे मेरे मन! परमात्मा के बिना और कोई (असल रक्षक) नहीं। तू सदा परमात्मा की शरण पड़ा रह, कोई भी दुख तेरे पर जोर नहीं डाल सकेगा।1। रहाउ। जिस प्रभु ने यह मन दिया है, (बरतनें के लिए) धन दिया है। जिस प्रभु ने मनुष्य के शरीर को सवार बना के रखा है, जिस ने (शरीर में) सारी (शारीरिक) ताकतें पैदा करके शरीर रचा है, और शरीर में अपनी बेअंत ज्योति टिका दी है। (हे भाई!) उस प्रभू को सदा ही सिमरते रहना चाहिए। (हे भाई!) अपने हृदय में उसकी याद टिका रख।1। रतन, मोती आदि कीमती पदार्थ, सोना चांदी (ये सभ) मिट्टी के समान ही हैं (क्योंकि यहीं पड़े रह जाएंगे)। माता-पिता-पु़त्र व और संबंधी - ये सारे साक-संबंधी भी साथ छोड़ जाने वाले हैं। (ये देख के भी) अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य, गंदे जीवन का पशु स्वभाव मनुष्य, उस परमात्मा के साथ सांझ नहीं डालता जिसने इसको पैदा किया है।2। (मूर्ख मनुष्य) उस परमात्मा को कहीं दूर बसता समझता है, जो इसके अंदर और बाहर हर जगह मौजूद है। जीव को माया की तृष्णा चिपकी हुई है। (माया के मोह में) जीव मस्त हो रहा है, (माया के कारण) इसके अंदर झूठा अहंकार टिका हुआ है। परमात्मा की भक्ति से परमात्मा के नाम से विहीन भर भरके नावों में जीव (इस संसार समुंद्र में) आते हैं और खाली चले जाते हैं।3। (पर, जीवों के भी क्या बस? माया के सामने ये बे-बस हैं) हे जीवों को पैदा करने वाले प्रभू! तू खुद ही मेहर करके सारे जीव-जन्तुओं को (इस तृष्णा से) बचा ले। हे प्रभु! तेरे बगैर कोई रक्षा करने वाला नहीं है। यम राज जीवों के वास्ते बड़ा डरावना बन रहा है। हे नानक! (अरदास कर और कह) हे हरि! अपनी मेहर कर, मैं तेरा नाम कभी भी ना भुलाऊँ।4।14।84। सिरीरागु महला ५ ॥ मेरा तनु अरु धनु मेरा राज रूप मै देसु ॥ सुत दारा बनिता अनेक बहुतु रंग अरु वेस ॥ हरि नामु रिदै न वसई कारजि कितै न लेखि ॥१॥ मेरे मन हरि हरि नामु धिआइ ॥ करि संगति नित साध की गुर चरणी चितु लाइ ॥१॥ रहाउ ॥ नामु निधानु धिआईऐ मसतकि होवै भागु ॥ कारज सभि सवारीअहि गुर की चरणी लागु ॥ हउमै रोगु भ्रमु कटीऐ ना आवै ना जागु ॥२॥ करि संगति तू साध की अठसठि तीरथ नाउ ॥ जीउ प्राण मनु तनु हरे साचा एहु सुआउ ॥ ऐथै मिलहि वडाईआ दरगहि पावहि थाउ ॥३॥ करे कराए आपि प्रभु सभु किछु तिस ही हाथि ॥ मारि आपे जीवालदा अंतरि बाहरि साथि ॥ नानक प्रभ सरणागती सरब घटा के नाथ ॥४॥१५॥८५॥ {पन्ना 47-48} उच्चारण: सिरीराग महला ५॥ मेरा तन अर धन मेरा राज रूप मै देस॥ सुत दारा बनिता अनेक बहुत रंग अर वेस॥ हरि नाम रिदै न वसई कारज कितै न लेख॥१॥ मेरे मन, हरि हरि नाम धिआय॥ कर संगत नित साध की गुर चरणी चित लाय॥१॥ रहाउ॥ नाम निधान धिआईअै मसतक होवै भाग॥ कारज सभ सवारीअहि गुर की चरणी लाग॥ हउमै रोग भ्रम कटीअै ना आवै ना जाग॥२॥ कर संगत तू साध की अठसठ तीरथ नाउ॥ जीउ प्राण मन तन हरे साचा ऐह सुआउ॥ अैथै मिलह वडाईआ दरगह पावहि थाउ॥३॥ करे कराऐ आप प्रभु सभ किछ तिस ही हाथ॥ मार आपे जीवालदा अंतर बाहर साथ॥ नानक प्रभ सरणागती सरब घटा के नाथ॥४॥१५॥८५॥ पद्अर्थ: तनु = शरीर। अरु = और (शब्द ‘अरु’ और ‘अरि’ में फर्क ध्यान में रखें। अरि = वैरी, शत्रु)। मै = मेरा। सुत = पुत्र। दारा = स्त्री। रंग = मौजें। वेस = पहिरावे। रिदै = हृदय में। वसई = बसे। कारजि कितै = किसी काम में। लेखि = पहचान, समझ।1। नित = सदा। साध = गुरू।1। रहाउ। निधानु = खजाना। मसतकि = माथे पे। सभि = सारे। सवारीअहि = संवारे जाते हैं। लागु = लगना। भ्रम = भटकना। जागु = जाएगा, मरेगा।2। अठसठि = अढ़सठ, साठ और आठ। नाउ = स्नान। हरे = आत्मिक जीवन वाले। साचा = सदा स्थिर। सुआउ = मनोरथ। थाउ = आदर, जगह।3। तिस ही हाथि = उसी के हाथ में (‘तिसु’ की ‘ु’ मात्रा, क्रिया विशेषण ‘ही’ के कारण नहीं लगी है। देखें “गुरबाणी व्याकरण”)। मारि = मार के। प्रभ = हे प्रभु! नाथ = हे नाथ! 4। अर्थ: हे मेरे मन! सदा परमात्मा का नाम सिमर। सदा गुरू की संगति कर और गुरू के चरणों में चिक्त जोड़।1। रहाउ। (मनुष्य गर्व करता है और कहता है कि) ये शरीर मेरा है, यह राज मेरा है, यह देश मेरा है, मैं रूपवान हूँ, मेरे पुत्र हैं, मेरी सि्त्रयां हैं, मुझे बड़ी मौजें हैं और मेरे पास कई पोशाकें हैं। अगर, उसके हृदय में परमात्मा का नाम नहीं बसता तो (ये सभ पदार्थ जिनपे मनुष्य घमण्ड करता है) किसी भी काम के ना समझो।1। परमात्मा का नाम (जो सब पदार्तों का) खजाना है, सिमरना चाहिए। (पर, वही मनुष्य सिमर सकता है जिस के) माथे पे बढ़िया किस्मत उघड़ आए। (हे भाई!) सतिगुरू के चरणों में टिका रह, तेरे सारे काम भी संबर जाएंगे। (जो मनुष्य गुरू शरण रह के नाम सिमरता है उस का) अहम् रोग काटा जाता है, उसकी भटकना दूर हो जाती है, वह ना (बार-बार) पैदा होता है ना मरता है।2। (हे भाई!) गुरू की संगति कर- यही अढ़सठ तीर्तों का स्नान है। (गुरू की शरण में रहने से) जीवात्मा, प्राण, मन, शरीर सभ आत्मिक जीवन वाले हो जाते हैं। और मानस जीवन का असल मनोरथ भी यही है। इस जगत में (सभी किस्म के) आदर मान मिलेंगे, परमात्मा की दरगाह में भी आदर पाएगा।3। (पर, जीवों के कुछ बस में नहीं) प्रभू स्वयं ही सब कुछ करता है, स्वयं ही जीवों से करवाता है। हरेक खेल उस प्रभु के अपने ही हाथ में है। प्रभु खुद ही आत्मिक मौत मारता है, खुद ही आत्मिक जीवन देता है, जीवों के अंदर-बाहर हर जगह उनके साथ रहता है। हे नानक! (अरदास कर और कह) हे प्रभू! हे सब जीवों के खसम पति! मैं तेरी शरण आया हूं (मुझे अपने नाम की दात दे।4।15।85।) |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |