श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 62 सिरीरागु महला १ ॥ राम नामि मनु बेधिआ अवरु कि करी वीचारु ॥ सबद सुरति सुखु ऊपजै प्रभ रातउ सुख सारु ॥ जिउ भावै तिउ राखु तूं मै हरि नामु अधारु ॥१॥ मन रे साची खसम रजाइ ॥ जिनि तनु मनु साजि सीगारिआ तिसु सेती लिव लाइ ॥१॥ रहाउ ॥ तनु बैसंतरि होमीऐ इक रती तोलि कटाइ ॥ तनु मनु समधा जे करी अनदिनु अगनि जलाइ ॥ हरि नामै तुलि न पुजई जे लख कोटी करम कमाइ ॥२॥ अरध सरीरु कटाईऐ सिरि करवतु धराइ ॥ तनु हैमंचलि गालीऐ भी मन ते रोगु न जाइ ॥ हरि नामै तुलि न पुजई सभ डिठी ठोकि वजाइ ॥३॥ कंचन के कोट दतु करी बहु हैवर गैवर दानु ॥ भूमि दानु गऊआ घणी भी अंतरि गरबु गुमानु ॥ राम नामि मनु बेधिआ गुरि दीआ सचु दानु ॥४॥ मनहठ बुधी केतीआ केते बेद बीचार ॥ केते बंधन जीअ के गुरमुखि मोख दुआर ॥ सचहु ओरै सभु को उपरि सचु आचारु ॥५॥ सभु को ऊचा आखीऐ नीचु न दीसै कोइ ॥ इकनै भांडे साजिऐ इकु चानणु तिहु लोइ ॥ करमि मिलै सचु पाईऐ धुरि बखस न मेटै कोइ ॥६॥ साधु मिलै साधू जनै संतोखु वसै गुर भाइ ॥ अकथ कथा वीचारीऐ जे सतिगुर माहि समाइ ॥ पी अम्रितु संतोखिआ दरगहि पैधा जाइ ॥७॥ घटि घटि वाजै किंगुरी अनदिनु सबदि सुभाइ ॥ विरले कउ सोझी पई गुरमुखि मनु समझाइ ॥ नानक नामु न वीसरै छूटै सबदु कमाइ ॥८॥१४॥ {पन्ना 62} उच्चारण: सिरी रागु महला १॥ राम नाम मनु बेधिआ अवर कि करी वीचार॥ सबद सुरति सुख ऊपजै प्रभ रातउ सुख सार॥ जिउ भावै तिउ राख तूं मै हरि नाम अधार॥१॥ मन रे, साची खसम रजाय॥ जिन तन मन साजि सीगारिआ तिस सेती लिव लाय॥१॥ रहाउ॥ तन बैसंतरि होमीअै इक रती तोलि कटाय॥ तन मन समधा जे करी अनदिन अगन जलाय॥ हरि नामै तुलि न पुजई जे लख कोटी करम कमाय॥२॥ अरध सरीर कटाईअै सिरि करवतु धराय॥ तन हैमंचलि गालीअै भी मन ते रोग न जाय॥ हरि नामै तुलि ना पुजई सभ डिठी ठोक वजाय॥३॥ कंचन के कोट दत करी बहु हैवर गैवर दान॥ भूमि दान गऊआ घणी भी अंतरि गरब गुमान॥ राम नाम मन बेधिआ गुरि दीआ सच दान॥४॥ मन हठ बुधी केतीआ केते बेद बीचार॥ केते बंधन जीअ के गुरमुखि मोख दुआर॥ सचहु ओरै सभ को उपरि सच आचार॥५॥ सभ को ऊचा आखीअै नीच न दीसै कोय॥ इकनै भांडे साजिअै इक चानण तिह लोय॥ करमि मिलै सच पाईअै धुरि बखस न मेटै कोय॥६॥ साध मिलै साधू जनै संतोख वसै गुर भाय॥ अकथ कथा वीचारीअै जे सतिगुर माहि समाय॥ पी अंम्रित संतोखिआ दरगही पैधा जाय॥७॥ घट घट वाजै किंगुरी अनदिन सबद सुभाय॥ विरले कउ सोझी पई गुरमुखि मन समझाय॥ नानक नाम न वीसरै छूटै सबद कमाय॥८॥१४॥ पद्अर्थ: अवरु वीचारु = और विचार। कि करी = मैं क्या करूँ? प्रभ रातउ = प्रभु के नाम में रंगा हुआ। सारु = श्रेष्ठ। अधारु = आसरा। मैं = मुझे।1। साची = सदा स्थिर रहने वाली (कार), सच्ची कार। जिनि = जिस (प्रभू) ने।1। रहाउ। बैसंतरि = आग में। होमीअै = अपर्ण करें (जैसे हवन करने के वक्त घी आग में डालते हैं)। तोलि = तोल के। इक रती कटाइ = रक्ती रक्ती कटा के। समधा = हवन में इस्तेमाल की जाने वाली लकड़ी। करी = मैं करूँ। अनदिनु = हर रोज। कोटी = करोड़ों।1। अरध = अर्ध, आधा, दो फाड़। सिरि = सिर पर। करवतु = आरा। हैमंचलि = हिमालय (की बर्फ) में। भी = तो भी। ठोकि वजाइ = ठोक बजा के, अच्छी तरह परख के।3। कंचन = सोना। कोट = किले। दतु करी = मैं दान करूँ। हैवर = हय+वर बढ़िया घोड़े। गैवर = गज+वर, बढ़िया हाथी। भूमि = जमीन। घणीं = ज्यादा। गरबु = अहंकार। बेधिआ = छेद कर दिया। गुरि = गुरू ने।4। गुरमुखि = गुरू की शरण पड़ने से, गुरू की ओर मुंह करने से। मोख = (माया के मोह आदि से) छुटकारा, मोक्ष। दुआरु = दरवाजा। सचहु = सच से, सदा स्थिर प्रभू के नाम सिमरन से। ओरै = पीछे, घटिआ। उपरि = (हा किस्म के कर्मकांड से) ऊपर, बढ़िया, उक्तम। सचु आचारु = सदा स्थिर प्रभू के नाम सिमरन का कर्म। आचारु = कर्म।5। सभ को = हरेक जीव। इकनै = एक परमात्मा से। भांडै साजिअै = भांडे साजे जाने करके। तिहु लोइ = तीनों भवनों में। करमि = (प्रभू की) मेहर से। सचु = नाम का सिमरन। बखस = बख्शिश।6। सादु = गुरमुखि। गुर भाइ = गुरू के अनुसार रहने से। अकथ कथा = अकथ प्रभू की कथा। पी = पी के। पैधा = सिरोपा ले के, आदर सहित।7। घटि घटि = हरेक घट में। वाजै = बजती है। किंगुरी = बीन, वीणा, जीवन रौंअ। सुभाइ = स्वभाव में (जुड़ने से), स्वभाव में एक होने से।8। अर्थ: जिस मनुष्य का मन परमात्मा के नाम में परोया जाए, (उसके संबंध में) मैं और क्या विचार करूँ (मैं और क्या बताऊँ? इस में कोई शक नहीं कि) जो मनुष्य प्रभू के (नाम में) रंगा जाता है, उसको श्रेष्ठ (आत्मिक) सुख मिलता है। जिसकी सुरति शबद के (विचार में) जुड़ी हुई है, उसके अंदर आनंद पैदा होता है। (हे प्रभू!) जैसी भी तेरी रजा हो, मुझे भी तू (अपने चरणों में) रख। तेरा नाम (मेरे जीवन का) आसरा बन जाए।1। हे मेरे मन! खसम प्रभू की रजा में चलना सही कार है। (हे मन!) तू उस प्रभू (के चरणों) से लिव जोड़, जिसने ये शरीर और मन पैदा करके इन्हें सुंदर बनाया है।1। रहाउ। अगर अपने शरीर को काट काट के एक एक रक्ती भर तोल तोल के आग में हवन कर दिया जाय। अगर मैं अपने शरीर व मन को हवन सामग्री बनां दूं और हर रोज इन्हें आग में जलाऊँ। यदि इस प्रकार के अन्य लाखों करोड़ों कर्म किए जाएं, तो भी कोई कर्म परमात्मा के नाम की बराबरी तक नहीं पहुँच सकता।2। यदि सिर के ऊपर आरा रखा के शरीर को दो फाड़ चिरवा लिया जाय, यदि शरीर को हिमालय पर्वत (की बरफ) में गला दिया जाए, तो भी मन में से (अहम् आदिक) रोग दूर नहीं होते। (कर्मकाण्डों की) सारी (ही मर्यादा) मैंने अच्छी तरह परख के देख ली है। कोई करम प्रभु सिमरन की बराबरी तक नहीं पहुँचता।3। यदि मैं सोने के किले दान करूँ, बहुत सारे बढ़िया घोड़े व हाथी दान करूँ, जमीन दान करूँ, बहुत सारी गाऐं दान करूँ, फिर भी (बल्कि इस दान का ही) मन में अहंकार गुमान बन जाता है। जिस मनुष्य को सतिगुरू ने सदा स्थिर प्रभू (का नाम जपने की) बख्शिश की है, उसका मन परमात्मा के नाम में परोया रहता है (और यही है सही करनी)।4। अनेकों ही लोगों की अक्ल (तप आदि कर्मों की ओर प्रेरती है जो) मन के हठ से (किये जाते हैं), अनेकों ही लोग वेद आदि धर्म-पुस्तकों के अर्थ-विचार करते हैं (और इस वाद-विवाद को ही जीवन का सही राह समझते हैं), ऐसे और भी अनेकों ही कर्म हैं जो जीवात्मा के वास्ते फांसी का रूप बन जाते हैं, (पर अहंकार आदि बंधनों से) निजात का दरवाजा गुरू के सन्मुख होने से ही मिलता है (क्योंकि, गुरू प्रभू का सिमरन की हिदायत करता है)।5। हरेक कर्म सदा स्थिर प्रभू के नाम सिमरन से नीचे है, घटिआ है। सिमरन रूपी कर्म सब कर्मों धर्मों से श्रेष्ठ है। (पर कर्म काण्ड के जाल में फंसे उच्च जाति के लोगों को भी निंदना ठीक नहीं है), हरेक जीव को ठीक ही कहना चाहिए। (जगत में) कोई नीच नहीं दिखाई नहीं देता, क्योंकि, एक करतार ने ही सारे जीव रचे हैं और तीनों लोकों (के जीवों) में उसे (करतार की ज्योति) का ही प्रकाश है। सिमरन (का खैर) प्रभू की गुरू की मेहर से ही मिलता है और धुर से ही प्रभू की हुकम अनुसार जिस मनुष्य को सिमरन की दात मिलती है, कोई पक्ष उस (दात) के राह में रोक नहीं डाल सकता।6। जो गुरमुख मनुष्य गुरमुखों की संगति में मिल बैठता है, गुरू आशै के अनुसार चलने से (उसके मन में) संतोष आ बसता है। (क्योंकि,) यदि मनुष्य सतिगुरू के उपदेश में लीन रहे तो बेअंत गुणों वाले करतारकी सिफत-सालाह की जा सकती है। और, सिफत सलाह रूपी अंमृत पीने से मन संतोष ग्रहण कर लेता है और (जगत में से) आदर सत्कार कमा के प्रभू की हजूरी में पहुँचता है।7। गुरू के शबद के द्वारा प्रभू के स्वभाव में हरवक्त एक-मेक होने से यह यकीन बन जाता है कि (रॅबी रौंअ की) वीणा हरेक शरीर में बज रही है। पर ये समझ किसी विरले को ही पड़ती है। हे नानक! जो मनुष्य गुरू की शरण पड़ कर अपने मन को ऐसे समझा लेता है, उसको परमात्मा का नाम कभी नहीं भूलता। वह गुरू के उपदेश को कमा के (गुरू के शबद मुताबिक जीवन बना के, अहम् आदि रोगों से) बचा रहता है।8।14। सिरीरागु महला १ ॥ चिते दिसहि धउलहर बगे बंक दुआर ॥ करि मन खुसी उसारिआ दूजै हेति पिआरि ॥ अंदरु खाली प्रेम बिनु ढहि ढेरी तनु छारु ॥१॥ भाई रे तनु धनु साथि न होइ ॥ राम नामु धनु निरमलो गुरु दाति करे प्रभु सोइ ॥१॥ रहाउ ॥ राम नामु धनु निरमलो जे देवै देवणहारु ॥ आगै पूछ न होवई जिसु बेली गुरु करतारु ॥ आपि छडाए छुटीऐ आपे बखसणहारु ॥२॥ मनमुखु जाणै आपणे धीआ पूत संजोगु ॥ नारी देखि विगासीअहि नाले हरखु सु सोगु ॥ गुरमुखि सबदि रंगावले अहिनिसि हरि रसु भोगु ॥३॥ चितु चलै वितु जावणो साकत डोलि डोलाइ ॥ बाहरि ढूंढि विगुचीऐ घर महि वसतु सुथाइ ॥ मनमुखि हउमै करि मुसी गुरमुखि पलै पाइ ॥४॥ साकत निरगुणिआरिआ आपणा मूलु पछाणु ॥ रकतु बिंदु का इहु तनो अगनी पासि पिराणु ॥ पवणै कै वसि देहुरी मसतकि सचु नीसाणु ॥५॥ बहुता जीवणु मंगीऐ मुआ न लोड़ै कोइ ॥ सुख जीवणु तिसु आखीऐ जिसु गुरमुखि वसिआ सोइ ॥ नाम विहूणे किआ गणी जिसु हरि गुर दरसु न होइ ॥६॥ जिउ सुपनै निसि भुलीऐ जब लगि निद्रा होइ ॥ इउ सरपनि कै वसि जीअड़ा अंतरि हउमै दोइ ॥ गुरमति होइ वीचारीऐ सुपना इहु जगु लोइ ॥७॥ अगनि मरै जलु पाईऐ जिउ बारिक दूधै माइ ॥ बिनु जल कमल सु ना थीऐ बिनु जल मीनु मराइ ॥ नानक गुरमुखि हरि रसि मिलै जीवा हरि गुण गाइ ॥८॥१५॥ {पन्ना 62-63} उच्चारण: सिरीरागु महला १॥ चिते दिसहि धउलहर बगे बंक दुआर॥ कर मन खुसी उसारिआ दूजै हेति पिआर॥ अंदरु खाली प्रेम बिन ढहि ढेरी तन छार॥१॥ भाई रे, तन धन साथि न होय॥ राम नाम धन निरमलो गुर दात करे प्रभ सोय॥१॥ रहाउ॥ राम नाम धन निरमलो जे देवै देवणहार॥ आगै पूछ न होवई जिस बेली गुर करतार॥ आप छडाए छुटीअै आपे बखसणहार।२॥ मनमुख जाणै आपणे धीआ पूत संजोग॥ नारी देखि विगासीअहि नाले हरख सु सोग॥ गुरमुखि सबदि रंगावले अहिनिसि हरि रस भोग॥३॥ चित चलै वित जावणो साकत डोल डोलाय॥ बाहर ढूंढि विगुचीअै घर महि वसत सुथाय॥ मनमुख हउमै करि मुसी गुरमुख पलै पाय॥४॥ साकत निरगुणिआरिआ आपणा मूल पछाण॥ रकत बिंदु का इह तनो अगनी पासि पिराण॥ पवणै कै वसि देहुरी मसतक सच निसाण॥५॥ बहुता जीवण मंगीअै मुआ न लोड़ै कोय॥ सुख जीवण तिस आखीअै जिस गुरमुखि वसिआ सोय॥ नाम विहूणे किआ गणी जिस हरि गुर दरस न होय॥६॥ जिउ सुपनै निसि भुलीअै जब लगि निद्रा होय॥ इउ सरपन कै वसि जीअड़ा अंतरि हउमै दोय॥ गुरमति होय वीचारीअै सुपना इह जग लोय॥७॥ अगनि मरै जल पाईअै जिउ बारिक दूधै माय॥ बिन जल कमल सु ना थीअै बिन जल मीन मराय॥ नानक गुरमुखि हरि रसि मिलै जीवा हरि गुण गाय॥८॥१५॥ पद्अर्थ: चिते = चित्रित। धउलहर = महिल माढ़ीआं। बगे = सफेद। बंक = बांके। करि खुसी = खुशियां करके, चाव से। मन = हे मन! दूजै हेति = माया के प्रेम में। अंदरु = अंदर का, हृदय। ढहि = गिर के। छारु = राख।1। निरमलो = पवित्र। सोइ = वह।1। रहाउ। पूछ = पूछ पड़ताल, रोक। बेली = सहयोगी।2। संजोग = मेल। देखि = देख के। विगासीअहि = खुश होते हैं। हरखु = खुशी। सोगु = चिंता, सहम। सबदि = (गुरू के) शबद में (जुड़ के)। अहि = दिन। निसि = रात। भोगु = (आत्मिक) भोजन।3। चलै = डोलता है। वितु = धन। डोलाइ = बारंबार डोलता है। विगुचीअै = परेशान होता है, खुआर होता है। वसतु = नाम धन। सुथाइ = नीयत स्थान पे। मनमुखि = अपने मन के पीछे चलने वाली जीव स्त्री। मुसी = ठगी जाती है, लूटी जाती है। पलै पाइ = (वस्तु को) हासिल कर लेती है।4। साकत = हे साकत!, हे प्रभू चरणों से विछुड़े जीव! रकतु = (माँ का) लहू। बिंदु = पिता वीर्य। पिराण = पहचान, याद रख। पवण = श्वास। मसतकि = माथे पर। नीसाणु = अटॅल हुकम।5। जिसु = जिस (मनि), जिसके मन में। सोइ = वह प्रभू। किआ गणी = मैं क्या (जीता) समझूं? ।6। भुलीअै = भुलेखा खा जाते हैं। निद्रा = नींद। सरपनि = सपणीं, माया। जीअड़ा = कमजोर जीवात्मा। दोइ = द्वैत, मेर तेर। वीचारिअै = समझ पड़ती है। लोइ = लोक, दुनिया।7। दूधै माइ = मां के दूध से। ना थीअै = नहीं रह सकता। मीनु = मछली। रसि = रस में।8। अर्थ: हे भाई! यह शरीर यह धन (जगत से चलने के वक्त) साथ नहीं निभता। परमात्मा का नाम ऐसा पवित्र धन है (जो सदा साथ निभता है, पर ये मिलता उसको ही है) जिसे गुरू देता है जिसको वह परमात्मा दात करता है।1। रहाउ। जैसे बड़े चाव से बनाए हुए चित्रित किए हुए महल-माढियां (सुंदर) दिखाई देते हैं, उनके सफेद बांके दरवाजे होते हैं। (पर यदि वे अंदर से खाली रहें तो गिर के ढेरी हो जाते हैं, वैसे ही माया के मोह में प्यार में (ये शरीर) पालते हैं, पर यदि हृदय नाम से वंचित है, प्रेम के बगैर है, तो ये शरीर भी गिर के ढेरी हो जाता है (व्यर्थ जाता है।)।1। परमात्मा का नाम पवित्र धन है (तब ही मिलता है) अगर देने के स्मर्थ हरि खुद दे। (नाम धन हासिल करने में) जिस मनुष्य का सहयोगी गुरू खुद बने, करतार खुद बने, परलोक में उस पर कोई एतराज नहीं होता। पर माया के मोह से प्रभू स्वयं ही बचाए तो बच सकते हैं। प्रभू खुद ही बख्शिश करने वाला है।2। (प्रभू की रजा मुताबिक जगत में) बेटी बेटों का मेल (आ बनता है), पर अपने मन के पीछे चलने वाला आदमी इनको अपने समझ लेता है। (मनमुख लोग अपनी अपनी) स्त्री को देख के खुश होते हैं, (देख के) खुशी भी होती है सहम भी होता है (कि कहीं ये बच्चे स्त्री मर ना जाएं)। गुरू के बताए रास्ते पर चलने वाले लोग गुरू के शबद के द्वारा आत्मिक सुख पाते हैं। परमात्मा का नाम रस दिन रात उनकी आत्मिक खुराक होता है।3। (मनुष्य धन को सुख का मूल समझता है, जब) धन जाने लगता है तो साकत का मन डोलता है। (सुख को) बाहर से ढूंढने से खुआर ही होते हैं। (साकत मनुष्य यह नहीं समझता कि सुख का मूल) परमात्मा का नाम धन घर में ही, हृदय में ही है। अपने मन के पीछे चलने वाली जीव स्त्री “मैं मैं” कर के ही लुटी जाती है (अंदर से नाम धन लुटा बैठती है)। (जबकि) गुरू के मार्ग पर चलने वाली ये धन हासिल कर लेती है।4। हे गुणहीन साकत मनुष्य! (तू गुमान करता है अपने शरीर का) अपना असल तो पहचान। ये शरीर माँ के लहू और पिता के वीर्य से बना है। याद रख, (आखिर इसने) आग में (जल जाना है)। हरेक जीव के माथे पे यह अटॅल हुकम है कि यह शरीर स्वासों के अधीन है (हरेक के गिने चुने श्वास हैं)।5। लम्बी लम्बी उम्र मांगी जाती है। कोई भी जल्दी मरना नहीं चाहता। पर उसी मनुष्य का जीवन सुखी कह सकते हैं, जिसके मन में, गुरू की शरण पड़ कर, परमात्मा आ बसता है। जिस मनुष्य को कभी गुरू के दर्शन नहीं हुए, कभी परमात्मा के दीदार नहीं हुए, उस प्रभू नाम से वंचित मनुष्य को मैं (जीवित) क्या समझूँ? ।6। जैसे रात को (सोते हुए को) सुपने में (कई चीजें देख के) भुलेखा पड़ जाता है (कि जो कुछ देख रहे हैं यह सचमुच ठीक है, और यह भुलेखा तब तक टिका रहता है) जब तक नींद टिकी रहती है। इसी तरह कमजोर जीव माया नागिन के बस में (जब तक) है (तब तक) इसके अंदर अहम् और मेर तेर बनी रहती है। (और इस अहम् और मेर तेर को यह जीवन सही जीवन समझता है)। जब गुरू की मति प्राप्त हो तो यह समझ पड़ती है कि ये जगत (का मोह) यह दुनिया (वाली मेर तेर) निरा स्वपन ही है।7। जैसे बालक की आग (पेट की आग, भूख) माँ का दूध पीने से शांत होती है, वैसे ही ये तृष्णा की आग तभी बुझती है जब प्रभू के नाम का जल इस ऊपर डालते हैं। पानी के बिनां कमल काफूल नहीं रह सकता। पानी के बिना मछुली मर जाती है। वैसे ही गुरू के सन्मुख रहने वाला मनुष्य (प्रभू नाम के बिना जी नहीं सकता। उसका आत्मिक जीवन तभी प्रफुल्लित होता है जब) वह परमात्मा के नाम रस में लीन होता है। हे नानक! (प्रभू दर पे अरदास कर और कह– हे प्रभू! मेहर कर), मैं तेरे गुण गा के (आत्मिक जीवन) जीऊँ।8।15। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |