श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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इहु जगतु भरमि भुलाइआ ॥ आपहु तुधु खुआइआ ॥ परतापु लगा दोहागणी भाग जिना के नाहि जीउ ॥६॥ दोहागणी किआ नीसाणीआ ॥ खसमहु घुथीआ फिरहि निमाणीआ ॥ मैले वेस तिना कामणी दुखी रैणि विहाइ जीउ ॥७॥ सोहागणी किआ करमु कमाइआ ॥ पूरबि लिखिआ फलु पाइआ ॥ नदरि करे कै आपणी आपे लए मिलाइ जीउ ॥८॥ हुकमु जिना नो मनाइआ ॥ तिन अंतरि सबदु वसाइआ ॥ सहीआ से सोहागणी जिन सह नालि पिआरु जीउ ॥९॥ जिना भाणे का रसु आइआ ॥ तिन विचहु भरमु चुकाइआ ॥ नानक सतिगुरु ऐसा जाणीऐ जो सभसै लए मिलाइ जीउ ॥१०॥ {पन्ना 72}

उच्चारण: इह जगत भरम भुलायआ॥ आपहु तुध खुआयआ॥ परताप लगा दोहागनी भाग जिना के नाहि जीउ॥६॥ दोहागणी किआ नीसाणीआं॥ खसमहु घुथीआ फिरहि निमाणीआं॥ मैले वेस तिना कामणी दुखी रैण विहाय जीउ॥७॥ सोहागणी किआ करम कमायआ॥ पूरबि लिखिआ फल पायआ॥ नदरि करे कै आपणी आपे लऐ मिलाय जीउ॥८॥ हुकम जिना नो मनायआ॥ तिन अंतरि सबद वसायआ॥ सहीआं से सोहागणी जिन सह नालि पिआर जीउ॥९॥ जिना भाणे का रस आयआ॥ तिन, विचहु भरम चुकायआ॥ नानक सतिगुर अैसा जाणीअै जो सभसै लऐ मिलाय जीउ॥१०॥

पद्अर्थ: भरमि = माया की भटकना में (डाल के)। भुलाइआ = कुमार्ग पर डाला है। आपहु तुधु = तू अपने आप से (हे प्रभू!)। खुआइआ = वंचित कर दिया है। परतापु = प्रताप, दुख।6।

खसमहु = खसम से। वेस = कपड़े। तिना कामणी = उन सि्त्रयों के। रैणि = रजनि, जिंदगी की रात। विहाइ = बीतती है।7।

पूरबि = पहले जनम में। करे कै = कर के।8।

सहीआं = सहेलियां, सत्संगी। सह नालि = खसम प्रभू के साथ।9।

रसु = आनंद। भरमु = भटकना। सभसै = सभ जीवों को।10।

अर्थ: ये जगत माया की भटकना में पड़ के जीवन के सही राह से भटक के कुमार्ग पर जा रहा है। (पर, जीवों के भी क्या वश? हे प्रभू!) तूने स्वयं ही (जगत को) अपने आप से विछोड़ा हुआ है। जिन दुर्भागी जीव सि्त्रयों के अच्छे भाग्य नहीं होते, उनको (माया के मोह में फंसने के कारण आत्मिक) दुख लगा हुआ है।6।

दुर्भाग्यशाली जीव सि्त्रयों के क्या लक्षण हैं? (दुर्भाग्यशाली जीव सि्त्रयां वह हैं) जो खसम प्रभू से वंचित हैं और बेआसरा हो के भटक रही हैं। ऐसी जीव सि्त्रयों के चेहरे भी विकारों की मैल के साथ भ्रष्ट हुए दिखाई देते हैं, उनकी जिंदगी-रूप रात दुखों में ही व्यतीत होती है।7।

जो जीव-सि्त्रयां भाग्यशाली कहलाती हैं उन्होंने कौन सा (अच्छा काम) किया हुआ है? उन्होंने पिछले जन्म में की नेक कमायी के लिखे संस्कारों के तौर पर अब परमात्मा का नाम फल प्राप्त कर लिया है। परमात्मा अपनी मेहर की निगाह करके खुद ही उनको अपने चरणों में मिला लेता है।8।

परमात्मा जिन जीव-सि्त्रयों को अपना हुकम मानने के लिए प्रेरता है, वह अपने दिल में परमात्मा की सिफत सलाह की बाणी बसाती हैं। वही जीव सहेलियां भाग्यशाली होती हैं, जिनका अपने पति प्रभू के साथ प्यार बना रहता है।9।

जिन मनुष्यों को परमात्मा की रजा में चलने का आनंद आ जाता है, वे अंदर से माया वाली भटकना दूर कर लेते हैं (पर यह मेहर सतिगुरू की ही है)। हे नानक! गुरू ऐसा (दयाल) है कि वह (शरण आए) सभ जीवों को प्रभू चरणों में मिला देता है।10।

सतिगुरि मिलिऐ फलु पाइआ ॥ जिनि विचहु अहकरणु चुकाइआ ॥ दुरमति का दुखु कटिआ भागु बैठा मसतकि आइ जीउ ॥११॥ अम्रितु तेरी बाणीआ ॥ तेरिआ भगता रिदै समाणीआ ॥ सुख सेवा अंदरि रखिऐ आपणी नदरि करहि निसतारि जीउ ॥१२॥ सतिगुरु मिलिआ जाणीऐ ॥ जितु मिलिऐ नामु वखाणीऐ ॥ सतिगुर बाझु न पाइओ सभ थकी करम कमाइ जीउ ॥१३॥ हउ सतिगुर विटहु घुमाइआ ॥ जिनि भ्रमि भुला मारगि पाइआ ॥ नदरि करे जे आपणी आपे लए रलाइ जीउ ॥१४॥ तूं सभना माहि समाइआ ॥ तिनि करतै आपु लुकाइआ ॥ नानक गुरमुखि परगटु होइआ जा कउ जोति धरी करतारि जीउ ॥१५॥

उच्चारण: सतिगुर मिलिअै फल पायआ॥ जिन, विचहु अहकरण चुकायआ॥ दुरमति का दुख कटिआ भाग बैठा मसतकि आय जीउ॥११॥ अंम्रित तेरी बाणीआं॥ तेरिआं भगतां रिदै समाणीआं॥ सुख सेवा अंदरि रखिअै आपणी नदर करहि निसतार जीउ॥१२॥ सतिगुर मिलिआ जाणीअै॥ जित मिलिअै नाम वखाणीअै॥ सतिगुर बाझ न पायओ सभ थकी करम कमाय जीउ॥१३॥ हउ सतिगुर विटहु घुमायआ॥ जिन भ्रम भुला मारग पायआ॥ नदरि करे जे आपणी आपे लऐ रलाय जीउ॥१४॥ तूं सभना माहि समायआ॥ तिनि करतै आप लुकायआ॥ नानक गुरमुख परगट होयआ जा कउ जोति धरी करतार जीउ॥१५॥

पद्अर्थ: सतिगुरि मिलिअै = यदि सत्गुरू मिल जाए। जिनि = जिस ने। अहकरण = अहंकार। मसतकि = माथे पर।11।

अंम्रितु = अमृत, आत्मिक जीवन देने वाला रस। रिदै = हृदय में। अंदरि रखिअै = यदि दिल में रखा जाए। सुखसेवा = सुखदायी सेवा। करहि = करता है। निसतारि = तू पार लंघाता है।12।

पाइओ = पाया, मिला। करम = (तीर्थ, वर्त आदि धार्मिक) कर्म।13।

विटहु = में से। घुमाइआ = कुर्बान। जिनि = जिस ने। भ्रमि = भटकना में (पड़ के)। भुला = कुमार्ग पर पड़ा हुआ। मारगि = रास्ते पर।14।

तिनि करतै = उस करतार ने। आपु = अपने आप को। गुरमुखि = गुरू की शरण पड़ने से। जा कउ = जिस को। करतारि = करतार ने।15।

अर्थ: जिस मनुष्य ने अपने अंदर से अहंकार दूर कर लिया, उसने गुरू की शरण पड़ कर परमात्मा का नाम रस प्राप्त कर लिया। उस मनुष्य के अंदर से बुरी मति का दुख काटा जाता है, उसके माथे के भाग्य जाग पड़ते हैं।11।

(हे प्रभू!) तेरी सिफत सलाह की बाणी (मानो) आत्मिक जीवन देने वाला जल है, ये बाणी तेरे भगतों के दिल में (हर वक्त) टिकी रहती है। तेरी सुखदायी सेवा भक्ति भक्तों के अंदर टिकने के कारण तू उन पर अपनी मेहर की निगाह करता है और उनको पार लंघा लेता है।12।

तभी (किसी भाग्यशाली को) गुरू से मिला हुआ समझना चाहिए जब गुरू के मिलने से परमात्मा का नाम सिमरा जाए। गुरू की शरण पड़े बिना (परमात्मा का नाम) नहीं मिलता। (गुरू का आसरा छोड़ के) सारी दुनिया (तीर्थ वर्त आदि और और निहित धार्मिक) कर्म कर के खप जाती है।13।

मैं (तो) गुरू पर से कुर्बान हूँ, जिसने भटक रहे कुमार्ग पर पड़े जीव को सही रास्ते पर डाला है। अगर गुरू अपनी मेहर की निगाह करे, तो वह स्वयं ही (प्रभू चरणों में) जोड़ देता है।14।

(हे प्रभू!) तू सारे जीवों में व्यापक है। (हे भाई! सारे जीवों में व्यापक होते हुए भी) उस करतार ने अपने आप को गुप्त रखा हुआ है। हे नानक! जिस मनुष्य के अंदर गुरू के द्वारा करतार ने अपनी ज्योति प्रगट की हुई है, उसके अंदर करतार प्रगट हो जाता है।15।

आपे खसमि निवाजिआ ॥ जीउ पिंडु दे साजिआ ॥ आपणे सेवक की पैज रखीआ दुइ कर मसतकि धारि जीउ ॥१६॥ सभि संजम रहे सिआणपा ॥ मेरा प्रभु सभु किछु जाणदा ॥ प्रगट प्रतापु वरताइओ सभु लोकु करै जैकारु जीउ ॥१७॥ मेरे गुण अवगन न बीचारिआ ॥ प्रभि अपणा बिरदु समारिआ ॥ कंठि लाइ कै रखिओनु लगै न तती वाउ जीउ ॥१८॥ मै मनि तनि प्रभू धिआइआ ॥ जीइ इछिअड़ा फलु पाइआ ॥ साह पातिसाह सिरि खसमु तूं जपि नानक जीवै नाउ जीउ ॥१९॥ {पन्ना 72}

उच्चारण: आपे खसम निवाजिआ॥ जीउ पिंडु दे साजिआ॥ आपणे सेवक की पैज रखीआ दुइ कर मसतक धार जीउ॥१६॥ सभ संजम रहे सिआणपा॥ मेरा प्रभु सभ किछ जाणदा॥ प्रगट प्रताप वरतायओ सभ लोक करै जैकार जीउ॥१७॥ मेरे गुण अवगन न बीचारिआ॥ प्रभ अपणा बिरद समारिआ॥ कंठ लाय के रखिओन लगै न तती वाउ जीउ॥१८॥ मै मन तन प्रभू धिआयआ॥ जीअ इछिअड़ा फल पायआ॥ साह पातिसाह सिर खसम तूं जप नानक जीवै नाउ जीउ॥१९॥

पद्अर्थ: खसमि = खसम ने। निवाजिआ = मेहर की, बड़प्पन दिया। जिउ = जिंद, जीवात्मा। पिंडु = शरीर। दे = दे कर। पैज = लाज, इज्जत। दुइ कर = दोनों हाथ। धारि = रख के।16।

संजम = इन्द्रियों को वश में करने के साधन। सभि = सारे। रहे = रह गए, असफल हो गए। सभु लोकु = सारा जगत।17।

प्रभि = प्रभू ने। बिरदु = मूल स्वभाव। समारिआ = चेते रखा, याद रखा। कंठि = गले से। रखिओनु = उस ने रक्षा की।18।

मनि = मन में, मन से। तनि = तन में, तन से। जीअ = जीअ में। जीअ इछिअड़ा = जिसकी जीअ में इच्छा की। सिरि = सिर पर।19।

अर्थ: पति प्रभू ने (अपने सेवक को) स्वयं ही आदर मान दिया है, जिंद और शरीर दे के खुद ही उसको पैदा किया है। अपने दोनों हाथ सेवक के सिर पर रख कर खसम प्रभू ने खुद ही उसकी लाज रखी है (और उसको विकारों से बचाया है)।16।

इन्द्रियों को वश में करने के सारे प्रयत्न और इस तरह की और सभी सियानप भरे निहित धार्मिक कर्म सेवक को करने की जरूरत नहीं पड़ती। प्यारा प्रभू सेवक की हरेक आवश्यक्ता स्वयं जानता है। परमात्मा अपने सेवक का तेज प्रताप प्रगट कर देता है। सारा जगत उसकी जै जैकार करता है।17।

प्रभू ने ना मेरे गुणों का ख्याल किया है, ना ही मेरे अवगुणों की परवाह की है। प्रभू ने तो सिर्फ अपना दया वाला मूल स्वभाव ही चेते रखा है। उसने मुझे अपने गले से लगा के (विकारों से) बचा लिया है, कोई दुख विकार मेरा बाल भी बाँका नही कर सके।18।

मैंने अपने मन में प्रभू को सिमरा है, अपने हृदय में परमात्मा को ध्याया है। मुझे वह नाम-फल मिल गया है, जिसकी मैं सदा अपने जी में इच्छा रखा करता था।

हे प्रभू! तू सारे शाहों के सिर पर, तू बादशाहों के सिर पर मालिक है। हे नानक! (बड़े भाग्यों वाला मनुष्य) प्रभू का नाम जप के आत्मिक जीवन प्राप्त कर लेता है।19।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh