श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 65 सिरीरागु महला ३ ॥ हउमै करम कमावदे जमडंडु लगै तिन आइ ॥ जि सतिगुरु सेवनि से उबरे हरि सेती लिव लाइ ॥१॥ मन रे गुरमुखि नामु धिआइ ॥ धुरि पूरबि करतै लिखिआ तिना गुरमति नामि समाइ ॥१॥ रहाउ ॥ विणु सतिगुर परतीति न आवई नामि न लागो भाउ ॥ सुपनै सुखु न पावई दुख महि सवै समाइ ॥२॥ जे हरि हरि कीचै बहुतु लोचीऐ किरतु न मेटिआ जाइ ॥ हरि का भाणा भगती मंनिआ से भगत पए दरि थाइ ॥३॥ गुरु सबदु दिड़ावै रंग सिउ बिनु किरपा लइआ न जाइ ॥ जे सउ अम्रितु नीरीऐ भी बिखु फलु लागै धाइ ॥४॥ से जन सचे निरमले जिन सतिगुर नालि पिआरु ॥ सतिगुर का भाणा कमावदे बिखु हउमै तजि विकारु ॥५॥ मनहठि कितै उपाइ न छूटीऐ सिम्रिति सासत्र सोधहु जाइ ॥ मिलि संगति साधू उबरे गुर का सबदु कमाइ ॥६॥ हरि का नामु निधानु है जिसु अंतु न पारावारु ॥ गुरमुखि सेई सोहदे जिन किरपा करे करतारु ॥७॥ नानक दाता एकु है दूजा अउरु न कोइ ॥ गुर परसादी पाईऐ करमि परापति होइ ॥८॥२॥१९॥ {पन्ना 65} उच्चारण: सिरी रागु महला ३॥ हउमै करम कमावदे जम डंड लगै तिन आय॥ जि सतिगुर सेवन से उबरे हरि सेती लिव लाय॥१॥ मन रे, गुरमुख नाम धिआय॥ धुर पूरब करतै लिखिआ तिना गुरमत नाम समाय॥१॥ रहाउ॥ विण सतिगुर परतीत न आवई, नाम न लागो भाउ॥ सुपनै सुख न पावई दुख महि सवै समाय॥२॥ जे हरि हरि कीचै बहुत लोचीअै, किरत न मेटिआ जाय॥ हरि का भाणा भगती मंनिआ से भगत पए दरि थाय॥३॥ गुर, सबदु दिड़ावै रंग सिउ, बिन किरपा लयआ न जाय॥ जे सउ अंम्रित नीरीअै, भी बिख फल लागै धाय॥4॥ से जन सचे निरमले जिन सतिगुर नाल पिआर॥ सतिगुर का भाणा कमावदे बिख हउमै तज विकार॥५॥ मन हठ कितै उपाय न छुटीअै, सिम्रिति सासत्र सोधहु जाय॥ मिलि संगति साधू उबरे गुर का सबद कमाय॥६॥ हरि का नाम निधान है जिस अंत न पारावार॥ गुरमुखि सेई सोहदे जिन किरपा करे करतार॥७॥ नानक दाता ऐक है दूजा अउर न कोय॥ गुर परसादी पाईअै करमि परापति होय॥८॥२॥१९॥ पद्अर्थ: डंडु = डंडा। करम = (निहित धार्मिक) कर्म। आइ = आ के। जि = जो लोग। सेवनि = सेवा करते हैं। लाइ = लगा के।1। गुरमुखि = गुरू की शरण पड़के। धुरि = धुर से। पूरबि = पहले जन्म में। करतै = करतार ने। समाइ = समाई।1। रहाउ। परतीति = श्रद्धा। नामि = नाम में। भाउ = प्रेम। पावई = पाता है। सवै = सोता है, फंसा रहता है।2। कीचै = करना चाहिए। लोचीअै = इच्छा रखते हैं। किरतु = कृत, पिछले कर्मों का असर। भगती = भक्तों ने। दरि = (प्रभू के) दर पर। थाइ = स्थान में, कबूल।3। रंग = प्रेम। सउ = सौ बार। नीरीअै = सिंचाई करें। बिखु = जहर (आत्मिक मौत लाने वाला), विष। धाइ = दौड़ के, जल्दी।4। तजि = त्याग के।5। हठि = हठ से। कितै उपाइ = किसी भी तरीके से। जाइ = जा के। सोधहु = विचार के पढ़ के देखो। मिलि = मिल के। साधू = गुरू।6। निधानु = खजाना। सेई = वही लोग।7। गुर परसादी = गुरू की कृपा से। करमि = (परमात्मा की मेहर), मेहर से। अर्थ: हे (मेरे) मन! गुरू की शरण पड़ के परमात्मा का नाम सिमर। (नाम बड़ी दुर्लभ दात है) गुरू की शिक्षा पे चल के उन लोगों की ही (प्रभू के) नाम में लीनता होती है, जिनके माथे पे करतार ने धुर से ही उनके पहले जन्म की की हुई नेक कमाई अनुसार लेख लिख दिया है।1। रहाउ। जो मनुष्य (कोई निहित धार्मिक) काम करते हैं (और यह) अहम् (भी) करते हैं (कि हम धार्मिक कर्म करते हैं), उनके (सिर) पे जम का डंडा आ बजता है। (पर) जो मनुष्य गुरू का आसरा लेते हैं, वह प्रभू (चरणों) में सुरति जोड़ के (इस मार से) बच जाते हैं।1। गुरू (की शरण पड़ने) के बिना (मनुष्य के मन में परमात्मा के वास्ते) श्रद्धा पैदा नहीं होती, ना परमात्मा के नाम में उसका प्यार बनता है (और नतीजा ये निकलता है कि उसको) सुपने में भी सुख नसीब नहीं होता। वह सदा दुखों में ही घिरा रहता है।2। (अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य के वास्ते) यदि यह बड़ी लालसा भी करें कि वह परमात्मा का सिमरन करे (तो भी इस चाहत और प्रेरणा में सफलता नहीं होती, क्यों कि) पिछले जन्मों के किए कर्मों का प्रभाव मिटाया नही जा सकता। भगत जन ही परमात्मा की रजा को परवान करते हैं, वह भगत ही परमात्मा के दर पे कबूल होते हैं।3। गुरू प्रेम से (अपना) शबद (शरण आए मनुष्य के दिल में) पक्का करता है। पर (गुरू भी परमात्मा की) कृपा के बिना नहीं मिलता। (गुरू से बे-मुख मनुष्य, जैसे, एक ऐसा वृक्ष है कि) यदि उसे सौ बार भी अमृत से सीचें तो भी उसका जहर का फल ही जल्दी लगता है।4। वही मनुष्य सदा के लिए पवित्र जीवन वाले रहते हैंजिनका गुरू के साथ प्यार (टिका रहता) है। वह मनुष्य अपने अंदर से अहम् का जहर, अहम् का विकार दूर करके गुरू की रजा मुताबिकजीवन बिताते हैं।5। (हे भाई!) बे-शक तुम शास्त्रों-स्मृतियों (आदि धार्मिक पुस्तकों) को ध्यान से पढ़ के देख लो, अपने मन के हठ से किए हुए किसी भी तरीके से (अहम् के जहर से) बच नहीं सकते। गुरू के शबद अनुसार जीवन बना के गुरू की संगति में मिल के ही (मनुष्य अहम् व विकारों से) बचते हैं।6। जिस परमात्मा के गुणों का अंत नहीं पाया जा सकता। जिस परमात्मा की हस्ती का इस पार का उस पार का छोर नहीं मिल सकता। उसका नाम (सब पदार्तों के गुणों का) खजाना है। गुरू की शरण पड़ के वही मनुष्य (ये खजाना हासिल करते हैं तथा) सुंदर जीवन वाले बनते हैं, जिन पर परमात्मा खुद कृपा करता है।7। हे नानक! (गुरू ही परमात्मा के नाम की) दात देने वाला है, कोई और नही (जो यह दात दे सके। परमात्मा का नाम) गुरू की कृपा के साथ ही मिलता है। परमात्मा की बख्शिश से मिलता है।8।2।19। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |