श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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सिरीरागु महला १ घरु २ ॥ मुकामु करि घरि बैसणा नित चलणै की धोख ॥ मुकामु ता परु जाणीऐ जा रहै निहचलु लोक ॥१॥ दुनीआ कैसि मुकामे ॥ करि सिदकु करणी खरचु बाधहु लागि रहु नामे ॥१॥ रहाउ ॥ जोगी त आसणु करि बहै मुला बहै मुकामि ॥ पंडित वखाणहि पोथीआ सिध बहहि देव सथानि ॥२॥ सुर सिध गण गंधरब मुनि जन सेख पीर सलार ॥ दरि कूच कूचा करि गए अवरे भि चलणहार ॥३॥ सुलतान खान मलूक उमरे गए करि करि कूचु ॥ घड़ी मुहति कि चलणा दिल समझु तूं भि पहूचु ॥४॥ सबदाह माहि वखाणीऐ विरला त बूझै कोइ ॥ नानकु वखाणै बेनती जलि थलि महीअलि सोइ ॥५॥ अलाहु अलखु अगमु कादरु करणहारु करीमु ॥ सभ दुनी आवण जावणी मुकामु एकु रहीमु ॥६॥ मुकामु तिस नो आखीऐ जिसु सिसि न होवी लेखु ॥ असमानु धरती चलसी मुकामु ओही एकु ॥७॥ दिन रवि चलै निसि ससि चलै तारिका लख पलोइ ॥ मुकामु ओही एकु है नानका सचु बुगोइ ॥८॥१७॥ {पन्ना 64}

उच्चारण: सिरीरागु महला १ घरु २॥ मुकाम कर घर बैसणा नित चलणै की धोख॥ मुकाम ता पर जाणीअै जा रहै निहचल लोक॥१॥ दुनिआ कैसि मुकामे॥ कर सिदक, करणी खरच बाधहु लाग रहु नामे॥१॥ रहाउ॥ जोगी त आसण कर बहै मुला बहै मुकाम॥ पंडित वखाणहि पोथीआं सिध बहहि देव सथान॥२॥ सुर सिध गण गंधरब मुनि जन सेख पीर सलार॥ दर कूच कूचा कर गए अवरे भि चलणहार॥३॥ सुलतान खान मलूक उमरे गए कर कर कूच॥ घड़ी मुहत कि चलणा दिल समझ तूं भी पहूच॥४॥ सबदाह माहि वखाणीअै विरला त बूझै कोय॥ नानक वखाणै बेनती जल थल महीअल सोय॥५॥ अलाह अलख अगंम कादर करणहार करीम॥ सभ दुनी आवण जावणी मुकाम एक रहीम॥६॥ मुकाम तिस नो आखीअै जिस सिसि न होवी लेखु॥ असमानु धरती चलसी मुकाम ओही एक॥७॥ दिन रवि चलै निसि ससि चलै तारिका लख पलोय॥ मुकाम ओही एक है नानका सचु बुगोइ॥८॥१७॥ महले पहिले सतारह असटपदीआ॥

पद्अर्थ: मुकामु = पक्का ठिकाना, तकिया। करि = कर के, बना के। घरि = घर में। धोख = धुक धुकी, चिंता। ता परु = तभी। लोक = जगत। निहचलु = अटॅल।1।

कैसि = किस तरह? मुकामे = पक्का ठिकाना। सिदकु = श्रद्धा। करणी = उच्च आचरण। नामे = नाम में।1। रहाउ।

मकामि = तकिए में। देव सथानि = देवते के मन्दिर में। सिध = करामाती योगी।2।

सुर = देवते। गण = शिवजी के उपासक। गंधर्व = देवतों के रागी। सलार = सरदार। दरि कूच कूचा = अपनी अपनी बारी कूच। अवरे भी = बाकी और भी।3।

मलूक = राजे, मलक। उमरे = अमीर लोग। मुहति = दो घड़ी के समय में। दिल = हे दिल! पहूचु = पहुँचने वाला।4।

सबदाह माहि = शब्दों में, जुबानी जुबानी, बातों से। वखाणै = कहता है। महीअलि = मही+तल, धरती के तल पर, आकाश में।5।

अगंम = अपहुँच। कादरु = कुदरति का मालिक। करीमु = बख्शिश करने वाला। मुकामु = पक्का ठिकाना,सदा कायम। रहीमु = रहिम करने वाला प्रभू।6।

तिस नो = उसको (परमात्मा को)। जिसु सिसि = जिसके सीस पे। लेखु = मौत् का लेख। ओही एकु = वही एक परमात्मा।7।

रवि = सूरज। निसि = रात। ससि = चंद्रमा। पलोइ = पलायन कर जाने वाले, चले जाने वाले, नाशवंत। बगोइ = कह।8।

अर्थ: (हे भाई!) यह जगत (जीवों के वास्ते) सदा रहने वाली जगह नहीं हो सकती। (इस वास्ते अपने दिल में) श्रद्धा धारण करके उच्च आत्मिक जीवन को (अपने जीवन सफर के लिए) खर्च (तैयार करके पल्ले) बांध। सदा परमात्मा के नाम में जुड़ा रह।1। रहाउ।

(दुनिया को अपने रहने के लिए) पक्का ठिकाना समझ के घर में बैठ जाना भी (मनुष्य को मौत से बे-फिक्र नहीं कर सकता, क्यूँकि यहां से) चले जाने की चिंता तो सदा लगी रहती है। जगत में जीव का पक्का ठिकाना तो तभी समझना चाहिए, यदि ये जगत भी सदा कायम रहने वाला हो (पर ये तो सब कुछ ही नाशवंत है)।1।

जोगी आसन जमा के बैठता है। सांई फकीर तकिये में डेरा लगाते हैं, पंडित (धर्म स्थलों में बैठ के) धर्म पोथिआं (औरों को) सुनाते है, करामाती योगी शिव आदि के मंदिर में बैठते हैं (पर अपनी अपनी बारी सब जगत से कूच करते जा रहे हैं)।2।

देवते, योग साधना में लीन योगी, (शिव के उपासक) गण, देवतों के गवईए (गंधर्व), (समाधियों में मौन टिके रहने वाले) मुनि जन, शेख, पीर और सरदार (कहलाने वाले) अपनी अपनी बारी सभी जगत से कूच कर गए, (जो इस वक्त यहां दिखाई दे रहे हैं) ये भी सारे यहां से चले जाने वाले हैं।3।

बादशाह, खान, राजे, अमीर, वजीर अपना अपना डेरा कूच कर के चले गए। घड़ी दो घड़ी में हरेक ने यहां से चले जाना है। हे मन! दिमाग से काम ले (मूर्ख ना बन, गाफिल ना हो) तूने भी (परलोक) पहुँच जाना है।4।

नानक बेनती करता है, जबानी जबानी तो हर कोई कहता है, पर कोई एक आध ही यकीन लाता है (कि हरेक ने यहां से चले जाना है और यहां सिर्फ) वही परमात्मा (अटॅल रहने वाला है जो) जल में, धरती में, आकाश में (हर जगह मौजूद है)।5।

सारी दुनिया आने जाने वाली है (नाशवंत है)। सदा कायम रहने वाला सिर्फ एक वही है जो अल्लाह (कहलाता) है, जो अलख है, अपहुँच है, जो सारी कुदरति का मालिक है, जो सारे जगत का रचनहार है, और, जो सभ जीवों पे रहिम करने वाला है।6।

सदा कायम रहने वाला सिर्फ उस परमात्मा को ही कहा जा सकता है, जिसके सिर पर मौत का लेख नहीं है। ये आकाश ये धरती यब कुछ नाशवंत है, पर वह परमात्मा सदा अटॅल है।7।

हे नानक! ये अॅटल वचन कह दे- दिन और सूर्य नाशवान हैं, (ये दिखाई दे रहे) लाखों तारे भी नाश हो जाएंगे। सदा कायम रहने वाला सिर्फ एक परमात्मा ही है।8।17।

महले पहिले सतारह असटपदीआ ॥ सिरीरागु महला ३ घरु १ असटपदीआ    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ गुरमुखि क्रिपा करे भगति कीजै बिनु गुर भगति न होइ ॥ आपै आपु मिलाए बूझै ता निरमलु होवै कोइ ॥ हरि जीउ सचा सची बाणी सबदि मिलावा होइ ॥१॥ भाई रे भगतिहीणु काहे जगि आइआ ॥ पूरे गुर की सेव न कीनी बिरथा जनमु गवाइआ ॥१॥ रहाउ ॥ आपे हरि जगजीवनु दाता आपे बखसि मिलाए ॥ जीअ जंत ए किआ वेचारे किआ को आखि सुणाए ॥ गुरमुखि आपे दे वडिआई आपे सेव कराए ॥२॥ देखि कुट्मबु मोहि लोभाणा चलदिआ नालि न जाई ॥ सतिगुरु सेवि गुण निधानु पाइआ तिस की कीम न पाई ॥ प्रभु सखा हरि जीउ मेरा अंते होइ सखाई ॥३॥ पेईअड़ै जगजीवनु दाता मनमुखि पति गवाई ॥ बिनु सतिगुर को मगु न जाणै अंधे ठउर न काई ॥ हरि सुखदाता मनि नही वसिआ अंति गइआ पछुताई ॥४॥ पेईअड़ै जगजीवनु दाता गुरमति मंनि वसाइआ ॥ अनदिनु भगति करहि दिनु राती हउमै मोहु चुकाइआ ॥ जिसु सिउ राता तैसो होवै सचे सचि समाइआ ॥५॥ आपे नदरि करे भाउ लाए गुर सबदी बीचारि ॥ सतिगुरु सेविऐ सहजु ऊपजै हउमै त्रिसना मारि ॥ हरि गुणदाता सद मनि वसै सचु रखिआ उर धारि ॥६॥ प्रभु मेरा सदा निरमला मनि निरमलि पाइआ जाइ ॥ नामु निधानु हरि मनि वसै हउमै दुखु सभु जाइ ॥ सतिगुरि सबदु सुणाइआ हउ सद बलिहारै जाउ ॥७॥ आपणै मनि चिति कहै कहाए बिनु गुर आपु न जाई ॥ हरि जीउ भगति वछलु सुखदाता करि किरपा मंनि वसाई ॥ नानक सोभा सुरति देइ प्रभु आपे गुरमुखि दे वडिआई ॥८॥१॥१८॥ {पन्ना 64-65}

उच्चारण: सिरीरागु महला १ घरु १ असटपदीआ॥ (ੴ ) एक ओअंकार सतिगुर प्रसादि॥ गुरमुख क्रिपा करे भगत कीजै बिन गुर भगति न होय॥ आपै आप मिलाए बूझै ता निरमल होवै कोय॥ हरि जीउ सचा सची बाणी सबदि मिलावा होय॥१॥ भाई रे, भगतहीण काहे जगि आयआ॥ पूरे गुर की सेव न कीनी बिरथा जनम गवायआ॥१॥ रहाउ॥ आपे हरि जगजीवन दाता आपे बखसि मिलाए॥ जीअ जंत ऐ किआ वेचारे किआ को आखि सुणाए॥ गुरमुखि आपे दे वडिआई आपे सेव कराए॥२॥ देखि कुटंब मोहि लोभाणा चलदिआं नालि न जाई॥ सतिगुर सेवि गुण निधान पायआ तिस की कीम न पाई॥ प्रभु सखा हरि जीउ मेरा अंते होय सखाई॥३॥ पेईअड़ै जगजीवन दाता मनमुखि पति गवाई॥ बिन सतिगुर को मग न जाणै अंधे ठउर न काई॥ हरि सुखदाता मनि नही वसिआ अंति गयआ पछुताई॥४॥ पेईअड़ै जगजीवन दाता गुरमति मंनि वसायआ॥ अनदिन भगति करहि दिनु राती हउमै मोह चुकायआ॥ जिस सिउ राता तैसो होवै सचे सचि समायआ॥५॥ आपे नदरि करे भाउ लाऐ गुर सबदी बीचारि॥ सतिगुर सेविअै सहज ऊपजै हउमै त्रिसना मारि॥ हरि गुणदाता सद मनि वसै सच रखिआ उर धारि॥६॥ प्रभु मेरा सदा निरमला मनि निरमलि पायआ जाय॥ नाम निधान हरि मनि वसै हउमै दुख सभ जाय॥ सतिगुर सबद सुणायआ हउ सद बलिहारै जाउ॥७॥ आपणै मन चित कहै कहाए बिन गुर आप न जाई॥ हरि जीउ भगति वछल सुखदाता कर किरपा मंनि वसाई॥ नानक सोभा सुरत देय प्रभु आपे गुरमुख दे वडिआई॥८॥१॥१८॥

पद्अर्थ: गुरमुखि = गुरू के सन्मुख रहने से। कीजै = की जा सकती है। आपै = (गुरू के) स्वै में। आपु = अपने आप को। बूझे = समझ लेता है। सदा = सच्चा, सदा स्थिर रहने वाला। सबदि = शबद के द्वारा।1।

जगि = जगत में। बिरथा = व्यर्थ।1। रहाउ।

जग जीवनु = जगत का जीवन, जगत के जीवों की जिंदगी का सहारा। बखसि = मेहर करके। आखि = कह के। गुरमुखि = गुरू के द्वारा।2।

देखि = देख के। मोहि = मोह में। सेवि = सेवा करके,शरण पड़ के। गुण निधानु = गुणों का खजाना प्रभू।

तिस की: यहां ‘तिसु’ की ‘ु’ की मात्रा, संबंधक ‘की’ के कारण हट गई है। देखें गुरबाणी व्याकरण।

कीम = कीमत। सखा = मित्र।3।

पेईअड़ै = पिता के घर में, इस लोक में। मनमुखि = मनमुख ने, अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य ने। पति = इज्जत। मगु = मार्ग, रास्ता। काई = (शब्द ‘काई’ स्त्रीलिंग है जबकि ‘कोई’ पुलिंग है)। ठउर = जगह, सहारा। मनि = मन में।4।

मंनि = मन में। अनदिनु = हर रोज। काहि = करते हैं। सिउ = से। सचि = सॅच, सदा स्थिर प्रभू में।5।

भाउ = प्रेम। लाऐ = पैदा करता है। बीचारि = विचारता है। सेविअै = अगर सेवा की जाए, आसरा लिया जाय। सहजु = आत्मिक अडोलता। मारि = मार के। सद = सदा। उरधारि = दिल में टिका के (उरस् = हृदय)।6।

मनि निरमलि = निर्मल मन से। सभु = सारा। सतिगुरि = सतिगुर ने।7।

चिति = चिक्त में। कहै = कहता है। आपु = स्वै भाव। भगति वछलु = भगती को प्यार करने वाला (वछल = वात्सल्य)। मंनि = मन में। देइ = देता है। दे = देता है। गुरमुखि = गुरू की शरण पड़ने से।8।

अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य परमात्मा की भक्ति से वंचित रहा, उसका जगत में आना किस अर्थ का? जिसने (जगत में आ के) पूरे गुरू का पल्ला नहीं पकड़ा, उसने अपना जन्म व्यर्थ गवा लिया।1। रहाउ।

गुरू की शरण पड़ने से (जब) परमात्मा मेहर करता है, तो उसकी भक्ति की जाती है। गुरू (की शरण) के बिना (परमात्मा की) भक्ति नहीं हो सकती। जब कोई मनुष्य (गुरू के) स्वै में स्वयं को मिलाना सीख जाता है, तोवह पवित्र (जीवन वाला) हो जाता है। जो परमातमा सदा स्थिर रहने वाला है जिसकी सिफत सलाह की बाणी सदा अटॅल है, उससे गुरू के शबद में जुड़ने से मिलाप हो जाता है।1।

परमात्मा खुद ही जगत के सारे जीवों की जिंदगी का सहारा है वह खुद ही मेहर करके (जीवों को अपने साथ) मिलाता है। (नहीं तो) ये जीव जंतु बिचारे क्या करें? (भाव, इनकी कोई बिसात नहीं कि ये अपने प्रयास से प्रभू चरणों से जुड़ सकें। अपने किसी ऐसे प्रयास के बाबत) कोई जीव क्या कह के (किसी को) सुना सकता है? प्रभू खुद ही गुरू के द्वारा (अपने नाम की) वडिआई महिमा देता है, स्वयं ही अपनी सेवा भक्ति कराता है।2।

(मनुष्य अपने) परिवार को देख के (उस के) मोह में फंस जाता है (कभी ये नहीं समझता कि जगत से) चलने के वक्त (किसी ने उसके) साथ नहीं जाना। जिस मनुष्य ने गुरू की शरण पड़ कर गुणों का खजाना परमात्मा से प्राप्त कर लिया है, उस (की शोभा) का मुल्य नहीं पड़ सकता। प्यारा प्रभू जो (असल में) मित्र है अंत समय (जब अन्य सभी साक-संबंधी साथ छोड़ देते हैं उसका) साथी बनता है।3।

अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य ने (इस) पिता के घर में (इस लोक में) उस परमात्मा को (बिसार के) जो सभ दातें देने वाला है और जो जगत के सारे जीवों की जिंदगी का सहारा है, अपनी इज्जत गवा ली है। मनुष्य (जीवन का सही) रास्ता नहीं समझ सकता, (माया के मोह में) अंधे हुए मनुष्य कोकहीं कोई सहारा नहीं मिलता। जिस मनुष्य के मन में सारे सुख देने वाला परमात्मा नहीं बसता, वह अंत समय यहां से पछताता जाता है।4।

जिन मनुष्यों ने इस जीवन में ही जगत जीवन दातार प्रभू को गुरू की मति ले के अपने मन में बसाया है, वह दिन रात हर वक्त परमात्मा की भक्ति करते हैं, वह (अपने अंदर से) अहम् और माया का मोह दूर कर लेते हैं।

(ये एक कुदरती नियम है कि जो मनुष्य) जिसके प्रेम में रंगा जाता है वह उसी जैसा हो जाता है (सो, सदा स्थिर प्रभू के प्रेम में रंगा हुआ मनुष्य) सदा स्थिर प्रभू में ही लीन रहता है।5।

जिस मनुष्य पर प्रभू स्वयं ही मेहर की निगाह करता है, उसके अंदर अपना प्यार पैदा करता है, और वह मनुष्य गुरू के शबद के द्वारा (प्रभू के गुणों की) विचार करता है। सतिगुरू की शरण पड़ने से अहम् मार के और माया की तृष्णा खत्म करके आत्मिक अडोलता पैदा होती है। (जो मनुष्य गुरू की शरण पड़ता है) सारे गुणों का दाता परमात्मा सदा उसके मन में बसता है। सदा स्थिर रहने वाले प्रभू को वह मनुष्य अपने हृदय में टिकाए रहता है।6।

प्यारा परमात्मा सदा ही पवित्र स्वरूप रहता है (इस वास्ते) पवित्र मन से ही उससे मिला जा सकता है। परमात्मा का नाम (जो सारे गुणों का) खजाना (है) जिस मनुष्य के मन में बस जाता है, उसके सारे का सारा अहंकार का दुख दूर हो जाता है।

मैं (भाग्यशाली मनुष्य से) सदा कुर्बान जाता हूँ, जिसे सतिगुरू ने सिफत सलाह का शबद सुना दिया है, (भाव, जिसकी सुरति गुरू ने सिफत सलाह में जोड़ दी है)।7।

(बेशक कोई मनुष्य) अपने मन में अपने चिक्त मेंये कहे (कि मैंने अपने अंदर से स्वैभाव दूर कर लिया है, औरों से भी यही) कहलवा ले (कि इसने स्वैभाव दूर कर लिया है, पर) गुरू की शरण पड़े बिना स्वै भाव दूर नहीं होता। परमात्मा (अपनी) भक्ति से प्यार करने वाला है, (जीवों को) सारे सुख देने वाला है। जिस मनुष्य पर वह कृपा करता है वह ही (उसको अपने) मन में बसाता है।

हे नानक! परमात्मा (जीव को) गुरू की शरण पड़ कर स्वयं ही (सिफत सलाह वाली) सुरति बख्शता है और फिर स्वयं ही उसे (लोक परलोक में) शोभा व उपमा देता है।8।1।18।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh