श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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दूजै पहरै रैणि कै वणजारिआ मित्रा विसरि गइआ धिआनु ॥ हथो हथि नचाईऐ वणजारिआ मित्रा जिउ जसुदा घरि कानु ॥ हथो हथि नचाईऐ प्राणी मात कहै सुतु मेरा ॥ चेति अचेत मूड़ मन मेरे अंति नही कछु तेरा ॥ जिनि रचि रचिआ तिसहि न जाणै मन भीतरि धरि गिआनु ॥ कहु नानक प्राणी दूजै पहरै विसरि गइआ धिआनु ॥२॥ {पन्ना 75}

उच्चारण: दूजै पहरै रैणि कै, वणजारिआ मित्रा, विसरि गयआ धिआन॥ हथो हथि नचाईअै वणजारिआ मित्रा जिउ जसुदा घरि कान॥ हथो हथि नचाईअै प्राणी मात कहै सुत मेरा॥ चेति अचेत मूढ़ मन मेरे अंति नही कछ तेरा॥ जिनि रचि रचिआ तिसहि न जाणै मन भीतरि धरि गिआन॥ कहु नानक प्राणी दूजै पहरै विसरि गयआ धिआन॥२॥

पद्अर्थ: हथो हथि = हरेक (संबंधित) के हाथ में। जसुदा घरि = यशोदा के घर में (गोकुल निवासी नंद की पत्नी यशोदा ने श्री कृष्ण जी को पाला था)। कानु = कान्हा, कृष्ण जी। अचेत मूढ़ मन = हे गाफिल मूर्ख मन! चेति = याद रख। अंति = आखिरी समय। जिनि = जिस (परमात्मा) ने। धरि = धर के। गिआनु = जान पहिचान।2।

अर्थ: हरि नाम का वणज करने आए हे जीव मित्र! (जिंदगी की) रात के दूसरे पहर में (संसार में जनम ले के जीव को परमात्मा के चरणों का वह) ध्यान भूल जाता है (जो उस को माँ के पेट में रहने के समय होता है)। हे बंजारे मित्र! (जन्म ले के जीव घर के) हरेक जीव के हाथ पर (ऐसे) नचाते हैं जैसे यशोधा के घर में श्री कृष्ण जी को। (नव जन्मा) जीव हरेक के हाथ में नचाया जाता है (खिलाया जाता है), माँ कहती है कि ये मेरा पुत्र है। पर, हे मेरे गाफिल मूर्ख मन! याद रख, आखिरी समय में कोई भी चीज तेरी नही बनी रहेगी।

जीव अपने मन में उस प्रभू के साथ गहरी सांझ डाल के उसे याद नहीं करता, जिसने इसकी बंतर (रचना) बना कर इसे पैदा किया है।

हे नानक! कह - (जिंदगी की) रात के दूसरे पहर में (संसार में जन्म ले के) जीव को प्रभू चरणों का ध्यान भूल जाता है।2।

तीजै पहरै रैणि कै वणजारिआ मित्रा धन जोबन सिउ चितु ॥ हरि का नामु न चेतही वणजारिआ मित्रा बधा छुटहि जितु ॥ हरि का नामु न चेतै प्राणी बिकलु भइआ संगि माइआ ॥ धन सिउ रता जोबनि मता अहिला जनमु गवाइआ ॥ धरम सेती वापारु न कीतो करमु न कीतो मितु ॥ कहु नानक तीजै पहरै प्राणी धन जोबन सिउ चितु ॥३॥ {पन्ना 75}

उच्चारण: तीजै पहरै रैणि कै वणजारिआ मित्रा धन जोबन सिउ चित॥ हरि का नाम न चेतही वणजारिआ मित्रा बधा छुटहि जित॥ हरि का नाम न चेतै प्राणी बिकल भयआ संग मायआ॥ धन सिउ रता, जोबन मता, अहिला जनम गवायआ॥ धरम सेती वापार न कीतो करम न कीतो मित॥ कहु नानक तीजै पहरै प्राणी धन जोबन सिउ चित॥३॥

पद्अर्थ: न चेतही = तू नहीं चेतता। बधा = बंधा, (धन जोबन के मोह में) बंधा हुआ। जितु = जिस नाम के द्वारा। बिकुल = व्याकुल, मति हीन। रता = रॅता, रंगा हुआ। जोबनि = यौवन (के नशे) में। अहिला = आहला, बढ़िया, श्रेष्ठ। करमु = ऊँचा आचरण, श्रेष्ठ कर्म।3।

अर्थ: हरि नाम का वणज करने आए हे जीव मित्र! (जिंदगी की) रात के तीसरे पहर में तेरा मन धन से तथा जवानी के साथ लग गया है। हे बंजारे मित्र! तू परमात्मा का नाम याद नहीं करता, जिसकी बरकति से तू (धन जोबन के मोह के) बंधनों में से निजात पा सके।

जीव माया (के मोह) में इतना खो जाता है कि ये परमात्मा का नाम याद नहीं रखता। मन के रंग में रंगा जाता है, जवानी (के नशे) में मस्ता जाता है, (और इस तरह) श्रेष्ठ मनुष्य जनम गवा लेता है, ना इसने धर्म (भाव, हरि नाम सिमरन) का व्यापार किया, और ना ही इसने उच्च आत्मिक जीवन को अपना मित्र बनाया।

हे नानक! कह– (जिंदगी की रात के) तीसरे पहर में जीव ने धन से और जवानी से ही चित्त जोड़े रखा।3।

चउथै पहरै रैणि कै वणजारिआ मित्रा लावी आइआ खेतु ॥ जा जमि पकड़ि चलाइआ वणजारिआ मित्रा किसै न मिलिआ भेतु ॥ भेतु चेतु हरि किसै न मिलिओ जा जमि पकड़ि चलाइआ ॥ झूठा रुदनु होआ दुोआलै खिन महि भइआ पराइआ ॥ साई वसतु परापति होई जिसु सिउ लाइआ हेतु ॥ कहु नानक प्राणी चउथै पहरै लावी लुणिआ खेतु ॥४॥१॥ {पन्ना 75}

उच्चारण: चउथै पहरै रैणि कै, वणजारिआ मित्रा, लावी आयआ खेत॥ जा जमि पकड़ि चलायआ वणजारिआ मित्रा किसै न मिलिआ भेत॥ भेत चेत हरि किसै न मिलिओ जा जम पकड़ चलायआ॥ झूठा रुदन होआ दोआलै खिन महि भयआ परायआ॥ साई वसत परापति होई जिस सिउ लायआ हेत॥ कहु नानक प्राणी चउथै पहरै लावी लुणिआ खेत॥४॥१॥

पद्अर्थ: लावी = फसल काटने वाला, यमदूत। जमि = जम ने। न मिलिआ भेतु = समझ ना पड़ी। चेतु = चित्त, इरादा। जा = जब। दुोआले = चारों ओर (‘दुोआले’ के अक्ष्रा ‘द’ में दो मात्राएं ‘ु’ व ‘ो’ लगीं हैं। असल शब्द ‘दुआलै’ है इसे पढ़ना ‘दोआलै’ है)। हेतु = हित, प्यार। लुणिआ = काटा।4।

अर्थ: हरि नाम का व्यापार करने आए हे जीव मित्र! (जिंदगी की) रात के चौथे पहर (भाव, बुढ़ापा आ जाने पर) (शरीर) खेत को काटने वाला (यम) आ पहुँचा। हे बंजारे मित्र! जब जम ने (आ के जीवात्मा को) पकड़ के आगे लगा लिया तो किसी (संबंधी) को भी ये समझ ना पड़ी कि ये क्या हो गया। परमात्मा के इस हुकम और भेद की किसी को भी समझ ना पड़ सकी। जब यम ने (जीवात्मा को) पकड़ कर आगे लगा लिया, तो (उसके मृतक शरीर के) के चारों तरफ व्यर्थ का रोना-धोना शुरू हो गया। (वह जिसको सारे ही संबंधी ‘मेरा मेरा’ कहा करते थे) एक छिन में ही वह पराया हो गया। जिससे (सारी उम्र) मोह किए रखा (और उसके अनुसार जो जो कर्म किए, अंत के समय) वह की कमाई सामने आ गई (प्राप्त हो गई)।

हे नानक! कह– (जिंदगी की रात के) चौथे पहर (भाव, बुढ़ापा आ जाने पर फसल) काटने वाले (यमदूतों) ने (शरीर) खेत को आ काटा।4।1।

सिरीरागु महला १ ॥ पहिलै पहरै रैणि कै वणजारिआ मित्रा बालक बुधि अचेतु ॥ खीरु पीऐ खेलाईऐ वणजारिआ मित्रा मात पिता सुत हेतु ॥ मात पिता सुत नेहु घनेरा माइआ मोहु सबाई ॥ संजोगी आइआ किरतु कमाइआ करणी कार कराई ॥ राम नाम बिनु मुकति न होई बूडी दूजै हेति ॥ कहु नानक प्राणी पहिलै पहरै छूटहिगा हरि चेति ॥१॥ {पन्ना 75}

उच्चारण: सिरीरागु महला १॥ पहिलै पहिरै रैणि कै, वणजारिआ मित्रा बालक बुधि अचेतु॥ खीर पीअै खेलाइअै, वणजारिआ मित्रा, मात पिता सुत हेतु॥ मात पिता सुत नेहु घनेरा मायआ मोह सबाई॥ संजोगी आयआ किरत कमायआ करणी कार कराई॥ राम नाम बिन मुकति न होई बूडी दूजै हेति॥ कहु नानक प्राणी पहिलै पहिरै छूटहिगा हरि चेति॥१॥

पद्अर्थ: बालक बुधि = बालक जितनी बुद्धि रखने वाला जीव। अचेतु = बेपरवाह। खीर = दुध। सुत हेतु = पुत्र का प्यार। घनेरा = बहुत। सबाई = सारी सृष्टि को। संजोगी = किए कर्मों के संयोग अनुसार। हेति = मोह में। चेति = चेत के, सिमर के।1।

अर्थ: हरि नाम का वणज करने आए जीव मित्र! (जिंदगी की) रात के पहले पहर में (जीव) बालकों की अक्ल वाला (अंजान) होता है। (नाम सिमरन से) बे-परवाह रहता है। हे वणजारे मित्र! (बाल उम्र में जीव माँ का) दूध पीता है और खेलों में ही मस्त रहता है, (उस उम्र में) माता पिता का (अपने) पुत्र से (बड़ा) प्यार होता है। माँ-बाप का पुत्र से बहुत प्यार होता है। माया का (ये) मोह सारी सृष्टि को (ही व्याप रहा है)। (जीव ने पिछले जन्मों में) कर्मों का जो संग्रह कमाया, उनके संजोग अनुसार (जगत में) जन्मा, (और यहां आ के पुनः उनके अनुसार) कर्म करता है, कार कमाता है।

दुनिया माया के मोह में डूब रही है, परमात्मा का नाम सिमरन के बिना (इस मोह में से) खलासी नहीं हो सकती।

हे नाक! कह– हे जीव! (जिंदगी की रात के) पहिले पहर में (तू बेपरवाह है), परमात्मा का सिमरन कर (सिमरन की मदद से ही तू माया के मोह से) बचेगा।1।

दूजै पहरै रैणि कै वणजारिआ मित्रा भरि जोबनि मै मति ॥ अहिनिसि कामि विआपिआ वणजारिआ मित्रा अंधुले नामु न चिति ॥ राम नामु घट अंतरि नाही होरि जाणै रस कस मीठे ॥ गिआनु धिआनु गुण संजमु नाही जनमि मरहुगे झूठे ॥ तीरथ वरत सुचि संजमु नाही करमु धरमु नही पूजा ॥ नानक भाइ भगति निसतारा दुबिधा विआपै दूजा ॥२॥ {पन्ना 75}

उच्चारण: दूजै पहरै रैणि कै, वणजारिआ मित्रा, भरि जोबनि मै मति॥ अहिनिसि कामि विआपिआ, वणजारिआ मित्रा, अंधुले नाम न चिति॥ राम नाम घट अंतरि नाही होरि जाणै रस कस मीठे॥ गिआन धिआन गुण संजम नाही जनमि मरहुगे झूठे॥ तीरथ वरत सुचि संजम नाही करम धरम नही पूजा॥ नानक भाय भगति निसतारा दुबिधा विआपै दूजा॥२॥

पद्अर्थ: भरि जोबनि = भरी जवानी में। मै = मय, शराब। अहि = दिन। निसि = रात। चिति = चित्त में। घट अंतरि = हृदय में। होरि = (‘होर’ का बहुवचन)। जनमि मरहुगे = पैदा हो के मरोगे, जन्म मरण के चक्कर में पड़ जाओगे। भाइ = प्रेम से।2।

अर्थ: हरि नाम का वणज करने आए जीव मित्र! (जिंदगी की) रात के दूसरे पहर में भर-जवानी के कारण जीव की मति (अक्ल ऐसे हो जाती है जैसे) शराब (में गॅुट है)। हे वणजारे मित्र! (जीव) दिन रात काम वासना में दबा रहता है, (काम में) अंधे हुए को परमात्मा का नाम चित्त में (टिकाने की सुरति) नहीं (होती)। परमात्मा का नाम जीव के हृदय में नहीं बसता, (नाम के बिना) और मीठे कसेले अनेकों रसों के स्वाद पहचानता है।

हे झूठे (मोह में फंसे जीव)! तूने परमात्मा के साथ जान पहिचान नहीं डाली, प्रभू चरणों में तेरी सुरति नहीं, परमात्मा के गुण याद नहीं किए (इसका नतीजा ये होगा कि) तू जनम मरण के चक्कर में पड़ जाएगा।

(उच्च आत्मिक जीवन बनाने वाले सेवा-सिमरन के काम करने तो दूर रहे, कामुकता में मदहोश हुआ जीव) तीर्थ, व्रत, सुचि, संजम, पूजा आदिक कर्म काण्ड के धर्म भी नहीं करता। (वैसे) हे नानक! परमात्मा के प्रेम के द्वारा प्रभू की भक्ति के द्वारा ही (इस काम वासना से) बचाव हो सकता है, (भक्ति-सिमरन की ओर से) दुचित्तापन रखने से (कामादिक की शक्ल में) माया का मोह ही जोर डालता है।2।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh