श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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सिरीरागु महला १ ॥ त्रिसना माइआ मोहणी सुत बंधप घर नारि ॥ धनि जोबनि जगु ठगिआ लबि लोभि अहंकारि ॥ मोह ठगउली हउ मुई सा वरतै संसारि ॥१॥ मेरे प्रीतमा मै तुझ बिनु अवरु न कोइ ॥ मै तुझ बिनु अवरु न भावई तूं भावहि सुखु होइ ॥१॥ रहाउ ॥ नामु सालाही रंग सिउ गुर कै सबदि संतोखु ॥ जो दीसै सो चलसी कूड़ा मोहु न वेखु ॥ वाट वटाऊ आइआ नित चलदा साथु देखु ॥२॥ आखणि आखहि केतड़े गुर बिनु बूझ न होइ ॥ नामु वडाई जे मिलै सचि रपै पति होइ ॥ जो तुधु भावहि से भले खोटा खरा न कोइ ॥३॥ गुर सरणाई छुटीऐ मनमुख खोटी रासि ॥ असट धातु पातिसाह की घड़ीऐ सबदि विगासि ॥ आपे परखे पारखू पवै खजानै रासि ॥४॥ तेरी कीमति ना पवै सभ डिठी ठोकि वजाइ ॥ कहणै हाथ न लभई सचि टिकै पति पाइ ॥ गुरमति तूं सालाहणा होरु कीमति कहणु न जाइ ॥५॥ जितु तनि नामु न भावई तितु तनि हउमै वादु ॥ गुर बिनु गिआनु न पाईऐ बिखिआ दूजा सादु ॥ बिनु गुण कामि न आवई माइआ फीका सादु ॥६॥ आसा अंदरि जमिआ आसा रस कस खाइ ॥ आसा बंधि चलाईऐ मुहे मुहि चोटा खाइ ॥ अवगणि बधा मारीऐ छूटै गुरमति नाइ ॥७॥ सरबे थाई एकु तूं जिउ भावै तिउ राखु ॥ गुरमति साचा मनि वसै नामु भलो पति साखु ॥ हउमै रोगु गवाईऐ सबदि सचै सचु भाखु ॥८॥ आकासी पातालि तूं त्रिभवणि रहिआ समाइ ॥ आपे भगती भाउ तूं आपे मिलहि मिलाइ ॥ नानक नामु न वीसरै जिउ भावै तिवै रजाइ ॥९॥१३॥ {पन्ना 61-62}

उच्चारण: सिरी रागु महला १॥ त्रिसना माइआ मोहणी सुत बंधप घर नार॥ धन जोबन जग ठगिआ लब लोभ अहंकार॥ मोह ठगउली हउ मुई सा वरतै संसार॥१॥ मेरे प्रीतमा, मै तुझ बिन अवर न कोय॥ मै तुझ बिन अवर न भावई तूं भावहि सुख होय॥१॥ रहाउ॥ नाम सालाही रंग सिउ गुर कै सबद संतोख॥ जो दीसै सो चलसी कूड़ा मोह न वेख॥ वाट वटाऊ आयआ नित चलदा साथ देख॥२॥ आखण आखहि केतड़े गुर बिन बूझ न होय॥ नाम वडाई जे मिलै सच रपै पत होय॥ जो तुध भावहि से भले खोटा खरा न कोय॥३॥ गुर सरणाई छुटीअै मनमुख खोटी रासि॥ असट धातु पातिसाह की घड़ीअै सबद विगासि॥ आपे परखे पारखू पवै खजानै रासि॥४॥ तेरी कीमत ना पवै सभ डिठी ठोक वजाय॥ कहणै हाथ न लभई सच टिकै पत पाय॥ गुरमत तूं सालहणा होर कीमत कहण न जाय॥५॥ जित तन नाम न भावई तित तन हउमै वाद॥ गुर बिन गिआन न पाईअै बिखिआ दूजा साद॥ बिन गुण काम न आवई मायआ फीका साद॥६॥ आसा अंदर जंमिआ आसा रस कस खाय॥ आसा बंध चलाईअै मुहे मुहि चोटा खाय॥ अवगण बधा मारीअै छुटै गुरमत नाय॥७॥ सरबे थाई एक तूं जिउ भावै तिउ राख॥ गुरमति साचा मन वसै नाम भलो पत साथ॥ हउमै रोग गवाईअै सबद सचै सच भाख॥८॥ आकासी पाताल तूं त्रिभवण रहिआ समाय॥ आपे भगती भाउ तूं आपे मिलहि मिलाय॥ नानक नामु न वीसरै जिउ भावै तिवै रजाय॥९॥१३॥

पद्अर्थ: सुत = पुत्र। बंधप = रिश्तेदार। नारि = स्त्री। धनि = धन ने। जोबनि = जोबन ने। लबि = लब ने। लोभि = लोभ ने। अहंकारि = अहंकार ने। ठगउली = ठग मूरी, ठग बुटी, धतूरा आदि वह बूटी जो पिला के ठग किसी को ठगता है। हउ = मैं। मुई = ठॅगी गई हूं। सा = वह ठॅग बूटी। संसारि = संसार में।1।

न भावई = ठीक नहीं लगता।1। रहाउ।

सालाही = तूं सिफत-सालाह कर। रंग सिउ = प्रेम से। कूड़ा = झूठा, नाशवंत। वाट = रास्ता। वटाऊ = राही, मुसाफिर।2।

आखणि = कहने को, कहने मात्र। केतड़े = कितने जीव?, बेअंत जीव। बूझ = समझ। सचि = सदा स्थिर प्रभू में। रपै = रंगा जाए। पति = इज्जत।3।

खोटी रासि = वह पूँजी जो प्रभू पातशाह के दर पे खोटी समझी जाती है। असट धातु = आठ धातुओं से बना शरीर। विगासि = खिलता है, प्रफुल्लित होना।4।

तेरी कीमति ना पवै = तेरा मुल्य नहीं पड़ सकता, तेरे बराबर का और कोई नहीं मिल सकता। ठोकि वजाइ = ठोक बजा के, अच्छी तरह परख के। हाथ = गहराई। तूं = तुझे। होरु कहणु = कोई और बोल।5।

जितु = जिस में। जितु तनि = जिस शरीर में। वादु = झगड़ा। बिखिआ = माया। सादु = स्वाद।6।

बंधि = बांध के। चलाईअै = चलाया जाता है। मुहे मुहि = मुंह मुंह, मुड़ मुड़ के मुँह पर। नाइ = नाम में (जुड़ के)।7।

पति = इज्जत। साथु = साथी।8।

त्रिभवणि = तीनों भवनों वाले संसार में।9।

अर्थ: पुत्र, रिश्तेदार, घर, स्त्री (आदि के मोह) के कारण मोहनी माया की तृष्णा जीवों में व्याप रही है। धन ने, जवानी ने, लोभ ने, अहंकार ने (सारे) जगत को लूट लिया है। मोह की ठग-बूटी ने मुझे भी ठग लिया है यही मोह ठॅग बूटी सारे संसार पर अपना जोर डाल रही है।1।

हे मेरे प्रीतम प्रभू! (इस ठॅग बूटी से बचाने के लिए) मुझे तेरे बिनां और कोई (स्मर्थ) नहीं (दिखता)। मुझे तेरे बिनां कोई और प्यारा नहीं लगता। जब तू मुझे प्यारा लगता है, तब मुझे आत्मिक सुख मिलता है।1। रहाउ।

(हे मन!) गुरू के शबद से संतोख धारण करके (तृष्णा के पंजे में से निकल के) प्रेम से (परमात्मा के) नाम की सिफत सलाह कर। इस नाशवंत मोह को ना देख। ये तो जो कुछ दिखाई दे रहा है सभ नाश हो जाएगा। (यहां जीव) रास्ते का मुसाफिर (बन के) आया है, यह सारा साथ नित्य चलने वाला समझ।2।

बताने को तो बेअंत जीव बता देते हैं (कि माया की तृष्णा से इस प्रकार बच सकते हैं, पर) गुरू के बगैर सही समझ नहीं पड़ती। (गुरू की शरण पड़ के) अगर परमात्मा का नाम मिल जाए, परमात्मा की सिफत सलाह मिल जाए अगर (मनुष्य का मन) सदा स्थिर प्रभू (के प्यार) में रंगा जाए, तो उस लोक (परलोक में) इज्जत मिलती है।

(पर, हे प्रभू! अपने प्रयास से कोई जीव) ना खरा बन सकता है, ना ही खोटा रह जाता है। जो तुझे प्यारे लगते हैं वही भले हैं।3।

गुरू की शरण पड़ के ही (तृष्णा के पंजे में से) निजात पायी जाती है। अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य खोटी पूँजी ही जोड़ता है। परमात्मा की रची हुई ये आठ धातुओं वाली मानस कायाअगर गुरू के शबद (की टकसाल) में घढ़ी जाए (सुचज्जी बनाई जाए, तो ही यह) खिलती है (आत्मिक उल्लास में आती है)। परखने वाला प्रभू खुद ही (इसकी मेहनत मुश्क्कत को) परख लेता है और (इसके आत्मिक गुणों का) सरमाया (उसके) खजाने में (कबूल) पड़ता है।4।

(हे प्रभू!) मैंने सारी सृष्टि अच्छी तरह परख कर देख ली है, मुझे तेरे बराबर कोई नहीं दिखता ( जो मुझे माया के पंजे से बचा सके। तूं बेअंत गुणों का मालिक है) ये बयान करने से तेरे गुण की थाह नहीं पाई जा सकती। जो जीव सदा स्थिर स्वरूप में टिकता है उसको इज्जत मिलती है। गुरू की मति ले के ही तेरी सिफत सलाह की जा सकती है। पर, तेरे बराबर का ढूंढने के वास्ते कोई बोल नहीं बोला जा सकता।5।

जिस शरीर को परमात्मा का नाम प्यारा नहीं लगता, उस शरीर में अहम् बढ़ता है, उस शरीर में तृष्णा का बखेड़ा भी बढ़ता है। गुरू के बिनां परमात्मा से जान पहिचान नहीं बन सकती। माया का प्रभाव पड़ के परमात्मा के बिनां और तरफ का स्वाद मन में उपजता है। आत्मिक गुणों से वंचित रह कर यह मानस देह व्यर्थ जाती है और अंत को माया वाला स्वाद भी बे-रस हो जाता है।6।

जीव आशा (तृष्णा) में बंधा हुआ जन्म लेता है (जब तक जगत में जीता है) आशा के प्रभाव में ही (मीठे) कसैले (आदिक) रसों (वाले पदार्थ) खाता रहता है। (उम्र खत्म हो जाने पर) आशा (तृष्णा) के (बंधन में) बंधा हुआ यहां से भेजा जाता है। (सारी उम्र आशा तृष्णा में ही फंसे रहने करके) मुड़ मुड़ मुंह पर चोटें खाता है। विकारमयी जीवन के कारण (आशा तृष्णा में) जकड़ा हुआ मार खाता है। यदि गुरू की शिक्षा लेकर प्रभू के नाम में जुड़ें, तो ही (आसा तृष्णा के जाल में से) खलासी पा सकता है।7।

(जीवों के भी क्या वश? हे प्रभू!) सब जीवों में तो तू स्वयं ही बसता है। जैसी तेरी मर्जी हो, हे प्रभू! तू स्वयं ही (जीवों को आसा तृष्णा के जाल से) बचा। हे प्रभू! तेरा सदा स्थिर नाम ही (जीव का) भला साथी है, तेरा नाम ही जीव की इज्जत है, तेरा नाम, गुरू की मति ले के ही, जीव के मन में बस सकता है।

(हे भाई!) गुरू के सच्चे शबद के द्वारा सदा स्थिर नाम सिमर। नाम सिमरने से ही अहंकार का रोग दूर होता है।8।

हे प्रभू! आकाश में पाताल में तीनों ही भवनों में तू स्वयं ही व्यापक है। तू खुद ही (जीवों को अपनी) भक्ति बख्शता है, अपना प्रेम बख्शता है। तू खुद ही जीवों को अपने साथ मिला के मिलाता है।

हे नानक! (प्रभू के दर पे अरदास कर) और कह– (हे प्रभू!) जैसे तुझे ठीक लगे, वैसे तेरी रजा वर्तती है। (पर मेहर कर) मुझे तेरा नाम कभी ना भूले।9।13।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh