श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 49 सिरीरागु महला ५ ॥ रसना सचा सिमरीऐ मनु तनु निरमलु होइ ॥ मात पिता साक अगले तिसु बिनु अवरु न कोइ ॥ मिहर करे जे आपणी चसा न विसरै सोइ ॥१॥ मन मेरे साचा सेवि जिचरु सासु ॥ बिनु सचे सभ कूड़ु है अंते होइ बिनासु ॥१॥ रहाउ ॥ साहिबु मेरा निरमला तिसु बिनु रहणु न जाइ ॥ मेरै मनि तनि भुख अति अगली कोई आणि मिलावै माइ ॥ चारे कुंडा भालीआ सह बिनु अवरु न जाइ ॥२॥ तिसु आगै अरदासि करि जो मेले करतारु ॥ सतिगुरु दाता नाम का पूरा जिसु भंडारु ॥ सदा सदा सालाहीऐ अंतु न पारावारु ॥३॥ परवदगारु सालाहीऐ जिस दे चलत अनेक ॥ सदा सदा आराधीऐ एहा मति विसेख ॥ मनि तनि मिठा तिसु लगै जिसु मसतकि नानक लेख ॥४॥१९॥८९॥ {पन्ना 49} उच्चारण: सिरीराग महला ५॥ रसना सचा सिमरीअै मन तन निरमल होय॥ मात पिता साक अगले तिस बिन अवर न कोय॥ मिहर करे जे आपणी चसा न विसरै सोय॥१॥ मन मेरे, साचा सेव जिचर सास॥ बिन सचे सभ कूड़ है अंते होय बिनास॥१॥ रहाउ॥ साहिब मेरा निरमला तिस बिन रहण न जाय॥ मेरै मन तन भुख अत अगली, कोई आण मिलावै माय॥ चारे कुंडा भालीआं सह बिन अवर न जाय॥२॥ तिस आगै अरदास कर जो मेले करतार॥ सतिगुर दाता नाम का पूरा जिस भंडार॥ सदा सदा सालाहीअै अंत न पारावार॥३॥ परवदगार सालाहीअै जिस दे चलत अनेक॥ सदा सदा आराधीअै ऐहा मत विसेख॥ मन तन मिठा तिस लगै जिस मसतक नानक लेख॥४॥१९॥८९॥ पद्अर्थ: रसना = जीभ (साथ)। सचा = सदा स्थिर रहने वाला रमात्मा। होइ = हो जाता है। अगले = बहुत। तिसु बिनु = उस (परमात्मा) के बिना। चसा = रॅती भर समय के लिए भी। सोइ = वह प्रभू।1। जिचरु = जितना समय भी। कूड़ु = झूठा परपंच। अंतै = आखिर को।1। रहाउ। साहिबु = मालक। रहणु न जाइ = रहा नहीं जा सकता, धरवास नहीं आती। मनि = मन में। अगली = ज्यादा, बहुत। आणि = ले आ के। माइ = हे मां! स्ह बिनु = पति (प्रभु) के बिना। जाइ = (आसरे की) जगह, आसरा।2। तिसु आगै = उस (गुरू) के आगे। पूरा = अमुक। भंडारु = खजाना। पारावारु = पार+अवार, उस पार इस पार का किनारा।3। परवदगारु = पालने वाला। जिस के = (‘जिसु’ और ‘जिस’ में फर्क याद रखने योग्य है)। चलत = चरित्र, चोज, चमत्कार। विसेख = विशेष, खास। जिसु मसतकि = जिस के माथे पे।4। अर्थ: हे मेरे मन! जितने समय तक (तेरे शरीर में) सांस (आता) है (उतने समय तक) सदा स्थिर रहने वाले परमात्मा का सिमरन कर। सदा स्थिर रहने वाले परमात्मा के अलावाऔर सारा झूठा परपंच है, ये आखिर को नाश हो जाने वाला है।1। रहाउ। (हे भाई!) जीभ से सदा कायम रहने वाले परमात्मा का सिमरन करना चाहिए। (सिमरन की बरकति से) मन पवित्र हो जाता है, शरीर पवित्र हो जाता है। (जगत में) माता-पिता (आदि) साक-संबंधी होते हैं। पर उस परमात्मा के बिना और कोई (सदा साथ निभने वाला संबन्धी) नहीं होता। (सिमरन भी उसकी मेहर से ही हो सकता है), अगर वह प्रभू अपनी मेहर करे, तो वह (जीव को) रॅती भर समय के लिए भी नहीं भूलता।1। हे (मेरी) मां! मेरा मालिक प्रभू पवित्र स्वरूप है। उसके सिमरन के बिना मुझसे रहा नहीं जा सकता। (उसके दीदार के वास्ते) मेरे मन में, मेरे तन में बहुत ही ज्यादा तड़प है। (हे मां! मेरे अंदर तड़प है कि) कोई (गुरमुख) उसे ला के मुझसे मिला दे। मैंने चारों दिशाऐ ढूंढ के देख ली हैं, खसम-पति के बिना मेरा कोई आसरा नहीं (सूझता)।2। (हे मेरे मन!) तू उस गुरू के दर पे अरदास कर, जो करतार (को) मिला सकता है। गुरू नाम (की दात) देने वाला है, उस (गुरू) का (नाम का) खजाना कभी ना खत्म होने वाला है। (गुरू की शरण पड़ के ही) सदा उस परमात्मा की सिफत सलाह करनी चाहिए जिसके गुणों का अंत नहीं पाया जा सकता। जिसके गुणों का इस पार उस पार का किनारा नहीं ढूंढा जा सकता।3। (हे भाई! गुरू की शरण पड़ के ही) उस पालनहार परमात्मा की सिफत सलाह करनी चाहिए जिसके अनेकों चमत्कार (दिखाई दे रहे हैं)। उसका नाम सदा ही सिमरना चाहिए, यही सबसे उक्तम अक्ल है। (पर, जीव के भी क्या बस?) हे नानक! जिस मनुष्य के माथे पर (सौभाग्य का) लेख (अंकुरित हो आए), उस को (परमात्मा) मन में, हृदय में प्यारा लगता है।4।19।89। सिरीरागु महला ५ ॥ संत जनहु मिलि भाईहो सचा नामु समालि ॥ तोसा बंधहु जीअ का ऐथै ओथै नालि ॥ गुर पूरे ते पाईऐ अपणी नदरि निहालि ॥ करमि परापति तिसु होवै जिस नो होइ दइआलु ॥१॥ मेरे मन गुर जेवडु अवरु न कोइ ॥ दूजा थाउ न को सुझै गुर मेले सचु सोइ ॥१॥ रहाउ ॥ सगल पदारथ तिसु मिले जिनि गुरु डिठा जाइ ॥ गुर चरणी जिन मनु लगा से वडभागी माइ ॥ गुरु दाता समरथु गुरु गुरु सभ महि रहिआ समाइ ॥ गुरु परमेसरु पारब्रहमु गुरु डुबदा लए तराइ ॥२॥ कितु मुखि गुरु सालाहीऐ करण कारण समरथु ॥ से मथे निहचल रहे जिन गुरि धारिआ हथु ॥ गुरि अम्रित नामु पीआलिआ जनम मरन का पथु ॥ गुरु परमेसरु सेविआ भै भंजनु दुख लथु ॥३॥ सतिगुरु गहिर गभीरु है सुख सागरु अघखंडु ॥ जिनि गुरु सेविआ आपणा जमदूत न लागै डंडु ॥ गुर नालि तुलि न लगई खोजि डिठा ब्रहमंडु ॥ नामु निधानु सतिगुरि दीआ सुखु नानक मन महि मंडु ॥४॥२०॥९०॥ {पन्ना 49-50} उच्चारण: सिरीराग महला ५॥ संत जनह मिल भाईहो सचा नाम समाल॥ तोसा बंधहु जीअ का अैथै ओथै नाल॥ गुर पूरे ते पाईअै आपणी नदर निहाल॥ करम परापत तिस होवै जिस नो होय दयालु॥१॥ मेरे मन, गुर जेवडु अवर ना कोय॥ दूजा थाउ न को सुझै गुर मेले सच सोय॥१॥ रहाउ॥ सगल पदारथ तिस मिले जिन गुर डिठा जाय॥ गुर चरणी जिन मन लगा से वडभागी माय॥ गुर दाता, समरथ गुर, गुर सभ महि रहिआ समाय॥ गुरु परमेसर पारब्रहम, गुर डुबदा लऐ तराय॥२॥ कित मुख गुर सालाहीअै करण कारण समरथ॥ से मथे निहचल रहे जिन गुर धारिआ हथ॥ गुर अंम्रित नाम पीआलिआ जनम मरन का पथ॥ गुर परमेसर सेविआ भै भंजन दुख लथ॥३॥ सतिगुर गहिर गंभीर है सुख सागर अघ खंड॥ जिन गुर सेविआ आपणा जमदूत न लागै डंड॥ गुर नाल तुल न लगई खोज डिठा ब्रहमंड॥ नाम निधान सतगुर दीआ सुख नानक मन महि मंड॥४॥२०॥९०॥ पद्अर्थ: संत जनहु = हे संत जनों! मिलि = (साध-संगति में) मिल के। भाईहो = हे भाईयो! सचा = सदा स्थिर। समालि = संभाल के, हृदय में टिका के। तोसा = (जीवन सफर का) खर्च। बंधहु = एकत्र करो। जीअ का = जीवात्मा वास्ते। अैथै ओथै = इस लोक में परलोक में। ते = से। निहालि = निहाले, देखता है। करमि = बख्शिश के द्वारा। जिस नो = जिस का (लफज ‘जिस’ में से ‘ु’ मात्रा हट गई है; देखें ‘गुरबाणी व्याकरण’)।1। मन = हे मन! जेवडु = जितना बड़ा। गुर मेले = गुरू मिलाता है। सोइ = वही।1। रहाउ। सगल = सारे। जिनि = जिस ने। जाइ = जा के। जिन = (लफज ‘जिन’ बहुवचन, ‘जिनि’ एकवचन)। माइ = हे मां।2। कितु = किस से? मुखि = मुंह से। कितु मुखि = किस मुंह से? करण = संसार। समरथु = ताकत वाला। निहचल = अडोल, सदा सुर्खरू। गुरि = गुरू ने। पथु = परहेज। भै भंजन = सारे डर दूर करने वाला। दुख लथु = सारे दुख उतार देने वाला।3। गहिर = गहरा। गंभीरु = गंभीर, बड़े जिगरे वाला। सागरु = समुंद्र। अघ खंडु = पापों को नाश करने वाला। डंडु = डंडा, सजा। तुलि = बराबर। ब्रहमंडु = जहान, संसार। निधानु = खजाना। सतिगुरि = सतिगुरू ने। मंडु = धरा है, रखा है, निहित किया है।4। अर्थ: हे मेरे मन! गुरू जितना बड़ा (ऊँचे जीवन वाला जगत में) और कोई नहीं है। (गुरू के बिना मुझे) और कोई दूसरा आसरा नहीं दिखाई देता। (पर) वह सदा स्थिर रहने वाला परमात्मा खुद ही गुरू से मिलाता है।1। रहाउ। हे संत जनों! (साध-संगति में) मिल के सदा स्थिर रहने वाले परमात्मा का नाम हृदय में बसा के अपनी जीवात्मा के वास्ते (जीवन सफर का) खजाना एकत्र करो। यह नाम रूप सफर खर्च इस लोक में और परलोक में (जीवात्मा के साथ) निभता है। (जब प्रभु) अपनी मेहर की निगाह से देखता है (तब ये नाम खजाना) पूरे गुरू से मिलता है। प्रभू की मेहर से यह उस मनुष्य को प्राप्त होता है जिस पे प्रभु दयाल होता है।1। जिस मनुष्य ने जा के गुरू का दर्शन किया है, उसे सारे (कीमती) पदार्थ मिल गए (समझो)। हे माँ! जिन मनुष्यों का मन गुरू के चरणों में जुडता है, वह बड़े भागयशाली हैं। गुरू (जो उस परमात्मा का रूप है) सभ दातें देने वाला है जो सभ ताकतों का मालिक है जो सभ जीवों में व्यापक है। गुरू परमेश्वर (का रूप) है। गुरू पारब्रह्म (का रूप) है। गुरू (संसार समुंद्र में) डूबते जीव को पार लंघा देता है।2। किस मुंह से गुरू की उस्तति की जाए? गुरू (उस प्रभू का रूप है जो) जगत को पैदा करने की ताकत रखता है। वह माथे (गुरू चरणों में) सदा टिके रहते हैं, जिन पे गुरू ने (अपनी मेहर का) हाथ रखा है। (परमात्मा का नाम) जनम-मरण के चक्कर रूप् रोग का परहेज है। आत्मिक जीवन देने वाला यह नाम जल जिन (भाग्यशालियों) को गुरू ने पिलाया है वह परमेश्वर के रूप गुरू को, हमारे डर दूर करने वाले गुरू को, सारे दुख नाश करने वाले गुरू को अपने हृदय में बसाते है।3। स्तिगुरू (मानों, एक) गहरा (समुंद्र) है, गुरू बड़े जिगरे वाला है, गुरू सारे सुखों का समुंद्र है। गुरू पापों का नाश करने वाला है। जिस मनुष्य ने अपने गुरू की सेवा की है यमदूतों का डंडा (उस के सिर पे) नहीं बजता। मैंने सारा सेसार ढूंढ के देख लियाहै, कोई भी गुरू के बराबर का नहीं है। हे नानक! सतिगुरू ने जिस मनुष्य को परमातमा का नाम खजाना दिया हे, उसने आत्मिक आनन्द (सदा के लिए) अपने मन में पिरो लिया है ।4।20।90। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |