श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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सिरीरागु महला ५ घरु ५ ॥ जानउ नही भावै कवन बाता ॥ मन खोजि मारगु ॥१॥ रहाउ ॥ धिआनी धिआनु लावहि ॥ गिआनी गिआनु कमावहि ॥ प्रभु किन ही जाता ॥१॥ भगउती रहत जुगता ॥ जोगी कहत मुकता ॥ तपसी तपहि राता ॥२॥ मोनी मोनिधारी ॥ सनिआसी ब्रहमचारी ॥ उदासी उदासि राता ॥३॥ भगति नवै परकारा ॥ पंडितु वेदु पुकारा ॥ गिरसती गिरसति धरमाता ॥४॥ इक सबदी बहु रूपि अवधूता ॥ कापड़ी कउते जागूता ॥ इकि तीरथि नाता ॥५॥ निरहार वरती आपरसा ॥ इकि लूकि न देवहि दरसा ॥ इकि मन ही गिआता ॥६॥ घाटि न किन ही कहाइआ ॥ सभ कहते है पाइआ ॥ जिसु मेले सो भगता ॥७॥ सगल उकति उपावा ॥ तिआगी सरनि पावा ॥ नानकु गुर चरणि पराता ॥८॥२॥२७॥ {पन्ना 71}

उच्चारण: सिरीरागु महला ५ घरु ५॥ जानउ नही, भावै कवन बाता॥ मन, खोजि मारग॥१॥ रहाउ॥ धिआनी धिआन लावहि॥ गिआनी गिआन कमावहि॥ प्रभु किन ही जाता॥१॥ भगउती रहत जुगता॥ जोगी कहत मुकता॥ तपसी तपहि राता॥२॥ मोनी मोन धारी॥ सनिआसी ब्रहमचारी॥ उदासी उदासि राता॥३॥ भगति नवै परकारा॥ पंडित वेद पुकारा॥ गिरसती गिरसति धरमाता॥४॥ इकसबदी बहुरूपि अवधूता॥ कापड़ी कउते जागूता॥ इक तीरथि नाता॥५॥ निरहार वरती आपरसा॥ इक लूकि न देवहि दरसा॥ इक मन ही गिआता॥६॥ घाटि न किनही कहायआ॥ सभ कहते है पायआ॥ जिस मेले सो भगता॥७॥ सगल उकति उपावा॥ तिआगी सरनि पावा॥ नानक गुर चरणि पराता॥८॥२॥२७॥

पद्अर्थ: नही जानउ = मैं नही जानता। कवन बाता = कौन सी बात? भावै = ठीक लगती है। मन = हे मन! मारगु = रास्ता।1। रहाउ।

धिआनी = समाधिआं लगाने वाले। गिआनी = ज्ञानी, विद्वान। किन ही = किसी खास ने।1।

भगउती = वैश्नव भगत। जुगता = युक्ति (वर्त, तुलसी माला आदिक संजम)। तपहि = तप में ही। राता = मस्त।2।

मोनी = चुप रहने वाले। उदासि = उदासी भेख में।3।

नवै परकारा = नौ किस्म की (श्रवण, कीर्तन, सिमरन, चरण सेवा, अर्चन, बंदना, सख्य अथवा मित्रभाव, दास्य व दास भाव तथा अपना आप अर्पण करना)। गिरसति = गृहस्थ में। धरमात्मा = धर्म में मस्त।4।

इक सबदी = जो एक ही शब्द बोलते हैं, ‘अलख’ ‘अलख’ कहने वाले। बहुरूपि = बहरूपीए। अवधूता = नंगे। कापड़ी = खास किस्म का चोला आदि कपड़ा पहनने वाले। कउते = कवि, नाटक चेटक व स्वांग दिखा के लोगों को खुश करने वाले। जागूता = जागरा वाले, सदा जागते रहने वाले। इकि = अनेकों। तीरथि = तीर्थ पे।5।

निरहार = निर+आहार। निरहार बरती = भूखे रहने वाले। आपरसा = किसी से ना छूने वाले। लूकि = छुप के (रहने वाले)। मन ही = अपने मन में ही। गिआता = ज्ञाता, ज्ञानवान।6।

घाटि = घट, कमजोर। किन ही = किसी ने भी।7।

उकति = दलील। उपावा = उपाय। पावा = मैं पड़ा हूँ। पराता = पड़ा हूँ।8।

अर्थ: मुझे समझ नहीं कि परमात्मा को कौन सी बात ठीक लगती है। हे मेरे मन! तू (वह) रास्ता ढूँढ (जिस पे चलने से प्रभू प्रसन्न हो जाए)।1। रहाउ।

समाधियां लगाने वाले लोग समाधियां लगाते हैं। विद्वान लोग धर्म चर्चा करते हैं। पर परमात्मा को किसी विरले ने ही समझा है (भाव, इन तरीकों से परमात्मा नही मिलता)।1।

वैश्नव भक्त (वर्त, तुलसी माला, तीर्थ स्नान आदि) संजमों में रहते हैं। जोगी कहते हैं कि हम मुक्त हो गए हैं। तप करने वाले साधू तप (करने) में ही मस्त रहते हैं।2।

चुप साध के रखने वाले साधू चुप रहते हैं। संयासी (सन्यास में), ब्रह्मचारी (ब्रह्मचर्य में) और उदासी उदास भेष में मस्त रहते हैं।3।

(कोई कहता है कि) भक्ति नौ किस्मों की है। पण्डित वेद ऊँचा ऊँचा पढ़ता है। गृहस्ती गृहस्त-धर्म में मस्त रहता है।4।

अनेकों ऐसे हैं जो ‘अलख’ ‘अलख’ पुकारते हैं, कोई बहरूपीए हैं, कोई नांगे हैं। कोई खास किस्म का चोला आदि पहनने वाले हैं। कोई नाटक चेटक स्वांग आदि बना के लोगों को प्रसन्न करते हैं। कई ऐसे हैं जो रातें जाग के गुजारते हैं। एक ऐसे हैं जो (हरेक) तीर्थ पर स्नान करते हैं।5।

अनेकों ऐसे हैं जो भूखे ही रहते हैं। कई ऐसे हैं जो दूसरों के साथ छूते नहीं हैं (ताकि किसी को छूत ना लग जाए)। अनेकों ऐसे हैं जो (गुफा आदि में) छुप के (रहते हैं और किसी को) दर्शन नहीं देते। कई ऐसे हैं जो अपने मन में ही ज्ञानवान बने हुए हैं।6।

(इनमें से) किसी ने भी अपने आप को (किसी और से) कम नहीं कहलवाया। सभी यही कहते हैं कि हमने परमात्मा ढूंढ लिया है। पर (परमात्मा का) भक्त वही है जिसको (परमात्मा ने स्वयं अपने साथ) मिला लिया है।7।

पर, मैंने तो ये सारी दलीलें और सारे ही उपाय छोड़ दिए हैं और प्रभू की ही शरण पड़ा हूँ। नानक तो गुरू के चरणों में आ गिरा है।8।2।27।

ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ सिरीरागु महला १ घरु ३ ॥ जोगी अंदरि जोगीआ ॥ तूं भोगी अंदरि भोगीआ ॥ तेरा अंतु न पाइआ सुरगि मछि पइआलि जीउ ॥१॥ हउ वारी हउ वारणै कुरबाणु तेरे नाव नो ॥१॥ रहाउ ॥ तुधु संसारु उपाइआ ॥ सिरे सिरि धंधे लाइआ ॥ वेखहि कीता आपणा करि कुदरति पासा ढालि जीउ ॥२॥ परगटि पाहारै जापदा ॥ सभु नावै नो परतापदा ॥ सतिगुर बाझु न पाइओ सभ मोही माइआ जालि जीउ ॥३॥ सतिगुर कउ बलि जाईऐ ॥ जितु मिलिऐ परम गति पाईऐ ॥ सुरि नर मुनि जन लोचदे सो सतिगुरि दीआ बुझाइ जीउ ॥४॥ सतसंगति कैसी जाणीऐ ॥ जिथै एको नामु वखाणीऐ ॥ एको नामु हुकमु है नानक सतिगुरि दीआ बुझाइ जीउ ॥५॥

उच्चारण: (ੴ ) इक ओअंकार सतिगुर प्रसादि॥ सिरीरागु महला १ घरु ३॥ जोगी अंदर जोगीआ॥ तूं भोगी अंदर भोगीआ॥ तेरा अंत न पायआ सुरग मछ पइआल जीउ॥१॥ हउ वारी हउ वारणै कुरबाण तेरे नाव नो॥१॥ रहाउ॥ तुध संसार उपायआ॥ सिरे सिरि धंधे लायआ॥ वेखहि कीता आपणा कर कुदरत पासा ढाल जीउ॥२॥ परगट पाहारै जापदा॥ सभ नावै नो परतापदा॥ सतगुर बाझ न पायओ सभ मोही मायआ जाल जीउ॥३॥ सतगुर कउ बल जाईअै॥ जित मिलिअै परम गत पाईअै॥ सुरि नर मुनि जन लोचदे सो सतिगुर दीआ बुझाय जीउ॥४॥ सतसंगत कैसी जाणीअै॥ जिथै ऐको नाम वखाणीअै॥ ऐको नाम हुकम है नानक सतिगुर दीआ बुझाय जीउ॥५॥

पद्अर्थ: सुरगि = स्वर्ग में। मछि = मातृ लोक में। पइआलि = पाताल में।1।

नो = को।1। रहाउ।

सिरे सिरि = हरेक जीव के सिर पर। वेखहि = तू देखता है, तू संभाल करता है। करि कुदरति = कुदरत रच के। पासा ढालि = पासा ढाल के, चौपड़ की नरदें फेंक के।2।

परगटि पहारै = दिखाई देते पसारे में। नावै नो = (प्रभू के) नाम को। सभु = हरेक जीव। परतापदा = प्रताप है। सभ = सारी सृष्टि। जालि = जाल में।3।

बलि जाईअै = कुर्बान जाएं। कउ = से। जितु मिलिअै = जिस (गुरू) को मिलके। परम गति = सभसे ऊूंची आत्मिक अवस्था। सुरि = देवते। सतिगुरि = गुरू ने।4।

जिथै = जिस जगह पर।5।

अर्थ: हे प्रभू! मैं सदके हूँ तेरे नाम से। वारे जाता हूँ तेरे नाम पे। कुर्बान हूँ तेरे नाम पर।1। रहाउ।

(हे प्रभू!) जोगियों के अंदर (व्यापक हो के तू स्वयं ही) जोग कमा रहा है। माया के भोग भोगने वालों के अंदर भी तू ही पदार्थ भोग रहा है। स्वर्ग लोक में मातृ लोक में पाताल लोक में (बसते किसी भी जीव ने) तेरे गुणों का अंत नहीं पाया।1।

(हे प्रभू!) तूने ही जगत पैदा किया है। हरेक जीव पर (उनके किये कर्मों के लेख लिख के जीवों को तूने ही माया के) धंधों में फंसाया हुआ है। तू कुदरति रच के (जगत चौपड़ की) जीव-नरदें फेंक के तू स्वयं ही अपने रचे जगत की संभाल कर रहा है।2।

(हे भाई!) परमात्मा इस दिखाई देते जगत पसारे में (बसता) दिखाई दे रहा है। हरेक जीव उस प्रभू के नाम की लालसा रखता है। पर, गुरू की शरण के बगैर किसी को प्रभू का नाम नहीं मिला (क्योंकि) सारी सृष्टि माया के जाल में फंसी हुई है।3।

(हे भाई!) गुरू से कुर्बान जाना चाहिए (क्योंकि) उस (गुरू) के मिलने से ही सबसे ऊँची आत्मिक अवस्था हासिल की जा सकती है। (जिस नाम पदार्थ को) देवते, मनुष्य, मौनधारी लोग तरसते आ रहें हैं वह (पदार्थ) सत्गुरू ने समझा दिया है।4।

किस तरह के एकत्र को सत संगति समझना चाहिए? (सतसंगति वह है) जहाँ सिर्फ परमात्मा का नाम सलाहा जाता है। हे नानक! सतिगुरू ने ये बात समझा दी है कि (सतसंगति में) सिर्फ परमात्मा का नाम जपना ही (प्रभू का) हुकम है।5।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh