श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 60 सिरीरागु महला १ ॥ रे मन ऐसी हरि सिउ प्रीति करि जैसी जल कमलेहि ॥ लहरी नालि पछाड़ीऐ भी विगसै असनेहि ॥ जल महि जीअ उपाइ कै बिनु जल मरणु तिनेहि ॥१॥ मन रे किउ छूटहि बिनु पिआर ॥ गुरमुखि अंतरि रवि रहिआ बखसे भगति भंडार ॥१॥ रहाउ ॥ रे मन ऐसी हरि सिउ प्रीति करि जैसी मछुली नीर ॥ जिउ अधिकउ तिउ सुखु घणो मनि तनि सांति सरीर ॥ बिनु जल घड़ी न जीवई प्रभु जाणै अभ पीर ॥२॥ रे मन ऐसी हरि सिउ प्रीति करि जैसी चात्रिक मेह ॥ सर भरि थल हरीआवले इक बूंद न पवई केह ॥ करमि मिलै सो पाईऐ किरतु पइआ सिरि देह ॥३॥ रे मन ऐसी हरि सिउ प्रीति करि जैसी जल दुध होइ ॥ आवटणु आपे खवै दुध कउ खपणि न देइ ॥ आपे मेलि विछुंनिआ सचि वडिआई देइ ॥४॥ रे मन ऐसी हरि सिउ प्रीति करि जैसी चकवी सूर ॥ खिनु पलु नीद न सोवई जाणै दूरि हजूरि ॥ मनमुखि सोझी ना पवै गुरमुखि सदा हजूरि ॥५॥ मनमुखि गणत गणावणी करता करे सु होइ ॥ ता की कीमति ना पवै जे लोचै सभु कोइ ॥ गुरमति होइ त पाईऐ सचि मिलै सुखु होइ ॥६॥ सचा नेहु न तुटई जे सतिगुरु भेटै सोइ ॥ गिआन पदारथु पाईऐ त्रिभवण सोझी होइ ॥ निरमलु नामु न वीसरै जे गुण का गाहकु होइ ॥७॥ खेलि गए से पंखणूं जो चुगदे सर तलि ॥ घड़ी कि मुहति कि चलणा खेलणु अजु कि कलि ॥ जिसु तूं मेलहि सो मिलै जाइ सचा पिड़ु मलि ॥८॥ बिनु गुर प्रीति न ऊपजै हउमै मैलु न जाइ ॥ सोहं आपु पछाणीऐ सबदि भेदि पतीआइ ॥ गुरमुखि आपु पछाणीऐ अवर कि करे कराइ ॥९॥ मिलिआ का किआ मेलीऐ सबदि मिले पतीआइ ॥ मनमुखि सोझी ना पवै वीछुड़ि चोटा खाइ ॥ नानक दरु घरु एकु है अवरु न दूजी जाइ ॥१०॥११॥ {पन्ना 60} उच्चारण: सिरी रागु महला १॥ रे मन, अैसी हरि सिउ प्रीति कर, जैसी जल कमलेहि॥ लहरी नाल पछाड़ीअै भी विगसै असनेहि॥ जल महि जीअ उपाय कै बिन जल मरण तिनेहि॥१॥ मन रे, किउ छूटहि बिन पिआर॥ गुरमुख अंतर रवि रहिआ बखसे भगत भंडार॥१॥ रहाउ॥ रे मन, अैसी हरि सिउ प्रीति कर, जैसी मछुली नीर॥ जिउ अधिकउ तिउ सुख घणो मन तन सांत सरीर॥ बिन जल घड़ी न जीवई प्रभ जाणै अभ पीर॥२॥ रे मन, अैसी हरि सिउ प्रीति कर, जैसी चात्रिक मेह॥ सर भर थल हरीआवले इक बूंद न पवई केह॥ करम मिलै सो पाईअै किरतु पया सिर देह॥३॥ रे मन, अैसी हरि सिउ प्रीति कर, जैसी जल दुध होय॥ आवटण आपे खवै दुध कउ खपण न देय॥ आपे मेल विछुंनिआं सच वडिआई देय॥४॥ रे मन, अैसी हरि सिउ प्रीति कर, जैसी चकवी सूर॥ खिन पल नीद न सोवई जाणै दूर हजूर॥ मनमुख सोझी ना पवै गुरमुख सदा हजूर॥५॥ मनमुख गणत गणावणी करता करे सु होय॥ ता की कीमत न पवै जे लोचै सभ कोय॥ गुरमत होय त पाईअै सच मिलै सुख होय॥६॥ सचा नेहु न तुटई जे सतगुर भेटे सोय॥ गिआन पदारथ पाईअै त्रिभवण सोझी होय॥ निरमल नाम न वीसरै जे गुण का गाहक होय॥७॥ खेल गए से पंखणूं जो चुगदे सर तल॥ घड़ी कि मुहति कि चलणा खेलण अज कि कल॥ जिस तूं मेलहि सो मिलै जाय सचा पिड़ मल॥८॥ बिन गुर, प्रीति न उपजै हउमै मैल न जाय॥ सोहं आप पछाणीअै सबद भेद पतीआय॥ गुरमुख आप पछाणीअै अवर कि करे कराय॥९॥ मिलिआ का किआ मेलीअै सबद मिले पतीआय॥ मनमुख सोझी ना पवै वीछुड़ चोटा खाय॥ नानक दर घर एक है अवर न दूजी जाय॥१०॥११॥ पद्अर्थ: कमलेहि = कमल में। विगसै = खिलता है। असनेहि = प्यार से (संस्कृत शब्द = स्नेह है। इसके पंजाबी रूप दो हैं– नेह और असनेह)। जीअ = जीवात्मा। तिनेह = उनका। पछाड़िअै = धक्के खाता है।1। गुरमुखि = गुरू के सन्मुख रहने वाला मनुष्य। अंतरि = अंदर, दिल से। रवि रहिआ = हर वक्त मौजूद है।1। रहाउ। नीर = पानी। अधिकउ = बहुत। घणों = बहुत। मनि = मन में। अभ पीर = आंतरिक पीड़ा।2। मेह = बरखा, वर्षा। चात्रिक = पपीहा। भरि = भरे हुए। केह = क्या अर्थ? करमि = मेहर से। किरतु पाइआ = पूर्बला कमाया हुआ, (पूर्वला) किया हुआ (जो संस्कार रूप में) एकत्रित किए हुए (अंदर मौजूद) है। सिरि = सिर पर। देह = शरीर पर।3। आवटणु = उबाला। खवै = बर्दाश्त करता है। सचि = सच में। देइ = देता है।4। सूर = सूर्य।5। गणत गणावणी = अपनी प्रशंसा करता है।6। भेटै = मिल जाए। गिआन पदारथु = (परमात्मा के साथ) गहरी सांझ देने वाला (नाम) पदार्थ। त्रिभवण सोझी = तीनों भवनों में व्याप्त प्रभू की सूझ।7। खेलि गए = लद गए, खेल के चले गए। पंखणूं = (जीव) पंछी। सर तलि = (संसार) सरोवर पर। अजु कि कलि = आज या कल में, एक दो दिनों में। मलि = जीत के,कब्जा करके। पिड़ = खिलाड़ियों के खेलने का स्थान। पिड़ मलि = बाजी जीत के।8। सोहं = वह मैं हूँ। आपु = अपना आप। सोहं आपु = वह मैं हूँ और मेरा स्वै। सोहं आपु पछाणीअै = यह पहिचान आती है कि कि मेरा और प्रभू का स्वै (भाव, स्वभाव) मिला है या नहीं। सबदि = गुरू के शबद के साथ। भेदि = राज।9। किआ मेलीअै = मिलने वाली कोई और बात नहीं रह जाती, कभी नहीं विछुड़ते। पतीआइ = मान के, पतीज के, पलोस के। मनमुखि = अपने मन के पीछे चलने वाला। दरु घरु एकु = एक ही दर और एक ही घर, एक ही आसरा। जाइ = जगह।10। अर्थ: हे मन! परमात्मा के साथ ऐसा प्यार कर, जैसा पानी और कमल के फूल का है (और कमल फूल का पानी के साथ)। कमल का फूल पानी की लहरों से धक्के खाता है, फिर भी (परस्पर) प्यार के कारण कमल फूल खिलता (ही) है (धक्कों से गुस्से नहीं होता)। पानी में (कमल के फूलों को) पैदा करके (परमात्मा ऐसी खेल खेलता है कि) पानी के बगैर उनकी (कमल फूलों) की मौत हो जाती है।1। हे मन! (प्रभू के साथ) प्यार पाने के बगैर तू (माया के हमलों से) बच नहीं सकता। (पर, ये प्यार गुरू की शरण पड़े बगैर नहीं मिलता) गुरू के सन्मुख रहने वाले मनुष्यों के अंदर (गुरू की कृपा से ऐसी प्यार-सांझ बनती है कि) परमात्मा हर वक्त मौजूद रहता है, गुरू उन्हें प्रभू भक्ति के खजाने ही बख्श देता है।1। रहाउ। हे मन! परमात्मा के साथ ऐसा प्रेम कर, जैसा मछली का पानी के साथ है। पानी जितना ही बढ़ता है, मछली को उतना ही सुख आनंद मिलता है। उसके मन में तन में शरीर में ठंड पड़ती है। पानी के बगैर एक घड़ी भी जी नहीं सकती। मछली के दिल की यह वेदना परमात्मा (स्वयं) जानता है।1। हे मन! परमात्मा के साथ ऐसा प्रेम कर, जैसा पपीहे का बरसात के साथ है। (पानी से) सरोवर भरे हुए होते हैं, धरती (पानी की बरकत से) हरी भरी हो जाती है। पर यदि (स्वाति नक्षत्र में पड़ी वर्षा की) एक बूँद (पपीहे के मुंह में) ना पड़े, तो उसको इस सारे पानी से कोई सरोकार नहीं। (पर, हे मन! तेरे भी क्या बस! परमात्मा) अपनी मेहर से ही मिले तो मिलता है, (नहीं तो) पूर्बला कमाया हुआ सिर पर शरीर पर झेलना ही पड़ता है।3। हे मन! हरि के साथ ऐसा प्यार बना, जैसा पानी और दूध का है। (पानी दूध में आ मिलता है, दूध की शरण पड़ता है, दूध उसकों अपना रूप बना लेता है। जब उस पानी मिले दूध को आग पर रखते हैं तो) उबाला (पानी) स्वयं ही बर्दाश्त करता है, दूध को जलने नहीं देता। (इसी तरह यदि जीव अपने आप को कुर्बान करे, तो प्रभू) विछुड़े जीवों कोअपने सदा स्थिर नाम में मिला के (लोक परलोक में) आदर सत्कार देता है।4। हे मन! परमात्मा के साथ ऐसा प्यार कर, जैसा कि चकवी का (प्यार) सूरज से है। (जब सूरज डूब जाता है, चकवी की नजरों से परे हो जाता है, तो वह चकवी) एक छिन भर एक पल भर नींद (के बस में आ के) नहीं सोती, दूर (छुपे सूर्य) को अपने अंग-संग समझती है। जो मनुष्य गुरू के सन्मुख रहता है, उसको परमात्मा अपने अंग संग दिखाई देता है, पर अपने मन के पीछे चलने वाले को ये बात समझ नहीं आती।5। अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य अपनी ही प्रशंसा करता रहता है (पर जीव के भी क्या वश?) वही कुछ होता हैजो करतार (स्वयं) करता (कराता) है। (करतार की मेहर के बिनां) यदि कोई जीव (अपनी उस्ततें छोड़ने का प्रयत्न भी करे, और परमात्मा के गुणों की कद्र पहचानने का उद्यम करे, तो भी) उस प्रभू के गुणों की कद्र नहीं पड़ सकती। (परमात्मा के गुणों की कद्र) तभी पड़ती है, जब गुरू की शिक्षा प्राप्त हो। (गुरू की मति मिलने से ही मनुष्य प्रभू के सदा स्थिर नाम में जुड़ता है और आत्मिक आनंद का सुख पाता है।6। (प्रभू चरणों में जोड़ने वाला) यदि वह गुरू मिल जाए, तो (उसकी मेहर के सदका प्रभू के साथ ऐसा) पक्का प्यार (पड़ता है जो कभी भी) टूटता नहीं। (गुरू की कृपा से) परमात्मा के साथ गहरी सांझ डालने वाला नाम पदार्थ मिलता है। ये समझ भी पड़ती है कि प्रभू तीनों भवनों में मौजूद है। यदि मनुष्य (गुरू की मेहर सदका) परमात्मा के गुणों (के सौदे) को खरीदने वाला बन जाए, तो इस को प्रभू का पवित्र नाम (फिर कभी) नहीं भूलता।7। (हे मन! देख) जो जीव पंछी इस (संसार) सरोवर पर (चोगा) चुगते हैं वह (आपो अपनी जीवन) खेल खोलके चले जाते हैं। हरेक जीव पंछी ने घड़ी पल की खेल खेलके यहाँ से चले जाना है। यह,खेल एक-दो दिनों में ही (जल्दी ही) खत्म हो जाती है। (हे मन! प्रभू के दर पे सदा अरदास कर और कह– हे प्रभू!) जिसको तू खुद मिलाता है, वही तेरे चरणों में जुड़ता है। वह यहां से सच्ची जीवन बाजी जीत के जाता है।8। गुरू (की शरण पड़े) बिनां (प्रभू चरणों में) प्रीत पैदा नहीं होती (क्योंकि मनुष्य के अपने प्रयास से ही मन में से) अहंकार की मैल दूर हो सकती है। जब मनुष्य का मन गुरू के शबद में भेदा जाता है, गुरू के शबद में पतीज जाता है, तब ये पता चलता है कि मेरा और प्रभू का स्वभाव मेल खाता है या नहीं। गुरू की शरण पड़ के ही मनुष्य अपने आप को (अपनी असलियत को) पहचानता है। (गुरू की शरण के बिनां) जीव अन्य कोई प्रयासा कर करा नहीं सकता।9। जो जीव गुरू के शबद में पतीज के प्रभू चरणों में मिलते हैं, उनके अंदर कोई ऐसा विछोड़ा नहीं रह जाता जिसको दूर करके उन्हें पुनः प्रभू से जोड़ा जाए। पर अपने मन के पीछे चलने वाले बंदे कोये समझ नहीं पड़ती, वह प्रभू चरणों से विछुड़ के (माया के मोह की) चोटें खाता है। हे नानक! जो मनुष्य प्रभू चरणों में मिल गया है उसका प्रभू ही एक आसरा दृढ़ (दिखता) है। प्रभू के बिनां उसे और कोई सहारा नहीं (दिखाई देता) अन्य कोई जगह नहीं दिखती।10।11। सिरीरागु महला १ ॥ मनमुखि भुलै भुलाईऐ भूली ठउर न काइ ॥ गुर बिनु को न दिखावई अंधी आवै जाइ ॥ गिआन पदारथु खोइआ ठगिआ मुठा जाइ ॥१॥ बाबा माइआ भरमि भुलाइ ॥ भरमि भुली डोहागणी ना पिर अंकि समाइ ॥१॥ रहाउ ॥ भूली फिरै दिसंतरी भूली ग्रिहु तजि जाइ ॥ भूली डूंगरि थलि चड़ै भरमै मनु डोलाइ ॥ धुरहु विछुंनी किउ मिलै गरबि मुठी बिललाइ ॥२॥ विछुड़िआ गुरु मेलसी हरि रसि नाम पिआरि ॥ साचि सहजि सोभा घणी हरि गुण नाम अधारि ॥ जिउ भावै तिउ रखु तूं मै तुझ बिनु कवनु भतारु ॥३॥ अखर पड़ि पड़ि भुलीऐ भेखी बहुतु अभिमानु ॥ तीरथ नाता किआ करे मन महि मैलु गुमानु ॥ गुर बिनु किनि समझाईऐ मनु राजा सुलतानु ॥४॥ प्रेम पदारथु पाईऐ गुरमुखि ततु वीचारु ॥ सा धन आपु गवाइआ गुर कै सबदि सीगारु ॥ घर ही सो पिरु पाइआ गुर कै हेति अपारु ॥५॥ गुर की सेवा चाकरी मनु निरमलु सुखु होइ ॥ गुर का सबदु मनि वसिआ हउमै विचहु खोइ ॥ नामु पदारथु पाइआ लाभु सदा मनि होइ ॥६॥ करमि मिलै ता पाईऐ आपि न लइआ जाइ ॥ गुर की चरणी लगि रहु विचहु आपु गवाइ ॥ सचे सेती रतिआ सचो पलै पाइ ॥७॥ भुलण अंदरि सभु को अभुलु गुरू करतारु ॥ गुरमति मनु समझाइआ लागा तिसै पिआरु ॥ नानक साचु न वीसरै मेले सबदु अपारु ॥८॥१२॥ {पन्ना 60-61} उच्चारण: सिरीराग महला १॥ मनमुख भुलै भुलाईअै भूली ठउर न काय॥ गुर बिन को न दिखावई अंधी आवै जाय॥ गिआन पदारथ खोइआ ठगिआ मुठा जाय॥१॥ बाबा, माया भरम भुलाय॥ भरम भुली डोहागणी न पिर अंकि समाय॥१॥ रहाउ॥ भूली फिरै दिसंतरी भूली ग्रिह तज जाय॥ भूली डूंगर थल चढ़ै भरमै मन डोलाय॥ धुरह विछुंनी किउ मिलै गरब मुठी बिललाय॥२॥ विछुड़िआं गुरु मेलसी हरि रस नाम पिआर॥ साच सहज सोभा घणी हरिगुण नाम अधार॥ जिउ भावै तिउ रख तूं मै तुझ बिन कवन भतार॥३॥ अखर पढ़ पढ़ भुलीअै भेखी बहुत अभिमान॥ तीरथ नाता किआ करे मन महि मैल गुमान॥ गुर बिन किन समझाईअै मन राजा सुलतान॥४॥ प्रेम पदारथ पाईअै गुरमुख तत वीचार॥ साधन आप गवाया गुर कै सबद सीगार॥ घर ही सो पिर पाया गुर कै हेत अपार॥५॥ गुर की सेवा चाकरी मन निरमल सुख होइ॥ गुर का सबद मन वसिआ हउमै विचहु खोय॥ नाम पदारथ पाया लाभ सदा मन होय॥६॥ करम मिलै ता पाईअै आप न लयआ जाय॥ गुर की चरणी लग रहु विचहु आप गवाय॥ सचे सेती रतिआ सचो पलै पाय॥७॥ भुलण अंदर सभ को अभुल गुरू करतार॥ गुरमत मन समझाया लागा तिसै पिआर॥ नानक साच न वीसरै मेले सबद अपार॥८॥१२॥ पद्अर्थ: मनमुखि = अपने मन के पीछे चलने वाली जीव स्त्री। भूलै = राह से विछुड़ जाती है। भुलाईअै = गलत रास्ते डाली जाती है। ठउर = जगह, सहारा। अंधी = माया के मोह में अंधी हुई। आवै जाइ = आती है जाती है, भटकती फिरती है। गिआन पदारथु = परमात्मा के साथ गहरी सांझ पैदा करने वाला नाम पदार्थ।1। भरमि = भुलेखे में। डोहागणी = खराब किस्मत वाली। पिर अंकि = पिया के अंक में, पति की बाँहों में।1। रहाउ। दिसंतरी = (देस+अंतरी) और और देशों में। तजि जाइ = छोड़ जाती है। डूंगरि = पहाड़ पे। विछुंनी = बिछुड़ी हुई। गरबि = अहंकार से।2। रसि = रस में। पिआरि = प्यार में। सहजि = अडोल अवस्था में (टिक के)। अधारि = आसरे के कारण।3। अखर = विद्या। किनि = किस ने?।4। साधन = जीव स्त्री। आपु = स्वैभाव। घर ही = घर में ही। गुर कै हेति = गुरू के प्यार से।5। चाकरी = सेवा। मनि = मन में। विचहु = अपने अंदर से।6। करमि = मेहर से। आपि = अपने उद्यम से। सेती = साथ। सचे = सच ही। पलै पाइ = मिलता है।7। भुलण अंदरि = (माया के असर में आ के) गलत रास्ते पड़ने में। सभु को = हरेक जीव। अभुल = वह जो माया के असर में जीवन सफर में गलत कदम नहीं उठाता। अपारु = बेअंत प्रभू।8। अर्थ: हे भाई! माया (जीवों को) छलावे में डाल के गलत रास्ते पे डाल देती है। जो भाग्यहीन जीव स्त्री भुलावे में पड़कर गलत रास्ते पड़ जाती है, वह (कभी भी) प्रभू पति के चरणों में लीन नहीं हो सकती।1। रहाउ। अपने मन के पीछे चलने वाली स्त्री (जीवन के) सही रास्ते से भटक जाती है, माया उसे गलत रास्ते पे डाल देती है। राह से भटकी हुई (गुरू के बिना) कोइ (ऐसा) स्थान नहीं मिलता (जो उसको रास्ता दिखा दे)। गुरू के बिना और कोई भी (सही रास्ता) दिख नहीं सकता। (माया में) अंधी हुई जीव स्त्री भटकती फिरती है। जिस भी जीव ने (माया के प्रलोभन में फस के) परमात्मा के साथ गहरी सांझ पैदा करने वाले नाम-धन को गवा लिया है, वह ठगा जाता है, वह (आत्मिक जीवन की ओर से) लूटा जाता है।1। जीवन के राह से भटकी हुई जीव स्त्री गृहस्थ त्याग के देस-देसांतरों में घूमती फिरती है। भटकी हुई कभी किसी पहाड़ (की गुफा) में बैठती है कभी किसी टीले पे चढ़ बैठती है। भटकती फिरती है, उसका मन (माया के असर में) डोलता है। (अपने किए कर्मों के कारण) धर से ही प्रभू के हुकम अनुसार विछुड़ी हुई (प्रभू चरणों में) जुड़ नहीं सकती। वह तो (त्याग आदि के) अहंकार आदि में लूटी जा रही है, और (विछोड़े में) तड़पती है।2। प्रभू से विछुड़ों को गुरू हरि नाम के आनंद में जोड़ के, नाम के प्यार में जोड़ के (पुनः प्रभू के साथ) मिलाता है। हरि के गुणों की बरकति से हरि-नाम के आसरे से सदा स्थिर प्रभू में (जुड़ने से) अडोल अवस्था में (टिके रहने से) बहुत शोभा ( भी मिलती है)। (मैं तेरा दास विनती करता हूं- हे प्रभू) जैसे तेरी रजा हो सके, मुझे अपने चरणों में रख। तेरे बिना मेरा खसम सांई और कोई नहीं।3। विद्या पढ़ पढ़ के (भी विद्या के अहंकार के कारण) कुमार्ग पर ही पड़ता है (गृहस्थ-त्यागियों के) भेषों से भी (मन में) बड़ा गुमान पैदा होता है। तीर्तों पर स्नान करने से भी कुछ नहीं संवार सकता। क्योंकि, मन में (इस) अहंकार की मैल टिकी रहती है (कि मैं तीर्थ स्नानी हूँ)। (हरेक भटके हुए रास्ते में) मन (इस शरीर नगरी का) राजा बना रहता है, सुल्तान बना रहता है। गुरू के बिनां इसको किसी और ने मति नहीं दी (कोई इसे समझा नहीं सका)।4। (हे बाबा!) गुरू की शरण पड़ के अपने मूल प्रभू (के गुणों) को विचार। गुरू की शरण पड़ने से ही (प्रभू चरणों से) प्रेम पैदा करने वाला नाम धन मिलता है। जिस जीव स्त्री ने स्वै भाव दूर किया है, गुरू के शबद में (जुड़ के आत्मिक जीवन को स्वैभाव दूर करने का) श्रृंगार किया है। उसने गुरू के बख्शे प्रेम से अपने हृदय रूपी घर में उस बेअंत प्रभू पति को ढूंढ लिया है।5। गुरू की बताई हुई सेवा करने से चाकरी करने सेमन पवित्र हो जाता है, आत्मिक आनंद मिलता है। जिस मनुष्य के मन में गुरू का शबद (उपदेश) बस जाता है, वह अपने अंदर से अहम् दूर कर लेता है। जिस मनुष्य ने (गुरू की शरण पड़ के) नाम-धन हासिल कर लिया है, उसके मन मेंसदा लाभ होता है। (उसके मन में आत्मक गुणों की सदैव बढ़होतरी ही होती है)।6। परमात्मा मिलता है तो अपनी मेहर से मिलता है। मनुष्य के अपने उद्यम से नहीं मिल सकता। (इस वास्ते, हे भाई!) अपने अंदर से स्वैभाव दूर करके गुरू के चरणों में टिका रह। (गुरू की शरण की बरकति से) सदा कायम रहने वाले प्रभू के रंग में रंगे रहें, तब वह सदा स्थिर प्रभू मिल जाता है।7। (हे बाबा! माया ऐसी प्रबल है कि इसके चक्कर में फंस के) हरेक जीव गलती खा जाता है। सिर्फ गुरू है करतार है जो (ना माया के असर में आता है, और) ना गलती खाता है। जिस मनुष्य ने गुरू का मति पर चल कर अपने मन को समझा लिया है, उसके अंदर (परमात्मा का) प्रेम बन जाता है। हे नानक! जिस मनुष्य को गुरू का शबद अपार प्रभू मिला देता है उसे सदा स्थिर प्रभू कभी भूलता नहीं।8।12। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |