श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 51 सिरीरागु महला ५ घरु ६ ॥ करण कारण एकु ओही जिनि कीआ आकारु ॥ तिसहि धिआवहु मन मेरे सरब को आधारु ॥१॥ गुर के चरन मन महि धिआइ ॥ छोडि सगल सिआणपा साचि सबदि लिव लाइ ॥१॥ रहाउ ॥ दुखु कलेसु न भउ बिआपै गुर मंत्रु हिरदै होइ ॥ कोटि जतना करि रहे गुर बिनु तरिओ न कोइ ॥२॥ देखि दरसनु मनु साधारै पाप सगले जाहि ॥ हउ तिन कै बलिहारणै जि गुर की पैरी पाहि ॥३॥ साधसंगति मनि वसै साचु हरि का नाउ ॥ से वडभागी नानका जिना मनि इहु भाउ ॥४॥२४॥९४॥ {पन्ना 51} उच्चारण: सिरीराग महला ५ घर ६॥ करण कारण ऐक ओही जिन कीआ आकार॥ तिसहि धिआवह, मन मेरे, सरब को आधार॥१॥ गुर के चरन मन महि धिआय॥ छोड सगल सिआणपा साच सबद लिव लाय॥१॥ रहाउ॥ दुख कलेस न भउ बिआपै गुर मंत्र हिरदै होय॥ कोट जतन कर रहे गुर बिनु तरिओ ना कोय॥२॥ देख दरसन मन साधारै पाप सगले जाहि॥ हउ तिन कै बलिहारणै जि गुर की पैरी पाहि॥३॥ साध-संगति मन वसै साच हरि का नाउ॥ से वडभागी नानका जिना मन इह भाउ॥४॥२४॥९४॥ पद्अर्थ: करण = जगत। कारण = मूल। जिनि = जिस ने। आकारु = दिखता जगत। के = का। आधारु = आसरा।1। साचि = सदा स्थ्रि रहने वाले परमात्मा में। शबदि = (गुरू के) शबद से।1। रहाउ। न बिआपै = दबाव नहीं डालता। गुर मंत्र = गुरू का उपदेश। कोटि = करोड़ों।2। साधारै = आधर सहित होता है। पाहि = पहने जाते हैं।3। मनि = मन में। साचु = सदा स्थिर रहने वाला। भाउ = प्रेम।4। अर्थ: (हे भाई!) गुरू के चरण अपने मन में टिका के रख (भाव, अहम् को छोड़ के गुरू में श्रद्धा बना)। (अपनी) सारी चतुराईयां छोड़ दे। गुरू के शबद द्वारा सदा स्थिर रहने वाले परमात्मा में सुरति जोड़।1। रहाउ। हे मेरे मन! जिस परमात्मा ने यह दिखाई देता जगत बनाया है, सिर्फ वही सृष्टि का रचनहार है, और जीवों का रचनहार है, तथा जीवों का आसरा है। उसी को सदा सिमरते रहो।1। जिस मनुष्य के हृदय में गुरू का उपदेश (सदा) बसता है। उसको कोई दुख कोई कलेश कोई डर सता नहीं सकता। लोग करोडों (और और) यत्न करके थक जाते हैं, पर गुरू की शरण के बिनां (उन दुख कलेशों से) कोई मनुष्य पार नहीं लांघ सकता।2। गुरू का दर्शन करके जिस मनुष्य का मन (गुरू का) आसरा पकड़ लेता है, उसके सारे (पहले किए) पाप नाश हो जाते हैं। मैं उन ( भाग्यशाली) लोगों से कुर्बान जाता हूँ जो गुरू के चरणों में गिर पड़ते हैं।3। साध-संगति में रहने से सदा स्थिर रहने वाले परमात्मा का नाम मन में बस जाता है। हे नानक! वह लोग भाग्यशाली हैं, जिनके मन में (साध-संगति में टिकने का) यह प्रेम है।4।24।94। सिरीरागु महला ५ ॥ संचि हरि धनु पूजि सतिगुरु छोडि सगल विकार ॥ जिनि तूं साजि सवारिआ हरि सिमरि होइ उधारु ॥१॥ जपि मन नामु एकु अपारु ॥ प्रान मनु तनु जिनहि दीआ रिदे का आधारु ॥१॥ रहाउ ॥ कामि क्रोधि अहंकारि माते विआपिआ संसारु ॥ पउ संत सरणी लागु चरणी मिटै दूखु अंधारु ॥२॥ सतु संतोखु दइआ कमावै एह करणी सार ॥ आपु छोडि सभ होइ रेणा जिसु देइ प्रभु निरंकारु ॥३॥ जो दीसै सो सगल तूंहै पसरिआ पासारु ॥ कहु नानक गुरि भरमु काटिआ सगल ब्रहम बीचारु ॥४॥२५॥९५॥ {पन्ना 51} उच्चारण: सिरीराग महला ५॥ संच हरि धन पूज सतगुर छोड सगल विकार॥ जिन तूं साज सवारिआ हरि सिमर होय उधार॥१॥ जप मन नाम ऐक अपार॥ प्रान मन तन जिनह दीआ रिदे का आधार॥१॥ रहाउ॥ काम क्रोध अहंकार माते विआपिआ संसार॥ पउ संत सरणी लाग चरणी मिटै दूख अंधार।२॥ सत संतोख दया कमावै ऐह करणी सार॥ आप छोड सभ होय रेणा जिस देय प्रभ निरंकार॥३॥ जो दीसै सो सगल तूंहै पसरिआ पासार॥ कह नानक गुर भरम काटिआ सगल ब्रहम बीचार॥४॥२४॥९५॥ पद्अर्थ: संचि = एकत्र कर। पूजि = आदर सत्कार से हृदय में बसा। जिनि = जिस (परमात्मा) ने। तूं = तूझे। साजि = पैदा कर के। सवारिआ = सुंदर बनाया। उधारु = (विकारों से) बचाव।1। अपारु = बेअंत। जिनहि = जिसने। रिदे का = हृदय का। आधारु = आसरा।1। रहाउ। कामि = काम में। माते = मस्त। विआपिआ = जोर डाले रखता है। संसारु = जगत (का मोह)। अंधारु = घोर अंधकार।2। सतु = दान, सेवा। सार = श्रेष्ठ। आपु = स्वैभाव। रेणा = चरणधूड़। देइ = देता है।3। पसरिआ = बिखरा हुआ। गुरि = गुरू ने। बीचारु = सोच।4। अर्थ- हे मन! उस परमात्मा का नाम जप। जो एक खुद ही खुद है और जो बेअंत है। जिसने ये जीवात्मा दी है मन दिया है और शरीर दिया है, जो सभ जीवों के हृदय का आसरा है।1। रहाउ। (हे भाई!) परमात्मा का नाम धन इकट्ठा कर। अपने गुरू का आदर सत्कार हृदय में बसा (और इस तरह) सारे विकार छोड़। जिस परमात्मा ने तुझे पैदा करके सुंदर बनाया है, उसका सिमरन कर, (विकारों से तेरा) बचाव हो जाएगा।1। जिन लोगों पे जगत का मोह दबाव डाले रखता है, वह काम में, क्रोध में, अहंकार में मस्त रहते हैं। (इन विकारों से बचने के लिए, हे भाई!) गुरू की शरण पड़, गुरू की चरणी लग (गुरू का आसरा लेने से अज्ञानता का) घोर अंधकार रूप दुख मिट जाता है।2। जिस (भाग्यशाली मनुष्य) को निरंकार प्रभू (अपने नाम की दात) देता है, वह स्वै भाव छोड़के सभ की चरण धूड़ बनता है। वह सेवा, संतोख व दया (की कमाई) कमाता है, और यही है श्रेष्ठ करणी।3। हे नानक! कह– गुरू ने जिस मनुष्य के मन की भटकन दूर कर दी है, उस को, हे प्रभू! जो ये जगत दिखाई देता है सारा तेरा ही रूप दिखता है। तेरा ही पसारा हुआ ये पसारा दिखता है। उसे यही सोच बनी रहती है कि हर जगह तू ही तू है।4।25।95। सिरीरागु महला ५ ॥ दुक्रित सुक्रित मंधे संसारु सगलाणा ॥ दुहहूं ते रहत भगतु है कोई विरला जाणा ॥१॥ ठाकुरु सरबे समाणा ॥ किआ कहउ सुणउ सुआमी तूं वड पुरखु सुजाणा ॥१॥ रहाउ ॥ मान अभिमान मंधे सो सेवकु नाही ॥ तत समदरसी संतहु कोई कोटि मंधाही ॥२॥ कहन कहावन इहु कीरति करला ॥ कथन कहन ते मुकता गुरमुखि कोई विरला ॥३॥ गति अविगति कछु नदरि न आइआ ॥ संतन की रेणु नानक दानु पाइआ ॥४॥२६॥९६॥ {पन्ना 51} उच्चारण: सिरीराग महला ५॥ दुक्रित सुक्रित मंधे संसार सगलाणा॥ दुहहूं ते रहत भगत है कोई विरला जाणा॥१॥ ठाकुर सरबे समाणा॥ किआ कहउ सुणउ सुआमी तूं वड पुरखु सुजाणा॥१॥ रहाउ॥ मान अभिमान मंधे सो सेवक नाही॥ तत समदरसी संतहु कोई कोट मंधाही॥२॥ कहन कहावन इह कीरत करला॥ कथन कहन ते मुकता गुरमुख कोई विरला॥३॥ गति अविगति कछु नदर न आया॥ संतन की रेण नानक दान पाया॥४॥२६॥९६॥ पद्अर्थ: दुक्रित = (शास्त्रों अनुसार नीयत) बुरे काम। सुक्रित = (नीयत) अच्छे काम। मंधे = बीच। सगलाणा = सारा। जाणा = जाना।1। ठाकुरु = पालणहार। सरबे = सभ जीवों मे। किआ कहउ = मैं क्या कहूँ? किआ सुणउ = मैं क्या सुनूँ? सुआमी = हे स्वामी। सुजाणा = सबके दिल की जानने वाला।1। रहाउ। मान = आदर। अभिमान = अपमान, निरादर। तत = मूल-प्रभू। तत दरसी = हर जगह मूल प्रभू को देखने वाला। सम दरसी = सभी को एक जैसा देखने वाला। कोटि = करोड़ों। मंधाही = में।2। कीरति = शोभा, उस्तति। करला = रास्ता। ते = से। मुकता = आजाद, बचा हुआ। गुरमुखि = गुरू की शरण पड़ा हुआ मनुष्य।3। गति = मुक्ति। अविगति = मुक्ति के विपरीत हालत। रेणु = चरण धूड़।4। अर्थ: हे स्वामी! तू सब जीवों में समाया हुआ है और सबको पालनेवाला है। तू सबसे बड़ा है, सभ में व्यापक है। सबके दिल की जानने वाला है। (हे स्वामी! इससे ज्यादा तेरे बाबत) मैं (क्या) कहूँ और क्या सुनूँ? ।1। रहाउ। (हे भाई!) सारा जगत (शास्त्रों के अनुसार नीयत) बुरे कर्मों और अच्छे कर्मों (की विचार) में ही डूबा हुआ है। परमात्मा की भगती करने वाला मनुष्य इन दोनों विचारों से ही मुक्त रहता है (कि शास्त्रों अनुसार ‘दुक्रित’ कौन से हैं और ‘सुक्रित’ कौन से हैं), पर ऐसा कोई विरला ही मिलता है।1। हे संत जनों! हर जगह जगत के मूल-प्रभू को देखने वाला और सभी को एक-सी प्रेम निगाह से देखने वाला करोड़ों में कोई एक होता है। जो मनुष्य (जगत में मिलते) आदर या निरादरी (के अहसास) में फंसा रहता है, वह परमात्मा का असल सेवक नहीं (कहला सकता)।2। (ज्ञान आदि की बातें निरी) कहनी या कहलानी- ये रास्ता है दुनिया से शोभा कमाने का। गुरू की शरण पड़ा हुआ कोई विरला ही मनुष्य होता है जो (ज्ञान की यह जबानी जबानी बातें) कहने से आजाद रहता है।3। हे नानक! जिस मनुष्य ने संत जनों के चरणों कीधूड़ (का) दान प्राप्त कर लिया है, उसे इस बात की ओर ध्यानही नहीं होता कि मुक्ति क्या है और ना-मुक्ति क्या है (उसे प्रभू ही हर जगह दिखता है, प्रभू की याद ही उस का निशाना है)।4।26।96। सिरीरागु महला ५ घरु ७ ॥ तेरै भरोसै पिआरे मै लाड लडाइआ ॥ भूलहि चूकहि बारिक तूं हरि पिता माइआ ॥१॥ सुहेला कहनु कहावनु ॥ तेरा बिखमु भावनु ॥१॥ रहाउ ॥ हउ माणु ताणु करउ तेरा हउ जानउ आपा ॥ सभ ही मधि सभहि ते बाहरि बेमुहताज बापा ॥२॥ पिता हउ जानउ नाही तेरी कवन जुगता ॥ बंधन मुकतु संतहु मेरी राखै ममता ॥३॥ भए किरपाल ठाकुर रहिओ आवण जाणा ॥ गुर मिलि नानक पारब्रहमु पछाणा ॥४॥२७॥९७॥ {पन्ना 51-52} उच्चारण: सिरी राग महला ५ घरु ७॥ तेरै भरोसै पिआरे, मै लाड लडाया॥ भूलहि चूकहि बारिक, तूं हरि पिता माया॥१॥ सुहेला कहन कहावन॥ तेरा बिखम भावन॥१॥ रहाउ॥ हउ माण ताण करउ तेरा, हउ जानउ आपा॥ सभ ही मध, सभहि ते बाहर, बेमुहताज बापा॥२॥ पिता हउ जानउ नाही, तेरी कवन जुगता॥ बंधन मुकत संतहु, मेरी राखै ममता॥३॥ भऐ किरपाल ठाकुर रहिओ आवण जाणा॥ गुर मिल नानक पारब्रहम पछाणा॥४॥२७॥९७॥ पद्अर्थ: लाड लडाइआ = लाड करता रहा, लाडों में दिन व्यतीत करता रहा। चूकहि = चूकना। माइआ = मईया, मां।1। सुहेला = आसान। बिखमु = मुश्किल। भावनु = होनी को मानना।1। रहाउ। हउ करउ = मैं करता हूं। जानउ आपा = मुझे अपना जानता हूं। मधि = बीच में।2। जुगता = युक्ति, तरीका। तेरी कवन जुगता = तुझे प्रसन्न करने का कौन सा तरीका है? बंधन मुकतु = बंधनों से आजाद करने वाला। ममता = ‘मेरा’ कहने का दावा।3। आवण जाणा = पैदा होना मरना। गुर मिलि = गुरू को मिल के।4। अर्थ: हे प्रभू! तेरा भाणा मानना (तेरी रजा में रहना, तेरी मर्जी में चलना) कठिन है। (पर यह) कहना और कहलाना आसान है (कि हम तेरा भाणा मानते हैं)।1। रहाउ। हे प्यारे (प्रभू-पिता)! तेरे प्यार के भरोसे पे मैंने लाडों में ही दिन गुजार दिए हैं। (मुझे यकीन है कि) तू हमारा माता-पिता है, और बच्चे भूल-चूक करते ही रहते हैं।1। हे मेरे बे-मुथाज पिता (प्रभू)! मैं तेरा (ही) मान (गर्व) करता हूं (मुझे ये फखर है कि तू मेरे सिर पर है), मैं तेरा ही आसरा रखता हूं। मैं जानता हूं कि तू मेरा अपना है। तू सभ जीवों के अंदर बसता है, और सभी से बाहर भी है (निरलेप भी है)।2। हे पिता प्रभू! मुझे पता नहीं कि तुझे प्रसंन्न करने का तरीका क्या है? हे संत जनों! पिता प्रभू मुझे माया के बंधनों से आजाद करने वाला है। वह मुझे अपना जानता है।3। हे नानक! पालणहार प्रभू जी जिस मनुष्य पर दया करते हैं, उसके जनम-मरन का चक्कर खत्म हो जाता है। गुरू को मिल के ही वह मनुष्य उस बेअंत परमात्मा के साथ गहरी सांझ पा लेता है।4।27।97। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |