श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 54 महला १ ॥ सभे कंत महेलीआ सगलीआ करहि सीगारु ॥ गणत गणावणि आईआ सूहा वेसु विकारु ॥ पाखंडि प्रेमु न पाईऐ खोटा पाजु खुआरु ॥१॥ हरि जीउ इउ पिरु रावै नारि ॥ तुधु भावनि सोहागणी अपणी किरपा लैहि सवारि ॥१॥ रहाउ ॥ गुर सबदी सीगारीआ तनु मनु पिर कै पासि ॥ दुइ कर जोड़ि खड़ी तकै सचु कहै अरदासि ॥ लालि रती सच भै वसी भाइ रती रंगि रासि ॥२॥ प्रिअ की चेरी कांढीऐ लाली मानै नाउ ॥ साची प्रीति न तुटई साचे मेलि मिलाउ ॥ सबदि रती मनु वेधिआ हउ सद बलिहारै जाउ ॥३॥ सा धन रंड न बैसई जे सतिगुर माहि समाइ ॥ पिरु रीसालू नउतनो साचउ मरै न जाइ ॥ नित रवै सोहागणी साची नदरि रजाइ ॥४॥ साचु धड़ी धन माडीऐ कापड़ु प्रेम सीगारु ॥ चंदनु चीति वसाइआ मंदरु दसवा दुआरु ॥ दीपकु सबदि विगासिआ राम नामु उर हारु ॥५॥ नारी अंदरि सोहणी मसतकि मणी पिआरु ॥ सोभा सुरति सुहावणी साचै प्रेमि अपार ॥ बिनु पिर पुरखु न जाणई साचे गुर कै हेति पिआरि ॥६॥ निसि अंधिआरी सुतीए किउ पिर बिनु रैणि विहाइ ॥ अंकु जलउ तनु जालीअउ मनु धनु जलि बलि जाइ ॥ जा धन कंति न रावीआ ता बिरथा जोबनु जाइ ॥७॥ सेजै कंत महेलड़ी सूती बूझ न पाइ ॥ हउ सुती पिरु जागणा किस कउ पूछउ जाइ ॥ सतिगुरि मेली भै वसी नानक प्रेमु सखाइ ॥८॥२॥ {पन्ना 54} उच्चारण: महला १॥ सभे कंत महेलीआ सगलीआ करहि सीगार॥ गणत गणावण आईआं सूहा वेस विकार॥ पाखंड प्रेम न पाईअै खोटा पाज खुआर॥१॥ हरि जीउ इउ पिर रावै नार॥ तुध भावन सोहागणी अपणी किरपा लैह सवार॥१॥ रहाउ॥ गुर सबदी सीगारीआ तन मन पिर कै पास॥ दुइ कर जोड़ खड़ी तकै सच कहै अरदास॥ लाल रती सच भै वसी भाइ रती रंग रास॥२॥ प्रिअ की चेरी कांढीअै लाली मानै नाउ॥ साची प्रीति न तुटई साचे मेल मिलाउ॥ सबद रती मन वेधिआ हउ सद बलिहारै जाउ॥३॥ साधन रंड न बैसई जे सतिगुर माहि समाय॥ पिर रीसालू नउतनों साचउ मरै न जाय॥ नित रवै सोहागणी साची नदर रजाय॥४॥ साच धड़ी धन माडीअै कापड़ प्रेम सीगार॥ चंदन चीत वसाया मंदर दसवां दुआर॥ दीपक सबद विगासिआ राम नाम उर हार॥५॥ नारी अंदर सोहणी मसतकि मणी पिआर॥ सोभा सुरत सुहावणी साचै प्रेम अपार॥ बिन पिर पुरख न जाणई साचे गुर कै हेत पिआर॥६॥ निस अंधिआरी सुतीअै किउ पिर बिन रैण विहाय॥ अंक जलउ तन जालीअउ मन धन जल बल जाय॥ जा धन कंत न रावीआ ता बिरथा जोबन जाय॥७॥ सेजै कंत महेलड़ी सूती बूझ न पाय॥ हउ सुती पिर जागणा किस कउ पूछउ जाय॥ सतिगुर मेली भै वसी नानक प्रेम सखाय॥८॥२॥ नोट: इस शबद के शीर्षक में शब्द ‘सिरीरागु’ नहीं है। पद्अर्थ: कंत महेलीआ = पति (प्रभू) की (जीव) सि्त्रयां। गणत = गिनती मिनतीए दिखावा। सूहा = लाल, मन को खीचने वाला गाढ़ा लाल रंग। वेसु = पहिरावा। पाखंडि = पाखण्ड से। पाजु = दिखावा।1। हरि जीउ = हे प्रभू जी! इउ = इस तरीके से, इस श्रद्धा से, ऐसी श्रद्धा रखने से। रावै = मिलता है, प्यार करता है। तुधु = तुझे। सोहागणी = सुहागन, भाग्यशाली। लैहि सवारि = तू सवार लेता है।1। रहाउ। सीगारीआ = जो जीव स्त्री श्रृंगारी गई है। कर = हाथ। खड़ी = खड़ी हुई, सावधान हो के, सुचेत रह के। लालि = लाल में, प्यारे के प्रेम में। सच भै = सच्चे प्रभू के डर अदब में। भाइ = (प्रभू के) प्रेम में। रंगि = रंग में। रासि = रसी हुई।2। चेरी = दासी। कांढीअै = कही जाती है। लाली = चेरी, दासी। मेलि = मेल में, संगति में। मिलाउ = मिलाप। वेधिआ = छेद किया हुआ, बेधा हुआ।3। साधन = जीव स्त्री। रीसालू = रसों का घर, आनंद का श्रोत। नउतनो = नया, जिसका प्यार कभी पुराना नहीं होता। न जाइ = पैदा नहीं होता।4। धड़ी = पट्टियां। माडीअै = सजाती है। चीति = चिक्त में। दीपकु = दीया। सबदि = गुरू के शबद में। विगासिआ = (अपना हृदय) हुलारे में ले आया है। उर हारु = हृदय का हार।5। मसतकि = माथे पे। मणी = रतन, जड़ाऊं टिॅका। हेति = प्रेम में।6। निसि अंधिआरी = अंधेरी रात में, माया के मोह की अंधेरी रात में। रैणि = जिंदगी की रात। अंकु = हृदय। जलउ = जल जाए। जालीअउ = जलाया जाय। जा = जब। कंति = कंत ने। न राविआ = प्यार ना किया।7। सैजे कंत = कंत की सेज पर। महेलड़ी = भोली जीव स्त्री। बूझ = समझ। पूछउ = मैं पूछूं। सतिगुरि = सत्गुरू ने। सखाइ = सखा, मित्र, साथी।8। अर्थ: हे प्रभू जी! व्ह जीव-सि्त्रयां सुहाग भाग वालियां हैं जो तुझे अच्छी लगती हैं। जिनको तू अपनी मेहर से खुद सुचज्जियां बना लेता है– यह श्रद्धा धारी प्रभु पति जीव-सि्त्रयों को प्यार करता है।1। रहाउ। सारी जीव-सि्त्रयां प्रभु पति की ही हैं, सारी ही (उस प्रभू पति को प्रसन्न करने के लिए) श्रृंगार करती हैं। पर, जो अपने श्रृंगार का दिखावा मान करती हैं उनका गाढ़ा लाल पहिरावा भी विकार (ही) पैदा करता है। क्योकि, दिखावा करने से प्रभू का प्यार नहीं मिलता। (अंदर खोट हो और बाहर से प्रेम का दिखावा हो) यह खोटा दिखावा खुआर ही करता है।1। पर, जो जीव स्त्री गुरू के शबद के द्वारा (अपने जीवन को) संवारती है, जिसका शरीर पति प्रभु के हवाले है, जिसका मन पति प्रभू के हवाले है (भाव, जिसका मन और जिसकी ज्ञानेद्रियां प्रभू की याद से अलग कुराहे नहीं जाते), जो दोनों हाथ जोड़ के पूरी श्रद्धा से (प्रभू पति का आसरा ही) देखती है, जो सदा स्थिर प्रभू को ही याद करती है और उसके दर पे अरजोईयां करती है, वह प्रभू प्रीतम (के प्यार) में रंगी रहती है। वह सदा स्थिर प्रभू के डर अदब में टिकी रहती है, वह प्रभू के प्रेम में रंगी रहती है, तथा उस के रंग में रसी रहती है।2। जो (प्रभू चरणों की) सेविका प्रभू के नाम को मानती है (प्रभू के नाम को ही अपनी जिंदगी का आसरा बनाती है) वह प्रभू पति की दासी कही जाती है, प्रभू के साथ उसकी प्रीति सदा कायम रहती है। कभी टूटती नहीं, सदा स्थिर प्रभू की संगति में (चरणों में) उसका मिलाप बना रहता है। प्रभू की सिफति सलाह के शबद में वह रंगी रहती है, उसका मन परोया रहता है। मैं ऐसी जीव स्त्री से कुर्बान हूँ।3। अगर, जीव स्त्री गुरू (के शबद) में सुरति जोड़ के रखे, तो वह कभी विधवा (हो के) नहीं बेठती। (भाव, खसम सांई का हाथ सदा उसके सिर पर टिका रहता है, फिर वह) खसम (भी ऐसा है जो) आनंद का स्रोत है (जिसका प्यार नित्य) नया है, (जो) सदा कायम रहने वाला (है, जो) ना मरता है ना पैदा होता है। वह अपनी सदा स्थिर मेहर की नजर से अपनी रजा के मुताबिक सदा उस सुहागन जीव स्त्री को प्यार करता है।4। जो जीव-स्त्री सदा स्थिर प्रभू (की याद अपने हृदय में टिकाती है, यह मानो, पति प्रभू को प्रसन्न करने के लिए) केसों की लटें संवारती है, प्रभू के प्यार को (सुंदर) कपड़ा और (गहनों का) श्रृंगार बनाती है, जिसने प्रभू को अपने चिक्त में बसाया है (और यह जैसे उसके माथे पर) चंदन (का टीका लगाया) है, जिसने अपने दसवें द्वार (दिमाग, चिक्त-आकाश) को (पति प्रभू के रहने के लिए) सुंदर घर बनाया है। जो गुरू के शबद द्वारा (अपने हृदय को) हिलोरों में ले आई है। (और यह जैसे, उसके हृदय में) दीआ (जलाया है), जिसने परमात्मा के नाम को अपने गले का हार बना लिया है।5। जिसने अपने माथे पर प्रभू के प्यार का जड़ाऊ टिका लगाया हुआ है। जिसने सदा स्थिर रहने वाले बेअंत प्रभू के प्रेम में अपनी सुरति (जोड़ के) खबसूरति बना ली है (और, इसको वह अपनी) शोभा समझती है। वह जीव स्त्री और जीव सि्त्रयों (जानी मानी) खूबसूरति है, वह अपने गुरू के शबद के प्रेम प्यार में रह के सदा स्थिर सर्व-व्यापक प्रभू पति के बिना और किसी से जान-पहिचान नहीं डालती।6। माया के मोह की काली अंधियारी रात में सो रही जीव-स्त्री! प्रभू पति के मिलाप के बगैर जिंदगी की रात आसान नहीं गुजर सकती। जल जाए वह हृदय और वह शरीर (जिसमें प्रभू की याद नहीं)। प्रभू की याद के बिना मन (विकारों में) जल-बल जाता है, माया धन भी व्यर्थ ही जाता है। अगर, जीव स्त्री को प्रभू पति ने प्यार नहीं किया, तो उसकी जवानी व्यर्थ ही चली जाती है।7। भाग्यहीन जीव स्त्री खसम प्रभू की सेज पर सो रही है, पर उसे ये समझ नहीं (कि हृदय सेज पर जीवात्मा और परमात्मा का इकट्ठा निवास है, पर माया के मोह में ग्रसित जीवात्मा को इस की सार नहीं है)। हे प्रभू पति! मैं जीव-स्त्री (माया की मोह की नींद में) सोई रहती हूँ, तू पति सदा जागता है (तुझे माया व्याप नहीं सकती); मैं किससे जा के पूछूँ (कि मैं किस तरह माया की नींद में से जाग के तुझे मिल सकती हूँ) ? हे नानक! जिस जीव-स्त्री को सतिगुरू ने (प्रभू के चरणों में) मिला लिया है, वह परमात्मा के भय-अदब में रहती है, परमात्मा का प्यार उसका (जीवन) साथी बन जाता है।8।2। सिरीरागु महला १ ॥ आपे गुण आपे कथै आपे सुणि वीचारु ॥ आपे रतनु परखि तूं आपे मोलु अपारु ॥ साचउ मानु महतु तूं आपे देवणहारु ॥१॥ हरि जीउ तूं करता करतारु ॥ जिउ भावै तिउ राखु तूं हरि नामु मिलै आचारु ॥१॥ रहाउ ॥ आपे हीरा निरमला आपे रंगु मजीठ ॥ आपे मोती ऊजलो आपे भगत बसीठु ॥ गुर कै सबदि सलाहणा घटि घटि डीठु अडीठु ॥२॥ आपे सागरु बोहिथा आपे पारु अपारु ॥ साची वाट सुजाणु तूं सबदि लघावणहारु ॥ निडरिआ डरु जाणीऐ बाझु गुरू गुबारु ॥३॥ असथिरु करता देखीऐ होरु केती आवै जाइ ॥ आपे निरमलु एकु तूं होर बंधी धंधै पाइ ॥ गुरि राखे से उबरे साचे सिउ लिव लाइ ॥४॥ हरि जीउ सबदि पछाणीऐ साचि रते गुर वाकि ॥ तितु तनि मैलु न लगई सच घरि जिसु ओताकु ॥ नदरि करे सचु पाईऐ बिनु नावै किआ साकु ॥५॥ जिनी सचु पछाणिआ से सुखीए जुग चारि ॥ हउमै त्रिसना मारि कै सचु रखिआ उर धारि ॥ जग महि लाहा एकु नामु पाईऐ गुर वीचारि ॥६॥ साचउ वखरु लादीऐ लाभु सदा सचु रासि ॥ साची दरगह बैसई भगति सची अरदासि ॥ पति सिउ लेखा निबड़ै राम नामु परगासि ॥७॥ ऊचा ऊचउ आखीऐ कहउ न देखिआ जाइ ॥ जह देखा तह एकु तूं सतिगुरि दीआ दिखाइ ॥ जोति निरंतरि जाणीऐ नानक सहजि सुभाइ ॥८॥३॥ {पन्ना 54-55} उच्चारण: सिरी राग महला १॥ आपे गुण आपे कथै, आपे सुण वीचार॥ आपे रतन परख तूं, आपे मोल अपार॥ साचउ मान महत तूं आपे देवणहार॥१॥ हरि जीउ, तूं करता करतार॥ जिउ भावै तिउ राख तूं हरि नाम मिलै आचार॥१॥ रहाउ॥ आपे हीरा निरमला आपे रंग मजीठ॥ आपे मोती उजलो आपे भगत बसीठ॥ गुर कै सबद सलाहणा घट घट डीठ अडीठ॥२॥ आपे सागर बोहिथा आपे पार अपार॥ साची वाट सुजाण तूं सबद लघावणहार॥ निडरिआ डर जाणीअै बाझ गुरू गुबार॥३॥ असथिर करता देखीअै होर केती आवै जाय॥ आपे निरमल ऐक तूं होर बंधी धंधै पाय॥ गुर राखे से उबरे साचे सिउ लिव लाय॥४॥ हरि जीउ सबद पछाणीअै साच रते गुर वाक॥ तित तन मैल न लगई सच घर जिस ओताक॥ नदरि करे सच पाईअै बिन नावै किआ साक॥५॥ जिनी सच पछाणिआ से सुखीअै जुग चार॥ हउमै त्रिसना मार कै सच रखिआ उरधार॥ जग महि लाहा ऐक नाम, पाईअै गुर वीचार॥६॥ साचउ वखर लादीअै लाभ सदा सच रास॥ साची दरगह बैसई भगत सची अरदास॥ पति सिउ लेखा निबड़ै राम नाम परगास॥७॥ ऊचा ऊचउ आखीअै, कहउ न देखिआ जाय॥ जह देखा तह ऐक तूं सतिगुर दीआ दिखाय॥ जोत निरंतर जाणीअै नानक सहज सुभाय॥८॥३॥ पद्अर्थ: आपे = (प्रभू) खुद ही। कथै = कहता है। सुणि = सुन के। परखि = परखता है। साचउ = सदा कायम रहने वाला। महतु = महत्वता।1। आचारु = धार्मिक रस्म।1। रहाउ। उजलो = चमकीला। बसीठु = वकील, विचौला। डीठु = दिखता। अडीठु = अदृष्ट।2। बोहिथा = जहाज। अपारु = इधर का छोर। वाट = रास्ता। सबदि = शबद के द्वारा। गुबारु = घुप अंधेरा।3। केती = बेअंत (सृष्टि)। धंधे = धंधे में, बंधन में। गुरि = गुरू ने।4। वाकि = वाक से। तितु तनि = उस शरीर में। ओताकु = बैठक, टिकाणा।5। जुग चारि = सदा ही। उर = हृदय। लाहा = लाभ।6। रासि = पूँजी। बैसई = बैठता है। पति = इज्जत।7। कहउ = मैं कहता हूँ। देखा = मैं देखता हूं। सतिगुरि = सत्गुरू ने। निरंतरि = अंतर के बिना, एक रस। सहजि = सहज अवस्था में टिक के। सुभाइ = प्रभू के प्रेम में जुड़ के।8। अर्थ: हे प्रभू जी! (हरेक चीज को) पैदा करने वाला तू स्वयं ही है। हे प्रभु! जैसे तूझे ठीक लगे, मुझे (अपने नाम में जोड़ के) रख। हे हरि! (मेहर कर) मुझे तेरा नाम मिल जाए। तेरा नाम ही मेरे वास्ते (बढ़िया से बढ़िया) कर्तव्य है।1। रहाउ। प्रभू खुद ही (अपने) गुण है, खुद ही (अपने गुणों को) बयान करता है, खुद ही (अपनी सिफति सलाह) सुन के उस को विचारता है (उस में सुरति जोड़ता है)। हे प्रभू तू खुद ही (अपना नाम रूप) रत्न है। तू स्वयं ही उस रत्न का मुल्य डालने वाला है, तू स्वयं ही (अपने नाम रूपी रत्न का) बेअंत मूल्य है। तू स्वयं ही सदा कायम रहने वाला गर्व है, बड़प्पन है, तू स्वयं ही (जीवों को आदर सत्कार) देने वाला है।1। हे प्रभू ! तू खुद ही चमकता हीरा है, तू खंद ही मजीठ का रंग है, तू खुद ही चमकता मोती है, तू खुद ही (अपने) भक्तों का विचोला है। सत्गुरू के शबद से तेरी सिफत सलाह हो सकती है। हरेक शरीर में तू ही दिखाई दे रहा है और तू ही अदृष्ट है।2। हे प्रभू! (यह संसार-) समुंद्र तू खुद ही है, (इस में से पार लंघाने वाला) जहाज़ भी तू खुद ही है। (इस संसार-समुंद्र का) इस पार का और उसपार का छोर भी तू स्वयं ही है। (हे प्रभू! तेरी भक्ति-रूप) मार्ग भी तू स्वयं ही है, तू सब कुछ जानता है। गुरू शबद के द्वारा (इस संसार समुंद्र में से भक्ति द्वारा) पार लंघाने वाला भी तू ही है। गुरू की शरण के बिना (ये जीवन-यात्रा, जीवों के लिए) घोर अंधेरा है। हे प्रभू! जो जीव तेरा डर-भय नही रखते, उनको दुनिया का सहम सहना पड़ता है।3। (इस जगत में) एक करतार ही सदा स्थिर रहने वाला दिखाई देता है, और बेअंत सृष्टि पैदा होती मरती रहती है। हे प्रभू! एक तू ही (माया के मोह की) मैल से साफ है, बाकी सारी दुनिया (माया के मोह के) बंधन में बंधी हुई है। जिनको गुरू ने (इस मोह से) बचा लिया है, वह सदा स्थिर प्रभू (के चरणों) में सुरति जोड़ के बच गए हैं।4। सदा कायम रहने वाले प्रभू (के नाम) में रंगे हुए गुरू के वाक्य द्वारा,शब्द के द्वारापरमात्मा के साथ जान-पहिचान पड़ सकती है। (गुरू के द्वारा) जिस मनुष्य की बैठक सदा स्थिर प्रभू के घर में (चरणों में) हो जाती है, उस के शरीर में (माया की) मैल नहीं लगती। वह सदा स्थिर प्रभू जिस पर मेहर की निगाह करता है, उसीको उसकी प्राप्ति होती है। उसका नाम सिमरने के बिनाउस से संबंध नहीं बन सकता।5। जिन लोगों ने सदा स्थिर प्रभू के साथ सांझ डाल ली है, वह सदा ही आत्मिक आनंद में रहते हैं। वह अपने अहम् और (माया वाली) तृष्णा मार के सदा स्थिर प्रभू (के नाम) को अपने हृदय में टिका के रखते हैं। जगत में (आने का) परमात्मा का एक नाम ही लाभ है (जो मनुष्य को कमाना चाहिए, और यह नाम) गुरू की बताई हुई शिक्षा से ही मिल सकता है।6। (हे व्यापारी जीव!) सदा स्थिर रहने वाली (नाम की) राशि-पूँजी ही जोड़नी चाहिए, (इसमें वह) नफा (पड़ता है जो) सदा (कायम रहता है)। जो मनुष्य सदा स्थिर प्रभू की भक्ति करता है, (उसके आगे) अरदास करता है, वह उसकी सदा स्थिर हजूरी में बैठता है। उसका (जीवन सफर का) लेखा (बा-इज्जत) साफ हो जाता है (क्योंकि, उसके अंदर) प्रभू का नाम उजागर हो जाता है।7। परमात्मा सबसे ऊँचा है, परमात्मा सबसे ऊूंचा है– (हर ओर से) यही कहा जाता है, मैं (भी) कहता हूं (कि परमात्मा सबसे ऊूंचा है, पर निरा कहने से) उसका दर्शन नहीं किया जा सकता। जब सत्गुरू ने मुझे, (हे प्रभू! तेरा) दर्शन करा दिया, तो अब मैं जिधर देखता हूँ, तू ही तू दिखाई देता है। हे नानक! (गुरू की शरण पड़ के) आत्मिक अडोलता वाली अवस्था में टिक के प्रेम में जुड़ के ये समझ आ जाती है कि परमात्मा की ज्योति एक-रस हर जगह मौजूद है।8।3। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |