श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 69 सिरीरागु महला ३ ॥ सतिगुरि मिलिऐ फेरु न पवै जनम मरण दुखु जाइ ॥ पूरै सबदि सभ सोझी होई हरि नामै रहै समाइ ॥१॥ मन मेरे सतिगुर सिउ चितु लाइ ॥ निरमलु नामु सद नवतनो आपि वसै मनि आइ ॥१॥ रहाउ ॥ हरि जीउ राखहु अपुनी सरणाई जिउ राखहि तिउ रहणा ॥ गुर कै सबदि जीवतु मरै गुरमुखि भवजलु तरणा ॥२॥ वडै भागि नाउ पाईऐ गुरमति सबदि सुहाई ॥ आपे मनि वसिआ प्रभु करता सहजे रहिआ समाई ॥३॥ इकना मनमुखि सबदु न भावै बंधनि बंधि भवाइआ ॥ लख चउरासीह फिरि फिरि आवै बिरथा जनमु गवाइआ ॥४॥ भगता मनि आनंदु है सचै सबदि रंगि राते ॥ अनदिनु गुण गावहि सद निरमल सहजे नामि समाते ॥५॥ गुरमुखि अम्रित बाणी बोलहि सभ आतम रामु पछाणी ॥ एको सेवनि एकु अराधहि गुरमुखि अकथ कहाणी ॥६॥ सचा साहिबु सेवीऐ गुरमुखि वसै मनि आइ ॥ सदा रंगि राते सच सिउ अपुनी किरपा करे मिलाइ ॥७॥ आपे करे कराए आपे इकना सुतिआ देइ जगाइ ॥ आपे मेलि मिलाइदा नानक सबदि समाइ ॥८॥७॥२४॥ {पन्ना 69} उच्चारण: सिरीराग महला ३॥ सतिगुर मिलिअै फेर न पवै जनम मरण दुख जाय॥ पूरै सबद सभ सोझी होई हरि नामै रहै समाय॥१॥ मन मेरे, सतगुर सिउ चित लाय॥ निरमल नाम सद नवतनो आप वसै मन आय॥१॥ रहाउ॥ हरि जीउ, राखहु अपनी सरणाई, जिउ राखहि तिउ रहणा॥ गुर कै सबद जीवत मरै गुरमुख भवजलु तरणा॥२॥ वडै भाग नाउ पाईअै गुरमत सबद सुहाई॥ आपे मन वसिआ प्रभु करता सहजे रहिआ समाई॥३॥ इकना मनमुख सबद न भावै बंधन बंध भवायआ॥ लख चउरासीह फिरि फिरि आवै, बिरथा जनम गवायआ॥४॥ भगता मन आनंद है सचै सबद रंग राते॥ अनदिन गुण गावहि सद निरमल, सहजे नाम समाते॥५॥ गुरमुख अंम्रित बाणी बोलहि सभ आतम राम पछाणी॥ एको सेवन ऐक अराधहि गुरमुख अकथ कहाणी॥६॥ सचा साहिब सेवीअै गुरमुख वसै मन आय॥ सदा रंग राते सच सिउ अपनी किरपा करे मिलाय॥७॥ आपे करे कराऐ आपे इकना सुतिआ देइ जगाय॥ आपे मेल मिलाइदा नानक सबद समाय॥८॥७॥२४॥ पद्अर्थ: सतिगुरि = सतगुरू से। मिलिअै = मिलने से। सतिगुरि मिलिअै = (Locative absolute) यदि सत्गुरू मिल जाए, गुरू के मिलने से। फेरु = (जन्म मरण का) चक्कर, फेरा। सबदि = शबद द्वारा। नामै = नाम में।1। सिउ = साथ। सद = सदा। नवतनो = नया, निक्त नये आनंद वाला, जिससे मन कभी ना उकताए। मनि = मन में।1। रहाउ। हरि जीउ = हे प्रभू जी! जीवतु मरै = जीवित मरे, स्वै भाव त्यागे, नफस के पीछे चलने से हटे। गुरमुखि = गुरू की शरण पड़ कर। भवजलु = संसार समुंदर।2। भागि = भाग्य से, किस्मत से। सुहाई = (जिंदगी) सुंदर बन जाती है। सहजे = सहिज ही, आत्मिक अडोलता में ही।3। मनमुखि = मन के पीछे चलने से। बंधनि = बंधन में। बंधि = बांध के।4। मनि = मन में। सबदि = शबद में। रंगि = प्रेम में। अनदिनु = हररोज।5। अंम्रित = आत्मिक जीवन देने वाली। आतम रामु = परमात्मा। पछाणी = पहचान के। सेवनि = सेवते हैं, सिमरते हैं। गुरमुखि = गुरू की शरण पड़ के। अकथ = उस परमात्मा की जिसके गुण बयान नहीं किए जा सकते।6। सचा = सॅचा, सदा स्थिर रहने वाला। आइ = आ कर।7। देइ जगाइ = जगा देता है। सबदि मिलाइ = शबद में जोड़ के।8। अर्थ: हे मेरे मन! गुरू से चिक्त जोड़। (गुरू की शरण पड़ने से) परमात्मा का पवित्र नाम सदा नए आनंद वाला लगता है, और परमात्मा स्वयं मन में आ बसता है।1। रहाउ। यदि गुरू मिल जाए तो (चौरासी लाख योनियों वाला) फेरा नहीं पड़ता, जनम मरन में पड़ने वाला दुख दूर हो जाता है। पूरे (अभुल) गुरू के शबद में जुड़ने से (सही जीवन की) समझ आ जाती है। (गुरू की शरण पड़ने वाला मनुष्य) परमात्मा के नाम में लीन टिका रहता है।1। हे प्रभू जी! तू (जीवों को) अपनी शरण में रख। जिस आत्मिक अवस्था में तू (जीवों को) रखता है उसी में वह रहते हैं। गुरू के शबद में जुड़ के मनुष्य दुनिया में विचरते हुए ही विकारों से बचा रहता है। गुरू की शरण पड़ कर ही संसार समुंद्र से पार लांघ जाते हैं।2। (हे भाई!) परमात्मा का नाम बड़ी किस्मत से मिलता है। गुरू की मति पर चलने से, गुरू के शबद में जुड़ने से जिंदगी सुंदर बन जाती है। करतार प्रभू स्वयं ही मन में आ बसता है। (गुरू के शबद से मनुष्य) सदा आत्मिक अडोलता में टिका रहता है।3। कई ऐसे हैं जो अपने मन के पीछे चलते हैं, उन्हें गुरू का शबद प्यारा नहीं लगता। अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य (माया के) बंधन में बंध के (जनम मरण के चक्कर में) भटकाया जाता है। वह चौरासी लाख जूनियों में मुड़ मुड़ पैदा होता है, और अपना (मानस) जनम व्यर्थ गवा लेता है।4। परमात्मा की भक्ति करने वाले बंदों के मन में आनंद बना रहता है। वह सदा सिथर प्रभू की सिफत सलाह के शबद में प्रभू के प्रेम रंग में रंगे रहते हैं। वे सदैव हर वक्त परमात्मा के पवित्र गुण गाते रहते हैं। (जिसकी बरकति से वे) आत्मिक अडोलता में व प्रभू नाम में लीन रहते हैं।5। गुरू के सन्मुख रहने वाले मनुष्य सारी सृष्टि में परमात्मा को बसा हुआ पहचान के आत्मिक जीवन देने वाली प्रभू की सिफत सलाह की बाणी उच्चारित करते हैं। गुरू की शरण पड़ कर वह मनुष्य सदा एक परमात्मा का ही सिमरन करते हैं। परमात्मा की ही आराधना करते हैं। और उस परमात्मा की ही कथा वार्ता करते हैं जिसके सारे गुण बखान नहीं हो सकते।6। (हे भाई!) सदा स्थिर रहने वाले मालिक प्रभू को सिमरना चाहिए। जो मनुष्य गुरू की शरण पड़ कर सिमरते हैं उनके मन में प्रभू आ बसता है। (वह भाग्यशाली मनुष्य) सदैव प्रभू के प्रेम रंग में रंगे रहते हैं। सदा स्थिर प्रभू के साथ जुड़े रहते हैं। प्रभू अपनी कृपा करके उनको अपने साथ मिला लेता है।7। (पर ये सारी खोज परमात्मा के अपने ही हाथ में है) प्रभू स्वयं ही (सभ जीवों का प्रेरक हो के सब कुछ) करता है। स्वयं ही (जीवों से) कराता है। माया की नींद में सोये हुए कई जीवों को भी प्रभू खुद ही जगा देता है। हे नानक! गुरू के शबद में जोड़ के प्रभू स्वयं ही (उनको) अपने चरणों में मिला लेता है।8।7।24। सिरीरागु महला ३ ॥ सतिगुरि सेविऐ मनु निरमला भए पवितु सरीर ॥ मनि आनंदु सदा सुखु पाइआ भेटिआ गहिर ग्मभीरु ॥ सची संगति बैसणा सचि नामि मनु धीर ॥१॥ मन रे सतिगुरु सेवि निसंगु ॥ सतिगुरु सेविऐ हरि मनि वसै लगै न मैलु पतंगु ॥१॥ रहाउ ॥ सचै सबदि पति ऊपजै सचे सचा नाउ ॥ जिनी हउमै मारि पछाणिआ हउ तिन बलिहारै जाउ ॥ मनमुख सचु न जाणनी तिन ठउर न कतहू थाउ ॥२॥ सचु खाणा सचु पैनणा सचे ही विचि वासु ॥ सदा सचा सालाहणा सचै सबदि निवासु ॥ सभु आतम रामु पछाणिआ गुरमती निज घरि वासु ॥३॥ सचु वेखणु सचु बोलणा तनु मनु सचा होइ ॥ सची साखी उपदेसु सचु सचे सची सोइ ॥ जिंनी सचु विसारिआ से दुखीए चले रोइ ॥४॥ सतिगुरु जिनी न सेविओ से कितु आए संसारि ॥ जम दरि बधे मारीअहि कूक न सुणै पूकार ॥ बिरथा जनमु गवाइआ मरि जमहि वारो वार ॥५॥ एहु जगु जलता देखि कै भजि पए सतिगुर सरणा ॥ सतिगुरि सचु दिड़ाइआ सदा सचि संजमि रहणा ॥ सतिगुर सचा है बोहिथा सबदे भवजलु तरणा ॥६॥ लख चउरासीह फिरदे रहे बिनु सतिगुर मुकति न होई ॥ पड़ि पड़ि पंडित मोनी थके दूजै भाइ पति खोई ॥ सतिगुरि सबदु सुणाइआ बिनु सचे अवरु न कोई ॥७॥ जो सचै लाए से सचि लगे नित सची कार करंनि ॥ तिना निज घरि वासा पाइआ सचै महलि रहंनि ॥ नानक भगत सुखीए सदा सचै नामि रचंनि ॥८॥१७॥८॥२५॥ {पन्ना 69-70} उच्चारण: सिरी रागु महला ३॥ सतिगुर सेविअै मन निरमला भए पवित सरीर॥ मन आनंद, सदा सुख पायआ, भेटिआ गहिर गंभीर॥ सची संगत बैसणा सच नाम मन धीर॥१॥ मन रे, सतिगुर सेव निसंग॥ सतिगुर सेविअै हरि मन वसै लगै न मैल पतंग॥१॥ रहाउ॥ सचै सबद पति ऊपजै सचे सचा नाउ॥ जिनी हउमै मार पछाणिआ हउ तिन बलिहारै जाउ॥ मनमुख सच न जाणनी तिन ठउर न कतहू थाउ॥२॥ सच खाणा सच पैनणा सचे ही विच वास॥ सदा सचा सालाहणा सचै सबद निवास॥ सभ आतमराम पछाणिआ गुरमती निज घर वास॥३॥ सच वेखण सच बोलणा तन मन सचा होय॥ सची साखी उपदेस सच, सचे सची सोय॥ जिंनी सच विसारिआ से दुखीए चले रोय॥४॥ सतिगुर जिनी न सेविओ से कित आऐ संसार॥ जम दर बधे मारीअहि कूक न सुणै पूकार॥ बिरथा जनम गवायआ मरि जंमहि वारो वार॥५॥ ऐहु जग जलता देखि कै भजि पऐ सतिगुर सरणा॥ सतिगुर सच द्रिड़ायआ सदा सच संजम रहणा॥ सतिगुर सचा है बोहिथा, सबदे भवजल तरणा॥६॥ लख चउरासीह फिरदे रहे बिन सतिगुर मुकत न होई॥ पढ़ पढ़ पंडित मोनी थके दूजै भाय पति खोई॥ सतिगुर सबद सुणायआ बिन सचे अवर न कोई॥७॥ जो सचे लाऐ से सच लगे नित सची कार करंनि॥ तिना निज घर वासा पायआ सचै महलि रहंनि॥ नानक भगत सुखीऐ सदा सचै नामि रचंनि॥८॥१७॥८॥२५॥ पद्अर्थ: सेविअै = अगर सेवा की जाए, यदि शरण ली जाय। मनि = मन में। भेटिआ = मिला। गंभीरु = बड़े जिगरे वाला। सची संगति = सदा स्थिर प्रभू की संगत में। सचि = सदा स्थिर प्रभू में। धीर = धीरज, धैर्य, टिकाव।1। निसंगु = शर्म उतार के। पतंगु = थोड़ा भी।1। रहाउ। पति = इज्जत। सचे नाउ = सदा स्थिर प्रभू का नाम। पछाणिआ = जान पहिचान बनाई, सांझ डाल ली। हउ = मैं। मनमुख = अपने मन की ओर मुंह रखने वाले। कतहू = कहीं भी।2। सचु = सदा स्थिर प्रभू। सभु = हर जगह। निज डरि = अपने घर में, अंतरात्मे।3। सचा = सच्चा, सदा स्थिर, अडोल। साखी = शिक्षा। सोइ = शोभा। रोइ = रो के।4। कितु = किस काम के लिए?, व्यर्थ ही। संसारि = संसार में। दरि = दर पे। मारीअहि = मारे कूटे जाते हैं। वारो वार = दुबारा दुबारा।5। भजि = दौड़ के। सतिगुरि = सत्गुरू ने। दिड़ाइआ = पक्का कर दिया, मन में अच्छी तरह बसा दिया। संजमि = संजम में, जुगति में। बोहिथा = जहाज।6। मुकति = खलासी। मोनी = समाधिआं लगाने वाले, मौन धारण रख्खने वाले। दूजै भाइ = प्रभू के बिना और किसी के प्यार में। पति = इज्जत।7। सचै = सदा स्थिर प्रभू ने। सचि = सदा स्थिर प्रभू में। करंनि = करते हैं। महलि = महल में। सचै महलि = सदा स्थिर प्रभू के घर में। रहंनि = रहते हैं, मस्त रहते हैं।8। अर्थ: हे मेरे मन! शर्म छोड़ के गुरू की शरण पड़। (हे भाई!) गुरू की शरण पड़ने से परमात्मा मन में आ बसता है, और (मन को विकारों की) रक्ती भर भी मैल नहीं लगती।1। रहाउ। यदि गुरू का पल्ला पकड़े रखें, तो मन पवित्र हो जाता है (भाव, ज्ञानेंद्रियां विकारों से हटी रहतीं हैं)। (जो मनुष्य गुरू के दर पे आ जाता है उस के) मन में आनंद पैदा होता है, वह सदा के लिए आत्मिक सुख भोगता है। उसको गहरा और बड़े जिगरे वाला परमात्मा मिल जाता है। सदा स्थिर प्रभू की संगति में टिके रहने से मन सदा स्थिर रहने वाले प्रभू के नाम में टिकाव हासिल कर लेता है।1। स्दा स्थिर प्रभू की सिफत सलाह के शबद में जुड़ने से (लोक परलोक में) इज्जत मिलती है। सदा स्थिर रहने वाले प्रभू का सदा स्थिर नाम मिल जाता है। मैं उन लोगों के सदके जाता हूँ जिन्होंने (अपने अंदर से) अहंकार को दूर करके परमात्मा के साथ गहरी सांझ बनायी है। अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य सदा स्थिर प्रभू के साथ जान पहिचान नहीं बना सकते (इस वास्ते आत्मिक शांति के वास्ते) उन्हें और कोई जगह नहीं मिलती।2। सदा स्थिर प्रभू का नाम जिन मनुष्यों की आत्मिक खुराक बन गया है, प्रभू का नाम ही जिन की पोशाक है (आदर सत्कार हासिल करने की तरीका है), जिन की सुरति सदा स्थिर प्रभू में जुड़ी रहती है, जो मनुष्य सदा स्थिर प्रभू की सदा सिफति सलाह करते रहते हैं। सदा कायम रहने वाले परमात्मा के शबद में जिनका मन टिका रहता है, उन्होंने हर जगह सर्व-व्यापक परमात्मा को बसता पहिचान लिया है। गुरू की मति पे चल के उनकी सुरति अंतरात्मे टिकी रहती है।3। जो मनुष्य सदा स्थिर प्रभू को हर जगह देखता है। सदा स्थिर प्रभू ही जिसको हर जगह बोलता दिखता है। उसका शरीर (माया के हमलों से) अडोल रहता है उसका मन (विकारों के हमलों से) अडोल हो जाता है। सदा स्थिर प्रभू के सिमरन की ही वह शिक्षा व उपदेश ग्रहण करता है। सदा स्थिर प्रभू का रूप हो चुके उस (भाग्यशाली मनुष्य) की शोभा अटल हो जाती है। पर जिन मनुष्यों ने सदा स्थिर प्रभू को (यहां) भुलाए रखा, वह यहां भी दुखी रहे, और यहां से चले भी तो दुखी हो हो के।4। जिन लोगों ने सतिगुरू का पल्ला ना पकड़ा उनका संसार में आना व्यर्थ गया। उन्हें यम के दरवाजे पे बांध कर मारा कूटा जाता है, कोई उनकी चीख पुकार की ओर ध्यान नहीं देता। उन्होंने मानस जन्म व्यर्थ गवा दिया और फिर बार बार पैदा होते मरते रहते हैं।5। जो मनुष्य इस जगत को (विकारों की तपश में) जलता देख के जल्दी से गुरू की शरण जा पड़े, गुरू ने उनके दिल में सदा स्थिर प्रभू का नाम पक्का टिका दिया, उनको सदा स्थिर प्रभू के नाम में (सुंदर) जीवन मर्यादा में रहने की जाच सिखा दी। (हे भाई!) गुरू सदा कायम रहने वाला जहाज है। गुरू के शबद में जुड़ के संसार समुंद्र से पार लांघ जाते हैं।6। (जो गुरू की शरण से वंचित रहे वह) चौरासी लाख योनियों के चक्कर में भटकते फिरते हैं। गुरू के बगैर (इस चक्कर में से) निजात नहीं मिलती। पंडित लोग (शास्त्र आदि धर्म पुस्तकों को) पढ़ पढ़ के थक गए (गुरू की शरण के बिना चौरासी के चक्कर से खलासी प्राप्त ना कर सके, उन्होंने बल्कि) प्रभू के बिना औरों के प्यार में अपनी इज्जत गवा ली। जिस मनुष्य को गुरू ने अपना शबद सुना दिया (उसे निश्चय हो गया कि) सदा स्थिर प्रभू के बिना और कोई (जीव का रक्षक) नही है।7। (पर जीवों के भी क्या बस?) जिन जीवों को सदा स्थिर प्रभू ने अपनी याद में जोड़ा, वही सदा स्थिर प्रभू के नाम में लगे हैं। वही सदा ये साथ निभने वाली कार करते हैं। उन लोगों ने (माया की भटकना से बच के) अंतरात्मा में ठिकाना प्राप्त कर लिया है। वह लोग सदा स्थिर रहने वाले प्रभू की हजूरी में रहते हैं। हे नानक! परमात्मा की भक्ति करने वाले लोग सदा सुखी रहते हैं। वह सदा स्थिर प्रभू के नाम में सदा मस्त रहते हैं।8।17।8।25। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |