श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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सिरीरागु महला ५ ॥ जा कउ मुसकलु अति बणै ढोई कोइ न देइ ॥ लागू होए दुसमना साक भि भजि खले ॥ सभो भजै आसरा चुकै सभु असराउ ॥ चिति आवै ओसु पारब्रहमु लगै न तती वाउ ॥१॥ साहिबु निताणिआ का ताणु ॥ आइ न जाई थिरु सदा गुर सबदी सचु जाणु ॥१॥ रहाउ ॥ जे को होवै दुबला नंग भुख की पीर ॥ दमड़ा पलै ना पवै ना को देवै धीर ॥ सुआरथु सुआउ न को करे ना किछु होवै काजु ॥ चिति आवै ओसु पारब्रहमु ता निहचलु होवै राजु ॥२॥ जा कउ चिंता बहुतु बहुतु देही विआपै रोगु ॥ ग्रिसति कुट्मबि पलेटिआ कदे हरखु कदे सोगु ॥ गउणु करे चहु कुंट का घड़ी न बैसणु सोइ ॥ चिति आवै ओसु पारब्रहमु तनु मनु सीतलु होइ ॥३॥ कामि करोधि मोहि वसि कीआ किरपन लोभि पिआरु ॥ चारे किलविख उनि अघ कीए होआ असुर संघारु ॥ पोथी गीत कवित किछु कदे न करनि धरिआ ॥ चिति आवै ओसु पारब्रहमु ता निमख सिमरत तरिआ ॥४॥ {पन्ना 70}

उच्चारण: सिरी रागु महला ५॥ जा कउ मुसकल अति बणै ढोई कोइ न देय॥ लागू होए दुसमना साक भि भजि खले॥ सभो भजे आसरा चुकै सभ असराउ॥ चिति आवै ओस पारब्रहम लगै न तती वाउ॥१॥ साहिब, निताणिआ का ताण॥ आय न जाई थिर सदा गुर सबदी सच जाण॥१॥ रहाउ॥ जे को होवै दुबला नंग भुख की पीर॥ दमड़ा पलै ना पवै ना को देवै धीर॥ सुआरथ सुआउ न को करे ना किछु होवै काज॥ चिति आवै ओस पारब्रहम ता निहचल होवै राज॥२॥ जा कउ चिंता बहुत बहुत देही विआपै रोग॥ ग्रिसति कुटंबि पलेटिआ कदे हरख कदे सोग॥ गउण करे चहु कुंट का घड़ी न बैसण सोय॥ चिति आवै ओस पारब्रहम तन मन सीतल होय॥३॥ काम करोध मोहि वस कीआ किरपन लोभ पिआर॥ चारे किलविख उनि अघ कीए, होआ असुर संघार॥ पोथी गीत कवित किछु कदे न करन धरिआ॥ चिति आवै ओस पारब्रहम ता निमख सिमरत तरिआ॥४॥

पद्अर्थ: कउ = को। अति = बड़ी। मुसकलु = विपदा। ढोई = आसरा। लागू = मारू। भजि खले = दौड़ गए। चुकै = खत्म हो जाए। असराउ = आसरा। ओसु चिति = उसके चिक्त में।1।

आइ न जाई = ना वह पैदा होता है ना मरता है। थिर = कायम रहने वाला। सचु = सदा कायम रहने वाले परमात्मा को। जाणु = जान पहिचान डाल, गहरी सांझ बना।1। रहाउ।

दुबला = कमजोर। पीर = पीड़ा, दुख। धीर = धीरज, हौसला, धरवास। सुआरथु = अपनी गरज। सुआउ = स्वार्थ, मनोरथ। निहचलु = अटॅल।2।

देही = शरीर (को)। विआपै = जोर डाल लिए। ग्रिसति = गृहस्थ में। हरखु = खुशी। सोगु = चिंता। गउणु = गमन, भ्रमण। बैसणु = बैठना, आराम। सोइ = वह मनुष्य।3।

कामि = काम ने। मोहि = मोह ने। किरपन = कंजूस। लोभि = लोभ में। किलविख = पाप। उनि = उस ने। अघ = पाप। चारे किलविख = (ब्राहमण कैली घात कंञका, अणचारी का धान)। असुर संघारु = संघारने योग्य असुर। करनि = कान में। करनि धरिआ = सुना। निमख = (निमेष) आँख झपकने जितना समय।4।

अर्थ: मालिक प्रभू कमजोरों का सहारा है, वह ना पैदा होता है ना मरता है। सदा ही कायम रहने वाला है। (हे भाई!) गुरू के शबद में जुड़ के उस सदा स्थिर रहने वाले प्रभू के साथ गहरी सांझ बना।1। रहाउ।

जिस मनुष्य को (कोई) भारी विपदा आ पड़े (जिससे बचने के लिए) कोई मनुष्य उसको सहारा ना दे, वैरी उसके मारू बन जाएं। उसके साक संबंधी उससे दूर दौड़ जाएं, उसका हरेक किस्म का आसरा खत्म हो जाए, हरेक तरह का सहारा खत्म हो जाए। अगर उस (विपदा के मारे) मनुष्य के हृदय में परमात्मा याद आ जाए, तो उस का बाल भी बाँका नहीं होता।1।

जो कोई मनुष्य (ऐसा) कमजोर हो जाए (कि) भूख-नंग का दुख (उसे हर समय खाता रहे), यदि उसके पल्ले पैसा ना हो, कोई मनुष्य उसे हौसला ना दे; कोई मनुष्य उसकी जरूरतें पूरी ना करे, उससे अपना कोई काम सिरे ना चढ़ सके (ऐसी दुर्दशा में होते हुए भी) यदि परमात्मा उसके चिक्त में आ बसे, तो उसका अटॅल राज बन जाता है (भाव, उसकी आत्मिक अवस्था ऐसे बादशाहों वाली हो जाती है जिनका राज कभी नहीं डोले)।2।

जिस मनुष्य को हर समय बहुत चिंता बनी रहे, जिसके शरीर को (कोई ना कोई) रोग ग्रसे रखे, जो गृहस्थ (के जंजाल) में परिवार (के जंजाल) में (सदा) फंसा रहे, जिसे कभी कोई खुशी है और कभी कोई ग़म घेरे रखता है। जो मनुष्य सारी धरती पर इस तरह भटकता फिरता है कि उसे घड़ी भर भी बैठना नसीब नहीं होता। पर, यदि परमात्मा उसके चिक्त में आ बसे, तो उसका तन शांत हो जाता है उसका मन (संतोष से) शीतल हो जाता है।3।

यदि किसी मनुष्य को काम ने क्रोध ने मोह ने अपने वश में किया हो, यदि उस कंजूस का प्यार (सदा) लोभ में हो, यदि उसने (उन विकारों के वश हो के) चारों ही घोर पाप अपराध किये हों, यदि वह इतना बुरा हो गया हो कि उसे मार देना ही ठीक हो। यदि उसने कभी भी कोई धर्म पुस्तक कोई धर्म गीत कोई धार्मिक कविता सुनी ना हो, पर यदि परमात्मा उसके चिक्त में आ बसे, तो वह आँख झपकने जितने समय के लिए ही प्रभू का सिमरन करके (इन सभी विकारों के समुंद्र से) पार लांघ जाता है।4।

सासत सिम्रिति बेद चारि मुखागर बिचरे ॥ तपे तपीसर जोगीआ तीरथि गवनु करे ॥ खटु करमा ते दुगुणे पूजा करता नाइ ॥ रंगु न लगी पारब्रहम ता सरपर नरके जाइ ॥५॥ राज मिलक सिकदारीआ रस भोगण बिसथार ॥ बाग सुहावे सोहणे चलै हुकमु अफार ॥ रंग तमासे बहु बिधी चाइ लगि रहिआ ॥ चिति न आइओ पारब्रहमु ता सरप की जूनि गइआ ॥६॥ बहुतु धनाढि अचारवंतु सोभा निरमल रीति ॥ मात पिता सुत भाईआ साजन संगि परीति ॥ लसकर तरकसबंद बंद जीउ जीउ सगली कीत ॥ चिति न आइओ पारब्रहमु ता खड़ि रसातलि दीत ॥७॥ काइआ रोगु न छिद्रु किछु ना किछु काड़ा सोगु ॥ मिरतु न आवी चिति तिसु अहिनिसि भोगै भोगु ॥ सभ किछु कीतोनु आपणा जीइ न संक धरिआ ॥ चिति न आइओ पारब्रहमु जमकंकर वसि परिआ ॥८॥ किरपा करे जिसु पारब्रहमु होवै साधू संगु ॥ जिउ जिउ ओहु वधाईऐ तिउ तिउ हरि सिउ रंगु ॥ दुहा सिरिआ का खसमु आपि अवरु न दूजा थाउ ॥ सतिगुर तुठै पाइआ नानक सचा नाउ ॥९॥१॥२६॥ {पन्ना 70-71}

उच्चारण: सासत सिंम्रिति बेद चार मुखागर बिचरे॥ तपे तपीसर जोगीआ तीरथि गवन करे॥ खट करमा ते दुगुणे पूजा करता नाय॥ रंग न लगी पारब्रहम ता सरपर नरके जाय॥५॥ राज मिलक सिकदारीआं रस भोगण बिसथार॥ बाग सुहावे सोहणे चलै हुकम अफार॥ रंग तमासे बहु बिधी चाय लग रहिआ॥ चिति ना आयओ पारब्रहम ता सरप की जूनि गयआ॥६॥ बहुत धनाढ अचारवंत सोभा निरमल रीति॥ मात पिता सुत भाईआ साजन संग परीति॥ लसकर तरकस बंद बंद जीउ जीउ सगली कीत॥ चित न आयओ पारब्रहम ता खड़ रसातलि दीत॥७॥ कायआ रोग न छिद्र किछ ना किछकाढ़ा सोग॥ मिरत न आवी चित तिस अहिनिस भोगै भोग॥ सभ किछ कीतोन आपणा जीय न संक धरिआ॥ चित न आयओ पारब्रहम जम कंकर वस परिआ॥८॥ किरपा करे जिस पारब्रहम होवै साधू संग॥ जिउ जिउ ओह वधाईअै तिउ तिउ हरि सिउ रंग॥ दुहा सिरिआ का खसम आप अवर न दूजा थाउ॥ सतिगुर तुठै पायआ नानक सचा नाउ॥९॥१॥२६॥

पद्अर्थ: मुखागर = मुख+अग्र, ज़बानी। बिचरे = विचार के। तीरथि = तीर्थ पर। नाइ = नहा के। खटु = छे। सरपर = जरूर।5।

मिलक = मिलख, जमीन। अफार = अफरे हुए का, अहंकारी का। चाइ = चाव में।6।

अचारवंतु = ठीक रहनी बहिणी वाला। सुत = पुत्र। तरकसबंद लसकर = तर्कश बांधने वाले योद्धाओं के लश्कर। बंद = बंदना। जीउ जीउ = जी जी! खड़ि = ले जा के। रसातलि = रसातल में, नर्क में।7।

काइआ = शरीर। छिद्र = नुक्स, छेद, अैब। काढ़ा = फिक्र, चिंता। मिरतु = मृत्यु, मौत। अहि = दिन। निसि = रात। जीइ = जिंद में, दिल में। संक = शंका, झाका। कंकर = किंकर, नौकर। वसि = वश में।8।

ओह = वह (साधु संग)। रंगु = प्रेम । तुठै = प्रसन्न होने से।9।

अर्थ: यदि कोई मनुष्य चारों वेद, सारे शास्त्र और सारी ही स्मृतियों को मुंह ज़बानी (उचार के) विचार सकता हो। यदि वह तपस्वियों व जोगियों की तरह (हरेक) तीर्थ पर जाता हो, यदि वह (तीर्तों पर) स्नान करके (देवी देवताओं की) पूजा करता हो और (जाने माने) छे (धार्मिक) कर्मों से दोगुने (धार्मिक कर्म नित्य) करता हो; पर यदि परमात्मा (के चरणों) का प्यार उसके अंदर नहीं है, तो वह जरूर ही नर्क में जाता है।5।

यदि किसी मनुष्य को (मुल्कों के) राज मिल रहे हों, बेअंत जमीनों की मल्कियत मिली हो, यदि (उसकी हर जगह) सरदारियां बनी हुई हों, दुनिया के अनेकों पदार्तों के भोग भोगता हो। यदि उसके पास सुंदर सुंदर बाग हों, यदि (इन सारे पदार्तों की मल्कियत के कारण उस) अहंकारी (हुए) का हुकम हर कोई मानता हो, यदि वह दुनिया के कई किस्म के रंग तमाशों के चाव उल्लास में व्यस्त रहता हो। पर, यदि परमात्मा उसके चिक्त में कभी ना आया हो तो उस को सांप की जून में गया समझो।6।

यदि कोई मनुष्य बहुत धनवान हो, अच्छी रहिणी बहिणी वाला हो, शोभा वाला होऔर साफ-सुथरी जीवन मर्यादा वाला हो, यदि उसका अपने माँ-बाप भाईयों और सज्जन-मित्रों से प्रेम हे, यदि तर्कश बांधने वाले योद्धाओं के लश्कर उसे सलामें करते हों। सारी सृष्टि ही उसे ‘जी जी’ कहती हो। पर, यदि परमात्मा उसके चिक्त में नहीं बसता तो वह (आखिर) ले जा के नर्क में ही डाला जाता है।7।

यदि किसी मनुष्य के शरीर को कभी कोई रंग ना लगा हो, कोई किसी तरह की तकलीफ़ ना आई हो, किसी तरह की कोई चिंता फिक्र उसे ना हो। उसे कभी मौत (का फिक्र) याद ना आई हो। यदि वह दिन रात दुनिया के भोग भोगता रहता हो, यदि उसने दुनिया की हरेक चीज को अपना बना लिया हो, कभी उसके चिक्त में (अपनी मल्कियत के बारे में) कोई शंका ना उठा हो। पर, यदि परमात्मा उसके चिक्त में कभी नहीं आया तो वह अंत में यमराज के दूतों के वश पड़ता है।8।

जिस (बड़े भाग्यशाली) मनुष्य पर परमात्मा मेहर करता है, उसे संत संग प्राप्त होता है (और यह एक कुदरती नियम है कि) ज्यों ज्यों वह (सत्संग में बैठना) बढ़ाता जाता है त्यों त्यों परमात्मा से प्यार (भी बढ़ता जाता है)। (पर, दुनिया के मोह और प्रभू चरणों का प्यार इन) दोनों तरफ का मालिक परमात्मा स्वयं है (किसी को माया के मोह में फसाए रखता है, और किसी को गुरू चरणों का प्यार बख्शता है। उस प्रभू के बिनां जीवों के लिए) कोई और दूसरा सहारा नहीं है।

हे नानक! (जब प्रभू की मेहर हो तो वह गुरू मिलाता है, और) गुरू के प्रसन्न होने से सदा स्थिर रहने वाले प्रभू का नाम प्राप्त हो जाता है।9।1।26।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh