श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 55 सिरीरागु महला १ ॥ मछुली जालु न जाणिआ सरु खारा असगाहु ॥ अति सिआणी सोहणी किउ कीतो वेसाहु ॥ कीते कारणि पाकड़ी कालु न टलै सिराहु ॥१॥ भाई रे इउ सिरि जाणहु कालु ॥ जिउ मछी तिउ माणसा पवै अचिंता जालु ॥१॥ रहाउ ॥ सभु जगु बाधो काल को बिनु गुर कालु अफारु ॥ सचि रते से उबरे दुबिधा छोडि विकार ॥ हउ तिन कै बलिहारणै दरि सचै सचिआर ॥२॥ सीचाने जिउ पंखीआ जाली बधिक हाथि ॥ गुरि राखे से उबरे होरि फाथे चोगै साथि ॥ बिनु नावै चुणि सुटीअहि कोइ न संगी साथि ॥३॥ सचो सचा आखीऐ सचे सचा थानु ॥ जिनी सचा मंनिआ तिन मनि सचु धिआनु ॥ मनि मुखि सूचे जाणीअहि गुरमुखि जिना गिआनु ॥४॥ सतिगुर अगै अरदासि करि साजनु देइ मिलाइ ॥ साजनि मिलिऐ सुखु पाइआ जमदूत मुए बिखु खाइ ॥ नावै अंदरि हउ वसां नाउ वसै मनि आइ ॥५॥ बाझु गुरू गुबारु है बिनु सबदै बूझ न पाइ ॥ गुरमती परगासु होइ सचि रहै लिव लाइ ॥ तिथै कालु न संचरै जोती जोति समाइ ॥६॥ तूंहै साजनु तूं सुजाणु तूं आपे मेलणहारु ॥ गुर सबदी सालाहीऐ अंतु न पारावारु ॥ तिथै कालु न अपड़ै जिथै गुर का सबदु अपारु ॥७॥ हुकमी सभे ऊपजहि हुकमी कार कमाहि ॥ हुकमी कालै वसि है हुकमी साचि समाहि ॥ नानक जो तिसु भावै सो थीऐ इना जंता वसि किछु नाहि ॥८॥४॥ {पन्ना 55} उच्चारण: सिरीराग महला १॥ मछुली जाल न जाणिआं सर खारा असगाह॥ अत सिआणी सोहणी किउ कीतो वेसाह॥ कीते कारण पाकड़ी काल न टलै सिराह॥१॥ भाई रे, इउ सिर जाणहु काल॥ जिउ मछी तिउ माणसा पवै अचिंता जाल॥१॥ रहाउ॥ सभ जग बाधो काल को बिनु गुर काल अफार॥ सच रते से उबरे दुबिधा छोड विकार॥ हउ तिन कै बलिहारणै दर सचै सचिआर॥२॥ सीचाने जिउ पंखीआ, जाली बधिक हाथ॥ गुरि राखे से उबरे होर फाथे चोगै साथ॥ बिन नावै चुण सुटीअहि कोय न संगी साथ॥३॥ सचो सचा आखीअै सचे सचा थान॥ जिनी सचा मंनिआ तिन मन सच धिआन॥ मन, मुख, सूचे जाणीअहि, गुरमुख जिना गिआन॥४॥ सतगुर अगै अरदास कर साजन देय मिलाय॥ साजन मिलिअै सुख पाया जमदूत मुऐ बिख खाय॥ नावै अंदर हउ वसां नाउ वसै मन आय॥५॥ बाझ गुरू गुबार है बिन सबदै बूझ न पाय॥ गुरमती परगास होय सच रहै लिव लाय॥ तिथै काल न संचरै जोती जोत समाय॥६॥ तूं है साजन तूं सुजाणु तूं आपे मेलणहार॥ गुर सबदी सालाहीअै अंत न पारावर॥ तिथै काल न अपड़ै जिथै गुर का सबद अपार॥७॥ हुकमी सभे ऊपजहि हुकमी कार कमाहि॥ हुकमी कालै वस है हुकमी साच समाहि॥ नानक जो तिस भावै सो थीअै इना जंता वस किछ नाहि॥८॥४॥ पद्अर्थ: सर = सरोवर, सागर, समुंद्र। असगाहु = बहुत गहरा। अति = बहुत। वेसाहु = एतबार, विश्वास। कीते कारणि = एकबार करने के कारण। पाकड़ी = पकड़ी गई। सिराहु = सिर से।1। इउ = इस तरह ही। सिरि = सिर पर। माणसा = मनुष्य को। अचिंता = अचानक।1। रहाउ। बाधो काल को = काल का बंधा हुआ। अफारु = अमोड़, अमिट। सचि = सच में, सदा स्थिर प्रभू में। दुबिधा = मेर-तेर, दुचिक्ता पन, मन की डांवाडोल अवस्था। सचिआर = सुर्खरू।2। साचीना = (सीचुग़नह) एक शिकारी पंछी जो बाज से छोटा होता है। बधिक हाथि = शिकारी के हाथ में। गुरि = गुरू ने। साथि = साथ। संगी साथि = संगी साथी।3। मनि = मन में। मुखि = मुंह में।4। देइ मिलाइ = मिला देता है। साजनि मिलिअै = यदि सज्जन प्रभू मिल जाए। बिख = जहर। हउ = मैं।5। गुबारु = (माया के मोह का) अंधेरा। बूझ = समझ। संचरै = पहुँचता।6। पारावार = पार अवार, इस पार उस पार का छोर।7। ऊपजहि = पैदा होते हैं। कालै वसि = मौत के बस में।8। अर्थ: हे भाई! अपने सिर पर मौत को ऐसे समझो जैसे मछली को अचनचेत (मछुआरे का) जाल आ पड़ता है, वैसे ही मनुष्यों के सिर पर अचानक मौत आ पड़ती है।1। रहाउ। भोली (नादान) मछली ने जाल को नहीं समझा (कि जाल उसकी मौत का कारण बनता है) और ना ही उसने गहरे खारे समुंद्र को ही समझा (कि समुंद्र में टिके रहने से ही उसकी जिंदगी कायम रह सकती है)। (देखने को मछली) बड़ी सुंदर और अकलमंद लगती है, पर उसको जाल पर एतबार नहीं करना चाहिए था। (जाल पर) ऐतबार करने के कारण हीवह पकड़ी जाती है, और उस के सिर पर से मौत नहीं टलती। (जीव यह भूल जाता है कि जिंदगी के अथाह समुंद्र प्रभू में लीन रहने से ही आत्मिक जीवन कायम रहता है। आदमी मोहनी माया का ऐतबार कर बैठता है और आत्मिक मौत सहता है, मौत का सहम हर वक्तइसके सिर पे सवार रहता है)।1। सारा जगत मौत के डर में बंधा हुआ है। गुरू की शरण आने के बिना मौत का सहम (हरेक के सिर पर) अमिट है। जो मनुष्य सदा स्थिर प्रभू (के प्यार) में रंगे रहते हैं, वह विकार छोड़ के मन की माया की ओर डावांडोल हालत छोड़ के मौत के सहम से बच जाते हैं। मैं उनसे सदके जाता हूँ, जो (गुरू की शरण पड़ कर) प्रभू के दर पर सुर्खरू होते हैं।2। जैसे बाज और शिकारी के हाथ में पकड़ी हुई जाली पंछियों के वास्ते (मौत का संदेशा है, वैसे ही माया का मोह मनुष्यों के लिए आत्मिक मौत का कारण है), जिनकी गुरू ने रक्षा की, वह माया जाल में से बच निकले, बाकी सारे माया के चोगे के साथमोह की जाली में फंस गए। जिन्हों के पल्ले नाम नहीं वह चुन-चुन के माया जाल में फेंके जाते हैं, उनका कोई भी ऐसा संगी-साथी नहीं बनता (जो उन्हें इस जाल में से निकाल सके)।3। (मौत के सहम और आत्मिक मौत से बचने के लिए, हे भाई!) उस सदा स्थिर रहने वाले परमात्मा को सिमरना चाहिए जिसका तख्त अटॅल है। जिनका मन सिमरन में लग जाता है, उनके मन में परमात्मा की याद की लिव लग जाती है। गुरू की शरण पड़ के जिन के मन में और मुंह में परमात्मा के साथ गहरी सांझ टिक जाती है, वह लोग पवित्र समझे जाते हैं।4। (हे मेरे मन! सज्जन प्रभू को मिलने के वास्ते सदा अपने) गुरू के आगे अरदास करता रह, (गुरू) सज्जन प्रभू मिला देता है। अगर सज्जन प्रभू मिल जाए तो आत्मिक आनंद मिल जाता है। जमदूत तो (यूँ समझो कि) जहर खा के मर जाते हैं (भाव, यमदूत नजदीक भी नहीं फटकते)। (अगर, सज्जन प्रभू मिल जाए तो) मैं उसके नाम में सदा टिका रह सकता हूँ। उसका नाम (सदा के लिए) मेरे मन में आ बसता है।5। गुरू की शरण पड़े बिना (जीव वास्ते चारों तरफ माया के मोह का) घोर अंधकार (रहता) है। गुरू के शबद के बिना समझ नहीं पड़ती (कि मैं माया के मोह में फंसा हुआ हूँ)। जिस मनुष्य के हृदय में गुरू की शिक्षा के साथ आत्मिक प्रकाश होता है, वह सदा स्थिर प्रभू में अपनी सुरति जोड़ के रखता है। उस आत्मिक अवस्था में मौत का डर पहुँचता ही नहीं, (क्योंकि) जीव की ज्योति परमात्मा की ज्योति में लीन रहती है।6। हे प्रभू! तू ही मेरा मित्र है। तू ही (मेरे दुख दर्द) जानने वाला है। तू खुद ही मुझे (अपने चरणों में) मिलाने में स्मर्थ है। गुरू के शबद के द्वारा ही तेरी सिफत सलाह की जा सकती है। (वैसे तो) तेरे गुणों का अंत, तेरे गुणों के इस पार उस पार का छोर नहीं ढूंढा जा सकता। जिस हृदय में गुरू का शबद टिका हुआ है, बेअंत प्रभू स्वयं टिका हुआ है वहां परमात्मा का डर पहुँच नहीं सकता।7। (माया के मोह जाल में से निकलना जीवों के बस की बात नहीं है) परमात्मा के हुकम में सारे जीव पैदा होते हैं। उसके हुकम में ही कार-व्यवहार करते हैं। प्रभू के हुकम में ही सृष्टि मौत के डर के अधीन है। हुकम अनुसार ही जीव सदा स्थिर प्रभू की याद में टिकते हैं। हे नानक! वही कुछ होता है जो उस परमात्मा को ठीक लगता है। इन जीवों के बस में कुछ भी नहीं।8।4। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |