श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

Page 67

सिरीरागु महला ३ ॥ माइआ मोहु मेरै प्रभि कीना आपे भरमि भुलाए ॥ मनमुखि करम करहि नही बूझहि बिरथा जनमु गवाए ॥ गुरबाणी इसु जग महि चानणु करमि वसै मनि आए ॥१॥ मन रे नामु जपहु सुखु होइ ॥ गुरु पूरा सालाहीऐ सहजि मिलै प्रभु सोइ ॥१॥ रहाउ ॥ भरमु गइआ भउ भागिआ हरि चरणी चितु लाइ ॥ गुरमुखि सबदु कमाईऐ हरि वसै मनि आइ ॥ घरि महलि सचि समाईऐ जमकालु न सकै खाइ ॥२॥ नामा छीबा कबीरु जुोलाहा पूरे गुर ते गति पाई ॥ ब्रहम के बेते सबदु पछाणहि हउमै जाति गवाई ॥ सुरि नर तिन की बाणी गावहि कोइ न मेटै भाई ॥३॥ दैत पुतु करम धरम किछु संजम न पड़ै दूजा भाउ न जाणै ॥ सतिगुरु भेटिऐ निरमलु होआ अनदिनु नामु वखाणै ॥ एको पड़ै एको नाउ बूझै दूजा अवरु न जाणै ॥४॥ खटु दरसन जोगी संनिआसी बिनु गुर भरमि भुलाए ॥ सतिगुरु सेवहि ता गति मिति पावहि हरि जीउ मंनि वसाए ॥ सची बाणी सिउ चितु लागै आवणु जाणु रहाए ॥५॥ पंडित पड़ि पड़ि वादु वखाणहि बिनु गुर भरमि भुलाए ॥ लख चउरासीह फेरु पइआ बिनु सबदै मुकति न पाए ॥ जा नाउ चेतै ता गति पाए जा सतिगुरु मेलि मिलाए ॥६॥ सतसंगति महि नामु हरि उपजै जा सतिगुरु मिलै सुभाए ॥ मनु तनु अरपी आपु गवाई चला सतिगुर भाए ॥ सद बलिहारी गुर अपुने विटहु जि हरि सेती चितु लाए ॥७॥ सो ब्राहमणु ब्रहमु जो बिंदे हरि सेती रंगि राता ॥ प्रभु निकटि वसै सभना घट अंतरि गुरमुखि विरलै जाता ॥ नानक नामु मिलै वडिआई गुर कै सबदि पछाता ॥८॥५॥२२॥ {पन्ना 67-68}

उच्चारण: सिरीरागु महला ३॥ मायआ मोह मेरै प्रभि कीना आपे भरम भुलाए॥ मनमुख करम करहि नही बूझहि बिरथा जनम गवाए॥ गुरबाणी इस जग महि चानण करम वसै मन आए॥१॥ मन रे, नाम जपहु सुख होय॥ गुर पूरा सालाहीअै सहज मिलै प्रभ सोय॥१॥ रहाउ॥ भरम गयआ भउ भागिआ हरि चरणी चित लाय॥ गुरमुख सबद कमाईअै हरि वसै मन आय॥ घर महल सच समाईअै जमकाल न सकै खाय॥२॥ नामा छीबा कबीर जुलाहा पूरे गुर ते गति पाई॥ ब्रहम के बेते सबद पछाणहि हउमै जाति गवाई॥ सुरि नर तिन की बाणी गावहि कोइ न मेटै भाई॥३॥ दैत पुत, करम धरम किछ संजम न पढ़ै, दूजा भाउ न जाणै॥ सतगुर भेटिअै निरमल होआ अनदिन नाम वखाणै॥ एको पढ़ै एको नाउ बूझै दूजा अवर न जाणै॥4॥ खटु दरसन जोगी संनिआसी बिन गुर भरम भुलाए॥ सतगुर सेवहि, ता गत मित पावहि, हरि जीउ मंन वसाए॥ सची बाणी सिउ चित लागै आवण जाण रहाए॥५॥ पंडित पढ़ि पढ़ि वाद वखाणहि बिन गुर भरम भुलाए॥ लख चउरासीह फेर पयआ बिन सबदै मुकति न पाए॥ जा नाउ चेते ता गति पाए, जा सतिगुर मेलि मिलाए॥६॥ सतसंगति महि नाम हरि उपजै जा सतिगुर मिलै सुभाए॥ मन तन अरपी आप गवाई चला सतिगुर भाए॥ सद बलिहारी गुर अपने विटहु, जि हरि सेती चित लाए॥७॥ सो ब्राहमण ब्रहम जो बिंदे हरि सेती रंगि राता॥ प्रभु निकटि वसै सभना घट अंतरि, गुरमुखि विरलै जाता॥ नानक नाम मिलै वडिआई गुर कै सबदि पछाता॥८॥५॥२२॥

पद्अर्थ: प्रभि = प्रभू ने। भरमि = माया की भटकना में (डाल के)। भुलाऐ = गलत रास्ते पर डालता है। मनमुखि = अपने मन के पीछे चलने वाले लोग। करम = (निहित धार्मिक) कर्म। करहि = करते हैं। गवाऐ = गवाता है। करमि = मेहर से। मनि = मन में। आऐ = आ के।1।

सालाहीअै = उस्तति करनी चाहिए, धन्य धन्य कहना चाहिए। सहजि = आत्मिक अडोलता में।1। रहाउ।

भरमु = दौड़ भाग, भटकना। चरणी = चरणों में। घरि = घर में, अंतर आत्मे। महलि = प्रभू के महल में, प्रभू के चरणों में। सचि = सदा स्थिर प्रभू में। जमकालु = मौत, मौत का डर, आत्मिक मौत।2।

जुलाहा = (असल शब्द ‘जोलाहा’ है, यहां ‘जुलाहा’ पढ़ना है)। ते = से। गति = उच्च आत्मिक अवस्था। बेते = वेक्तागण, जानने वाले। ब्रहम के बेते = परमात्मा के साथ सांझ डालने वाले। सबदु = प्रभू की सिफत सलाह की बाणी। पछाणहि = पहचानते हैं, सांझ डालते हैं (वर्तमान काल को भूतकाल के अर्थ में यहां बर्तना है)। हउमै जाति = अहम् की जाति ही, अहम् का मूल ही। सुर = देवते। भाई = हे भाई!।3।

दैत पुतु = हरनाखश दैंत पुत्र, प्रहलाद। करम धरम = कर्म काण्ड। संजम = इन्द्रियों के वश करने के यत्न। भाउ = प्यार। भेटिअै = मिलने से। अनदिनु = हर रोज।4।

खटु = छे। दरसन = भेष। खटु दरसन = छे भेख (जोगी, संन्यासी, जंगम, सरेवड़े, बैरागी, बोधी)। गति = ऊूंची आत्मिक अवस्था। मिति = मर्यादा, जीवन मर्यादा, जीवन जुगति (युक्ति)। मंनि = मन में। वसाऐ = बसा के। सिउ = साथ। रहाऐ = खत्म कर देता है।5।

पंडित वखाणहि = पंडित व्याख्यान करते हैं। पढ़ि = पढ़ के। वादु = झगड़ा, बहस। फेरु = फेरा। मुकति = खलासी। मेलि = (प्रभू के) मिलाप में।6।

उपजै = पैदा होता है। सुभाऐ = सही तरीके से, प्रेम से। अरपी = मैं अर्पित करूँ। आपु = स्वै भाव। गवाई = गवा दूँ, मैं दूर करूँ। चला = मैं चलूँ। भाऐ = प्यार में। विटहु = से। जि = जो।7।

बिंदे = जानता है। रंगि = प्रेम में। घटअंतरि = हृदय में। सबदि = शबद के द्वारा।8।

अर्थ: मेरे प्रभू ने (खुद ही) माया का मोह पैदा किया है, वह खुद ही (जीवों को माया की) भटकना में डाल के गलत रास्ते पर डाल देता है। (उस भटकन में पड़े हुए) अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य (निहित धार्मिक) कर्म करते है।, और (यह) नहीं समझते (कि हम गलत राह पर हैं)। (जो भी मनुष्य अपने मन के पीछे चल के माया के मोह में फंसा रहता है, वह अपना) जनम व्यर्थ गवाता है।

सतिगुरू की बाणी इस जगत में (जीवन पथ पर) प्र्रकाश (करती) है। यह बाणी (परमात्मा की) मेहर से (ही) मनुष्य के मन में आ बसती है।1।

हे मेरे मन! परमात्मा का नाम जप। (नाम जपने से ही) आत्मिक आनंद मिलता है। (सिमरन की दाति गुरू से मिलती है, इस वास्ते) पूरे गुरू को घन्य धन्य कहना चाहिए। गुरू की शरण पड़ने से मनुष्य आत्मिक अडोलता में (टिकता है, और मनुष्य को) वह परमात्मा मिल जाता है।1। रहाउ।

(गुरू के द्वारा) परमात्मा के चरणों में चिक्त जोड़ के (मन की) भटकना दूर हो जाती है। (हरेक किस्म का डर) भाग जाता है। गुरू की शरण पड़ के गुरू का शबद कमाना चाहिए (भाव, शबद मुताबिक जीवन व्यतीत करना चाहिए। (इस तरह) परमात्मा मन में आ बसता है, अंतरात्मा में ठहराव आ जाता है। प्रभू चरणों में सदा स्थिर प्रभू में लीन रह सकते हैं। और आत्मिक मौत (सदाचारी जीवन को) खा नहीं सकती।2।

(देखो) नामदेव (जाति का) छींबा (धोबी) था। कबीर जुलाहा था। (उन्होंने) पूरे गुरू से उच्च आत्मिक अवस्था प्राप्त की। वे परमात्मा के साथ सांझ पाने वाले बन गए। उन्होंने प्रभू की सिफत सलाह के साथ गहरी सांझ पा ली। (और, इस तरह उन्होंने अपने अंदर से) अहम् का बीज नाश कर दिया। हे भाई! (अब) देवते और मनुष्य उनकी (उच्चारण की हुई) बाणी को गाते हैं। कोई भी (उनको मिले हुए इस सत्कार को) मिटा नहीं सकता।3।

(हरणाकश्यप) दैंत का पुत्र (भक्त प्रहलाद, निहित) धार्मिक कर्मों व इंद्रियों को वश करने की युक्तियां बताने वाली कोई पुस्तक नहीं था पढ़ता, वह प्रभू के बिना किसी और (देवताओं आदि) के साथ प्यार (करना) नहीं था जानता। पूरा गुरू मिलने (की बरकति) से वह पवित्र (जीवन वाला हो गया), हर समय परमात्मा का नाम जपने लग पड़ा। वह एक (परमात्मा) की सिफत सलाह पढ़ता था, एक परमात्मा का नाम ही समझता था। प्रभू के बिना किसी और को (प्रभू के जैसा) नहीं था जानता।4।

जोगी (हों), संन्यासी (हों, ये सारे ही) छह भेषों के साध, गुरू की शरण के बिना माया की भटकना में पड़ कर कुमार्ग में पड़े रहते हैं। जब (यह) गुरू की शरण पड़ते हैं, तब परमात्मा का नाम अपने मन में बसा के उच्च आत्मिक अवस्था व (सही) जीवन युक्ति प्राप्त करते हैं।

जिस मनुष्य का चिक्त सदा स्थिर प्रभू की बाणी के साथ तरंगित होता है वह अपना जनम मरन का चक्कर खत्म कर लेता है।5।

पंडित (लोक शास्त्र आदि) पढ़ पढ़ के (निरी) चर्चा (ही) करते सुनते हैं, (वह भी) गुरू की शरण के बिना माया की भटकना में पड़ के कुमार्ग पर पड़े रहते हैं। (कोई भी मनुष्य) गुरू के शबद के बिना (माया के मोह से) निजात हासिल नहीं कर सकता। (गुरू की शरण के बिना) चौरासी लाख योनियों का चक्कर बना रहता है। जब गुरू (मनुष्य को) प्रभू के चरणों में जोड़ता है, जब वह प्रभू का नाम सिमरता है, तब वह उच्च आत्मिक अवस्था हासिल कर लेता है।6।

जब (मनुष्य को) प्यार से गुरू मिलता है (गुरू की कृपा से) सत्संग में रह कर मनुष्य के अंदर परमात्मा का नाम प्रगट होता है। (मेरी यही अरदास है कि) मैं अपना मन अपना तन (गुरू के) हवाले कर दूँ। मैं (गुरू के आगे) अपना स्वै भाव गवा दूँ, और मैं गुरू के प्रेम में जीवन गुजारूँ। जो गुरू परमात्मा के साथ मेरा चिक्त जोड़ देता है मैं अपने उस गुरू से सदा सदके जाता हूँ।7।

(ऊूंची जाति का गुमान व्यर्थ है) वही ब्राहमण है, जो ब्रह्म (प्रभू) को पहचानता है। जो प्रभू के प्रेम में प्रभू के साथ रंगा रहता है। (जातियों का कोई भिन्न-भेद नहीं) प्रभू सभ शरीरों में सभी जीवों के नजदीक बसता है। पर यह बात कोई विरला ही समझता है, जो गुरू की शरण पड़े।

हे नानक! गुरू के शबद में जुड़ने से प्रभू के साथ जान पहिचान बनती है, प्रभू का नाम मिलता है और (लोक परलोक में) आदर मिलता है।8।5।22।

TOP OF PAGE

Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh