श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 66 सिरीरागु महला ३ ॥ पंखी बिरखि सुहावड़ा सचु चुगै गुर भाइ ॥ हरि रसु पीवै सहजि रहै उडै न आवै जाइ ॥ निज घरि वासा पाइआ हरि हरि नामि समाइ ॥१॥ मन रे गुर की कार कमाइ ॥ गुर कै भाणै जे चलहि ता अनदिनु राचहि हरि नाइ ॥१॥ रहाउ ॥ पंखी बिरख सुहावड़े ऊडहि चहु दिसि जाहि ॥ जेता ऊडहि दुख घणे नित दाझहि तै बिललाहि ॥ बिनु गुर महलु न जापई ना अम्रित फल पाहि ॥२॥ गुरमुखि ब्रहमु हरीआवला साचै सहजि सुभाइ ॥ साखा तीनि निवारीआ एक सबदि लिव लाइ ॥ अम्रित फलु हरि एकु है आपे देइ खवाइ ॥३॥ मनमुख ऊभे सुकि गए ना फलु तिंना छाउ ॥ तिंना पासि न बैसीऐ ओना घरु न गिराउ ॥ कटीअहि तै नित जालीअहि ओना सबदु न नाउ ॥४॥ हुकमे करम कमावणे पइऐ किरति फिराउ ॥ हुकमे दरसनु देखणा जह भेजहि तह जाउ ॥ हुकमे हरि हरि मनि वसै हुकमे सचि समाउ ॥५॥ हुकमु न जाणहि बपुड़े भूले फिरहि गवार ॥ मनहठि करम कमावदे नित नित होहि खुआरु ॥ अंतरि सांति न आवई ना सचि लगै पिआरु ॥६॥ गुरमुखीआ मुह सोहणे गुर कै हेति पिआरि ॥ सची भगती सचि रते दरि सचै सचिआर ॥ आए से परवाणु है सभ कुल का करहि उधारु ॥७॥ सभ नदरी करम कमावदे नदरी बाहरि न कोइ ॥ जैसी नदरि करि देखै सचा तैसा ही को होइ ॥ नानक नामि वडाईआ करमि परापति होइ ॥८॥३॥२०॥ {पन्ना 66} उच्चारण: सिरीरागु महला ३॥ पंखी बिरख सुहावड़ा सच चुगै गुर भाय॥ हरि रस पीवै सहज रहै उडै न आवै जाय॥ निज घरि वासा पायआ हरि हरि नामि समाय॥१॥ मन रे, गुर की कार कमाय॥ गुर कै भाणै जे चलहि ता अनदिन राचहि हरि नाय॥१॥ रहाउ॥ पंखी बिरख सुहावड़े ऊडहि चहु दिसि जाहि॥ जेता ऊडहि दुख घणे नित दाझहि तै बिललाय॥ बिन गुर महल न जापई ना अंम्रित फल पाहि॥२॥ गुरमुखि ब्रहम हरिआवला साचै सहजि सुभाय॥ साखा तीनि निवारीआ ऐक सबदि लिव लाय॥ अंम्रित फल हरि ऐक है आपे देय खवाय॥३॥ मनमुख ऊभे सुकि गऐ ना फल तिंना छाउ॥ तिंना पासि न बैसीअै ओना घरु न गिराउ॥ कटीअहि तै नित जालीअहि ओना सबद न नाउ॥4॥ हुकमे करम कमावणे पइअै किरति फिराउ॥ हुकमे दरसन देखणा जह भेजहि तह जाउ॥ हुकमे हरि हरि मन वसै हुकमे सचि समाउ॥५॥ हुकम न जाणहि बपुड़े भूले फिरहि गवार॥ मनहठि करम कमावदे नित नित होहि खुआर॥ अंतरि सांति न आवई ना सचि लगै पिआर॥६॥ गुरमुखीआ मुह सोहणे गुर कै हेति पिआर॥ सची भगती सचि रते दरि सचै सचिआर॥ आऐ से परवाण है सभ कुल का करहि उधार॥७॥ सभ नदरी करम कमावदे नदरी बाहरि न कोय॥ जैसी नदरि करि देखै सचा तैसा ही को होय॥ नानक नाम वडाईयां करमि परापति होय॥८॥३॥२०॥ पद्अर्थ: पंखी = पंछी, जीव पंछी। बिरखि = वृक्ष पर,शरीर रूप में (बसता)। सचु = सदा स्थिर रहने वाला प्रभू का नाम। गुर भाइ = गुरू के प्रेम में। पीवै = पीता है। सहजि = आत्मिक अडोलता में। उडै ना = उड़ता नहीं, भब्कता नहीं। आवै = आता, पैदा होता। जाइ = जाता, मरता। निज घरि = अपने (असल) घर में, प्रभू के चरणों में। नामि = नाम में।1। कमाइ = कर। भाणै = रजा में। चलहि = तू चले। अनदिनु = हर रोज। राचहि = रचा रहेगा, टिका रहेगा। नामि = नाम में।1। रहाउ। बिरख = पेड़ों पर। उडहि = उड़ते हैं। दिसि = तरफ। जाहि = जाते हैं। घणे = बहुत। दाझहि = जलते हैं। तै = और (शब्द ‘तै’ व ‘ते’ का फर्क याद रखने योग्य है। ‘तै’ = और। ‘ते’ = से) जापई = प्रतीत होता है, लगता है, दिखता है।2। गुरमुखि = गुरू की शरण में रहने वाला मनुष्य। साचै = सदा स्थिर प्रभू में। सुभाइ = प्रेम में। साखा = टहणीयां। तीनि साखा = तीन टहनियां, माया के तीन गुण। सबदि = शबद में। लाइ = लगा के। अंम्रित फलु = आत्मिक जीवन देने वाला नाम फल। देइ = देता है।3। मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य। उभै = खड़े खड़े। बैसीअै = बैठिए। गिराउ = ग्राम, गांव। जालीअहि = जलाए जाते हैं।4। हुकमै = हुकम में ही। पइअै किरति = किए हुए कर्मों के संस्कार के अनुसार। पइअै = उस कर्म अनुसार जो संस्कारों के रूप में मनुष्य के मन में एकत्र हो चुके हैं। फिराउ = फेरा। समाउ = समाई। सचि = सदा स्थिर प्रभू में।5। बपुड़े = बिचारे। गवार = मूर्ख। हठि = हठ से। होहि = होते हैं।6। हेति = प्यार में। दरि = दर पर।7। नदरी = मिहर की निगाह में। सचा = सदा स्थिर प्रभू। करमि = बख्शिश से।8। अर्थ: हे मेरे मन! गुरू की बताई कार कर। अगर तू गुरू के हुकम में चलेगा, तो तू हर समय परमात्मा के नाम में जुड़ा रहेगा।1। रहाउ। जो जीव-पंछी इस शरीर वृक्ष पर बैठा हुआ गुरू के प्रेम में रह के सदा स्थिर प्रभू के नाम का चोगा चुगता है, वह खूबसूरत जीवन वाला हो जाता है। वह परमात्मा के नाम का रस पीता है। आत्मक अडोलता में टिका रहता है। (माया पदार्तों के चोगे की तरफ) भटकता नहीं फिरता, (इस वास्ते) जनम मरण के चक्कर से बचा रहता है। उसको अपने (असल) घर में (प्रभू चरणों में) निवास मिला रहता है। वह सदा प्रभू के नाम में लीन रहता है।1। जो जीव-पंछी (अपने अपने) शरीर वृक्षों पर (बैठे देखने में तो) सुंदर लगते हैं (पर माया के पदार्तों के चोगे के पीछे) उड़ते फिरते हैं, चारों तरफ भटकते हैं। वे जितना भी (चोगे के पीछे) उड़ते हैं, उतना ही ज्यादा दुख पाते हैं। सदा खिझते हैं और बिलकते हैं। गुरू की शरण के बगैर उन्हें (परमात्मा का) ठिकाना नहीं दिखता, और ना ही वह आत्मिक जीवन देने वाला नाम फल प्राप्त कर सकते हैं।2। गुरू के सन्मुख रहने वाला मनुष्य परमात्मा का रूप हो जाता है। वह जैसे एक हरा-भरा पेड़ है। (वह भाग्यशाली मनुष्य) सदा स्थिर प्रभू में जुड़ा रहता है।, आत्मिक अडोलता में टिका रहता है, प्रभू के प्रेम में मगन रहता है। परमात्मा के सिफत सलाह के शबद में सुरति जोड़ के (माया के तीन रूप) तीन टहनियां उसने दूर कर ली हैं। उसको आत्मिक जीवन देने वाला सिर्फ एक नाम फल लगता है। (प्रभू मेहर करके) खुद ही (उसको यह फल) चखा देता है।3। (पर) अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य, जैसे, वह वृक्ष हैं जो खड़े खड़े ही सूख गए हैं। उनको ना ही फल लगता है, ना ही उनकी छाया होती है, (भाव, ना ही उनके पास प्रभू का नाम है, और ना ही वे किसी की सेवा करते हैं)। उनके पास बैठना ही नहीं चाहिए, उनका कोई घर घाट नहीं है। (उनको कोई आत्मिक सहारा नहीं मिलता)। वह (मनमुख वृक्ष) सदा काटे जाते हैं और जलाए जाते हैं (भाव, माया के मोह के कारण वे नित्य दुखी रहते हैं)। उनके पास ना प्रभू की सिफत सलाह है, ना ही प्रभू का नाम है।4। (पर, हे प्रभू! जीवों के भी क्या बस? तेरे) हुकम में ही (जीव) कर्म कमाते हैं। (तेरे हुकम में ही) पिछले किये कर्मों के संस्कारों के अनुसार उनको जनम मरण का फेरा पड़ा रहता है। तेरे हुकम अनुसार ही कई जीवों को तेरा दर्शन प्राप्त होता है। जिधर तू भेजता है, उधर जाना पड़ता है। तेरे हुकम अनुसार ही कई जीवों के मन में तेरा हरि नाम बसता है। तेरे हुकम में ही तेरे सदा स्थिर स्वरूप में उनकी लीनता बनी रहती है।5। कई ऐसे बिचारे मनुष्य हैं जो परमात्मा का हुकम नहीं समझते, वह (माया के मोह के कारण) गलत रास्ते पर पड़के भटकते फिरते हैं। वह (गुरू का आसरा छोड़ के अपने) मन के हठ से (कई किस्म के निहित धार्मिक) कर्म करते है, (पर विकारों में फंसे हुए) सदा खुआर रहते हैं। उनके मन में शांति नहीं आती, ना ही उनका सदा स्थिर प्रभू में प्यार बनता है।6। गुरू के सन्मुख रहने वाले लोगों के मुंह (नाम की लाली से) सुंदर लगते हैं, क्योंकि वह गुरू के प्रेम में गुरू के प्यार में टिके रहते हैं। वह प्रभू की सदा स्थिर रहने वाली भक्ति करते हैं। वह सदा स्थिर प्रभू (के प्रेम रंग) में रंगे रहते हैं। (इस वास्ते वह) सदा स्थिर प्रभू के दर पे सुर्खरू रहते हैं। उन लोगों का ही जगत में आना कबूल है, वह अपने सारे कुल का भी पार उतारा कर लेते हैं।7। (पर, जीवों के भी बस की भी बात नहीं) सारे जीव परमात्मा की निगाह मुताबक ही करम करते हैं। उसकी निगाह से बाहर कोई जीव नहीं, (भाव, कोई जीव परमात्मा से आकी हो के कुछ नहीं कर सकता)। सदा स्थिर रहने वाला प्रभू जैसी निगाह करके किसी जीव की ओर देखता है, वह जीव वैसा ही बन जाता है। हे नानक! (उस की मेहर की नजर से जो मनुष्य उसके नाम में जुड़ता है), उसको आदर सम्मान मिलता है। पर उसका नाम उसकी बख्शिश से ही मिलता है।8।3।20। सिरीरागु महला ३ ॥ गुरमुखि नामु धिआईऐ मनमुखि बूझ न पाइ ॥ गुरमुखि सदा मुख ऊजले हरि वसिआ मनि आइ ॥ सहजे ही सुखु पाईऐ सहजे रहै समाइ ॥१॥ भाई रे दासनि दासा होइ ॥ गुर की सेवा गुर भगति है विरला पाए कोइ ॥१॥ रहाउ ॥ सदा सुहागु सुहागणी जे चलहि सतिगुर भाइ ॥ सदा पिरु निहचलु पाईऐ ना ओहु मरै न जाइ ॥ सबदि मिली ना वीछुड़ै पिर कै अंकि समाइ ॥२॥ हरि निरमलु अति ऊजला बिनु गुर पाइआ न जाइ ॥ पाठु पड़ै ना बूझई भेखी भरमि भुलाइ ॥ गुरमती हरि सदा पाइआ रसना हरि रसु समाइ ॥३॥ माइआ मोहु चुकाइआ गुरमती सहजि सुभाइ ॥ बिनु सबदै जगु दुखीआ फिरै मनमुखा नो गई खाइ ॥ सबदे नामु धिआईऐ सबदे सचि समाइ ॥४॥ माइआ भूले सिध फिरहि समाधि न लगै सुभाइ ॥ तीने लोअ विआपत है अधिक रही लपटाइ ॥ बिनु गुर मुकति न पाईऐ ना दुबिधा माइआ जाइ ॥५॥ माइआ किस नो आखीऐ किआ माइआ करम कमाइ ॥ दुखि सुखि एहु जीउ बधु है हउमै करम कमाइ ॥ बिनु सबदै भरमु न चूकई ना विचहु हउमै जाइ ॥६॥ बिनु प्रीती भगति न होवई बिनु सबदै थाइ न पाइ ॥ सबदे हउमै मारीऐ माइआ का भ्रमु जाइ ॥ नामु पदारथु पाईऐ गुरमुखि सहजि सुभाइ ॥७॥ बिनु गुर गुण न जापनी बिनु गुण भगति न होइ ॥ भगति वछलु हरि मनि वसिआ सहजि मिलिआ प्रभु सोइ ॥ नानक सबदे हरि सालाहीऐ करमि परापति होइ ॥८॥४॥२१॥ {पन्ना 66-67} उच्चारण: सिरीरागु महला ३॥ गुरमुखि नाम धिआईअै मनमुखि बूझ न पाय॥ गुरमुखि सदा मुख ऊजले हरि वसिआ मनि आय॥ सहजे ही सुख पाईअै सहजे रहै समाय॥१॥ भाई रे, दासनि दासा होय॥ गुर की सेवा गुर भगति है विरला पाऐ कोय॥१॥ रहाउ॥ सदा सुहाग सुहागणी जे चलहि सतिगुर भाय॥ सदा पिर निहचल पाईअै ना ओह मरै न जाय॥ सबदि मिली ना वीछुड़ै पिर कै अंकि समाय॥२॥ हरि निरमल अति ऊजला बिन गुर पायआ न जाय॥ पाठ पढ़ै न बूझई भेखी भरमि भुलाय॥ गुरमती हरि सदा पायआ रसना हरि रस समाय॥३॥ मायआ मोह चुकायआ गुरमती सहजि सुभाय॥ बिनु सबदै जगु दुखीआ फिरै मनमुखा नो गई खाय॥ सबदे नाम धिआईअै सबदे सचि समाय॥4॥ मायआ भूले सिध फिरहि समाधि न लगै सुभाय॥ तीने लोअ विआपत है अधिक रही लपटाय॥ बिन गुर मुकति न पाईअै ना दुबिधा मायआ जाय॥५॥ मायआ किस नो आखीअै किआ मायआ करमि कमाय॥ दुखि सुखि एह जीउ बध है हउमै करम कमाय॥ बिन सबदै भरम न चूकई ना विचहु हउमै जाय॥६॥ बिन प्रीती भगति न होवई बिन सबदै थाय न पाय॥ सबदे हउमै मारीअै मायआ का भ्रम जाय॥ नाम पदारथ पाईअै गुरमुखि सहजि सुभाय॥७॥ बिन गुर गुण न जापनी बिन गुण भगति न होय॥ भगति वछल हरि मन वसिआ सहजि मिलिआ प्रभ सोय॥ नानक सबदे हरि सलाहीए करमि परापति होय॥८॥४॥२१॥ पद्अर्थ: गुरमुखि = गुरू की ओर मुंह करके। धिआईअै = सिमरा जा सकता है। मनमुखि = अपने मन के पीछे चलने से। बूझ = समझ। ऊजले = रौशन। मनि = मन में। सहजे = सहज ही, आत्मिक अडोलता में।1 सुहागु = सौभाग्यं, पति को प्रसन्न रखने का सौभाग्य। भाइ = प्रेम में। निहचलु = अटॅल, अबिनाशी। सबदि = गुरू के शबद द्वारा। अंकि = गोद में।2। बूझई = समझ सकता। भरमि = भटकना, माया की दौड़ भाग में। रसना = जीभ। समाइ = लीन रहता है।3। सुभाइ = प्रेम में। नो = को। सचि = सदा स्थिर प्रभू में।4। सिध = सिद्ध, योग साधना में व्यस्त योगी । लोअ = लोक, भवन। वियापत है = (अपना) जोर डाले रखती है। अधिक = बहुत। मुकति = खलासी। दुबिधा = दु चिक्ता पन, दु किस्मा पन।5। किस नो = किस को (शब्द ‘किसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘नो’ के कारण नहीं लगी है। देखो गुरबाणी व्याकरण)। दुखि = दुख में। बधु = बंधा हुआ।6। थाइ = जगह में। थाइ न पाइ = कबूल नहीं पड़ता। भ्रम = भटकणा।7। न जापनी = प्रतीत नहीं होता, कद्र नहीं पड़ती। भगति वछलु = भक्ति को प्यार करने वाला। मनि = मन में। करमि = मेहर से। करमु = बख्शिश।8। अर्थ: हे भाई! परमात्मा के सेवकों का सेवक बन- यही है गुरू की बताई सेवा, यह है गुरू की (बताई) भक्ति। (ये दात) किसी विरले (भाग्यशाली) को मिलती है।1। रहाउ। गुरू के शरण पड़ने से (ही) परमात्मा का नाम सिमरा जा सकता है। अपने मन के पीछे चलने से (सिमरन की) सूझ नहीं पड़ती। जो मनुष्य गुरू की शरण पड़ते हैं, वह (लोक परलोक में) सदा सुर्खरू रहते हैं, उनके मन में परमात्मा आ बसता है (और उनके अंदर आत्मिक अडोलता बन जाती है)। आत्मिक अडोलता से ही आत्मिक आनंद मिलता है। (गुरू की शरण पड़ने से मनुष्य सदा) आत्मिक अडोलता में लीन रहता है।1। जो जीव-सि्त्रयां गुरू के प्रेम में (टिक के जीवन राह पर) चलती हैं, वे परमात्मा पति की प्रसन्नता के सौभाग्य वाली बन जाती हैं। उनका यह सौभाग्य सदा कायम रहता है। (गुरू की शरण पड़ने से) वह पति प्रभू मिल जाता है जो सदा अॅटल है, जो ना मरता है, ना कभी पैदा होता है। जो जीव-स्त्री गुरू के शबद द्वारा उस प्रभू में मिलती है, वह पुनः उससे कभी बिछुड़ती नहीं। वह सदा प्रभू पति की गोद में समाई रहती है।2। परमात्मा पवित्र स्वरूप है, बहुत ही पवित्र स्वरूप है। गुरू की शरण के बिना उससे मिलाप नहीं हो सकता। (जो मनुष्य धार्मिक पुस्तकों का) निरा पाठ (ही) पढ़ता है, (वह इस भेद को) नहीं समझता, (निरे) धार्मिक भेखों से (बल्कि) भटकन में पड़ कर गलत राह पर पड़ जाते हैं। गुरू की मति पर चल कर ही सदा परमात्मा मिलता है, और (मनुष्य की) जीभ में परमात्मा के नाम का स्वाद टिका रहता है।3। (जो मनुष्य) गुरू की मति के अनुसार (चलता है वह अपने अंदर से) माया का मोह मार लेता है (वह) आत्मिक अडोलता में (टिक जाता है, वह प्रभू के) प्रेम में (लीन रहता है)। गुरू के शबद के बिना जगत (माया के मोह के कारण) दुखी रहता है। अपने मन के पीछे चलने वाले लोगों को माया ग्रसे रखती है। (हे भाई!) गुरू के शबद से ही प्रभू का नाम सिमरा जा सकता है। गुरू के शबद से ही सदा स्थिर प्रभू में लीन रहा जा सकता है।4। (साधारण लोगों की तो क्या बात, योग साधना में) माहिर योगी भी माया के प्रभाव में आ के गलत रास्ते पे भटकते फिरते हैं। प्रभू प्रेम में उनकी सुरति नहीं जुड़ती। ये माया तीनों भवनों में अपना प्रभाव डाल रही है। (सभी जीवों को ही) बुरी तरह से चिपकी हुई है। (हे भाई!) गुरू की शरण के बिना (माया से) खलासी नहीं मिल सकती। माया के प्रभाव के कारण पैदा हुई तेर-मेर (द्वैत) भी दूर नहीं होती।5। (अगर पूछें कि) माया किस चीज का नाम है? (माया का स्वरूप क्या है? जीवों पे प्रभाव डाल के फिर उनसे ही) माया कौन से काम करवाती है? (तो उक्तर ये है कि माया के प्रभाव में) ये जीव दुख (की निर्वती) में ही सुख (की लालसा) में बंधा रहता है। और, “मैं बड़ा हूँ, मैं बड़ा बन जाऊँ” की प्रेरणा में सारे काम करता है। गुरू के शबद के बिना जीव की यह भटकना खत्म नहीं होती। ना ही इसके अंदर से “मैं मेरी” की प्रेरणा दूर होती है।6। गुरू के शबद के बिना (मनुष्य के अंदर प्रभू चरणों की प्रीति पैदा नहीं होती, और) प्रीति के बिना (जीव से) परमात्मा की भक्ति नहीं हो सकती, (परमात्मा के दर पे) जीव कबूल नहीं होता। गुरू के शबद द्वारा ही अहम् (मन में से) मारी जा सकती है। गुरू के शबद द्वारा ही माया की प्रेरणा से पैदा हुठ्र भटकना दूर होती है। गुरू की शरण पड़ने से परमात्मा का नाम (कीमती पदार्थ मिलता है, आत्मिक अडोलता में व प्रभू प्रेम से लीनता होती है)।7। गुरू की शरण के बिना उच्च आत्मिक जीवन के गुणों की कद्र नहीं पड़ती। और, आत्मिक जीवन वाले गुणों के बिना परमात्मा की भक्ति नहीं हो सकती। (गुरू के शबद द्वारा ही) भगती के साथ प्यार करने वाला परमात्मा (मनुष्य के) मन में बसता है (आत्मक अडोलता प्राप्त होती है) आत्मिक अडोलता में टिका वह प्रभू को प्राप्त कर लेता है। हे नानक! गुरू के शबद से ही परमात्मा की सिफत सलाह की जा सकती है। (पर यह दाति) उस की मेहर से ही मिलती है।8।4।21। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |