श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 73 तुधु आपे आपु उपाइआ ॥ दूजा खेलु करि दिखलाइआ ॥ सभु सचो सचु वरतदा जिसु भावै तिसै बुझाइ जीउ ॥२०॥ गुर परसादी पाइआ ॥ तिथै माइआ मोहु चुकाइआ ॥ किरपा करि कै आपणी आपे लए समाइ जीउ ॥२१॥ गोपी नै गोआलीआ ॥ तुधु आपे गोइ उठालीआ ॥ हुकमी भांडे साजिआ तूं आपे भंनि सवारि जीउ ॥२२॥ जिन सतिगुर सिउ चितु लाइआ ॥ तिनी दूजा भाउ चुकाइआ ॥ निरमल जोति तिन प्राणीआ ओइ चले जनमु सवारि जीउ ॥२३॥ तेरीआ सदा सदा चंगिआईआ ॥ मै राति दिहै वडिआईआं ॥ अणमंगिआ दानु देवणा कहु नानक सचु समालि जीउ ॥२४॥१॥ {पन्ना 73} उच्चारण: तुध आपे आप उपायआ॥ दूजा खेल कर दिखलायआ॥ सभ सचो सच वरतदा जिस भावै तिसै बुझाय जीउ॥२०॥ गुर परसादी पायआ॥ तिथै मायआ मोह चुकायआ॥ किरपा करि कै आपणी आपे लऐ समाय जीउ॥ गोपी नै गोआलीआ॥ तुध आपे गोय उठालीआ॥ हुकमी भांडे साजिआ तूं आपे भंन सवारि जीउ॥२२॥ जिनी सतिगुर सिउ चित लायआ॥ तिनी दूजा भाउ चुकायआ॥ निरमल जोति तिन प्राणीआं ओय चले जनम सवार जीओ॥२३॥ तेरीआं सदा सदा चंगिआईआं॥ मै रात दिहै वडिआईआं॥ अणमंगिआं दान देवणा कहु नानक सच समालि जीउ॥२४॥१॥ पद्अर्थ: आपै = स्वयं ही। आपु = अपने आप को। दूजा खेलु = अपने से अलग तमाशा। करि = कर के, पैदा कर के। सभु = हर जगह। सचो सचु = सदा स्थिर रहने वाला परमात्मा ही। भावै = चाहता है।20। गुरपरसादी = गुरू की कृपा से। तिथै = उस (हृदय) में। चुकाइआ = दूर कर दिया।21। नै = नदी,यमुना नदी। गोआलीआ = गोपाल, गाऐं चराने वाला। गोपी = गुआलनि। गोइ = धरती ।22। (नोट: यहाँ कृष्ण जी के पर्वत उठाने की ओर इशारा है)। जिन = जिन्होंने (‘जिन’ बहुवचन है। ‘जिनि’ एकवचन है)। भाउ = प्यार। निरमल = विकारों की मैल से रहित। ओइ = वह लोग (‘ओइ’ बहुवचन है)। सवारि = सवार के, सुंदर बन के।23। दिहै = दिन में। वडिआईआं = उस्तति, सालाहनाएं। सचु समालि = सदा स्थिर रहने वाले प्रभू को याद रख।24। अर्थ: हे प्रभू! तूने अपने आप को (जगत रूप में) स्वयं ही प्रगट किया है। (ये तुझसे अलग दिखाई देता) माया का जगत तमाशा तूने स्वयं ही बना के दिखा दिया है। (हे भाई!) हर जगह सदा स्थिर रहने वाला परमात्मा ही मौजूद है। जिस पर वह मेहर करता है, उसको (यह भेद) समझा देता है।20। जिस मनुष्य ने गुरू की कृपा से (परमात्मा की सर्व व्यापकता का भेद) पा लिया है, उसके हृदय में से प्रभू ने माया का मोह दूर कर दिया है। प्रभू अपनी मेहर करके खुद ही उसको अपने में लीन कर लेता है।21। हे प्रभू! तू ही (गोकुल की) गोपी है, तू स्वयं ही (यमुना) नदी है, तू स्वयं ही (गोकुल का) ग्वाला है। तूने स्वयं ही (कृष्ण रूप हो के) धरती (गौवर्धन पर्वत) उठाई थी। तू अपने हुकम में स्वयं ही जीवों के शरीर सजाता है, तू खुद ही नाश करता है, तू खुद ही पैदा करता है।22। जिन (भाग्यशाली) मनुष्यों ने गुरू के साथ प्यार डाला है, उन्होंने अपने अंदर से माया का प्यार दूर कर लिया है। उन लोगों की आत्मिक ज्योति पवित्र हो जाती है। वह अपना जन्म स्वच्छ करके (जगत से) जाते हैं।23। हे प्रभू! तेरे सदा कायम रहने वाले गुण (तेरी मेहर से) मैं दिन रात सलाहता हूँ। हे नानक! कह– प्रभू (जीवों के) मांगने के बिनां ही हरेक दात बख्शने वाला है। (हे भाई!) उस सदा स्थिर रहने वाले प्रभू को अपने हृदय में बसाए रख।24।1। सिरीरागु महला ५ ॥ पै पाइ मनाई सोइ जीउ ॥ सतिगुर पुरखि मिलाइआ तिसु जेवडु अवरु न कोइ जीउ ॥१॥ रहाउ ॥ गोसाई मिहंडा इठड़ा ॥ अम अबे थावहु मिठड़ा ॥ भैण भाई सभि सजणा तुधु जेहा नाही कोइ जीउ ॥१॥ तेरै हुकमे सावणु आइआ ॥ मै सत का हलु जोआइआ ॥ नाउ बीजण लगा आस करि हरि बोहल बखस जमाइ जीउ ॥२॥ हउ गुर मिलि इकु पछाणदा ॥ दुया कागलु चिति न जाणदा ॥ हरि इकतै कारै लाइओनु जिउ भावै तिंवै निबाहि जीउ ॥३॥ तुसी भोगिहु भुंचहु भाईहो ॥ गुरि दीबाणि कवाइ पैनाईओ ॥ हउ होआ माहरु पिंड दा बंनि आदे पंजि सरीक जीउ ॥४॥ हउ आइआ साम्है तिहंडीआ ॥ पंजि किरसाण मुजेरे मिहडिआ ॥ कंनु कोई कढि न हंघई नानक वुठा घुघि गिराउ जीउ ॥५॥ {पन्ना 73} उच्चारण: सिरीरागु महला ५॥ पै पाय मनाई सोय जीउ॥ सतिगुर पुरख मिलायआ तिस जेवड अवर न कोय जीउ॥१॥ रहाउ॥ गोसाई मिहंडा इठड़ा॥ अंम अबे थावहु मिठड़ा॥ भैण भाई सभ सजणा तुध जेहा नाही कोय जीउ॥१॥ तेरै हुकमै सावण आयआ॥ मै सत का हल जोआयआ॥ नाउ बीजण लगा आस करि हरि बोहल बखस जमाय जीउ॥२॥ हउ गुर मिल इक पछाणदा॥ दुया कागलु चित न जाणदा॥ हरि इकतै कारै लाइओन जिउ भावै तिवै निबाहि जीउ॥३॥ तुसी भोगिहु भुंचहु भाईहो॥ गुरि दीबाण कवाय पैनाईओ॥ हउ होआ माहर पिंड दा बंनि आदे पंज सरीक जीउ॥४॥ हउ आयआ सामै् तिहंडीआ॥ पंज किरसाण मुजेरे मिहडिआ॥ कंनु कोई कढ न हंघई नानक वुठा घुघि गिराउ जीउ॥५॥ पद्अर्थ: पै = पड़ के, गिर के। पाइ = पैरों पे। मनाई = मैं मनाता हूँ। पुरखि = पुरख ने। सतिगुर पुरखि = सत्गुरू पुरख ने।1। रहाउ। गोसाई = सृष्टि का साईं, परमात्मा। मिहंडा = मेरा। इठड़ा = बहुत प्यारा। अंम = अम्मा, माँ। अबा = अॅबा, पिता। थावहु = से। सभि = सारे।1। हुकमै = हुकम में। सावणु = नाम वरखा करने वाला गुरू मिलाप। सत = उच्च आचरण। करि = कर के। बोहल = अन्न का ढेर। बोहल बख्श = बख्शिश का बोहल।2। हउ = मैं। गुर मिलि = गुरू को मिल के। दुया कागलु = दूसरा कागज, परमात्मा के नाम के बिना और कोई लेखा। चिति = चित्रण। चिति न जाणदा = चित्रना नहीं जानता। इकतै कारै = एक ही कार्य में। लाइओनु = उस ने लगाया है।3। भाईहो = हे भाईयो! गुरि = गुर ने। दीबाणि = दरबार में। कवाइ = पोशाक, सिरोपा। माहरु = चौधरी। पिंड दा = शरीर का। बंनि = बांध के। आदे = ले के आए। सरीक = शरीका करने वाले, विरोधी।4। सामै = शरण में। तिहंडीआ = तेरी। मुजेरे = मुजारे। मिहडिआ = मेरे। कंनु = कान, कांधा। हंघई = सकता। वुठा = बस पड़ा है। घुघि = संघनी आबादी वाला। गिराउ = ग्राम, गांव।5। अर्थ: (हे भाई!) मैं (गुरू के) चरणों में लग के उस (परमात्मा) को प्रसन्न करने का प्रयत्न करता हूँ। गुरू पुरुष ने (मुझे) परमात्मा मिलाया है। (अब मुझे समझ आई है कि) उस परमात्मा के बराबर और कोई नहीं है।1। रहाउ। सृष्टि का मालिक मेरा (प्रभू) बहुत प्यारा है। (मुझे अपने) माता-पिता से भी ज्यादा मीठा लग रहा है। (हे प्रभु!) बहिन भाई व अन्य सारे साक-संबंधी (मैंने देख लिए हैं), तेरे बराबर का और कोई (हित करने वाला) नहीं है।1। (हे प्रभू!) तेरे हुकम में ही (गुरू से मिलाप हुआ। मानो, मेरे वास्ते) सावन का महीना आ गया। (गुरू की कृपा से) मैंने उच्च आचरण बनाने का हल जोत दिया। मैं यह आस करके तेरा नाम (अपने हृदय रूपी खेत में) बीजने लग पड़ा कि तेरी बख्शिशों का बोहल (अन्न का ढेर) इकट्ठा हो जाएगा।2। (हे प्रभू!) गुरू को मिल के मैंने सिर्फ तेरे नाम के साथ सांझ डाली है। मैं तेरे नाम के बिनां और कोई लेखा लिखना नहीं जानता। हे हरी! तूने मुझे (अपना नाम सिमरने के ही) एक ही काम में जोड़ दिया है। अब जैसे तेरी रजा हो, इस काम को सरअंजाम दे।3। हे मेरे सत्संगी भाईयो! तुम भी (गुरू की शरण में आ के) प्रभू के नाम रस का आनंद लो। मुझे गुरू ने परमात्मा की दरगाह में सिरोपा (आदर का प्रतीक कपड़ा) पहिना दिया है (आदर दिलवा दिया है, क्योंकि) मैं अब अपने शरीर का चौधरी (मुखिया) बन गया हूँ, (गुरू की मेहर से) मैंने (कामादिक) पाँचों ही विरोध करने वालों को ला बैठाया है।4। हे नानक! (कह, हे मेरे प्रभू!) मैं तेरी शरण आया हूँ। (तेरी मेहर से) पाँचों (ज्ञानेन्द्रियां) किसान मेरे मुजारे बन गए हैं (मेरे कहे में चलते हैं)। कोई (भी ज्ञानेंद्रिय रूपी किसान मुझसे आकी हो के) सिर नहीं उठा सकता। अब मेरा शरीर रूपी नगर (भले गुणों की) संघनी आबादी से बस गया है।5। हउ वारी घुमा जावदा ॥ इक साहा तुधु धिआइदा ॥ उजड़ु थेहु वसाइओ हउ तुध विटहु कुरबाणु जीउ ॥६॥ हरि इठै नित धिआइदा ॥ मनि चिंदी सो फलु पाइदा ॥ सभे काज सवारिअनु लाहीअनु मन की भुख जीउ ॥७॥ मै छडिआ सभो धंधड़ा ॥ गोसाई सेवी सचड़ा ॥ नउ निधि नामु निधानु हरि मै पलै बधा छिकि जीउ ॥८॥ मै सुखी हूं सुखु पाइआ ॥ गुरि अंतरि सबदु वसाइआ ॥ सतिगुरि पुरखि विखालिआ मसतकि धरि कै हथु जीउ ॥९॥ मै बधी सचु धरम साल है ॥ गुरसिखा लहदा भालि कै ॥ पैर धोवा पखा फेरदा तिसु निवि निवि लगा पाइ जीउ ॥१०॥ सुणि गला गुर पहि आइआ ॥ नामु दानु इसनानु दिड़ाइआ ॥ सभु मुकतु होआ सैसारड़ा नानक सची बेड़ी चाड़ि जीउ ॥११॥ {पन्ना 73-74} उच्चारण: हउ वारी घुंमा जावदा॥ इक साहा तुध धिआयदा॥ उजड़ थेह वसायओ हउ तुध विटहु कुरबाण जीउ॥६॥ हरि इठै नित धिआइदा॥ मनि चिंदी सो फल पायदा॥ सभे काज सवारिअन लाहीअन मन की भुख जीउ॥७॥ मै छडिआ सभो धंधड़ा॥ गोसाई सेवी सचड़ा॥ नउ निध नाम निधान हरि, मै पलै बधा छिकि जीउ॥८॥ मै सुखी हूँ सुख पायआ॥ गुर अंतर सबद वसायआ॥ सतिगुरि पुरखि विखालिआ मसतकि धरि कै हथ जीउ॥९॥ मै बधी सभ धरमसाल है॥ गुरसिखा लहदा भालि कै॥ पैर धोवा पखा फेरदा तिस निवि निवि लगा पाय जीउ॥१०॥ सुणि गला गुर पहि आयआ॥ नाम दान इसनान दिढ़ायआ॥ सभ मुकत होआ सैसारड़ा नानक सची बेड़ी चाढ़ि जीउ॥११॥ पद्अर्थ: हउ = मैं। घुंमा जावदा = कुर्बान जाता हूँ। साहा = हे शाह! तुधु = तूझे। थेहु = गिरा हुआ गाँव, वह शरीर रूपी गाँव जिसमें से सारे भले गुण खत्म हो चुके हैं।6। इठै = प्यारे को। मनि = मन में। चिंदी = चितवता हूँ। सभे काज = सार काम। सवारिअनु = उसने सवार दिए हैं। लाहीअनि = उसने उतार दी है।7। सभो = सारा। धंधड़ा = माया वाली दौड़ भाग। सेवी = मैं सिमरता हूँ। सचड़ा = सदा स्थिर रहने वाला। नउ निधि = जगत के नौ ही खजाने। निधान = खजाना। छिकि = कस के, खींच के।8। सुखी हूँ सुखु = सुख ही सुख, सबसे श्रेष्ठ सुख। गुरि = गुरू ने। सतिगुरि = सतिगुर ने। पुरखि = पुरख ने। मसतकि = मस्तक पर।9। धरमसाल = धर्म कमाने की जगह। सचु = सदा स्थिर प्रभू का सिमरन। बधी = बनायी है। लहदा = मिलता हूँ। तिसु = उस (गुरसिख) को (जो मुझे मिलता है)। निवि = झुक के।10। सुणि = सुन के। पहि = पास। दानु = नाम का दान, औरों को नाम जपाना। इसनानु = आत्मिक स्नान, पवित्रता। मुकतु = विकारों से आजाद। सैसारड़ा = बिचारा संसार। सची बेड़ी = सदा स्थिर प्रभू के नाम की बेड़ी में। चाढ़ि = चढ़ के।11। अर्थ: (हे मेरे शाह-प्रभू!) मैं तुझसे सदके जाता हूँ, मैं तूझसे कुर्बान जाता हूँ। में सिर्फ तुझे ही अपने दिल में टिकाए बैठा हूँ। (हे मेरे शाह प्रभू!) मैं तुझसे कुर्बान जाता हूँ तूने मेरा उजड़ा हुआ थेह हुआ हृदय-घर बसा दिया है।6। (हे भाई!) मैं अब सदा सदा प्यारे हरि को ही सिमरता हूँ। अपने मन में मैं जो इच्छा धारे बैठा था, वह नाम फल अब मैंने पा लिया है। उस (प्रभू) ने मेरे सारे काम सवार दिए हैं, मेरे मन की माया वाली भूख उसने दूर कर दी है।7। (हे भाई! सिमरन की बरकति से) मैंने दुनिया वाला सारा लालच छोड़ दिया है। मैं सदा स्थिर रहने वाले सृष्टि के मालिक प्रभू को ही सिमरता रहता हूँ। (अब) परमात्मा का नाम खजाना ही (मेरे वास्ते) जगत के नौ खजाने हैं, मैंने उस नाम धन को अपने (हृदय के) पल्ले में कस के बांध लिया है।8। गुरू ने मेरे दिल में परमात्मा की सिफत-सालाह का शबद बसा दिया है (उसकी बरकति से) मैं (दुनिया के) सारे सुखों से बढ़िया उत्तम आत्मिक सुख ढूँढ लिया है। गुरू पुरख ने सिर पर अपना (मेहर भरा) हाथ रख के मुझे (परमात्मा का) दर्शन करा दिया है।9। गुरू के सिखों को मैं (यत्न से) ढूँढ के मिलता हूँ। उनकी संगति में बैठना मैंने धर्मशाला बनायी है। जहाँ मैं सदा स्थिर प्रभू को सिमरता हूँ। (जो गुरसिख मिल जाए) मैं (जरूरत के मुताबिक) उसके पैर धोता हूं, उसको पंखे से खुद हवा देता हूँ। मैं पूरे अदब से उसकी पैरीं लगता हूँ।10। हे नानक! गुरू (जिस जिस को) सदा स्थिर प्रभू के सिमरन की बेड़ी में बैठाता है वह सारा जगत ही विकारों से बचता जाता है - ये बात सुन के मैं भी गुरू के पास आ गया हूँ, और उसने मेरे हृदय में यह बैठा दिया है किनाम सिमरना, औरों को सिमरन की ओर प्रेरित करना, पवित्र जीवन बनाना- यही है सही जीवन का राह।11। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |