श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 50 सिरीरागु महला ५ ॥ मिठा करि कै खाइआ कउड़ा उपजिआ सादु ॥ भाई मीत सुरिद कीए बिखिआ रचिआ बादु ॥ जांदे बिलम न होवई विणु नावै बिसमादु ॥१॥ मेरे मन सतगुर की सेवा लागु ॥ जो दीसै सो विणसणा मन की मति तिआगु ॥१॥ रहाउ ॥ जिउ कूकरु हरकाइआ धावै दह दिस जाइ ॥ लोभी जंतु न जाणई भखु अभखु सभ खाइ ॥ काम क्रोध मदि बिआपिआ फिरि फिरि जोनी पाइ ॥२॥ माइआ जालु पसारिआ भीतरि चोग बणाइ ॥ त्रिसना पंखी फासिआ निकसु न पाए माइ ॥ जिनि कीता तिसहि न जाणई फिरि फिरि आवै जाइ ॥३॥ अनिक प्रकारी मोहिआ बहु बिधि इहु संसारु ॥ जिस नो रखै सो रहै सम्रिथु पुरखु अपारु ॥ हरि जन हरि लिव उधरे नानक सद बलिहारु ॥४॥२१॥९१॥ {पन्ना 50} उच्चारण: सिरी राग महला ५॥ मिठा कर कै खाया कउड़ा उपजिआ साद॥ भाई मीत सुरिद कीऐ बिखिआ रचिआ बाद॥ जांदे बिलम न होवई विण नावै बिसमाद॥१॥ मेरे मन, सतगुर की सेवा लाग॥ जो दीसै सो विणसणा मन की मत तिआग॥१॥ रहाउ॥ जिउ कूकर हरकाया धावै दह दिस जाय॥ लोभी जंत न जाणई भख अभख सभ खाय॥ काम क्रोध मद बिआपिआ फिर फिर जोनी पाय॥२॥ माया जाल पसारिआ भीतर चोग बणाय॥ त्रिसना पंखी फासिआ निकस न पाऐ माय॥ जिन कीता तिसहि न जाणई फिर फिर आवै जाय॥३॥ अनिक प्रकारी मोहिआ बहु बिधि इह संसार॥ जिस नो रखै सो रहै संम्रिथ पुरख अपार॥ हरि जन हरि लिव उधरे नानक सद बलिहार॥४॥२१॥९१॥ पद्अर्थ: उपजिआ = पैदा हुआ। सादु = स्वाद, नतीजा। सुरदि = सुहृद, मित्र। बिखिआ = धन संपदा। बादु = झगड़ा। बिलम = देर। होवई = हुए। बिसमादु = आश्चर्य ।1। विणसणा = नाशवंत।1। रहाउ। कूकर = कुक्ता। हरकाइआ = हलकाया हुआ। दह = दस। दिस = दिशाएं। जाइ = जाता है। अभखु = जो चीज खाने के लायक नहीं। मदि = नशे में। बिआपिआ = व्याप्त, फंसा हुआ।2। पसारिआ = बिखरा हुआ। भीतरि = में। फासिआ = फसाया हुआ। निकसु = निकास, खलासी। माइ = हे मां! जिनि = जिस (परमात्मा) ने।3। बहु बिधि = बहुत तरीकों से। संम्रिथु = ताकत वाला। अपारु = बेअंत। उधरे = बच गए।4। अर्थ: हे मेरे मन! गुरू की (बताई हुई) सेवा में व्यस्त रह। (हे भाई!) अपने मन के पीछे चलना छोड़ दे और (दुनिया के पदार्तों का मोह त्याग, क्योंकि) जो कुछ दिख रहा है सभ नाशवंत है।1। रहाउ। जीव दुनिया के पदार्तों को स्वाद-दार समझ के इस्तेमाल करता है। पर, इन (भोगों) का स्वाद (अंत में) कड़वा (दुखदाई) साबित होता है (विकार और रोग पैदा हो जाते हैं)। मनुष्य (जगत में) भाई-मित्र-दोस्त आदि बनाता है और (यह) माया का झगड़ा खड़ा किये रखता है। पर आश्चर्य की बात यह है कि परमात्मा के नाम के बिना किसी भी चीज के नाश होने में समय नहीं लगता।1। जैसे हलकाया कुक्ता दौड़ता है और हर तरफ को दौड़ता है। (उसी तरह) लोभी जीव को भी कुछ नहीं सूझता, अच्छी-बुरी हरेक चीज खा लेता है। काम के और क्रोध के नशे में फंसा हुआ मनुष्य मुड़-मुड़ योनियों में पड़ता रहता है।2। माया के विषयों का चोगा जाल में तैयार करके वह जाल बिखेरा हुआ है। माया की तृष्णा ने जीव पक्षी को (उस जाल में) फंसाया हुआ है। हे (मेरी) मां! (जीव उस जाल में से) छुटकारा प्राप्त नहीं कर सकता, (क्योंकि) जिस ईश्वर ने (यह सभ कुछ) पैदा किया है उस से सांझ नहीं डालता।, और बार बार पैदा होता मरता रहता है।3। इस जगत को (माया के) अनेकों किस्म के रूपों रंगों में कई तरीकों से मोह रखा है। इस में से वही बच सकता है, जिसको सर्व समर्थ बेअंत अकाल-पुरख खुद बचाए। (परमात्मा की मेहर से) परमात्मा के भगत ही परमात्मा (के चरनों) में सुरति जोड़ के बचते हैं। हे नानक! तू सदा उस परमात्मा से सदके रह।4।25।91। सिरीरागु महला ५ घरु २ ॥ गोइलि आइआ गोइली किआ तिसु ड्मफु पसारु ॥ मुहलति पुंनी चलणा तूं समलु घर बारु ॥१॥ हरि गुण गाउ मना सतिगुरु सेवि पिआरि ॥ किआ थोड़ड़ी बात गुमानु ॥१॥ रहाउ ॥ जैसे रैणि पराहुणे उठि चलसहि परभाति ॥ किआ तूं रता गिरसत सिउ सभ फुला की बागाति ॥२॥ मेरी मेरी किआ करहि जिनि दीआ सो प्रभु लोड़ि ॥ सरपर उठी चलणा छडि जासी लख करोड़ि ॥३॥ लख चउरासीह भ्रमतिआ दुलभ जनमु पाइओइ ॥ नानक नामु समालि तूं सो दिनु नेड़ा आइओइ ॥४॥२२॥९२॥ {पन्ना 50} उच्चारण: सिरी राग महला ५ घर २॥ गोइल आया गोइली किआ तिसु डंफ पसार॥ मुहलत पुंनी चलणा तूं संमल घर बार॥१॥ हरि गुण गाउ मना सतिगुर सेव पिआर॥ किआ थोड़ड़ी बात गुमान॥१॥ रहाउ॥ जैसे रैण पराहुणे उठ चलसहि परभात॥ किआ तूं रता गिरसत सिउ सभ फुला की बागात॥२॥ मेरी मेरी किआ करहि जिन दीआ सो प्रभु लोड़॥ सरपर उठी चलणा छड जासी लख करोड़॥३॥ लख चउरासीह भ्रमतिआं दुलभ जनम पायोय॥ नानक नाम समाल तूं सो दिन नेड़ा आयोय॥४॥२२॥९२। पद्अर्थ: गोइलि = नदियों के किनारे घास वाली वह हरियाली जगह जहां लोग पशु चराने ले जाते हैं। गोइलि = चरागाह में। गोइली = मवेशियों का मालिक गुजॅर। तिसु = उस (गोइली) को। डंफु = (अपने किसी बड़प्पन का) दिखावा, ढंढोरा। पसारु = खिलारा। मुहलति = मिला हुआ समय। संमलु = संभाल। घर बारु = घर घाट।1। पिआरि = प्यार से। बात = बातें। गुमान = अहम्।1। रहाउ। रैणि = रात। उठि = उठ के। चलसहि = चले जाएंगे। सिउ = साथ। बागाति = बगीची।2। जिनि = जिस (परमात्मा) ने। लोड़ि = ढूंढ। सरपर = जरूर। जासी = जाएगा।3। भ्रमतिआं = भटकते हुए। दुलभ = बड़ी मुश्किल से मिला हुआ। समालि = संभाल, हृदय में बसा।4। अर्थ: हे मेरे मन! परमात्मा के गुण गाया कर। प्यार से गुरू की (बताई) सेवा करा कर। थोड़ी जितनी बात के पीछे (इस थोड़े से जीवन समय के वास्ते) क्यूँ गुमान करता है?1। रहाउ। (मुसीबत के समय थोड़े समय के लिए) गुजॅर (अपने माल-मवेशी ले के) किसी चरने वाली जगह पे चला जाता है, वहां उसे अपने किसी बड़ेपन का दिखावा-पसारा शोभा नहीं देता। (वैसे ही, हे जीव! जब तुम्हारा यहां जगत में रहने के लिए) मिला हुआ समय समाप्त हो जाएगा, तू (यहां से) चल पड़ेगा। (इसलिए, अपना असली) घर घाट संभाल (याद रख)।1। जैसे रात के समय (किसी के घर आए हुए) मेहमान दिन चढ़ने पे (वहां से उॅठ के) चल पड़ेंगे। (उसी तरह, हे जीव! जिंदगी की रात खत्म होने पर तू भी इस जगत से चल पड़ेगा)। तू इस गृहस्थ से (बाग परिवार से) क्यूँ मस्त हुआ पड़ा है? यह सारी फूलों की बगीची के समान है।2। यह चीज मेरी है, यह जयदाद मेरी है– क्यूं ऐसा गुमान कर रहा है? जिस परमात्मा ने यह सभ कुछ दिया है, उसको ढूंढ। यहां से जरूर कूच कर जाना है। (लाखों करोड़ों का मालिक भी) लाखों करोड़ों रूपए छोड़ के चला जाएगा।3। (हे भाई!) चौरासी लाख जूनियों में भटक भटक के अब ये मानस जन्म बड़ी मुश्किल से मिला है। हे नानक! (परमात्मा का) नाम हृदय में बसा, वह दिन नजदीक आ रहा है (जब यहां से कूच करना है)।4।22।92। सिरीरागु महला ५ ॥ तिचरु वसहि सुहेलड़ी जिचरु साथी नालि ॥ जा साथी उठी चलिआ ता धन खाकू रालि ॥१॥ मनि बैरागु भइआ दरसनु देखणै का चाउ ॥ धंनु सु तेरा थानु ॥१॥ रहाउ ॥ जिचरु वसिआ कंतु घरि जीउ जीउ सभि कहाति ॥ जा उठी चलसी कंतड़ा ता कोइ न पुछै तेरी बात ॥२॥ पेईअड़ै सहु सेवि तूं साहुरड़ै सुखि वसु ॥ गुर मिलि चजु अचारु सिखु तुधु कदे न लगै दुखु ॥३॥ सभना साहुरै वंञणा सभि मुकलावणहार ॥ नानक धंनु सोहागणी जिन सह नालि पिआरु ॥४॥२३॥९३॥ {पन्ना 50} उच्चारण: सिरीराग महला ५॥ तिचर वसहि सुहेलड़ी जिचर साथी नाल॥ जा साथी उठी चलिआ ता धन खाकू राल॥१॥ मन बैराग भया, दरसन देखणै का चाउ॥ धंन सु तेरा थान॥१॥ रहाउ॥ जिचर वसिआ कंत घर, जीउ जीउ सभ कहात॥ जा उठी चलसी कंतड़ा ता कोय न पुछै तेरी बात॥२॥ पेईअड़ै सहु सेव तूं, साहुरड़ै सुख वस॥ गुर मिल चज अचार सिख, तुध कदे न लगै दुख॥३॥ सभना साहुरै वंञणां सभ मुकलावणहार॥ नानक धन सोहागणी जिन सह नाल पिआर॥४॥२३॥९३॥ पद्अर्थ: तिचरु = उतने समय तक। वसहि = तू बसेगी। सुहेलड़ी = सरल। साथी = (जीवात्मा) साथी। जा = जग। धन = हे धन! हे काया! खाकू रालि = मिट्टी में मिल गई।1। मनि = मन में। बैरागु = प्रेम। धंनु = भाग्यशाली। सु = वह (शरीर)। थानु = निवास।1। रहाउ। घरि = घर में। कंतु = पति, जीवात्मा। जीउ जीउ = जी जी, आदर के बचन। उठी = उठ के। चलसी = चला जाएगा। कंतड़ा = विचारा कंत, विचारी जीवात्मा।2। पेईअड़ै = पिता के घर में, इस लोक में। सहु = पति। सेवि = सिमर। साहुरड़ै = ससुराल में, परलोक में। सुखि = सुख से। गुर मिलि = गुरू से मिल के। चजु = काम करने का तरीका, जीवन जाच। आचारु = अच्छा चलन। सिखु = (क्रिया है। हुकमी भविष्यत, मध्यम पुरख, एकवचन) सीख।3। वंञणा = जाना। सभि = सारी जीव सि्त्रयां। सह नालि = पति के साथ ।4। (नोट: ‘सहु’ और ‘सह’ में फर्क स्माणीय हैं)। अर्थ: (हे हरी!) वह शरीर भाग्यशाली है जिसमें तेरा निवास है (जहां तुझे याद किया जा रहा है)। (वह मनुष्य भाग्यवान है जिसके) मन में तेरा प्यार पैदा हो गया है। जिसके मन में तेरे दर्शन की तड़प पैदा हुई है।1। रहाउ। हे काया! तू उतना समय ही सुखी बसेगी, जितना समय (जीवात्मा तेरा) साथी (तेरे) साथ है। जब (तेरा) साथी (जीवात्मा) उॅठ के चल पड़ेगा, तब, हे काया! तू मिट्टी में मिल जाएगी।1। हे काया! जितने समय तेरा पति (जीवात्मा तेरे) घर में बसता है, सभी लोग तुम्हें ‘जी’ ‘जी’ करते हैं (सारे तेरा आदर करते हैं)। पर जब निमाणी कंत (जीवात्मा) उठ के चल पड़ेगा, तब कोई भी तेरी बात नहीं पूछता।2। (हे जीवात्मा! जब तक तू,) पेके घर में (संसार में है, तब तक) पति प्रभू को सिमरती रह। ससुराल में (परलोक में जाकर) तू सुखी बसेगी। (हे जीवात्मा!) गुरू को मिल के जीवन जाच सीख, अच्छा आचरण बनाना सीख, तुझे कभी कोई दुख नहीं व्यापेगा।3। सभी जीव-सि्त्रयों ने ससुराल (परलोक में अपनी अपनी बारी से) चले जाना है, सभी ने मुकलावे जाना है। हे नानक! वह वह जीवस्त्री सुहाग-भाग वाली है जिनका पति प्रभू से प्यार (बन गया) है।4।23।93। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |